यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, July 19, 2013

सरकारी कर्मचारी करते हैं ड्रग्स का काला कारोबार

भारत-म्यांमार सीमा पर ड्रग्स लेकर जाते लोगों के पकड़े जाने का सिलसिला थम ही नहीं रहा है. ड्रग्स का यह काला और जानलेवा कारोबार धीरे-धीरे अब पूरे पूर्वोत्तर तक पहुंच चुका है. सबसे दु:खद और आश्‍चर्यजनक बात तो यह कि इस कारोबार में सरकारी तंत्र भी लिप्त है और उसके सबूत भी मिल रहे हैं. भारतीय सेना एवं मणिपुर पुलिस के जवान और मंत्रियों-राजनेताओं के बेटे आदि सभी इस कारोबार में बड़े पैमाने पर हिस्सेदारी कर रहे हैं. जब सेना के लोग इस काले कारोबार में लिप्त पाए जा रहे हैं, तो ऐसे में पूर्वोत्तर में लागू आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट पर भी सवाल खड़े होते हैं. कहीं सेना के लोग इस एक्ट की आड़ में तो यह सब नहीं कर रहे हैं, क्योंकि यह एक्ट उन्हें काफी अधिकार देता है?

बीते 26 मई को थौबाल ज़िले में पुलिस ने दो लोगों को बड़ी मात्रा में ड्रग्स के साथ गिरफ्तार किया, जिसकी क़ीमत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में 2.50 करोड़ रुपये आंकी गई. ड्रग्स की इस खेप के साथ पकड़े गए वांजिंग निवासी टी बोकुल और थौबाल निवासी एम डी ताजुद्दीन शाह पुलिस अधिकारी हैं. उक्त दोनों पुलिस अधिकारी एक सरकारी जिप्सी पर ड्रग्स की यह खेप लेकर नगालैंड से मणिपुर की तरफ़ आ रहे थे और वह भी बाकायदा यूनिफॉर्म में! जिप्सी में इफिड्रिन बाइउसेट नामक टैबलेट से भरे तीन बॉक्स लदे थे, बाद में टैबलेटों की कुल संख्या 3,19,200 पाई गई. पूछताछ में पता चला कि ड्रग्स की यह खेप सीमावर्ती शहर मोरे (मणिपुर) होते हुए म्यांमार (बर्मा) जानी थी. 

ह इस काले कारोबार से जुड़ी एक छोटी-सी घटना है. इससे बड़ी और हैरान करने वाली घटना तो यह है कि मणिपुर के पलेल नामक जगह से बीते 24 फरवरी को इंफाल में तैनात कर्नल रैंक के डिफेंस पीआरओ अजय चौधरी का 25 करोड़ रुपये के ड्रग्स के साथ पकड़ा जाना. अजय चौधरी के साथ छह अन्य लोग भी थे, जिनमें उसका असिस्टेंट आर के बब्लू, असिस्टेंट मैनेजर इंडिगो- ब्रोजेंद्रो, हाउपू हाउकिप, मिनथं डोंगेल, मिलान हाउकिप एवं साइखोलेन हाउकिप शामिल थे. साइखोलेन हाउकिप वर्तमान कांग्रेसी विधायक टी एन हाउकिप का बेटा है. अजय चौधरी भी ड्रग्स लेकर मोरे जा रहा था. ग़ौरतलब है कि भारत-म्यांमार मार्ग पर केवल 77 दिनों के अंदर 19 ड्रग्स कारोबारी गिरफ्तार किए गए, जिनमें तीन महिलाएं भी शामिल हैं. जानकार बताते हैं कि क़रीब 90 प्रतिशत ड्रग्स म्यांमार से भारत में आता है. म्यांमार से भारत में ड्रग्स लाने के लिए चार रूट इस्तेमाल किए जाते हैं, तामु (म्यांमार)-मोरे-इंफाल-कोहिमा-डिमापुर, न्यू सोमताल (एक गांव, भारत-म्यांमार सीमा)-सुगनु-चुराचांदपुर-इंफाल-कोहिमा-डिमापुर, खैमान (म्यांमार)-बेहियांग-चुराचांदपुर-इंफाल-कोहिमा-डिमापुर और सोमराह (म्यांमार)-तुइसांग (उख्रूल ज़िला मणिपुर)-खारासोम-जेसामी-कोहिमा (नगालैंड)-डिमापुर. इन चारों रूटों में सबसे ज़्यादा ड्रग्स मणिपुर-नगालैंड होते हुए भारत लाया जाता है.



स सिलसिले में हाल के दिनों की सबसे बड़ी घटना है, मोरे कमांडो के पूर्व ऑफिसर-इन-चार्ज एवं सब-इंस्पेक्टर आर के बीनोदजीत की गिरफ्तारी, जिसके पास से बरामद ड्रग्स की क़ीमत अंतरराष्ट्रीय बाजार में 3.64 करोड़ रुपये आंकी गई. बीनोदजीत को बीते 8 मई को गिरफ्तार किया. उसने 11 पुलिसकर्मियों को यह ड्रग्स ट्रांसपोर्ट करने का ऑर्डर दिया था, जो इसे बर्मा की ओर ले जा रहे थे. फिलहाल बीनोदजीत एवं उसके 11 मणिपुर पुलिस कमांडो साथी जेल में हैं. इस ड्रग्स की डिलीवरी मोरे में होनी थी. मोरे मणिपुर-म्यांमार की सीमा पर बसा एक छोटा-सा बाज़ार है और यह भारत का एक व्यापारिक केंद्र भी है. जबसे इंडो-म्यांमार ट्रेड एग्रीमेंट लागू हुआ, तबसे यहां व्यापार के क्षेत्र में काफी तेजी आ गई. रोजमर्रा के जीवन में इस्तेमाल होने वाली कई वस्तुएं म्यांमार से भारत लाकर बेची जाती हैं. इसके बाद उन्हें पूर्वोत्तर और अन्य भारतीय बाज़ारों में बेचा जाता है. ऐसे में सवाल यह है कि ऐसी जगह पर तैनात पुलिसकर्मियों का ड्रग्स के साथ पकड़ा जाना आख़िर क्या साबित करता है?

सी तरह बीते 29 मई को नार्कोटिक अफेयर्स बॉर्डर पुलिस (एनएबीपी) ने लंफेल के सेंट्रल एग्रीकल्चर यूनिवर्सिटी इरोइसेम्ब गेट से लगभग 50 लाख रुपये क़ीमत की 25 किलो इफिड्रिन टैबलेट्स के साथ तीन लोगों को धर दबोचा. इससे पहले एक जनवरी को 1.5 करोड़ रुपये का ड्रग्स इंफाल एयरपोर्ट से पकड़ा गया था, लेकिन उसे कौन ले जा रहा था, इसका पता ही नहीं चल सका. कई सामाजिक संगठनों ने इस मामले में किसी सरकारी आदमी की संलिप्तता का शक जताया था. ड्रग्स के इस काले कारोबार का पूर्वोत्तर पर विपरीत असर पड़ रहा है. इस मामले में पूरे पूर्वोत्तर में नगालैंड का दिमापुर सबसे आगे है, जबकि दूसरे नंबर पर मणिपुर का चुराचांदपुर ज़िला है. इन दोनों स्थानों पर आप खुलेआम ड्रग्स की खरीद-फरोख्त और उसका सेवन होते देख सकते हैं. यहां एचआईवी पॉजिटिव कई नवयुवक मिलेंगे, जो बहुत खराब हालत में हैं. सुबह से लेकर शाम तक, पूरे दिन टैबलेट्स खाना और सीरिंज के जरिए ड्रग्स लेना उनका एकमात्र काम है. वे जो सीरिंज अपने दोस्तों को लगाते हैं, उसे दोबारा किसी को भी लगा देते हैं, इससे एचआईवी पॉजिटिव होने की आशंका ज़्यादा रहती है. जाहिर है, उत्तर-पूर्व में चल रहे ड्रग्स के इस काले कारोबार को अगर समय रहते नहीं रोका गया, तो यह उग्रवाद से भी ज़्यादा बड़ी समस्या बन जाएगा.

Thursday, July 18, 2013

मनमोहन के असम पर बाढ़ की मार

मनमोहन सिंह खुद को असम का बेटा मानते हैं, लेकिन असम में बाढ़ से निपटने के लिए न तो आज तक कोई दीर्घकालीन योजनाएं बन सकी हैं और न ही प्रभावित लोगों के लिए भोजन, पेयजल एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की कोई व्यवस्था है. लोग खुले आसमान के नीचे जीवन गुजारने को मजबूर हैं, लेकिन पीएम को कोई फर्क नहीं प़डता, क्योंकि वे गरीबों और बेसहारा लोगों के लिए पीएम नहीं बने हैं, वे तो अमीरों के लिए पीएम बने हैं!



सम इन दिनों बाढ़ की चपेट में है. ब्रह्मपुत्र नदी का जलस्तर ख़तरे के निशान के ऊपर पहुंच गया है, इसलिए उसमें सभी तरह की नावों का परिचालन पूरी तरह प्रतिबंधित कर दिया गया है. क़रीब 250 गांव बाढ़ की चपेट में हैं. राज्य के नौ ज़िलों, धेमाजी, गोलाघाट, जोरहाट, कामरूप, करीमगंज, लखीमपुर, मोरिगांव, शिवसागर एवं तिनसुकिया में क़रीब 75,000 लोग बाढ़ से प्रभावित हुए हैं. 5,000 हेक्टेयर कृषि भूमि जलमग्न है. अनाज के साथ-साथ साग-सब्जी भी बाढ़ की शिकार हो गई है. छोटे-बड़े 30,000 से ज़्यादा जानवर बाढ़ के पानी में बह गए हैं. मोरिगांव जिले के जेंगपुरी इलाके में एक 12 वर्षीय किशोर की मौत हो जाने की ख़बर है. लमदिंग-बडरपुर रेलवे डिवीजन बाढ़ से प्रभावित होने के कारण वहां सामान लाना-ले जाना संभव नहीं है. इसलिए आवश्यक वस्तुओं की आपूर्ति सही समय पर न होने से उनकी क़ीमतें आसमान छू रही हैं. स्थिति की गंभीरता को देखते हुए इन ज़िलों में धारा 144 लागू कर दी गई है.

सम प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का निर्वाचन क्षेत्र है और वह स्वयं को असम का बेटा मानते हैं. देश में कहीं बा़ढ, तो कहीं सूखा, तो कहीं भयंकर आपदा से लोग परेशान हैं, लेकिन सच पूछिए तो इससे सरकार और सरकार के नुमाइंदे प्रधानमंत्री को कोई फर्क नहीं प़डता, जबकि प्रधानमंत्री को यह समझना चाहिए कि सिर्फ हवाई सर्वे कर लेने से प्रभावित लोगों की पी़डा दूर नहीं हो सकती. प्रधानमंत्री खुद आपदा प्राधिकरण के अध्यक्ष हैं, लेकिन उत्तराखंड की आपदा हो या असम में बा़ढ की मार, यानी हर स्तर पर यह सरकार कुछ नहीं कर पाई. आपदा और आपदा के बाद की बदइंतजामी लोगों ने अपनी आंखों से देखी. लोगोें ने यह भी देखा कि सरकार और सरकार के उच्चस्थ पदों पर बैठे लोग कैसे घटनास्थल पर जाकर लाशों के साथ राजनीति करते रहे. सरकार घटनास्थल पर राहत एवं बचाव कार्य तेज करने, खाद्य सामग्रियों की आपूर्ति, आपदा के बाद लाशों के स़डने के कारण महामारी न फैले, इसे रोकने के बदले हर जगह भाषणबाजी और बयानबाजी से ही काम चलाती रही. ऐसे सरकार के होने और न होने से क्या फायदा. आखिर मनमोहन सिंह कैसे कह सकते हैं कि उन्हें असम की चिंता है. वह किस हक के साथ कह सकते हैं कि वह असम के बेटे हैं?



सम में हर साल बाढ़ से करोड़ों रुपये का नुक़सान होता है, लेकिन राज्य एवं केंद्र सरकार ने आज तक कोई ठोस क़दम नहीं उठाए. बाढ़ से निपटने के लिए कोई दीर्घकालीन योजना भी नहीं बन सकी. राज्य सरकार की ओर से अब तक कोई राहत न मिलने के कारण बाढ़ पीड़ित खुले आसमान के नीचे दिन काट रहे हैं. बाढ़ में अपना घर-गृहस्थी गंवाने वाले लोग भोजन, पेयजल एवं स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से भी परेशान हैं.

ड़ोसी राज्य मेघालय, अरुणाचल प्रदेश एवं नगालैंड में भी मूसलाधार बारिश के कारण ब्रह्मपुत्र नदी का जलस्तर तेजी से बढ़ रहा है. यदि समय रहते ठोस क़दम न उठाए गए, तो शहरों में भी बाढ़ का पानी प्रवेश कर सकता है. गुवाहाटी में बाढ़ का पानी प्रवेश भी कर गया है. सबसे ज़्यादा बदतर स्थिति धेमाजी की है. जोरहाट के निमातीघाट एवं गोलाघाट के नुमलीगढ़ में ब्रह्मपुत्र और धनश्री नदी का पानी ख़तरे के निशान से ऊपर बह रहा है, इसलिए ब्रह्मपुत्र नदी के किनारे बसे 150 से अधिक परिवार घर छोड़कर चले गए हैं. बाढ़ की चपेट में आए 9 ज़िलों के 16 राजस्व क्षेत्रों के लोग काफी प्रभावित हुए हैं. कई इलाकों में सड़कों, पुलों एवं तटबंधों को काफी क्षति पहुंची है. इसके चलते राज्य के कई संपर्क मार्ग बंद पड़े हैं.

केंद्रीय मौसम विज्ञान विभाग की चेतावनी के बाद राज्य सरकार ने शोणितपुर, लखीमपुर, गोलाघाट एवं बरपेटा में रेड अलर्ट जारी कर दिया है. मौसम विज्ञान विभाग के अनुसार, इन ज़िलों में अगले कुछ दिनों तक 488 मिलीमीटर तक मूसलाधार बारिश होने की संभावना है. मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने बीते 3 जुलाई को खानापाड़ा स्थित अपने सरकारी आवास पर एक आपात बैठक बुलाई, जिसमें जल संसाधन मंत्री राजीव लोचन पेगु, मुख्य सचिव पी पी वर्मा समेत जल संसाधन, राजस्व एवं आपदा प्रबंधन, खाद्य एवं नागरिक आपूर्ति, वित्त, लोक निर्माण विभाग के आला अधिकारी मौजूद थे. बैठक में राज्य में बाढ़ और भू-कटाव की स्थिति पर भी चर्चा की गई. ग़ौरतलब है कि निमातीघाट, मोरिगांव, लखीमपुर, ढेकुवाखाना एवं बरपेटा की बेकी नदी में भू-कटाव लगातार जारी है. धेमाजी के ज़िला कार्यक्रम अधिकारी (आपदा प्रबंधन) के लुहित गोगोई ने बताया कि ज़िले में पांच राहत शिविर खोले गए हैं, जिनमें 850 लोगों को आश्रय दिया गया है.


धर, गोलाघाट ज़िले में काजीरंगा नेशनल पार्क के पास एक हाथी एवं एक हिरण के भी मारे जाने की ख़बर है. एक सींग के लिए प्रसिद्ध अपर असम का काजीरंगा नेशनल पार्क और लोवर असम की पोविटोरा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी भी बाढ़ की चपेट में है. वन विभाग के अधिकारियों का कहना है कि 430 स्न्वॉयर किलोमीटर इलाके में फैले काजीरंगा नेशनल पार्क का 70 प्रतिशत और 38.80 स्न्वॉयर किलोमीटर इलाके में फैली पोविटोरा वाइल्ड लाइफ सेंचुरी का 60 प्रतिशत से अधिक हिस्सा बाढ़ की चपेट में है. यहां के वन्यजीव ऊंचे स्थानों पर शरण लिए हुए हैं. ये दोनों पार्क पिछले कई सालों से बाढ़ की मार झेल रहे हैं. ग़ौरतलब है कि 1988, 1998, 2004 एवं 2008 में भी यहां भीषण बाढ़ आ चुकी है, जिनमें कई लोगों की जानें चली गईं और काफी लोग बेघर हो गए थे. बाढ़ के चलते काजीरंगा नेशनल पार्क में 1988 में 1203 और 1998 में 652 जानवरों की मौत हो चुकी है.

Tuesday, July 9, 2013

इनर लाइन परमिट राज्य के हित में नहीं

पलायन देश के हर हिस्से का एक मुद्दा है. पूर्वोत्तर के राज्यों में मज़दूरों की कमी है, साथ ही प्रशिक्षित पेशेवरों की भी, जैसे डॉक्टर, इंजीनियर, सीए आदि. ऐसे में इनर लाइन परमिट (आईएलपी) अल्प विकसित पूर्वोत्तर के विकास में बाधा साबित होगा. अवैध पलायन (बांग्लादेश, नेपाल एवं बर्मा से आने वालों को) बॉर्डर सिक्योरिटी फोर्स के जरिए रोका जा सकता है और उसके लिए इनर लाइन परमिट की ज़रूरत नहीं है. अगर मणिपुर में इनर लाइन परमिट लागू हुआ, तो कल त्रिपुरा, असम एवं मेघालय में भी इसकी मांग उठेगी और उससे देश की एकता एवं अखंडता प्रभावित होगी.


बीते साल 13 जुलाई को राज्य विधानसभा में इनर लाइन परमिट लाने का निर्णय लेने के बाद भी उसके कार्यान्वित न होने की वजह से ज्वाइंट कमेटी ऑफ इनर लाइन परमिट सिस्टम ने कई क़दम उठाने शुरू कर दिए हैं. एक जून से मणिपुर में बाहरी लोगों का आना रोकना और उन्हें वापस भेजना शुरू कर दिया गया है. नेशनल हाइवे 39 पर गुवाहाटी से आ रही गाड़ियों को सेकमाई एवं कंलातोंबी के बीच रोककर 60 बाहरी लोगों को वापस भेज दिया गया. बाहरी लोगों को लेकर आने वाली गाड़ियों पर एक महीने की रोक लगाई गई है. मुख्यमंत्री ओक्रम इबोबी ने तो आईएलपी को लेकर ज्वाइंट कमेटी को धमकी दी है. उन्होंने कहा कि सरकार खुद इस मुद्दे को गंभीरता से ले रही है.

इनर लाइन परमिट क्या है?
इनर लाइन परमिट ब्रिटिश शासनकाल में बंगाल ईस्टर्न फ्रंटियर रेगूलेशन, 1873 के तहत बनाया गया था. इसके अंतर्गत नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश एवं मिजोरम आते हैं. इसके अनुसार, भारत के किसी भी राज्य के नागरिक इन राज्यों पर बिना परमिट नहीं आ सकते. इनर लाइन परमिट का उद्देश्य यह है कि एक विशेष रक्षा एवं शांति प्रक्रिया द्वारा प्रदेश के आदिवासियों का अस्तित्व बचाना. यह परमिट राज्य सरकार द्वारा जारी किया जाता है. इसमें प्रावधान यह है कि बाहरी लोगों को यहां की ज़मीन नहीं बेची जा सकती और न ही बाहरी लोगों से शादी ही की जा सकती है.
इनर लाइन परमिट की मांग कितनी सही?
अब तक मणिपुर में इनर लाइन परमिट इसलिए नहीं था, क्योंकि यहां आज़ादी के पहले राजा-महाराजाओं का शासन था, न कि ब्रिटिश का. मणिपुर पूर्वोत्तर का एक छोटा राज्य है, जिसकी आबादी 25 लाख के आसपास है. 1961 से 2011 तक मणिपुर में आए बाहरी लोगों, यानी पुरुषों, महिलाओं एवं बच्चों की संख्या 7,04,488 हो गई है. यह कुल जनसंख्या का 30.71 प्रतिशत है. यह आंकड़ा 2011 की जनगणना के अनुसार है. बाहर से आने वाले लोग दो तरह के हैं. एक तो भारत के दूसरे राज्यों, यानी बिहार, उत्तर प्रदेश, पश्‍चिम बंगाल, राजस्थान एवं गुजरात से आए लोग, दूसरे वे, जो नेपाल, बर्मा एवं बांग्लादेश के हैं. बहरहाल, हमें मणिपुर में बाहर, यानी भारत के भीतर से आए बाहरी लोगों (मयांग) के आने का कारण जानना होगा. पहला कारण है व्यवसाय. दूसरा, रेलवे लाइन बिछाने के लिए मज़दूरों का आना. तिपाइमुख डैम का काम, बीआरटीएफ में नेपालियों की भर्ती एवं दक्षिण भारतीयों का मणिपुर रायफल्स में शामिल होना आदि. यह सही है कि इन्हीं कारणों से मणिपुर में बाहरी लोगों की संख्या बढ़ गई है, लेकिन सवाल यह है कि इन बाहरी लोगों की यहां के आर्थिक विकास में अहम भागीदारी है, चाहे वे मज़दूर हों या व्यवसायी. इंफाल का ख्वाइरम्बल बाज़ार बाहरी लोगों द्वारा चलाया जाता है. यह सही है कि विदेशियों, जैसे बांग्लादेशी, नेपाली एवं बर्मी लोगों की अवैध घुसपैठ रुकनी चाहिए, लेकिन अपने ही देश के लोगों को मिले संवैधानिक अधिकार (देश के किसी भी हिस्से में आने-जाने, व्यवसाय करने की छूट) का हनन आख़िर किस आधार पर किया जा सकता है. क्या मणिपुर भी महाराष्ट्र की तर्ज पर काम करना चाहता है, जहां लाखों उत्तर भारतीय मुंबई की अर्थव्यवस्था की रीढ़ बने हुए हैं, लेकिन कुछ शरारती एवं राजनीतिक तत्व उन्हें वहां से भगाने की बात करते हैं?

सवाल यह है कि आज मणिपुर अगर बाहरी लोगों का प्रवेश रोकता है, तो कल देश भर में फैले मणिपुर के लोगों के प्रति बाकी राज्यों और वहां के निवासियों के मन में दुर्भावना उपजने से कौन रोकेगा? हाल में एसएमएस के जरिए फैली अफवाह की वजह से कर्नाटक समेत कई जगहों से रातोरात उत्तर-पूर्व के लोगों को शहर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा था. क्या उस कृत्य को जायज ठहराया जा सकता है, हरगिज नहीं. भारत का संविधान हर नागरिक को यह अधिकार देता है कि वह अपने जीवनयापन के लिए भारत के किसी भी कोने में जा सकता है, रह सकता है. वहीं इनर लाइन परमिट की मांग करने वाली ज्वाइंट कमेटी उसके समर्थन में कुछ कारण गिनाती है, मसलन, बाहरी लोगों के चलते स्थानीय संस्कृति एवं भाषा पर कुप्रभाव पड़ रहा है. ड्रग्स का अवैध व्यापार और अपराध राज्य में बाहरी लोगों द्वारा होता है. लेकिन क्या सचमुच वास्तविक स्थिति यही है? आज मणिपुर के युवा, जो बाहर जाकर पढ़ाई करते हैं, क्या उनके रहन-सहन के स्तर में बदलाव नहीं आया है? बर्मा, थाईलैंड एवं चीन से तस्करी के जरिए ड्रग्स मणिपुर आते हैं, क्या इन सबके पीछे बाहरी लोगों का हाथ है? केंद्र ने अभी हाल में मुसलमानों के विकास के लिए 300 करोड़ रुपये मंजूर किए हैं, जिसका साफ़ मतलब यह है कि वहां मुसलमान पिछड़ेपन का शिकार हैं. सवाल यह है कि क्या इसके लिए भी बाहरी लोग ज़िम्मेदार हैं? नहीं, ऐसा नहीं है. इसलिए कमेटी की यह मांग ओछी राजनीति और क्षेत्रवाद की भावना से प्रेरित है, जिसे कतई जायज नहीं ठहराया जा सकता. राज्य सरकार को इस देश विरोधी, संविधान विरोधी एवं जन विरोधी क़दम के ख़िलाफ़ सख्त से सख्त क़दम उठाने चाहिए और इस मांग को खारिज करना चाहिए.


इनर लाइन परमिट वाले राज्यों की स्थिति
नगालैंड, अरुणाचल प्रदेश एवं मिजोरम में इनर लाइन परमिट चलता है, लेकिन इन तीनों राज्यों की स्थिति में यह परमिट कोई बेहतरी नहीं कर सका. नगालैंड सबसे ज़्यादा मनमानी करता है. इनर लाइन परमिट के चलते ही मणिपुर से नगालैंड जाकर बसे लोगों को नदी से मछलियां पकड़ने और खेतों से साग-सब्जी तोेड़कर खाने पर जुर्माना देना पड़ता है. यही स्थिति मिजोरम की है. वहां बाहरी लोग जब तक मजिस्टे्रट से डोमिसाइल, आईडी प्रूफ या परमिट नहीं लेते, तब तक वे रह नहीं सकते. अरुणाचल प्रदेश में रबड़, मोम, हाथी दांत और वन उत्पाद आदि लेता हुआ कोई बाहरी आदमी पकड़ा जाता है, तो इस परमिट के प्रावधानों के अनुसार, राज्य सरकार की तरफ़ से उसे सजा भी हो सकती है. मिजोरम अपने यहां आने वाले प्रत्येक बाहरी व्यक्ति से 120 रुपये लेता है. अगर समयावधि बढ़ानी है, तो 20 रुपये का फॉर्म अलग से भरना पड़ता है.


सरकार बनाम ज्वाइंट एक्शन कमेटी

बीते 20 मई को मुख्यमंत्री इबोबी ने कमेटी के प्रतिनिधियों के साथ बैठक की, जिसमें सरकार को कमेटी की ओर से सकारात्मक जवाब की अपेक्षा थी, लेकिन कमेटी ने विरोध करते हुए धमकी दे डाली. सरकार की ओर से कहा गया कि अगर इनर लाइन परमिट लागू हुआ, तो यह भारत को तोड़ने जैसा काम होगा, इसलिए कमेटी अपने क़दम वापस ले, वरना सरकार चुप नहीं बैठेगी. कमेटी का जवाब था कि मणिपुर और आदिवासियों को बचाने के लिए वह किसी से भी टकरा सकती है. पड़ोसी राज्यों, यानी नगालैंड, मिजोरम एवं अरुणाचल प्रदेश में इनर लाइन परमिट लागू है, तो क्या उसमें भारत तोड़ने जैसी बात नहीं है. और अगर यह परमिट वहां चल रहा है, तो मणिपुर में क्यों नहीं?