Tuesday, November 3, 2009
इरोम शर्मिला की भूख हडताल के 10 साल, सत्ता तंत्र खामोश
इस 2 नवंबर को इरोम चनु शर्मिला के आमरण अनशन को दस साल हो चुका है. शर्मिला ने वर्ष 2000 में इसी दिन अपना आमरण अनशन शुरू किया था. उन्होंने यह क़दम मणिपुर में 1958 से चले आ रहे आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट के खिलाफ उठाया था. तात्कालिक कारण बना था, इसी दिन इंफाल से 10 किमी दूर मालोम गांव में असम रायफल्स के जवानों द्वारा बस के इंतजार में बैठे 10 आम लोगों को गोलियों से भून डालना. पुलिस के इस कृत्य को सही साबित करने के लिए मणिपुर में लागू क़ानून आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (अफसपा) था ही. तमाम मानवाधिकार संगठन इस पुलिसिया जुल्म के खिलाफ चिल्लाते रहे, आहत शर्मिला अनशन पर जा बैठीं, लेकिन अफसपा के रहते इन पुलिस वालों का कुछ नहीं बिगड़ना था, सो वास्तव में कुछ नहीं हुआ. यहीं से अत्याचार के खिलाफ शुरू हुई मणिपुर के एक दैनिक अ़खबार हुयेल लानपाऊ की स्तंभकार शर्मिला की गांधीवादी यात्रा.
बात यहीं पर खत्म नहीं होती, पुलिस और सरकार अड़ी है कि वह अफसपा को खत्म नहीं करेगी और दूसरी ओर शर्मिला की जिद है कि जब तक सरकार इस काले क़ानून को खत्म नहीं करती, तब तक वह अनशन नहीं तोड़ेंगी. सत्तामद में चूर हुक्मरानों को जब लगा कि शर्मिला की वजह से उनकी बहुत किरकिरी हो रही है, तो उन्होंने शर्मिला का मनोबल तोड़ने के लिए उन पर आईपीसी की धारा 309 लगाकर आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. और, इस तरह एक बार फिर यह साबित कर दिया गया कि सत्ता का चरित्र ही शोषक का होता है.
शर्मिला की रिहाई के लिए राज्य भर में हुए तमाम विरोध और मानवाधिकार संगठनों द्वारा किए गए प्रदर्शन के बावजूद सरकार ने उन्हें नहीं छोड़ा. इस क़ानून के तहत अधिकतम एक साल तक किसी को जेल में रखा जा सकता है और शर्मिला को भी सजा के अधिकतम समय तक जेल में रखा गया. लेकिन, जब सरकार ने देखा कि शर्मिला की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है और जनमत इस काले क़ानून के विरोध में बनता जा रहा है, तो उन्हें एक बार फिर क़ैद कर लिया गया. इसके बाद से शर्मिला सजिवा जेल द्वारा संचालित जवाहरलाल नेहरु अस्पताल, इंफाल में क़ैद हैं, जहां लाख कोशिशों के बावजूद शर्मिला के अनशन न तोड़ने पर जबरदस्ती नाक में नली लगाकर खाना खिलाया जा रहा है.
शर्मिला के लगातार दस साल से चले आ रहे इस आमरण अनशन ने इतिहास तो रच दिया, लेकिन इसकी जितनी धमक होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. सवाल उठता है कि आ़िखर ऐसा क्यों हुआ?
इसके जवाब में फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक कॉलिंस और लॉपियर के शब्दों को दोहरा देना ही ज़्यादा उचित प्रतीत होता है, ‘‘अहिंसात्मक आंदोलन का असर अच्छे आदमियों पर होता है.’’
शायद यही वजह है कि पिछले दस वर्षों से शर्मिला के आमरण अनशन पर बैठे रहने के बाद भी उनकी आवाज अनसुनी है, लेकिन इसके बाद भी वह टूटी नहीं हैं. वह आज भी इस काले क़ानून को हटाने की मांग पर कायम हैं और सरकार से अपने लिए रहम की भीख नहीं चाहतीं. वह न तो जमानत चाहती हैं और न ही अनशन तोड़ने को राजी हैं. वह कहती हैं कि सरकार पहले बगैर किसी शर्त के इस काले कानून को हटाए.
उल्लेखनीय है कि पूर्वोत्तर राज्यों में पिछले कई सालों से आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट की आड़ में निर्दोषों की हत्याएं होती आ रही हैं. आतंकवाद पर अंकुश लगाने के नाम पर पुलिस निर्दोषों के साथ फर्जी मुठभेड़ दिखाकर उन्हें मार देती है और आतंकियों को मार गिराने का ऐलान कर अपना कॉलर भी टाइट कर लेती है. 2 जुलाई 2009 को फर्जी मुठभे़ड में मारी गई रवीना और 2004 में असम रायफल्स के जवानों द्वारा हवालात में सामाजिक कार्यकर्ता मनोरमा देवी की बलात्कार के बाद हत्या तो मात्र नमूना भर है. आपको याद होगा कि मनोरमा हत्याकांड को लेकर पेबम चितरंजन ने अपने शरीर पर तेल छिड़क कर इसी साल आत्महत्या कर ली थी. लेकिन इसके बाद भी पुलिस वालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी. उक्त सारी घटनाएं यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि अफसपा की आड़ में मणिपुर में किस तरह पुलिसिया जुल्म और आतंक के साये में लोग जी रहे हैं.
हालांकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि शर्मिला के इस अहिंसक आंदोलन का कोई असर नहीं है. आम जनमानस तो पूरी तरह से शर्मिला को देवी मान बैठा है. दबाव में ही सही, इस बार का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद अगाथा संगमा मणिपुर जाकर शर्मिला इरोम से मिलीं और उन्होंने जनता को यह विश्वास दिलाया कि वह जोर-शोर से संसद में इस मुद्दे को उठाएंगी. हाल ही में गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि अफसपा कानून में संशोधनों को अंतिम रूप देकर स्वीकृति के लिए उसे यूनियन कैबिनेट में भेज दिया गया है. मालूम हो कि इस क़ानून को हटाने की मांग जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी की थी.
दूसरी तरफ शर्मिला के इस संघर्ष में कई और जांबाज साथिनें भी 10 दिसंबर 2008 से जुड़ गई हैं. मणिपुर के कई महिला संगठन पिछले साल से ही रिले भूख हड़ताल पर प्रतिदिन बैठ रहे हैं. यानी समूह बनाकर प्रतिदिन भूख हड़ताल. इनमें चनुरा मरूप, मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, आशा परिवार, नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमेन राइट्स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ ह्यूमेन राइट्स, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन एसोसिएशन, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामिल हैं.
इतना ही नहीं, विदेशों में भी शर्मिला के बचाव के लिए कई संस्थाएं सतत प्रयास कर रही हैं. इनमें पूरी दुनिया के मानवाधिकार संगठनों और एनआरआई, फ्रेंड्स ऑफ साउथ एशिया, एनआरआई फॉर ए सेक्युलर एंड हारमोनिएस इंडिया, पाकिस्तान ऑर्गेनाइजेशंस, पीपुल्स डेवलपमेंट फाउंडेशन, इंडस वैली थिएटर ग्रुप और इंस्टीट्यूट फॉर पीस एंड सेक्युलर स्टडीज आदि शामिल हैं.
शर्मिला अपने आंदोलन को लेकर कहती हैं कि हम लोगों ने क्या और कितना किया, इसको प्रतिशत में नहीं बताया जा सकता, मगर मुझे लगता है कि हम मंज़िल के क़रीब हैं. शर्मिला आगे कहती हैं कि वह उम्मीद करती रहीं कि देश के शासक वर्ग इस जंगल शासन से मुक्ति दिलाएगा. एक ऐसा शासन, जिसमें आम जनता बिना डर-भय के जी सके. लेकिन शासकों ने जब ऐसा कुछ नहीं किया तो मुझे सैकड़ों लोगों की ज़िंदगी बचाने के लिए खुद को समर्पित कर देना पड़ा. जब तक मणिपुरियों को इस काले कानून से मुक्ति नहीं मिल जाती, मेरा संघर्ष जारी रहेगा. शर्मिला की मां कहती हैं कि 10 साल हो गए, उसे घर से गए हुए. वह मुझसे मिलना चाहती थी. उसने मिलने के लिए चिट्ठी भेजी थी, मगर मैंने मना कर दिया. कहा कि जब तक तुम सफल नहीं हो जाती, मुझसे नहीं मिलोगी. तुम जब कामयाब होकर घर लौट आओगी, तब तुम्हारे हाथ का बना खाना खाऊंगी.
वसुधैव कुटुंबकम का नारा देने वाले इस देश ने गांधी, बुद्ध और महावीर जैसे अनेक अहिंसावादियों को जन्म दिया है, जिन्होंने न स़िर्फभारत को, बल्कि पूरी दुनिया को राह दिखाई. अब जबकि शर्मिला भी इसी सत्याग्रही रास्ते के 10 साल हो रहा हैं और इस अवसर पर दो से छह नवंबर तक का समय मानवाधिकार समर्थक संस्थाएं एवं लोग उम्मीद, न्याय व शांति के उत्सव के रूप में मना रहे हैं, तो क्या उम्मीद की जाए कि मणिपुर से अफसपा की कालिमा खत्म होगी. एक नयी सुबह आएगी या यह एक ऐसी काली रात है, जिसकी कोई सुबह नहीं.
अफसपा की आ़ड में पुलिसिया कारनामे
1. 1980 में उइनाम में इंडियन आर्मी ने चार लोगों को गोली चलाकर मारा.
2. 1984 में हैरांगोई थोंग के बोलीबॉल ग्राउंड में सीआरपीएफ की गोली से 13 लोग मारे गए.
3. 1985 में रिम्स गेट से गोली चलाने में नौ लोग मारे गए.
4. 2000 में तोंसेम लमखाई में इलेक्शन ड्यूटी के लिए जा रही बस में दस आदमी को गोली मारी.
5. 2000 के दो नवंबर को मालोम में असम रायफल्स द्वारा की गई गोलीबारी से वेटिंग शेड में गाड़ी का इंतजार कर रहे कुल 10 लोग मारे गए, जिसमें 10 साल की एक बच्ची भी शामिल थी.
फेस्टिवल ऑफ होप, जस्टिस एंड पीस का उद्घाटन
21वीं सदी शर्मिला की होगी
10 साल से चले आ रहे शर्मिला के अहिंसात्मक आंदोलन को सम्मानित करते हुए जस पीस फाउंडेशन के तत्वावधान में पांच दिवसीय कार्यक्रम ‘’फेस्टिवल ऑफ होप, जस्टिस एंड पीस’’ आयोजित किया जा रहा है. मुख्य अतिथि के रूप में प्रख्यात लेखिका महाश्वेता देवी और मैरा पायबी युमनाम मंगोल देवी के अध्यक्षता में जवाहरलाल नेहरू मणिपुर दांस एकेडमी हॉल में कार्यक्रम शुरू किया गया.
महाश्वेता देवी ने कहा कि 21वीं सदी शर्मिला की सदी होगी. शर्मिला की ईमानदारी, उनका समर्पण, साहस, आध्यात्म और आत्मविश्वास वाकई लाजवाब है. शर्मिला अहिंसा के पर्याय कहे जाने वाले महात्मा गांधी और गौतम बुद्ध से तुलना तुलना की जाने लायक महिला है. कार्यक्रम में महाश्वेता देवी ने आगे कहा कि शर्मिला के इस समर्पण को देखते हुए 2010 के फरवरी में दिया जाने वाला पहला ‘मेआइलाम फाउंडेशन एवार्ड’ शर्मिला को दिया जाएगा. यह एवार्ड केरल की मेआइलामा नामक एक मलयाली लडकी जिसने ‘कोका कोला’ के विरोध में आंदोलन किया था, की याद में शुरू किया जा रहा है. शर्मिला को लेकर दिप्ती प्रिया महरोत्रा की किताब ‘बर्निंग ब्राइट’ बंगाली भाषा में तत्काल अनुवाद करने की भी उन्होंने घोषणा की. यह किताब भारत की विभिन्न भाषाओं में अनुवाद कर शर्मिला को भारत के हर जनता को बताना जरूरी है. आगे महाश्वेता देवी ने शर्मिला की प्रशंसा की कि शर्मिला विशाल हिमालय की तरह है, बडा वृक्ष और दिलदार नदी के बराबर है. साथ में शर्मिला केवल मणिपुर राज्य की नहीं हो सकती है, वह पूरे भारत की है. उन्होंने शर्मिला से एक बार मिलने की इच्छा जाहिर की.
कार्यक्रम में दीप्ति प्रिया महरोत्रा की लिखी किताब ‘ब्रनिंग ब्राइट’ का लोकार्पण किया गया. द्रिक इंडिया और पीस काउंट ने एक फोटो मेला भी मणिपुरी डांस एकाडमी कंप्लेक्स में लगाया था. ज्ञात हो कि दीप्ति प्रिया महरोत्रा की किताब ‘ब्रनिंग ब्राइट’ का हिंदी अनुवाद का काम दिनिस पब्लिकेशन ने शुरू किया गया. मुख्य अतिथि ने द्रिक इंडिया, पीस काउंट, इनसाफ, जेलियांगरोंग प्रतिनिधि, सलाई पुनसिफम, बुधिस्ट काउंसिल, मुसलिम प्रतिनिधि, मणिपुर गीता मंडल, दिभाइन लाइफ सोसायटी, अरियान थियेटर, कलम, नहाखोल आदि के प्रतिनिधियों से बातचीत की.
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5 comments:
इस पोस्ट के लिए बहुत बहुत शुक्रिया । हमारे दल ने फैसला लिया है कि इस नवम्बर महीने में एक दिन अपने जिले मुख्यालय में एक दिन ईरोम शर्मीला के समर्थन में उपवास रखा जाएगा तथा एक परचा छापा जाएगा। यह निर्णय समाजवादी जनपरिषद के राष्ट्रीय सम्मेलन में लिया गया है ।
अफ़सोस की बात है...इलोम शर्मिला को हमारा सलाम...
बहुत विस्तार से जानकारी दी है।आभार।
लेकिन लगता नही कि सरकार अभी इस ओर ध्यान देगी।वह इसे सुरक्षा का मुद्द्दा बना कर लटका सकती है....लेकिन इस मे सुधार होना चाहिए......वैसे शर्मिला के इस हिम्मत की दाद देनी चाहिए....जो...इतने लम्बे समय से लड़ रही है.....
साहसी सत्याग्रही इरोम शर्मिला के समर्थन में बनारस में दिन भर का धरना और सभा का आयोजन हुआ । विस्तृत रपट । मणीपुर की संघर्षरत जनता ऐसे समूहों को पहचाने जो उन्हें अपने देश का मानते हैं और उनका समर्थन करते हैं ।
आप भले ही मुझ से सहमत नहीं हो, पर सिर्फ 60से 62सालों में खत्म हो चुके भारतीय लोकतंत्र की जिंदा मिसाल हैं इरोम शर्मिला। हां, अमेरिका परस्त गुलाम भारत की गांधी भी हैं इरोम, जिनको मार डालना चाहती है सरकारें। अंग्रेज गांधी को मारना नहीं चाहते, क्योंकि गांधी के साथ आम लोग थे। हां, इरोम के साथ हम भी खड़े हैं। कदम-कदम पर उनके साथ हैं। इरोम आपके संषर्घ को मैं खुदा की बंदगी मानकर सिजदा करता हूं।
इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल की खबर पहली बार आपके ब्लाग से मुझ तक पहुंची। इसके लिए शुक्रिया।
एम अखलाक
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