यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Tuesday, August 26, 2014

पूर्वोत्तर में भी पहुंची मोदी लहर

16वीं लोकसभा चुनाव का परिणाम सामने है. इस चुनाव में भाजपा को अप्रत्याशित परिणाम मिला. पूरे देश में मोदी की लहर का असर हुआ. पूर्वोत्तर में भी. यहां के सबसे ब़डे राज्य असम में पार्टी को काफी हद तक सफलता मिली वहीं पूरे पूर्वोेत्तर में पार्टी ने अपने सहयोगियों के साथ बेहतरीन जीत हासिल की. चुनाव अभियान के दौरान नरेंद्र मोदी ने पूर्वोत्तर में कई वायदे किए. अरुणाचल और त्रिपुरा की धरती पर मोदी ने चीन और बांग्लादेश को चुनौती दी. इंफाल में आईटी हब खोलने की बात की. मोदी के इन वायदों का असर पूर्वोत्तर के लोगों पर हुआ.
 
16 मई के नतीजे ने यह स्पष्ट कर दिया कि न सिर्फ उत्तर भारत, बल्कि पूर्वोत्तर में मोदी लहर देखी गई. पूर्वोत्तर के 8 राज्यों में लोकसभा की कुल 25 सीटें हैं. इनमें भाजपा की अगुवाई वाली एनडीए गठबंधन ने 10 सीटें हासिल की. गौरतलब है कि 2009 के लोकसभा के चुनाव में भाजपा के पास असम के 14 सीटों में 4 सीटें ही थीं. इसके अलावा पूर्वोत्तर के बाकी सात राज्यों में भाजपा शून्य पर थी. इस बार यह स्थिति पूरी तरह बदली है. इस बार असम में सात, नगालैंड में 1, मेघालय में 1 और अरुणाचल प्रदेश में 1 सीट जीतने में एनडीए सफल रहा है. अगर 2009 के नतीजे से तुलना करें, तो इस बार एनडीए की सफलता पिछली बार से ढाई गुना अधिक है.

पूर्वोत्तर में मोदी लहर के पहुंचने की बड़ी वजह यह है कि पहली बार किसी प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार ने अपनी रैलियों में विशेष ध्यान दिया. नरेंद्र मोदी ने अपने प्रचार अभियान के दौरान कुल सात बार पूर्वोत्तर में रैली की और उनकी रैलियों में जनता काफी बड़ी संख्या में जुटी. यह इस बात का संकेत था कि पूर्वोत्तर के लोगों का झुकाव मोदी, उनके भाषणों और वादों के प्रति हो रहा है. अभी तक तमाम दलों के बड़े नेताओं के एजेंडे में पूर्वोत्तर महत्वपूर्ण स्थान नहीं रखता था. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस हमेशा से यहां से जीतती आई है और वह इन क्षेत्रों सीटों के प्रति हमेशा आश्‍वस्त रहती थी. नरेंद्र मोदी ने कांग्रेस और वामदलों के इस मिथक को तोड़ने की पूरी कोशिश की और वे इसमें काफी हद तक सफल भी रहे. मोदी लहर की एक मिसाल यह भी है कि पूर्वोत्तर में भाजपा को अपने लिए उम्मीदवार तक के लाले पड़ जाते थे, लेकिन इस बार मणिपुर में ही वहां के नेताओं में भाजपा की तरफ से चुनाव लड़ने की होड़ सी लग गई. यानी वहां के नेता से लेकर जनता तक इस बात से वाकिफ थे कि अगर मोदी किसी मुद्दे पर वादा कर रहे हैं, तो उसे पूरा भी करेंगे. उनके सामने बतौर मुख्यमंत्री गुजरात में मोदी द्वारा किए गए कार्यों का उदाहरण था. दूसरी बात यह कि मोदी ने पूर्वोत्तर के लोगों के सम्मान की बात करके वहां की जनता का दिल जीत लिया. एक तरफ उन्होंने अरुणाचल में जाकर चीन को ललकारा, तो दूसरी तरफ त्रिपुरा में बांग्लादेशी घुसपैठ को लेकर कड़ा रुख अपनाने की बात कही. इनके अलावा पूर्वोत्तर के विकास का भी जिक्र मोदी ने अक्सर किया. चाहे वह इंफाल में आईटी हब बनाने की बात हो या पूरे पूर्वोत्तर के महिलाओं के रोजगार की बात. इन सभी मुद्दों ने पूर्वोत्तर में मोदी के पक्ष में एक माहौल बनाने का काम किया, जो हमें लोकसभा के नतीजों में दिखता है. अगर नतीजों की बात करें, तो यहां का परिणाम चौंकाने वाला रहा. हालांकि, पूर्वोत्तर में आजादी के बाद हुए चुनावों में कांग्रेस का ही कब्जा रहा है. असम में 14 सीटें हैं. इनमें भाजपा को सात सीटें मिलीं. कांग्रेस को तीन सीट मिली.इस बार भी मणिपुर में दोनों सीटों पर, इनर और आउटर, में कांग्रेस का ही कब्जा रहा. इनर में एक लाख से अधिक वोटों से कांग्रेस ने जीत हासिल की. दूसरे नंबर पर सीपीआई और तीसरे नंबर पर भाजपा है. आउटर में पंद्रह हजार वोट से कांग्रेस ने नगा पीपुल्स फ्रंट को हराया. तीसरे पंबर पर भाजपा है. मिजोरम में एक सीट है. कांग्रेस ने 10 हजार वोट से निर्दलीय उम्मीदवार को हराया. तीसरे नंबर पर आम आदमी पार्टी आई. मिजोरम में तो भाजपा की बुरी स्थिति बनी. त्रिपुरा में, त्रिपुरा ईस्ट और वेस्ट, दोनों सीटों पर सीपीआई (एम) का ही कब्जा रहा है. त्रिपुरा ईस्ट में सीपीआई (एम) 4 लाख से अधिक वोट से जीती. दूसरे नंबर पर कांग्रेस, तीसरे नंबर पर तृणमूल कांग्रेस और चौथे पर भाजपा है. त्रिपुरा वेस्ट में भी दूसरा और तीसरा स्थान कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस रहा. मेघालय में दो सीट शिलांग और तूरा है. यहां पर एक दोनों पार्टियोंे ने एक-एक सीट हासिल की है. शिलांग में कांग्रेस ने एक लाख से अधिक वोट से जीत हासिल की. दूसरे और तीसरे पर निर्दलीय और यूनाइटेड डेमोक्रेटिक पार्टी है. तूरा में नेशनल पीपुल्स पार्टी 40 हजार वोट से जीती और कांग्रेस दूसरे स्थान पर आई. अरुणाचल में दो सीट अरुणाचल ईस्ट और वेस्ट में कांग्रेस और भाजपा ने एक-एक पर जीत दर्ज की. अरुणाचल ईस्ट में कांग्रेस ने भाजपा को 13 हजार से हराया. तीसरे नंबर पर पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल है. अरुणाचल वेस्ट में भाजपा 33 हजार वोट से जीती. दूसरे और तीसरे नंबर पर कांग्रेस और पीपुल्स पार्टी ऑफ अरुणाचल रहे. सिक्किम में एक सीट है. सिक्किम डेमोक्रेटिक फ्रंट यहां 44 हजार वोट से जीता. दूसरे और तीसरे नंबर पर सिक्किम क्रांतिकारी मोर्चा और कांग्रेस है. नगालैंड में एक सीट है. राज्य में नगा पीपुल्स फ्रंट ने कांग्रेस को 4 लाख वोटों से हराया. यहां क्षेत्रीय पार्टी हमेशा बुलंद रही है. इस बार भी नगा पीपुल्स फ्रंट आगे रहा. पार्टी का इस चुनाव में भाजपा से गठबंधन रहा.

आखिर, नरेंद्र मोदी पूर्ण बहुमत से जीते. अबकी बार भाजपा की सरकार आ रही है. पूरे देश के लोगों ने उनको चुना. अब बारी है नरेंद्र मोदी की. जनता का विश्‍वास कितना जीत पाते हैं. साथ में पूर्वोत्तर लोगों को कितना आकर्षित कर पाते है. देश के इस हिस्से में की गई चुनावी रैलियों के दौरान किए गए वायदों को पूरा कर पाने में अगर मोदी सफल रहे तो शायद यहां की जनता उन्हें पूरी तरह स्वीकार करने से परहेज नहीं करेगी. और उनका असफल रहना कांग्रेस का अस्तित्व बचाए रख सकता है.

...जिन्हें अपने ही देश में वोट देने का हक़ नहीं


क्या मेघालय हिंदुस्तान का हिस्सा नहीं है? अगर यह सूबा इस देश का अंग है, तो मेघालय के क़रीब सात हज़ार लोगों को आज़ादी के 66 वर्षों बाद भी वोट देने का अधिकार क्यों नहीं है? आख़िर देश के बाकी हिस्सों की तरह यहां के लोगों को बुनियादी सुविधाएं मुहैया क्यों नहीं कराई गई हैं?
मेघालय को संपूर्ण राज्य का दर्ज़ा मिले चालीस साल गुज़र गए, लेकिन राज्य के एक समूह को आज भी चुनावों में वोट देने का अधिकार नहीं है. इस साल गारो जनजातीय समूह के 272 लोग संसदीय चुनाव में पहली बार हिस्सा लेंगे, हालांकि वे इससे पहले राज्य विधानसभा और स्वायत्त परिषद के चुनावों में मताधिकार का प्रयोग कर चुके हैं. ग़ौरतलब है कि लोकसभा चुनाव में पहली बार वोट देने जा रही गारो जनजाति पूर्वी खासी हिल्स ज़िले में बसी हुई है. इस समुदाय के 7000 लोगों ने आज़ादी के बाद से अभी तक किसी चुनाव में अपने मताधिकार का प्रयोग नहीं किया, क्योंकि उनके नाम राज्य की मतदाता सूची में शामिल नहीं हैं. मताधिकार से वंचित उक्त सभी लोग भारत-बांग्लादेश सीमा पर स्थित क़रीब 14 गांवों में पिछले कई वर्षों से रह रहे हैं. उनमें से स़िर्फ 272 लोगों के नाम मतदाता सूची में शामिल करके उन्हें मतदाता पहचानपत्र निर्गत किया गया है. बेशक वे पहली बार आम चुनाव में हिस्सा ले रहे हैं, लेकिन इसे विडंबना ही कहा जाएगा कि उन्हें अपने संसदीय क्षेत्र के उम्मीदवारों के बारे में कुछ भी पता नहीं है.

राज्य निर्वाचन आयोग का कहना है कि भारत एक लोकतांत्रिक देश है और यहां सभी नागरिकों को वोट देने का अधिकार है. आयोग के मुताबिक़, गारो जनजाति के 7000 लोगों को अभी तक मताधिकार नहीं मिला है, इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हुआ जा सकता. अगर सरकारी स्तर पर कोई लापरवाही है, तो उसे अविलंब दूर किया जाएगा, साथ ही मतदाताओं को जागरूक भी किया जाएगा. उल्लेखनीय है कि मेघालय में तीन प्रमुख जनजातियां हैं, गारो, खासी और जयंती. आबादी के लिहाज़ से गारो राज्य की दूसरी बड़ी जनजाति है. याद रखने वाली बात यह है कि वर्ष 1971 में हुए बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के समय क़रीब 1500 ग़ैर स्थानीय आदिवासियों को विस्थापन का दंश झेलना पड़ा था. यही वजह है कि वे भारत-बांग्लादेश अंतरराष्ट्रीय सीमा के निकट बसे 14 गांवों में तबसे रह रहे हैं. वे शासन-प्रशासन की तरफ़ से मिलने वाली सुविधाओं से वंचित हैं.

देर से ही सही, अगर स्थानीय गारो जनजाति के 272 लोगों को मतदान का अधिकार मिला है, तो उसका स्वागत होना चाहिए. स्थानीय प्रशासन को बुनियादी सुविधाएं मुहैया करानी चाहिए. गारो जनजाति बहुल सभी चौदह गांवों के लोगों को मनरेगा के तहत काम मिलना चाहिए, ताकि उनकी आर्थिक स्थिति में सुधार हो. राज्य एवं केंद्र सरकार को चाहिए कि वे उनके लिए शिक्षा एवं स्वास्थ्य की सुविधाएं प्रदान करें. बहरहाल, इस बीच पी ए संगमा के नेतृत्व वाली एनपीपी ने गारोलैंड राज्य की मांग का समर्थन किया है. गारो हिल्स स्टेट मूवमेंट कमेटी (जीएचएसएमसी) ने संगमा के इस ़फैसले का स्वागत किया है. उसके मुताबिक़, एनपीपी का यह ़फैसला क़ाबिल-ए-तारीफ़ है. ग़ौरतलब है कि गारो जनजाति की समस्याओं के मद्देनज़र एनपीपी ने अपने चुनावी घोषणापत्र में इस समुदाय के हितों को शामिल किया है. गारो हिल्स स्टेट मूवमेंट कमेटी की मानें, तो पी ए संगमा का यह निर्णय क्षेत्र की जनता के लिए सही साबित होगा. उसके अनुसार, संगमा बतौर सांसद काफ़ी अच्छा काम करेंगे. वहीं दूसरी तरफ़ पी ए संगमा के इस समर्थन पर मेघालय के मुख्यमंत्री डॉ. मुकुल संगमा ने नाराज़गी ज़ाहिर की है. उनके अनुसार, यह स़िर्फ राजनीतिक फ़ायदे के लिए किया गया एक ़फैसला है और यह गारो जनजाति के हितों के ख़िलाफ़ है. उन्होंने कहा कि पी ए संगमा गारो जनजाति के लोगों को बेवकूफ बना रहे हैं. मुख्यमंत्री ने पी ए संगमा को भाजपा का एजेंट तक क़रार दे दिया. उनके इस बयान से प्रदेश भाजपा नेताओं में गहरी नाराज़गी है. ग़ौरतलब है कि मेघालय में एनपीपी का भाजपा के साथ गठबंधन है. वर्ष 2012 में पी ए संगमा को एनसीपी से निलंबित कर दिया गया था. उसके बाद उन्होंने एनपीपी नामक पार्टी का गठन किया.  

बू्र शरणार्थियों के लिए बेमानी है लोकतंत्र का यह महापर्व

चुनाव में जनता के लिए मतदान से बढ़कर कुछ भी नहीं होता, लेकिन जिन्हें मतदान से वंचित कर दिया जाए उनके लिए लोकतंत्र के महापर्व का क्या अर्थ रह जाता है? दरअसल, मिजोरम के बू्र जनजाति पिछले पंद्रह वर्षों से अपनी पहचान और अधिकार की लड़ाई लड़ रहे हैं. ग़ौरतलब है कि वर्ष 1997 में एक मिजो वन अधिकारी की हत्या के बाद शुरू हई जातीय हिंसा के बाद ब्रू आदिवासी त्रिपुरा के कंचनपुर और पानिसागर के शरणार्थी शिविरों में अपना जीवन काट रहे हैं. इस घटना के डेढ़ दशक बीत जाने के बाद भी ब्रू जनजाति अपने ही देश में परायेपन के शिकार हैं. ग़ौरतलब है कि सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव के मद्देनज़र चुनाव आयोग ने यह निर्णय लिया है कि ब्रू आदिवासी शरणार्थियों को पोस्टल मतपत्रों के ज़रिए मत देने का अधिकार दिया जाएगा. हालांकि चुनाव आयोग के इस निर्णय पर मिजोरम के कुछ एनजीओ और युवा संगठनों ने विरोध किया है. इस बाबत उन्होंने रैलियां भी निकाली. इन रैलियों का नेतृत्व यंग मिजो एसोसिएशन (वाइएमए) ने किया.

इस बारे में यंग मिजो एसोसिएशन का कहना है कि, हमने अपना विरोध संदेश निर्वाचन आयोग के समक्ष भेजा है, लेकिन उनकी ओर से अभी तक कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है. इस बाबत मिजो जिरलाई पॉल (एमजेडपी) के अध्यक्ष, पांच ग़ैर सरकारी संगठनों और युवा निकायों के समन्वय समिति के सदस्यों ने भी इस मुद्दे पर विरोध करने का ऐलान कर दिया है. इन संगठनों की मांग है कि राहत शिविरों में रह रहे सभी शरणार्थियों को लोकसभा चुनाव से पहले मिजोरम वापस भेजा जाए और जो नहीं जाना चाहते हैं, उन लोगों का नाम मतदाता सूची से हटा दिया जाए. एमजेडपी के मुताबिक़ब्रू जनजाति शरणार्थियों ने अपनी मर्जी से वर्ष 1997 और 2009 में मिजोरम छोड़ा था. मिजोरम सरकार द्वारा चलाए गए कई प्रत्यावर्तन कार्यक्रमों के बावजूद भी इन शरणार्थियों ने बिना कोई उचित कारण बताए वापस जाने से इंकार कर दिया. ब्रू जनजाति शरणार्थियों की मानें, तो उस समय वे त्रिपुरा के शिविरों से घर लौटने के लिए मना कर दिया था, जब तक कि उनकी सुरक्षा की गारंटी न दी जाए. हालांकि मिजोरम के मुख्यमंत्री ललथनहावला ने भी एक महीने पहले चुनाव आयोग से आग्रह किया था कि सात राहत शिविरों में रहने वाले ब्रू जनजाति शरणार्थियों को अपने मताधिकार का प्रयोग करने की अनुमति नहीं दी जाए. उन्होंने यह बात भी कही थी कि राज्य की एकमात्र लोकसभा सीट के भाग्य का फैसला पोस्टल वोटिंग के ज़रिए नहीं किया जाना चाहिए.
वहीं, दूसरी तरफ त्रिपुरा के मुख्य निर्वाचन अधिकारी आशुतोष जिंदल का कहना है कि पिछले चुनावों की तरह इस बार भी उत्तरी त्रिपुरा में राहत शिविरों में रह रहे शरणार्थियों को वोट डालने का अधिकार दिया जाएगा. उनके मुताबिक़, अप्रैल के पहले सप्ताह तक उत्तरी त्रिपुरा के सात शरणार्थी शिविरों में कम से कम एक सुविधा केंद्र स्थापित किया जाएगा, ताकि यहां के लोग लोकसभा चुनाव में पोस्टल वोटिंग के ज़रिए अपने मताधिकार का प्रयोग कर सकें. वैसे इस संबंध में चुनाव आयोग ने राज्य सरकार से यह जानकारी मांगी थी कि क्या ब्रू विस्थापितों के संगठन राहत शिविरों में मतदान कराने के पक्ष में हैं. हालांकि एमबीडीपीएफ ने चुनाव आयोग से यह शिकायत की थी कि कई योग्य मतदाताओं को मतदाता सूची में शामिल नहीं किया गया है. दरअसल, 36000 से अधिक रियांग आदिवासी शरणार्थियों को स्थानीय भाषा में ब्रू कहते हैं. इनमें से 11,500 मतदाताओं का नाम मतदाता सूची में शामिल किया गया था, लेकिन विधानसभा की 40 सीटों में से महज़ 10 निर्वाचन क्षेत्रों में ही इनका नाम शामिल है.

बहरहाल, मिजोरम के मम्मित ज़िले से आए ब्रू जनजाति अल्पसंख्यक है. मिजो वन्य अधिकारी ललजाउमलियाना की हत्या के बाद ये लोग पलायन करने को मजबूर हुए थे. हालांकि इस घटना के पीछे भूमिगत ब्रू नेशनल लिबरेशन फ्रंट(बीएनएलएफ) का हाथ था. उस समय बीएनएलएफ पश्‍चिमी मिजोरम के ब्रू बहुल क्षेत्रों में एक स्वायत्त ज़िला परिषद के निर्माण के लिए और मिजोरम के अंदर एक विद्रोही आंदोलन की अगुवाई कर रहा था. उत्तर त्रिपुरा के सब-डिविजन कंचनपुर में छह कैंपों में 35000 शरणार्थी हैं. इतना ही नहीं, ब्रू आदिवासी दक्षिणी असम में भी शरण लिए हुए हैं. राहत शिविरों में रहने वाले इन जनजातियों की हालत काफ़ी दयनीय है, लेकिन उनकी समस्याओं के समाधान के लिए कोई ठोस पहल नहीं की गई है. इतने वर्ष बीत जाने के बाद भी इन लोगों को न तो राजनीतिक अधिकार मिला है और न ही सामाजिक अधिकार. ऐसी सूरत में ब्रू जनजातियों के लिए लोकसभा चुनाव का कोई महत्व नहीं है. स्थानीय ब्रू जनजातियों के अनुसार, अपने ही देश में उन्हें पराया समझा जाता है.


उल्लेखनीय है कि वर्ष 1999 में सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बाद त्रिपुरा के राहत शिविरों में रह रहे ब्रू शरणार्थियों ने पहली बार डाक मतपत्र के ज़रिए अपने मताधिकार का प्रयोग किया था. पिछले  मिजोरम विधानसभा चुनाव में भी उन लोगों ने इसी तरी़के से मतदान किया था. तत्कालीन गृह मंत्री पी चिदंबरम ने अपनी मिजोरम यात्रा के दौरान यह कहा था कि वर्ष 2010 तक ब्रू शरणार्थियों के घर वापसी का अभियान पूरा कर लिया जाएगा.

चौंकाने वाले होंगे चुनाव परिणाम

सोलहवीं लोकसभा के लिए पूर्वोत्तर के राज्यों में चुनाव बेहद नज़दीक हैं. सभी राजनीतिक दल अपने-अपने उम्मीदवारों के नाम का ऐलान भी कर चुके हैं. अगर देखा जाए, तो पूर्वोत्तर शुरू से ही कांग्रेस का गढ़ रहा है. हालांकि, हर चुनाव के समय विभिन्न सियासी पार्टियां कांग्रेस को शिकस्त देने के लिए पूरी ताकत झोंक देती हैं, लेकिन विपक्षी एकजुटता की कमी और ठोस रणनीति के अभाव में वे सफल नहीं हो पाती हैं. वैसे भी पूर्वोत्तर के विकास की दिशा में कांग्रेस नीत सरकारों ने कोई विशेष काम नहीं किया है, बावजूद इसके इन राज्यों में अधिकतर समय कांग्रेस की ही सरकार रही है. सियासी जानकारों की मानें, तो इस बार पूर्वोत्तर में बेहद दिलचस्प चुनावी मुक़ाबला होगा. अब तक विपक्षी पार्टियों की चुनौती से बेपरवाह रहने वाली कांग्रेस इस बार ज़्यादा परेशान दिख रही है. पूर्वोत्तर के राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का कोई ख़ास जनाधार नहीं रहा है, लेकिन बतौर प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार नरेंद्र मोदी की सक्रियता और पूर्वोत्तर में उनकी रैली होने से हालात काफी बदल चुके हैं. पूर्वोत्तर में मोदी की लहर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि पहले जहां पार्टी का टिकट पाने के लिए मारामारी नहीं थी, वहीं इस बार नई दिल्ली स्थित भाजपा मुख्यालय में पूर्वोत्तर से आए टिकटार्थियों की लंबी कतार देखी गई.

भाजपा के शीर्ष नेताओं का मानना है कि पूर्वोत्तर में यह बदलाव नरेंद्र मोदी की वजह से आया है. राजनीतिक विश्‍लेषकों की मानें, तो इस बार पूर्वोत्तर के चुनावी नतीज़े बेहद चौंकाने वाले होंगे. इस बार असम, मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश एवं नगालैंड में भाजपा अच्छी स्थिति में दिख रही है. अगर ऐसे ही हालात बने रहे, तो यहां भाजपा को कुछ सीटों का फ़ायदा हो सकता है. भाजपा के स्थानीय नेताओं का कहना है कि पूर्वोत्तर में नरेंद्र मोदी की जनसभाओं से पार्टी कार्यकर्ताओं के हौसले बुलंद हैं. ग़ौरतलब है कि पूर्वोत्तर में क्षेत्रीय पार्टियों का कोई वजूद नहीं है, सिवाय नगालैंड के. प्रदेश के सियासी अतीत की बात करें, तो यहां शुरू से ही क्षेत्रीय पार्टियों का दबदबा रहा है, लेकिन पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में कांग्रेस के सामने दूसरी पार्टियां बौनी दिखती हैं. मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम, सिक्किम एवं असम की सत्ता पर अब तक कांग्रेस का दखल रहा है, लेकिन इस बार लोकसभा चुनाव में कांग्रेस अपना किला बचा पाएगी, यह कहना मुश्किल है. देशव्यापी भ्रष्टाचार एवं महंगाई के मुद्दे पर कांग्रेस चौतरफ़ा हमले की शिकार है. प्रदेश के पार्टी नेताओं की मानें, तो यही एक ऐसा मुद्दा है, जिसे लेकर कांग्रेस बैकफुट पर नज़र आ रही है.

त्रिपुरा में सभी पार्टियों ने उम्मीदवारों के नाम का ऐलान कर दिया है. वाममोर्चा ने भी पश्‍चिम त्रिपुरा एवं पूर्वी त्रिपुरा से अपने उम्मीदवार चुनाव मैदान में उतार दिए हैं. वाममोर्चा ने पश्‍चिम त्रिपुरा से शंकर प्रसाद दत्त और पूर्वी त्रिपुरा से जीतेंद्र प्रसाद चौधरी को उम्मीदवार बनाया है. वहीं तृणमूल कांग्रेस ने पश्‍चिम त्रिपुरा से रतन चक्रवर्ती और पूर्वी त्रिपुरा से भृगुराम रियांग को अपना प्रत्याशी बनाया है. पूर्वोत्तर के चुनावी समर में आम आदमी पार्टी भी शामिल है. पार्टी की ओर से कर्ण विजोय जमातिया एवं डॉ. सालिल साहा क्रमश: पूर्वी और पश्‍चिम त्रिपुरा से उम्मीदवार बनाए गए हैं. भाजपा ने यहां सुधींद्र सीएच दासगुप्ता और परीक्षित देव वर्मा को उम्मीदवार बनाया है. कांग्रेस की ओर से प्रो. अरुणोदय साहा एवं सचित्रा देव वर्मा को पूर्वी और पश्‍चिमी त्रिपुरा से प्रत्याशी बनाया गया है. हालांकि, त्रिपुरा में वाममोर्चा की सरकार काफी मजबूत है. राज्य के चुनावी इतिहास पर नज़र दौड़ाएं, तो यहां वाममोर्चा का मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस से ही रहा है. सियासी जानकारों के मुताबिक़, इस बार कमोबेश यही स्थिति रहने वाली है. अगर त्रिपुरा के मतदाताओं की बात करें, तो यहां के मूल निवासी आदिवासी हैं, जो पहाड़ों पर रहते हैं, जबकि शहरी इलाक़ों में ग़ैर त्रिपुरा के लोग रहते हैं. त्रिपुरा के स्थानीय लोगों के साथ बरती जा रही ग़ैर-बराबरी के ख़िलाफ़ इंडिजीनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ त्रिपुरा जैसे दल हमेशा आवाज़ उठाते रहे हैं. बहरहाल, आगामी लोकसभा चुनाव में यह तय माना जा रहा है कि त्रिपुरा में स्थानीय मुद्दे ही हावी रहेंगे.
अब बात करते हैं मणिपुर की. यहां क्षेत्रीय पार्टियों की स्थिति बेहद कमजोर रही है. आज़ादी से लकर आज तक सूबे की सत्ता पर कांग्रेस की पकड़ मजबूत बनी हुई है. हालांकि, वर्षों तक कांग्रेसी शासन रहने के बाद भी मणिपुर की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ. इससे तकलीफ़देह बात और क्या होगी कि आज़ादी के 66 वर्षों बाद भी मणिपुर की जनता बुनियादी सुविधाओं से वंचित है. राज्य की लाइफ लाइन कहे जाने वाले नेशनल हाईवे 39 की हालत बेहद खराब है. यहां बिजली और पानी की भी गंभीर समस्या है. राज्य के ग्रामीण इलाकों में महज दो घंटे के लिए ही बिजली आती है. मणिपुर में अफसपा, भारत-म्यांमार सीमा फेंसिंग एवं इनर लाइन परमिट आदि कई समस्याओं का हल अबतक नहीं हो पाया है. मणिपुर में आम आदमी पार्टी भी सक्रियता दिखा रही है, लेकिन चुनाव में उसे किसी तरह की सफलता नहीं मिलने वाली है. आम आदमी पार्टी ने यहां से डॉ. केएच इबोमचा सिंह और एम खामचिनपौ जऊ को अपना उम्मीदवार बनाया है.

कांग्रेस पार्टी ने अपने मौजूदा सांसदों टी मैन्य और थांगसो बाइते को ही उम्मीदवार बनाया है. वहीं भाजपा ने डॉ. आरके रंजन एवं प्रो गांगुमै कामै को इनर और आउटर संसदीय क्षेत्र से उम्मीदवार बनाया है, जबकि तृणमूल कांग्रेस ने यहां से एस मनाउबी सिंह और किम गांते को प्रत्याशी बनाया है. मणिपुर डेमोक्रेटिक पीपुल्स फ्रंट की ओर से डॉ. जी तोनसना शर्मा और नगा पीपुल्स फ्रंट की ओर से सोरो लोरहो मैदान में हैं. जेडीयू ने लीन गांते, भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी ने लामललमोइ, नेशनलिस्ट कांग्रेस पार्टी ने चूंगखोकाई दौंगेल को अपना उम्मीदवार बनाया है.

अरुणाचल प्रदेश की बात करें, तो यहां हाबुंग पायेंग आम आदमी पार्टी के बड़े नेता हैं. माना जा रहा है कि लोकसभा चुनाव में वह कांग्रेस को कड़ी चुनौती देंगे. कांग्रेस ने इस बार अरुणाचल प्रदेश से सात नए चेहरों को टिकट दिया है, जिसमें कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष मुकुल मिथि का पुत्र भी शामिल है. हालांकि, कांग्रेस के वर्तमान विधायक अतुम वेल्ली पिछले दिनों भाजपा में शामिल हो गए. ख़बरों के मुताबिक, वह पाक्के केस्सांग संसदीय क्षेत्र से चुनाव लड़ेंगे. नगालैंड में क्षेत्रीय पार्टी सबसे मजबूत है. नगा पीपुल्स फ्रंट यहां की प्रमुख क्षेत्रीय पार्टी है. यह पार्टी नगालैंड में कई वर्षों से सत्ता में है. यहां लोकसभा की महज एक सीट है. वर्तमान मुख्यमंत्री नेफ्यू रियो भाजपा से गठबंधन करके चुनाव मैदान में उतरेंगे. हालांकि, रियो पर सांप्रदायिकता के गंभीर आरोप भी लगते रहे हैं, लेकिन माना जा रहा है कि भाजपा से गठबंधन होने के बाद यहां का चुनाव परिणाम बदल सकता है. पंद्रहवीं लोकसभा में पूर्वोत्तर से भाजपा के कुल चार सांसद थे, लेकिन इस बार यह संख्या बढ़ सकती है, जैसा कि पार्टी नेताओं का मानना है.

बहरहाल, सोलहवीं लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव पर देश भर की निगाह लगी हुई है. पूर्वोत्तर के राज्यों में कांग्रेस समेत सभी स्थानीय पार्टियां चुनाव प्रचार में जुटी हैं. भाजपा ने भी यहां पूरी ताकत लगा दी है. ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि पूर्वोत्तर का चुनाव परिणाम इस बार किस पार्टी के पक्ष में जाता है.

बदल सकता है पूर्वोत्तर का सियासी समीकरण

पश्‍चिम बंगाल, जिसे वामदलों का अभेद्य दुर्ग समझा जाता था, लेकिन वर्ष 2011 के विधानसभा चुनाव में तृणमूल कांग्रेस प्रमुख ममता बनर्जी ने जीत हासिल कर इस मिथक को तोड़ दिया था. इस कामयाबी से उत्साहित तृणमूल कांग्रेस ने न सिर्फ बंगाल में अकेले चुनाव लड़ने का ऐलान कर दिया है, बल्कि उसे उम्मीद है कि बंगाल के जादू का असर पूर्वोत्तर में भी पड़ेगा.


कांग्रेस के गढ़ पूर्वोत्तर में कोई भी बड़ी राजनीतिक पार्टी आज तक अपनी जगह नहीं बना पाई है. पिछले साल दिसंबर 2013 को पांच राज्यों में हुए विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को मिजोरम छोड़कर सभी राज्यों में सत्ता खोनी पड़ी. ऐसी स्थिति में भी बड़ी पार्टियां पूर्वोत्तर में अपनी जड़ें मजबूत नहीं कर पाईं. चूंकि अब लोकसभा चुनाव के तारीख़ों का ऐलान हो गया है. ऐसे में हर राजनीतिक दल पूर्वोत्तर राज्यों में अपने उम्मीदवारों उतार रही हैं. तृणमूल कांग्रेस ने भी इन राज्यों में अपने उम्मीदवारों की घोषणा की है. पार्टी प्रमुख ममता बनर्जी को ऐसा लगता है कि पश्‍चिम बंगाल की तरह पूर्वोत्तर राज्यों में भी उनके सुशासन का फ़ायदा पार्टी को मिलेगा.

ग़ौरतलब है कि तृणमूल कांग्रेस ने त्रिपुरा से दो उम्मीदवारों भृगुराम रियांग और रतन चक्रवर्ती को क्रमशः पूर्वी त्रिपुरा और पश्‍चिम त्रिपुरा से उतारा है. तृणमूल कांग्रेस की मानें तो त्रिपुरा में वाम विरोधी मतदाताओं को कांग्रेस वर्षों से धोखा दे रही है. ऐसी स्थिति में तृणमूल कांग्रेस ही राज्य में वाम मोर्चे का विकल्प बन सकता है. तृणमूल कांग्रेस के नेताओं ने त्रिपुरा की जनता को यकीन दिलाया है कि पार्टी की ओर से जनप्रिय और सक्षम उम्मीदवारों को खड़ा किया जाएगा, ताकि वे जनता की सेवा कर सकें. ग़ौरतलब है कि प्रदेश तृणमूल कांग्रेस के अध्यक्ष रतन चक्रवर्ती पहले कांग्रेस में थे, लेकिन कांग्रेस की नीतियों से नाराज़ होकर उन्होंने ममता बनर्जी का साथ देने का ़फैसला लिया. उल्लेखनीय है कि त्रिपुरा प्रगतिशील ग्रामीण कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस के बीच गठबंधन था, लेकिन पिछले दिनों उम्मीदवारों के घोषणा के बाद यह गठबंधन टूट गया. राजनीतिक रूप से त्रिपुरा प्रगतिशील ग्रामीण कांग्रेस का राज्य में अच्छा ख़ासा जनाधार है. ऐसे में गठबंधन टूटने से तृणमूल कांग्रेस को राज्य के ग्रामीण इलाक़ों में नुक़सान हो सकता है. हालांकि, त्रिपुरा प्रगतिशील ग्रामीण कांग्रेस के अध्यक्ष सुबल भौमिक ने गठबंधन टूटने के बाद टीएमसी पर निशाना साधते हुए कहा कि कांग्रेस और तृणमूल कांग्रेस की राजनीति में कोई अंतर नहीं है. भौमिक ने आरोप लगाया कि लोकसभा चुनाव के मद्देनज़र राज्य में वाम विरोधी फ्रंट बनाने के लिए उनकी ओर से ईमानदार पहल की गई थी, बावजूद इसके तृणमूल कांग्रेस ने मुझे नज़रअंदाज़ कर दिया. उनके मुताबिक, पश्‍चिम त्रिपुरा से वह बतौर निर्दलीय लड़ेंगे और पूर्वी त्रिपुरा सीट के लिए वह दूसरे दल से गठबंधन करेंगे.

बात अगर मणिपुर की राजनीति की करें, तो राज्य के भीतरी इला़के से सरांगथेम मनाउबी सिंह और बाहरी से कीम गांते है. मणिपुर से तृणमूल कांग्रेस का पुराना नाता रहा है. हालांकि, प्रदेश की सत्ता पर कई वर्षों से कांग्रेस का ही क़ब्ज़ा रहा है. इसके बावजूद  तृणमूल कांग्रेस की स्थिति यहां ठीक-ठाक कही जा सकती है. ममता बनर्जी जब मणिपुर आई थीं, तब उन्होंने आर्म्ड फोर्सेस स्पशेल पावर एक्ट को लेकर अनशन कर रही इरोम शर्मिला से भी मिली थीं. उन्होंने मणिपुर की जनता को भरोसा दिया था कि वह उनकी आवाज़ बुलंद करेगी. हालांकि अब देखना यह है कि सोलहवीं लोकसभा में ममता बनर्जी की पार्टी तृणमूल कांग्रेस को पूर्वोत्तर के राज्यों में कितनी सफलता मिलती है.

बहरहाल, तृणमूल कांग्रेस आगामी लोगसभा चुनाव में एकला चलो की नीति पर चलते हुए पश्‍चिम बंगाल की सभी 42 सीटों के लिए अपने उम्मीदवारों की घोषणा कर दी है. पार्टी की ओर से मशहूर फुटबॉल खिलाडी बाइचुंग भूटिया और ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी समेत 26 नए चेहरे को चुनावी मैदान में उतारा गया है. अभिषेक बनर्जी तृणमूल युवा कांग्रेस के अध्यक्ष हैं. तृणमूल कांग्रेस ने जिन नए चेहरे पर दांव लगाया है, उनमें फिल्म अभिनेत्री मुनमुन सेन, बंगाली सिनेमा से जुड़े देव और गुजरे जमाने की अभिनेत्री संध्या रॉय भी शमिल हैं. सुचित्रा सेन की बेटी मुनमुन सेन बांकुड़ा लोकसभा सीट से चुनाव लड़ेंगी, जबकि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की पौत्री सुगता बोस जादवपुर सीट से अपना किस्मत आजमाएंगी. वहीं ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी 24 दक्षिण परगना ज़िले के डायमंड हार्बर सीट से चुनाव लड़ेंगे. यहां दिलचस्प बात यह है कि सिक्किम के नामची निवासी बाइचुंग भूटिया दार्जिलिंग लोकसभा सीट से चुनाव लड़ेंगे. फ़िलहाल यहां जसवंत सिंह भाजपा के सांसद हैं, जिन्हें गोरखा जनमुक्ति मोर्चा के समर्थन हासिल है.


ग़ौरतलब है कि बीती 25 फरवरी को मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने असम में एक रैली को संबोधित किया था. राज्य में यह उनकी पहली रैली थी. ममता ने अपने संबोधन में यूपीए सरकार पर निशाना साधते हुए कहा कि आज पूरा देश भ्रष्टाचार, महंगाई और अपराध से त्रस्त है, लेकिन मनमोहन सरकार को इससे कोई मतलब नहीं है. उनके मुताबिक़, तृणमूल कांग्रेस यूपीए और एनडीए को किसी भी क़ीमत पर अपना सर्मथन नहीं देगी. गुवाहाटी की सरुसजाई स्टेडियम में एक विशाल जनसभा को संबोधित करते हुए उन्होंने कहा कि जनता देशव्यापी भ्रष्टाचार, महंगाई और महिलाओं के प्रति होने वाले अपराध से परेशान है, लेकिन यूपीए सरकार इस मामले में संवेदनहीन बनी हुई है. उनके मुताबिक़, पूर्वोत्तर से राज्यों से उनका काफ़ी पुराना नाता रहा है. इस मौ़के पर उन्होंने शंकरदेव अजान फ़कीर, डॉ. भूपेन हजारिका समेत कई महापुरुषों की प्रशंसा की. बहरहाल, पश्‍चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी जिस तरह बंगाल की सत्ता पर चौंतीस वर्षों से क़ाबिज़ वाम दलों को चुनावी मैदान में पटखनी दी है, उससे पार्टी का मनोबल काफ़ी ऊंचा है. क्या ममता और उनकी पार्टी पूर्वोत्तर के राज्यों में यही दम-खम दिखा पाएंगी, यह लोकसभा चुनाव के नतीज़ों से ही साफ हो पाएगा.