यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, November 15, 2013

क्षेत्रीय राजनीति का नया प्रयोग

नॉर्थ ईस्ट रीजनल पॉलिटिकल फ्रंट 

पूर्वोत्तर की लगभग सभी प्रादेशिक पार्टियों ने मिलकर नॉर्थ ईस्ट रीजनल पॉलिटिकल फ्रंट का गठन किया है. 20 अक्टूबर को इस फ्रंट के गठन के बाद फ्रंट की ओर से कहा गया कि इसका मक़सद पूर्वोत्तर से जु़डे विभिन्न मसलों पर एकजुट होकर आवाज़ उठाना है. फ्रंट जल, जंगल, जमीन के मुद्दों को उठाने के साथ उन मसलों को भी उठाएगा, जो भाजपा और कांग्रेस की चिंताओं में शामिल नहीं हैं. पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में कांग्रेस पार्टी की सरकारें रही हैं, लेकिन पार्टी पूर्वोत्तर के वास्तविक मुद्दों को सुलझाने में असफल रही है. अब देखना यह है कि यह फ्रंट कितना सफल हो पाता है.

पूर्वोत्तर के कई अहम मसलों पर एक साथ सामना करने और पूर्वोत्तर की सारी प्रादेशिक पार्टियों को मज़बूत करने के उद्देश्य से नॉर्थ ईस्ट रीजनल पॉलिटिकल फ्रंट का गठन 20 अक्टूबर को किया गया है. इस फ्रंट का संयोजक नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) नागालैंड के नेता और वर्तमान मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो को बनाया गया है. मुख्य सलाहकार असम के पूर्व मुख्यमंत्री और असम गण परिषद (एजीपी) के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंत, सलाहकार सिक्किम के मुख्यमंत्री पवन चामलिंग, मिजोरम के पूर्व मुख्यमंत्री जोराम थांगा और मेघालय के पूर्व मुख्यमंत्री दोंकूपर राय को बनाया गया. गुवाहाटी स्थित ब्रह्मपुत्र होटल में आयोजित पूर्वोत्तर की क्षेत्रीय पार्टियों की इस बैठक में क्षेत्रीय पार्टियों के नेताओं ने हिस्सा लिया था. बैठक में साथ देने अकाली दल के सुरजीत सिंह बरनाला, तेलुगूदेशम पार्टी के अध्यक्ष चंद्रबाबू नायडू भी शामिल थे. हाल ही में प्रफुल्ल कुमार महंत ने दिल्ली में चंद्र बाबू नायडू से मुलाकात की थी. साथ में मणिपुर पीपुल्स पार्टी के अध्यक्ष एन सोभाकिरण, उपाध्यक्ष एच. मनिसना और प्रवक्ता हैक्रुजम नवश्याम, मणिपुर स्टेट कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष वाई मणि और मणिपुर पीपुल्स डेमोक्रेटिक फ्रंट के अध्यक्ष जी. तोनसना शर्मा आदि ने हिस्सा लिया था. इस फ्रंट का हेडक्वार्टर गुवाहाटी में बनाया जाएगा. पूर्वोत्तर की सभी रीजनल पार्टियों से तीन-तीन प्रतिनिधियों को समन्वयक के तौर चुना गया है. मिजो नेशनल फ्रंट अपने राज्य में चुनाव के चलते बैठक में शामिल नहीं हो पाया. मगर उसने यह आश्‍वासन ज़रूर दिया कि इस फ्रंट में वो भी हिस्सा लेगा. 

बहरहाल, फ्रंट का गठन होने के बाद संयोजक नेफ्यू रियो ने कहा कि नॉर्थ ईस्ट रीजनल पॉलिटिकल फ्रंट एक पॉलिटिकल पार्टी होगी. यह प्रादेशिक राजनीतिक दलों की सामूहिक ताक़त होगी. लोकसभा चुनावों में भी मिल-जुल कर आपस में सहमति से अपना प्रतिनिधि घोषित करेंगे. उन्होंने कहा कि केंद्र सरकार पूर्वोत्तर को एक ही नज़र से देखती है. उनके लिए पूर्वोत्तर के मायने असम, इसलिए बाक़ी राज्यों को उपेक्षा का शिकार होना पड़ता है. इससे बचने के लिए सभी प्रांतीय राजनीतिक पार्टियों का समूह यह फ्रंट बना रहा है. राज्यों के सार्वजनिक मुद्दों को मिल कर सामना करेंगे. आने वाले लोकसभा चुनाव में भी फ्रंट के घटक दल एक साथ सामना करेंगे. उन्होंने साफ किया कि हम कांग्रेस और बीजेपी का साथ कभी नहीं देंगे. 

इस फ्रंट का मक़सद पूर्वोत्तर के राज्यों में व्याप्त कई महत्वपूर्ण समस्याओं का मिलकर सामना करना है. कल्चर, सीमा, सोशल पॉलिटिकल और इकॉनोमिक्स फ्रंट की रक्षा करना और संविधान के अनुसार सिक्स शिड्यूल के तहत राज्यों को जो लाभ मिलना चाहिए, वह अब तक नहीं मिला. फ्रंट का मकसद उसके लिए आवाज़ उठाना है. चीन का अरुणाचल प्रदेश पर सीमा बढ़ाने और अवैध कब्ज़ा करने के विरोध में केंद्र को तत्काल सूचित करेंगे, ताकि अवैध कब्ज़ा रोका जा सके. केंद्र सरकार को चीन पर तत्काल प्रभाव से कार्रवाई करनी चाहिए. ऊपरी ब्रह्मपुत्र पर डैम बनाकर नदी को मोड़ने की चीन की प्रक्रिया को रोकना होगा. ब्रह्मपुत्र पूर्वोत्तर की जान है, ऐसे में केंद्र सरकार की असंवदेन-शीलता पर फ्रंट द्वारा असंतुष्टि व्यक्त की गई. पूर्वोत्तर को लेकर केंद्र सरकार चीन पर स़ख्त क़दम उठाने होंगे. वैसे कांग्रेस सरकार कई वर्षों से पूर्वोत्तर के कई राज्यों में राज कर रही है. मगर जनता के दुख-दर्द समझने में सक्षम नहीं है. मणिपुर, असम, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम और मेघालय में कांग्रेस की सरकार है. वहां के आदिवासियों की मूलभूत समस्याएं आज भी वैसी की वैसी बनी हुई हैं. कहने को तो आज़ादी के 65 वर्ष हो गए, मगर भ्रष्टाचार का स्तर इतना बढ़ गया है कि आम जनता गरीबी का जीवन जीने के लिए विवश है. छोटे-मोटे सरकारी काम के लिए भी घूस देनी पड़ती है. फ्रंट मणिपुर के मुद्दों पर भी आवाज़ उठाएगा. हाल में इंडो म्यांमार बॉर्डर फेंसिंग का मुद्दा गरम रहा. बर्मा द्वारा बॉर्डर फेंसिंग में अवैध कब्ज़ा किया गया है. इस कब्जे को तत्काल रोकना होगा, क्योंकि बांग्लादेश 15 किलोमीटर मणिपुर की तरफ़ बढ़ा कर फेंसिंग कर रहा है. आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफस्पा) के बारे में भी फ्रंट आवाज़ उठाएगा. पूर्वोत्तर में वर्षों से लागू अफस्पा वहां की जनता से जीने का अधिकार छीन रहा है. यह कितना भयानक क़ानून है, इसका उदाहरण इरोम शर्मिला प्रकरण को देखकर समझा जा सकता है. शर्मिला इस क़ानून को हटवाने के लिए पिछले 13 सालों से आमरण अनशन कर रही हैं. मगर सरकार कभी तैयार नहीं हुई.   

दूसरी बात कि नागालैंड के मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो अपने राज्य में एक महत्वपूर्ण नेता के तौर पर जाने जाते हैं. फ्रंट बनाने के बाद लग रहा है कि वे अपने राज्य में ही न सिमट कर पूरे पूर्वोत्तर में अपनी ख्याति पाना चाहते हैं. वे पूर्वोत्तर के नेता बन कर राष्ट्रीय राजनीति के फलक में उभरना चाहते हैं. त्रिपुरा और नागालैंड में कांग्रेस की सरकार नहीं है. नागालैंड में क्षेत्रीय पार्टी नागा पीपुल्स फ्रंट और त्रिपुरा में सीपीआई (एम) की सरकार है. त्रिपुरा में सीपीआई (एम) की छवि एक ईमानदार सरकार की है. वहां के आदिवासियों के लिए कोई ठोस क़दम अब तक नहीं उठाया गया. इसी वजह से वहां के आदिवासी अपने ही क्षेत्र में बेगाने हो गए. वहां के आदिवासी जो असली त्रिपुरावासी हैं, बाहरी बांग्लादेशी लोगों के अवैध कब्ज़े से जंगल में जीवन यापन करने को मजबूर हो रहे हैं. नागालैंड एकमात्र राज्य है, जो अपनी मर्जी का करता है, क्योंकि वहां की सरकार क्षेत्रीय पार्टी से बनी है. बीजेपी तो पूर्वोत्तर में आज तक कोई ख़ास जगह बना नहीं पाई है.    

वैसे घोटालों और महंगाई से त्रस्त पूर्वोत्तर के लोग इस बार के लोकसभा चुनाव में अपने मतदान के दम पर अपने प्रतिनिधि चुनेंगे. विकास के नाम पर कांग्रेस सरकारें जनता की ज़मीन हड़प रही हैं. कम दामों में कभी अंतरराष्ट्रीय हवाई अड्डा बनाने के नाम पर तो कभी नेशनल हाइवे के नाम पर ग़रीब जनता से ज़मीन हड़प रही हैं. ये सरकारें विदेशी कंपनियों को प्राकृतिक संसाधनों को हड़पने की इजाज़त खुल कर दे रही हैं. वे विरोध करने वालों पर गोली चलवाती हैं. ऐसे में जनता अगर कांग्रेस से परेशान है तो वह लोगों की बात सुनने वाले और समझने वाले जनप्रतिनिधि चुनेंगे. अगर नहीं तो स्थिति जस की तस बनी रहेगी. जब तक वोट में अपने अधिकार का सही इस्तेमाल नहीं करेंगे, तब तक कोसते रहेंगे.  

मजे की बात यह है कि पीए संगमा के नेतृत्व वाली पार्टी नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी को नहीं बुलाया है. 2009 में भी एनसीपी लीडर पूर्व लोकसभा स्पीकर पीए संगमा ने पूरी कोशिश कर क्षेत्रीय पार्टियों का गठन किया था- नार्थ ईस्ट पीपुल्स फ्रंट. संगमा को पता था कि लोसकभा में पूर्वोत्तर के 25 एमपी हैं. इसके द्वारा संसद में एक बड़ा बदलाव लाया जा सकता है. मगर यह प्रयोग सफल नहीं हुआ. एक आश्‍चर्यजनक सवाल यह भी है कि सबसे ज्यादा अलगाव की भावना पूर्वोत्तर में है. इन राज्यों के लोग केंद्र सरकार पर यक़ीन नहीं करते, मगर चुनाव में वोट कांग्रेस को ही दिया जाता है. जल, जंगल, ज़मीन की बात करने वाली स्थानीय पार्टियों का तो एक भी प्रतिनिधि सफल नहीं हो पाता है. उदाहरण के तौर पर पिछली बार मणिपुर की क्षेत्रीय  पार्टी मणिपुर पीपुल्स फ्रंट द्वारा एक भी प्रतिनिधि नहीं ला पाने की वजह से चुनाव आयोग ने इसकी मान्यता बर्ख़ास्त कर दी थी. 

इन हालातों में कमज़ोर पड़ीं क्षेत्रीय पार्टियां कैसे अपनी ताक़त जुटा पाएंगी और वर्षों से शासन कर रही कांग्रेस सरकार का सामना कर पाएंगी? अब देखना यह है कि कांग्रेस और बीजेपी के खिलाफ यह फ्रंट आने वाले चुनाव में क्या चमत्कार दिखाएगा और कितने उम्मीदवार संसद में भेज पाएगा, इसकी पहली झलक मिजोरम विधानसभा चुनाव के दौरान देखने को मिलेगी.

फ्रंट में शामिल दस पार्टियां
नगा पीपुल्स फ्रंट, नगालैंड
असोम गण परिषद, असम
यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी, मेघालय
मणिपुर पीपुल्स पार्टी, मणिपुर
मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी
डेमोक्रेटिक पीपुल्स फ्रंट
इंडिजीनस पीपुल्स फ्रंट, त्रिपुरा
पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल
मिजो नेशनल फ्रंट, मिजोरम
हिल्स स्टेट्स डेमोक्रेटिक पार्टी, मेघालय

Friday, November 8, 2013

इरोम शर्मिला की भूख हड़ताल के 13 साल, सत्‍ता तंत्र खामोश

यह 2 नवंबर 2013 को इरोम चनु शर्मिला के आमरण अनशन को 13 साल हो चुका है. शर्मिला ने वर्ष 2000 में इसी दिन अपना आमरण अनशन शुरू किया था. उन्होंने यह क़दम मणिपुर में 1958 से चले आ रहे आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट के खिलाफ उठाया था. तात्कालिक कारण बना था, इसी दिन इंफाल से 10 किमी दूर मालोम गांव में असम रायफल्स के जवानों द्वारा बस के इंतजार में बैठे 10 आम लोगों को गोलियों से भून डालना. पुलिस के इस कृत्य को सही साबित करने के लिए मणिपुर में लागू क़ानून आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (अफसपा) था ही. तमाम मानवाधिकार संगठन इस पुलिसिया जुल्म के खिलाफ चिल्लाते रहे, आहत शर्मिला अनशन पर जा बैठीं, लेकिन अफसपा के रहते इन पुलिस वालों का कुछ नहीं बिगड़ना था, सो वास्तव में कुछ नहीं हुआ. यहीं से अत्याचार के खिलाफ शुरू हुई मणिपुर के एक दैनिक अ़खबार हुयेल लानपाऊ की स्तंभकार शर्मिला की गांधीवादी यात्रा. 

बात यहीं पर खत्म नहीं होती, पुलिस और सरकार अड़ी है कि वह अफसपा को खत्म नहीं करेगी और दूसरी ओर शर्मिला की जिद है कि जब तक सरकार इस काले क़ानून को खत्म नहीं करती, तब तक वह अनशन नहीं तोड़ेंगी. सत्तामद में चूर हुक्मरानों को जब लगा कि शर्मिला की वजह से उनकी बहुत किरकिरी हो रही है, तो उन्होंने शर्मिला का मनोबल तोड़ने के लिए उन पर आईपीसी की धारा 309 लगाकर आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. और, इस तरह एक बार फिर यह साबित कर दिया गया कि सत्ता का चरित्र ही शोषक का होता है. 

शर्मिला की रिहाई के लिए राज्य भर में हुए तमाम विरोध और मानवाधिकार संगठनों द्वारा किए गए प्रदर्शन के बावजूद सरकार ने उन्हें नहीं छोड़ा. इस क़ानून के तहत अधिकतम एक साल तक किसी को जेल में रखा जा सकता है और शर्मिला को भी सजा के अधिकतम समय तक जेल में रखा गया. लेकिन, जब सरकार ने देखा कि शर्मिला की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है और जनमत इस काले क़ानून के विरोध में बनता जा रहा है, तो उन्हें एक बार फिर क़ैद कर लिया गया. इसके बाद से शर्मिला सजिवा जेल द्वारा संचालित जवाहरलाल नेहरु अस्पताल, इंफाल में क़ैद हैं, जहां लाख कोशिशों के बावजूद शर्मिला के अनशन न तोड़ने पर जबरदस्ती नाक में नली लगाकर खाना खिलाया जा रहा है. 

शर्मिला के लगातार 13 साल से चले आ रहे इस आमरण अनशन ने इतिहास तो रच दिया, लेकिन इसकी जितनी धमक होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. सवाल उठता है कि आखिर ऐसा क्यों हुआ?  इसके जवाब में फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक कॉलिंस और लॉपियर के शब्दों को दोहरा देना ही ज़्यादा उचित प्रतीत होता है, ‘‘अहिंसात्मक आंदोलन का असर अच्छे आदमियों पर होता है.’’
शायद यही वजह है कि पिछले 13 वर्षों से शर्मिला के आमरण अनशन पर बैठे रहने के बाद भी उनकी आवाज अनसुनी है, लेकिन इसके बाद भी वह टूटी नहीं हैं. वह आज भी इस काले क़ानून को हटाने की मांग पर कायम हैं और सरकार से अपने लिए रहम की भीख नहीं चाहतीं. वह न तो जमानत चाहती हैं और न ही अनशन तोड़ने को राजी हैं. वह कहती हैं कि सरकार पहले बगैर किसी शर्त के इस काले कानून को हटाए.

उल्लेखनीय है कि पूर्वोत्तर राज्यों में पिछले कई सालों से आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट की आड़ में निर्दोषों की हत्याएं होती आ रही हैं. आतंकवाद पर अंकुश लगाने के नाम पर पुलिस निर्दोषों के साथ फर्जी मुठभेड़ दिखाकर उन्हें मार देती है और आतंकियों को मार गिराने का ऐलान कर अपना कॉलर भी टाइट कर लेती है. 2 जुलाई 2009 को फर्जी मुठभे़ड में मारी गई रवीना और 2004 में असम रायफल्स के जवानों द्वारा हवालात में सामाजिक कार्यकर्ता मनोरमा देवी की बलात्कार के बाद हत्या तो मात्र नमूना भर है. आपको याद होगा कि मनोरमा हत्याकांड को लेकर पेबम चितरंजन ने अपने शरीर पर तेल छिड़क कर इसी साल आत्महत्या कर ली थी. लेकिन इसके बाद भी पुलिस वालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी. उक्त सारी घटनाएं यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि अफसपा की आड़ में मणिपुर में किस तरह पुलिसिया जुल्म और आतंक के साये में लोग जी रहे हैं. 

हालांकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि शर्मिला के इस अहिंसक आंदोलन का कोई असर नहीं है. आम जनमानस तो पूरी तरह से शर्मिला को देवी मान बैठा है. दबाव में ही सही, इस बार का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद अगाथा संगमा मणिपुर जाकर शर्मिला इरोम से मिलीं और उन्होंने जनता को यह विश्वास दिलाया कि वह जोर-शोर से संसद में इस मुद्दे को उठाएंगी. मालूम हो कि इस क़ानून को हटाने की मांग जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी की थी. 

दूसरी तरफ शर्मिला के इस संघर्ष में कई और जांबाज साथियों भी 10 दिसंबर 2008 से जुड़ गई हैं. मणिपुर के कई महिला संगठन पिछले साल से ही रिले भूख हड़ताल पर प्रतिदिन बैठ रहे हैं. यानी समूह बनाकर प्रतिदिन भूख हड़ताल. इनमें चनुरा मरूप, मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, आशा परिवार, नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमेन राइट्‌स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ ह्यूमेन राइट्‌स, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन एसोसिएशन, ऑल इंडिया स्टूडेंट्‌स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामिल हैं. 

इतना ही नहीं, विदेशों में भी शर्मिला के बचाव के लिए कई संस्थाएं सतत प्रयास कर रही हैं. इनमें पूरी दुनिया के मानवाधिकार संगठनों और एनआरआई, फ्रेंड्‌स ऑफ साउथ एशिया, एनआरआई फॉर ए सेक्युलर एंड हारमोनिएस इंडिया, पाकिस्तान ऑर्गेनाइजेशंस, पीपुल्स डेवलपमेंट फाउंडेशन, इंडस वैली थिएटर ग्रुप और इंस्टीट्यूट फॉर पीस एंड सेक्युलर स्टडीज आदि शामिल हैं.

शर्मिला अपने आंदोलन को लेकर कहती हैं कि हम लोगों ने क्या और कितना किया, इसको प्रतिशत में नहीं बताया जा सकता, मगर मुझे लगता है कि हम मंज़िल के क़रीब हैं. शर्मिला आगे कहती हैं कि वह उम्मीद करती रहीं कि देश के शासक वर्ग इस जंगल शासन से मुक्ति दिलाएगा. एक ऐसा शासन, जिसमें आम जनता बिना डर-भय के जी सके. लेकिन शासकों ने जब ऐसा कुछ नहीं किया तो मुझे सैकड़ों लोगों की ज़िंदगी बचाने के लिए खुद को समर्पित कर देना पड़ा. जब तक मणिपुरियों को इस काले कानून से मुक्ति नहीं मिल जाती, मेरा संघर्ष जारी रहेगा. शर्मिला की मां कहती हैं कि 13 साल हो गए, उसे घर से गए हुए. वह मुझसे मिलना चाहती थी. उसने मिलने के लिए चिट्ठी भेजी थी, मगर मैंने मना कर दिया. कहा कि जब तक तुम सफल नहीं हो जाती, मुझसे नहीं मिलोगी. तुम जब कामयाब होकर घर लौट आओगी, तब तुम्हारे हाथ का बना खाना खाऊंगी.

वसुधैव कुटुंबकम का नारा देने वाले इस देश ने गांधी, बुद्ध और महावीर जैसे अनेक अहिंसावादियों को जन्म दिया है, जिन्होंने न स़िर्फ भारत को, बल्कि पूरी दुनिया को राह दिखाई. अब जबकि शर्मिला भी इसी सत्याग्रही रास्ते के 13 साल हो रहा हैं और इस अवसर पर मानवाधिकार समर्थक संस्थाएं एवं लोग उम्मीद, न्याय व शांति के उत्सव के रूप में मना रहे हैं. सेव शर्मिला सोलिडरिटी कैंपेन द्वारा पूरे देश में शर्मिला के समर्थन में कैंडल मार्च, एक दिन का उपवार का आयोजन किया जा रहा है. दिल्‍ली में भी राजघाट और दिल्‍ली यूनिवर्सिटी के आर्ट फेकल्‍टी में एक दिन का उपवास रख कर लोगों ने शर्मिला को समर्थन दिया. वार्धा में भी महात्‍मा गांधी अंतरराष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय में भी वहां के विद्यार्थियों ने नाटक का मंचन और कैंडल मार्च किया गया. देश के विभिन्‍न भागों से एक स्‍वर में शर्मिला के समर्थन की आवाज उठाई गई.
इससे क्या उम्मीद की जाए कि मणिपुर से अफसपा की कालिमा खत्म होगी. एक नयी सुबह आएगी या यह एक ऐसी काली रात है, जिसकी कोई सुबह नहीं.

अफसपा की आ़ड में पुलिसिया कारनामे

1. 1980 में उइनाम में इंडियन आर्मी ने चार लोगों को गोली चलाकर मारा.
2. 1984 में हैरांगोई थोंग के बोलीबॉल ग्राउंड में सीआरपीएफ की गोली से 13 लोग मारे गए.
3. 1985 में रिम्स गेट से गोली चलाने में नौ लोग मारे गए.
4. 2000 में तोंसेम लमखाई में इलेक्शन ड्‌यूटी के लिए जा रही बस में दस आदमी को गोली मारी. 
5. 2000 के दो नवंबर को मालोम में असम रायफल्स द्वारा की गई गोलीबारी से वेटिंग शेड में गाड़ी का इंतजार कर रहे कुल 10 लोग मारे गए, जिसमें 10 साल की एक बच्ची भी शामिल थी.