यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, October 9, 2015

सुदूर इलाकों में रह रहे लोगों के जीने-मरने पर भी निगाह रखे नैशनल मीडिया

दिल्‍ली नहीं सुनती मणिपुर की आवाज

राष्‍ट्रीय मीडिया में सक्रिय पत्रकारों में कितने लोगों ने सापम रॉबिनहुड का नाम सुना होगा ? कितने लोगों को मालूम है कि चूड़ाचांदपुर और इंफाल के बीच कितनी दूरी है और कितने लोगों को पता है कि पुलिस की गोली से मारे गए नौ आदिवासियों के शव मणिपुर के एक अस्‍पताल में पिछले एक महीने से पड़े-पड़े सड़ रहा है? जी हां, नैशनल मीडिया की हेडलाइंस से दूर चूड़ाचांदपुर के एक अस्‍पताल में नौ कुकी आदिवासियों के मृत शरीर एक मुर्दाघर में पड़े हैं. न तो राज्‍य सरकार हरकत में है, न ही केंद्र सरकार को इसकी परवाह है. इससे भी बड़ी बात यह है कि राष्‍ट्री मीडिया में इस खबर का कोई अता पता नहीं है.

विरोध की वजह
इस शवगृह में रेफ्रीजेरेशन की सुविधा नहीं है इसलिए लाशों को खराब होने से बचाने और दुर्गंध फैलने से रोकने के लिए कुकी समुदाय बर्फ, तरबूज और नींबू का इस्‍तेमाल कर रहा है. बहुत से लोगों के जेहन में सवाल उठेगा कि आखिर ये कुकी आदिवासी हैं कौन और क्‍यों ये अपनों के शव नहीं दफना रहे. इसे समझने के लिए इंफाल से कोई सत्‍तर किलोमीटर दूर चूड़ाचांदपुर जाइए. पिछले एक महीने से इस कस्‍बे को एक खामोशी और हताशा ने ढक रखा है लेकिन एक गुस्‍सा भी यहां भीतर ही भीतर उबल रहा है. 31 अगस्‍त को इसी जगह पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए थे. उस दिन कुकी समुदाय राज्‍य सरकार की ओर से बनाए गए तीन कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने सड़कों पर उतरा था.

भौगोलिक रूप से मणिपुर दो हिस्‍सों में बंटा है- घाटी और पहाड़ी. पहाड़ी में राज्‍य के दो प्रमुख आदिवासी समुदाय कुकी और नगा रहते हैं, जबकि घाटी में गैर आदिवासी मैतई समुदाय बहुसंख्‍या में है. घाटी का क्षेत्रफल पूरे राज्‍य का केवल दस प्रतिशत है लेकिन यहां आबादी का दबाव काफी है. मणिपुर के करीब साठ प्रतिशत लोग घाटी में रहते हैं. पहाड़ी इलाकों में गैर आदिवासियों के लिए जमीन खरीदने पर मनाही है लेकिन घाटी में जमीन खरीदने या बसने पर कोई रोक नहीं. इसलिए मैतई समुदाय के भीतर यह भावना घर कर रही है कि बाहरी लोगों के घाटी के इलाके में बसने से उनके संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है.

इसी बात को लेकर लंबे समय से मणिपुर में भी अरुणाचल, नगालैंड और मिजोरम की तर्ज पर इनर लाइन परमिट कानून की मांग होती रही है. मोटे तौर पर इस कानून के मुताबिक बाहरी लोगों को आने से पहले इजाजत मांगनी होती है. इस साल गर्मियों में दो महीने तक घाटी में इस मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन होते रहे. मैतई समुदाय के पंद्रह साल के छात्र सापम रॉबिनहुड की पुलिस की गोली लगने से मौत हो गई तो समुदाय ने करीब दो महीने तक रॉबिनहुड का अंतिम संस्‍कार नहीं किया, जब तक 31 अगस्‍त को सरकार ने ऐसे तीन कानून पास नहीं किए. लेकिन इन नए कानूनों के बनने के बाद कुकी और नगा समुदाय में गुस्‍सा भड़क गया.

उन्‍हें लग रहा है कि ये कानून इनर लाइन परमिट का ही बदला रूप हैं और इससे घाटी के लोगों द्वारा पहाड़ी इलाकों में रह रहे आदिवासियों की जमीन खरीद का रास्‍ता खुलेगा. आदिवासियों के इस गुस्‍से का केंद्र चूड़ाचांदपुर बना, जहां पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए. यहां भड़की हिंसा राष्‍ट्रीय मीडिया में जहां तहां जरूर दिखी लेकिन फिर गायब हो गई. आज कुकी कह रहे हैं कि वह अपने शहीदों को तभी दफनाएंगे जब सरकार इन कानूनों को वापस लेगी.

हिंसा, कर्फ्यू और अशांति के माहौल को झेलना मणिपुर के लोगों के लिए जिंदगी का हिस्‍सा बन गया है. मणिपुर में ताजा हिंसा के दौरान पेट्रोल करीब 200 रुपये लीटर हो गया था. यह खबर पहले सोशल मीडिया में आई, फिर राष्‍ट्रीय मीडिया में. लेकिन इस महंगाई की वजह हिंसा और कर्फ्यू नहीं बल्कि इंफाल को देश के बाकी हिस्‍सों से जोड़ने वाले हाईवे का कट जाना था. मणिपुर के लिए यह ज्‍यादती भी नई नहीं है. यहां अक्‍सर लोग महंगे पेट्रोल के अलावा 1200 से 1500 रुपये तक का एलपीजी सिलिंडर खरीदते रहे हैं. जिस वक्‍त मणिपुर जल रहा था, उसका पड़ोसी राज्‍य असम बाढ़ में डूबा था. असम और उससे लगे इलकों में हर साल दो महीने बाढ़ का तांडव होता है. लाखों लोग विस्‍थापित होते हैं और सैकड़ों मरते हैं लेकिन नेशनल मीडिया में यह साइड स्‍टोरी का हिस्‍सा ही बनता है.

हाशिए की आवाज
सवाल है कि दिल्‍ली को इन इलाकों की आवाज क्‍यों सुनाई नहीं देती? क्‍या इसलिए कि ये देश के सबसे कमजोर और कटे हुए हिस्‍से हैं. उत्‍तर पूर्व ही नहीं, मध्‍य भारत के छत्‍तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्‍यों में भी कोई दिलचस्‍पी नहीं दिखती. दिल्‍ली में 26 जनवरी को दो मेट्रो स्‍टेशनों के कुछ घंटे बंद रहने की खबर टीवी के प्राइम टाइम और अखबार के पहले पन्‍ने पर जगह बना लेती है लेकिन नॉर्थ ईस्‍ट का कोई इलाका महीनों जलता रहे तो भी हमारी नजर वहां तक नहीं जाती. अभी जब शहरों में महंगाई राष्‍ट्रीय मीडिया की चिंता का प्रमुख विषय बनी हुई है, झारखंड में सैकड़ों आदिवासी भोजन, काम और पेंशन के अधिकार को लेकर राज्‍य की राजधानी रांची की ओर मार्च कर रहे हैं. लेकिन क्‍या यह खबर दिल्‍ली तक पहुंचेगी?

हृदयेश जोशी
-लेखक सीनियर टीवी जर्नलिस्‍ट हैं