यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Saturday, November 26, 2011

इरोम शर्मिला


मैं उसे प्यार करती हूं
मैं उसे छूना चाहती हूं
                उसके हाथों को
                उसके होठों को
चूमना चाहती हूं उसका चेहरा
सदा मेरी आंखों में रहता है
जैसे वहीं उसका घर हो।


मैं मरूंगी नहीं,
मेरी मुस्कान अमिट है।


देख लेना,
एक दिन हमारा घर होगा
जिसमें हमारे बच्चे खेलेंगे
हरी घास पर 
निष्कंटक
मुक्त
सेना के पहरे के परे
हरी घास
पूरे उत्तर-पूर्व में फैल जाएगी।


** इरोम ने कहा है कि मुक्ति के बाद वह अपने प्रेमी से विवाह करेगी, जिसे उसने एक बार अदालत में देखा है।


-रवींद्र वर्मा
संपर्क : 09696368671

Saturday, November 19, 2011

भूपेन हजारिका की एक झलक के लिए


दिल्ली से असम ले जाकर भूपेन हजारिका ने मुझे मानव समुद्र के मायने समझा दिए.

एक बार भूपेन हजारिका मुझे दिल्ली से गुवाहाटी ले गए थे. तब मैं हिंदुस्तान टाइम्स का संपादक था. वह हर साल एक सालाना जलसा करते थे. रास्ते में और शाम को ड्रिंक्स पर उन्होंने अपने बारे में काफी कुछ बताया. उनकी पहली शादी जल्द ही निबट गई थी. दूसरी ने उन्हें खुशमिजाज पति और पिता बनाया.

उस वक्त उन्हें एक गाने के लिए याद किया जाता था. ऐसा नहीं था कि उन्होंने और कुछ नहीं किया था. तमाम तरह की कला गतिविधियों से उनका जुड़ाव था. कम लोग शाम के आसपास पहुंचे थे. और शाम साथ पीते हुए गुजारी थी. अगली दोपहर मैंने सड़कों के दोनों ओर लोगों का हुजूम देखा. ये लोग भूपेन की एक झलक देखने को आए थे. उन्हें एक खुली कार में ले जाया गया, ताकि लोग उन्हें ठीक से देख सकें. मैं पिछली कार में था. एक बड़े मैदान तक हमें जाना था और हर जगह लोग ही लोग थे. इतने लोग मैंने एक साथ नहीं देखे थे. वहां हजारों में नहीं, लाखों में लोग थे. वह तो मानव समुद्र था. मैं मंच पर बैठा था. भाषण पर भाषण सुने जा रहा था. मुझे बोलने को कहा गया तो दो मिनट भूपेन की तारीफ में बोल कर धीरे से खिसक गया था. शहर खाली खाली सा था. एक मुस्लिम आईएएस अफसर मेरे साथ थे. उनके साथ मैं घूमता रहा. एाम को ड्रिंक लिया और उसके परिवार के साथ खाना भी खाया. अगले दिन मैं दिल्ली लौट आया. मैंने भूपेन को शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने मुझे मानव वमुद्र के मायने समझाए.


एम एफ हुसैन

नियोगी बुक्स ने कमाल का काम किया हे. उसने हमारे दौर के महानतम पेंटर हुसैन पर कॉफी टेबल बुक तैयार की हे. मैं उन्हें अपने बॉम्बे के दिनों से ही जानता था. तब मैं इलस्ट्रेटेड वीकली निकाल रहा था. वह अपने काम की पब्लिसिटी चाहते थे. और मैं चाहता था कि मेरी पत्रिका कला की दुनिया में जानी पहचानी जाए. ॠो हम दोनों में खूब पटती रही.


हुुसैन एक निम्न मध्यवर्गीय शिया मुस्लिम परिवार से आए थे. लेकिन पैसा खर्च करने के मामले में रॉयल थे. वह सिर्फ सौ के नोट लेकर ही चलते थे. और टैक्सी वाले से पैसे वापस नहीं लेते थे. सब कुछ ठीक चल रहा था. पर हिंदू देवी देवताओं की न्यूड पेंटिंग बनाने के मामले में कट्‌टरपंथी भूल गए कि कोणार्क और खजुराहो उनकी ही परंपरा का हिस्सा हैं. हुसैन को देश छोड़ कर जाना पड़ा. उन्होंने कतर की नागरिकता लेल ी. फिर लंदन में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली. उन्हीं उन्हें दफनाया भी गया. मुझे लगता है कि उनको सुपुर्द ए खाक हिंदुस्तान में करना चाहिए था लेकिन... मैं तो यही कहना चाहूंगा ये रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात.
या दे दिल उनको और या दे मुझे जुबां और..

-खुशवंत सिंह
वरिष्ठ पत्रकार व लेखक



Friday, November 18, 2011

भूपेन दा हमेशा याद रहेंगे


भारत के लाखों दिलों की धड़कन एवं असम की मधुर आवाज़  डॉ. भूपेन हजारिका का बीते पांच नवंबर को निधन हो गया. भूपेन दा असम के जन सांस्कृतिक राजा का नाम है, जो हमारे दिल पर राज करता रहा, जिसकी आवाज़ हमें मंत्रमुग्ध करती रही. उन्होंने अपने संगीत के ज़रिये असम की मिट्टी की सौंधी खुशबू फिज़ा में घोल दी. भूपेन दा की आवाज़ में वह बंजारापन है, जो उस्तादों से लेकर जनमानस तक को अपना क़ायल बना लेता है. अपनी आवाज़ को सबकी आवाज़ बना देता है. इस एक शख्स में कई शख्सियतें समाई हुई थीं. बुद्धिजीवी, संगीतकार, उत्कृष्ट गायक, संवेदनशील कवि, अभिनेता, लेखक, निर्देशक, समाज सेवक और न जाने कितने रूप.

भूपेन दा का जन्म 8 सितंबर, 1926 को असम के सदिया में एक शिक्षक परिवार में हुआ था. बचपन में पिता शंकर देव का उपदेश ज़्यादातर गेय रूप में प्राप्त होता था. उन्हीं दिनों उनके मन में संगीत ने अपना घर बना लिया. वह ज्योति प्रसाद अग्रवाल, विष्णु प्रसाद शर्मा और फणि शर्मा जैसे संगीतविदों के संपर्क में आकर लोकगीत की तालीम लेने लगे. उन्होंने केवल 13 साल 9 महीने की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा तेजपुर से पास की और आगे की पढ़ाई के लिए 1942 में गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में दा़िखला लिया. अपने मामा के घर में रहकर पढ़ाई की. इसके बाद वह बनारस चले आए और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र से स्नातक और स्नातकोत्तर किया. साथ ही अपने संगीत के स़फर को भी जारी रखा और चार वर्षों तक संगीत भवन से शास्त्रीय संगीत की तालीम भी लेते रहे. वहां से अध्यापन कार्य से जुड़े रहे. उन्हीं दिनों गुवाहाटी और शिलांग रेडियो से भी जुड़ गए. उनका तबादला दिल्ली आकाशवाणी में हो गया. वह अध्यापन कार्य छोड़कर दिल्ली आ गए. भूपेन दा की एक ख्वाहिश थी कि वह जर्नलिस्ट बने. उन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष नारायण मेनन से हुई. भूपेन दा की कला और आशावादिता से वह ़खासा प्रभावित हुए और उन्हें सलाह दी कि वह विदेश जाकर जर्नलिज्म में पीएचडी करें. भूपेन दा ने उनकी सलाह मान ली और कोलंबिया विश्वविद्यालय में मास कम्यूनिकेशन में पीएचडी करने चले गए. मेनन साहब ने स्कॉलरशिप दिलाने में का़फी मदद की. कोलंबिया में पढ़ाई के साथ-साथ होटल में काम किया और लघु फिल्मों में संवाद भी बोले. इन सब कामों से वह लगभग 250 डॉलर कमा लेते थे, जिससे उनके शौक़ भी पूरे हो जाया करते थे. उन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात राबर्ट स्टेंस और राबर्ट फेल्हरती से हुई जिनके संपर्क में उन्हें फिल्मों के बारे में का़फी कुछ सीखने का मौक़ा भी मिला. जगह-जगह के लोक संगीत को संग्रह करना और सीखना भूपेन दा के शा़ैकों में सबसे ऊपर था.

एक दिन भूपेन दा एक सड़क से गुज़र रहे थे, तभी अमेरिका के मशहूर नीग्रो लोकगायक पॉल रॉबसन गाते हुए दिखाई दिए. वह गाए जा रहे थे. ओ मेन रिवर यू डोंट से नथिंग, यू जस्ट किप रोलिंग एलोंग. पॉल के साथ मात्र एक गिटार वादक और एक ड्रम था. कोई इंस्ट्रूमेंट नहीं था. पॉल की आवाज़ और उनका गाया यह गाना भूपेन दा को इतना अच्छा लगा कि उन्होंने इससे प्रेरित होकर ओ गंगा तुम बहती हो क्यूं रचना का सृजन किया. पॉल से उनकी जान पहचान भी हो गई. पॉल से वह नीग्रो लोकगायकी के सुर भी सीखने लगे, मगर पॉल की दोस्ती थोड़ी महंगी पड़ी और 7 दिन के लिए पॉल के साथ जेल की हवा खानी पड़ी. बहरहाल, हजारिका अपनी शिक्षा पूरी कर भारत लौट आए.

भूपेन दा की रचनाओं की वेदना की गहराई का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है एक बार जब वह नगा रिबेल्स से बात करने गए तो अपनी एक रचना मानुहे मानुहर बाबे को वहां के एक नगा युवक को उन्हीं की अपनी भाषा में अनुवाद करने को कहा और जब उन लोगों ने इस गीत को सुना तो सभी की आंखों में आंसू आ गए. भूपेन दा के इस गीत के बंगला अनुवाद मानुष मनुषेरे जन्मे को बीबीसी की तऱफ से सांग ऑफ द मिलेनियम के ़िखताब से नवाज़ा गया. इस गीत के ज़रिये भूपेन दा का कवि रूप का चिंतन हमारे सामने आता है. उन्होंने बतौर संगीतकार अपनी पहली हिंदी फिल्म आरोप (1974) साईन की. उन्होंने लता से नैनों में दर्पण है गवाया. इस गाने के बारे में भूपेन दा का कहना था कि एक दिन जब मैं रास्ते से ग़ुजर रहा था तब एक पहाड़ी लड़के को गाय चराते हुए इस धुन को गाते सुना. इस गाने से मैं इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उसी समय इस गाने की ट्‌यून को लिख लिया. एक लंबे अंतराल के बाद हिंदी में आई उनकी फिल्म रुदाली में एक बार फिर लता ने स्वर दिया. उस अमर गीत दिल हूम हूम करे. इस फिल्म में आशा ने भी एक गीत गाया था. बोल थे-समय धीरे चलो... मैं और मेरा साया में मूल असमिया बोल को हिंदी में अनुवादित किया था गुलज़ार साहब ने. गुलज़ार साहब ने इन सुंदर गीतों को हिंदी भाषी श्रोताओं को पेश कर बहुत उपकार किया. इस एल्बम से गुज़रना यानी भूपेन दा के मधुर स्वरों और शब्दों के असीम आकाश में विचरना है.

अद्भुत प्रतिभा वाला यह कलाकार दक्षिण एशिया के श्रेष्ठतम सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता था. भूपेन दा ने असम की समृद्ध लोक संस्कृति को गीतों के माध्यम से पूरी दुनिया में पहुंचाया. जब भी हिंदी सिने जगत के लोकगीत की बात आएगी तो भूपेन दा का नाम शीर्ष पर रहेगा. छियासी साल की उम्र में 1992 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. इसके अलावा उन्हें नेशनल अवॉर्ड एज द वेस्ट रीजनल फिल्म (1975), पद्म भूषण (2011), असम रत्न (2009) और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड (2009) जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है. यही नहीं गांधी टू हिटलर फिल्म में महात्मा गांधी के प्रसिद्ध भजन वैष्णव जन को उन्होंने ही अपनी
आवाज़ दी. हिंदी की कई मशहूर फिल्मों में उनका योगदान रहा. इनमें रुदाली, एक पल, दरमियां, दामन, क्यों, पपीहा, साज़, मिल गई मंज़िल मुझे आदि शामिल हैं. एमएफ हुसैन की गजगामिनी का म्यूज़िक भी भूपेन दा ने ही दिया था. आ़िखर, भले ही भूपेन दा सशरीर हमारे बीच नहीं रहे, परंतु उनकी यादें हमारे साथ हैं. भूपेन दा को हार्दिक श्रद्धांजलि. 

Thursday, October 13, 2011

क्रांति को प्रेम से क्या खतरा है


क्रांति और प्रेम एक सिक्के के दो पहलू हैं. क्रांति प्रेम से ही पनपती है. दुनिया की बड़ी-बड़ी क्रांतियां प्रेम की वजह से ही हुई हैं. चाहे देश प्रेम हो या फिर किसी के प्रति प्रेम. ऐसे में एक क्रांतिकारी को प्रेम हो जाए तो इसमें ग़लत क्या है? जबसे यह ख़बर आई है कि आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को मणिपुर से हटवाने के लिए पिछले 11 सालों से आमरण अनशन कर रहीं 39 वर्षीय इरोम शर्मिला को ब्रिटिश मूल के देसमोंड कोटिंहो से प्यार है, मानो भूचाल आ गया हो. मणिपुर के लोग इस ख़बर से ख़़फा हैं. आख़िर क्यों?
मामले की शुरुआत तब हुई, जब कोलकाता से प्रकाशित होने वाले एक अख़बार ने शर्मिला के उस बयान को सार्वजनिक किया, जिसमें उन्होंने यह स्वीकार किया था कि उन्हें ब्रिटिश मूल के देसमोंड कोटिंहो से प्यार है. यह ख़बर बीते 5 सितंबर को आई थी. 48 वर्षीय देसमोंड लेखक एवं सामाजिक कार्यकर्ता हैं. शर्मिला ने कहा था, जिसे मैं प्यार करती हूं, वह मेरा बेसब्री से इंतज़ार कर रहा है. वह यहां मुझसे मिलने आया था, मगर मेरे समर्थकों ने मना कर दिया. एक साल से पत्र द्वारा उनका देसमोंड  से संपर्क चल रहा है. पिछले 9 मार्च को शर्मिला और देसमोंड के बीच एक अल्प समय की मुलाक़ात हुई थी. देसमोंड द्वारा लिखे पत्र शर्मिला ने अपने बेड के बगल में एक कॉर्ड बॉक्स में संभाल कर रखे हैं. शादी को लेकर पूछे गए एक सवाल के जवाब में शर्मिला कहती हैं, मैं तभी शादी करूंगी, जब मेरी मांग पूरी हो जाएगी. उन्होंने कहा कि वह (देसमोंड) ब्रिटिश सिटीजन होने के नाते हमारे रिश्ते को मना कर रहे हैं. शर्मिला नाराज़गी मिश्रित लहज़े में कहती हैं, वह बहुत एकपक्षीय और निर्दयी हैं.
इधर शर्मिला के समर्थक अख़बार में छपी यह ख़बर देखते ही भड़क गए और उन्होंने उक्त अख़बार की प्रतियां जलाते हुए इस ख़बर का विरोध किया. शर्मिला के समर्थकों का मानना है कि 11 सालों से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट-1958 को लेकर आमरण अनशन कर रहीं शर्मिला के बारे में मुख्य धारा के किसी भी अख़बार ने जब आज तक कोई पॉजिटिव स्टोरी नहीं छापी, तो उनके निजी जीवन की बातों को इतना उछालने की क्या ज़रूरत है. जस्ट पीस फाउंडेशन ऑफ मणिपुर के अध्यक्ष एवं शर्मिला के भाई इरोम सिंहजीत ने कहा कि शर्मिला भी एक इंसान हैं और कोई भी इंसान प्रेम कर सकता है. इसमें ग़लत क्या है? उनके संघर्ष पर फोकस न करके उसकी निजी ज़िंदगी पर ज़्यादा फोकस किया जा रहा है. गृहमंत्री पी चिदंबरम द्वारा अफसपा क़ानून में संशोधन से संबंधित ताजा बयान पर सिंहजीत ने कहा कि शर्मिला की मांग साफ है, अफसपा हटाया जाना चाहिए, न कि उसमें संशोधन हो. सिंहजीत ने कहा कि अगर अन्ना हजारे मणिपुर में पैदा होते तो उनकी मांगों को भी सरकार न सुनती, चुप रहती.  हालांकि मणिपुर में प्रेम विवाह के 95 प्रतिशत मामलों को समर्थन मिलता है, बावजूद इसके इस राज्य में किसी सामाजिक कार्यकर्ता को प्यार होने पर आपत्ति जताना अटपटा लगता है. क्या शोषित और पीड़ित लोगों की सेवा में अपना जीवन बिताने वाली शर्मिला को एक आम इंसान की तरह किसी से प्यार नहीं हो सकता? यह एक निजी मामला है. इंसान प्यार न करे तो कौन करेगा. यह एक इंसानी फितरत है. शर्मिला कहती है कि ग़रीब, शोषित और पीड़ितों के लिए लड़ना और आवाज़ उठाना एक अलग चीज है और प्यार एक अलग चीज है. दोनों अलग-अलग काम हैं. इससे मेरे संघर्ष पर कोई असर नहीं पड़ेगा. मेरी मांग जब तक पूरी नहीं होगी, तब तक मेरा अनशन जारी रहेगा. देेसमोंड और हमारे बीच दोस्ती है, यह मैं मानती हूं, मगर इससे मेरे संघर्ष पर कोई ़फर्क़ नहीं पड़ने वाला. मैं भी एक मनुष्य हूं, मुझे एक मनुष्य की नज़र से देखिए, शर्मिला के रूप में देखिए.

यह मणिपुरवासियों का अपमान है : अपुनबा लुप

बीते पांच सितंबर को मणिपुर प्रेस क्लब में अपुनबा लुप ने एक प्रेस कांफ्रेंस की, जिसमें संगठन के को-ऑर्डिनेटर लांगदोन अयेकपम ने कहा कि इस ख़बर से केवल शर्मिला का ही नहीं, मणिपुरवासियों का भी अपमान हुआ है. राज्य और केंद्र सरकार यह नहीं कह रही है कि शर्मिला अफसपा हटवाने के लिए संघर्ष कर रही हैं, उल्टे उन पर भारतीय दंड विधान की धारा 309 के तहत आत्महत्या की कोशिश का आरोप लगाया गया. शर्मिला को सजिवा जेल द्वारा संचालित जवाहर लाल नेहरू अस्पताल के कस्टडी वार्ड में रखा गया. अपुनबा लुप मणिपुर के कई सारे क्लबों का एक संगठन है. लुप ने आरोप लगाया कि यह सरकार और उक्त अख़बार की मिलीभगत है, ताकि शर्मिला के संघर्ष को कमजोर किया जा सके. 11 सालों से चल रही शर्मिला की संघर्ष गाथा को नकारते हुए उनकी निजी ज़िंदगी पर ज़्यादा फोकस करना एक दु:खद बात है. अपुनबा लुप ने कहा कि उक्त अख़बार के संपादक या उनके समकक्ष किसी व्यक्ति को माफी मांगनी होगी. जब तक ऐसा नहीं होगा, तब तक अख़बार पर प्रतिबंध जारी रहेगा. मुख्य धारा के अख़बारों के राज्य प्रतिनिधियों को मणिपुर के संवेदनशील मसलों पर खबर लिखते समय सावधानी बरतनी चाहिए. ऐसे मसलों पर स्थानीय प्रतिनिधियों से संपर्क करने की भी अपील की गई. शर्मिला के समर्थन में श्र्ृंखला उपवास कर रही सकल संस्था की संयोजक ए के जानकी देवी ने कहा कि इस तरह की ख़बरों का प्रकाशन शर्मिला के संघर्ष को नकारने जैसा है.  

Friday, September 23, 2011

देश को खंडित करने वाली यह कैसी भारतीयता


देश 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाता है लेकिन इस दौरान देश के पूर्वोत्तर हिस्सों में सार्वजनिक कफ्‌र्यू या पूर्ण बंदी रहेगी जैसा कि पिछले कुछ वर्षों से होता आ रहा है. आशंका है कि हर बार की तरह इस बार भी इस क्षेत्र में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संघर्षरत विभिन्न अलगाववादी संगठन या समूह जनता से आजादी के जश्न का बहिष्कार करने की अपील करेंगे. यहां राष्ट्रीय मुक्ति की परिभाषा इस बात पर निर्भर करती है कि आपका राजनीतिक पक्ष क्य है. यह सच्चाई है कि देश का शेष हिस्सा उनके इस आंदोलन को शायद ही जानता हो या इस बारे में जानने की कोशिश भी करता हो. संयोगवश, राष्ट्रीय मीडिया इन खबरों को ओझल करके जैसा कि वह आम तौर पर करता आया है, शायद यह भी सुनिश्चित कर देगा कि आजादी के जश्न के दौरान इस विडंबना से राष्ट्र चेतना आहत न हो, जो आजादी का जश्न मनाने वाले दिन ही आयोजित की जाती हो. इसके बावजूद भारत के पूर्वोत्तर की यह सच्चाई जरूर ध्यान में रखनी चाहिए जब पूरा देश एक जुट होकर अपनी राष्ट्रीयता (संघर्ष के लिए) को प्रदर्शित और इसकी पुनर्पुष्टि करेगा. 

पूर्वोत्तर की इस परिघटना को सामूहिक राष्ट्र चेतना में दर्ज रखने का एक और कारण है. इसलिए इस तरह का बहिष्कार शेष हिस्सों में जश्न की वास्तविकता का एक अपवाद है. जाने-माने दार्शनिक किर्कगार्ड ने टिप्पणी की थी कि अपवाद न सिर्फ खुद के बारे में बल्कि सामान्य के बारे में भी सामान्य द्वारा किए गए खुलासे से कहीं ज्यादा बयां करता है. इस अपवाद को समझना पूर्वोत्तर ही नहीं बल्कि भारत राष्ट्र के बारे में निष्पक्ष विचार दे सकता है.

अपवार को लेकर आम धारणा रही है कि इस क्षेत्र की जनता में भारत के प्रति दृढ़निष्ठा और समर्पण भाव नहीं है. यही बात सरदार वल्लभभाई पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र में लिखी थी. इतना ही नहीं, पटेल और आम धारणा के मुताबिक वे लोग मंगोलवादी पूर्वोग्रह से ग्रस्त हैं. लिहाजा, इस क्षेत्र में अलगाववादी आंदोलनों की ही उम्मीद की जा सकती है और स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार कोई अप्रत्याशित घटना नहीं कही जा सकती. इस संदर्भ में राष्ट्रवादियों के समक्ष यही सवाल रहा है कि इन लोगों को कैसे एकसूत्र में बांधा जाए, जो राष्ट्र की सीमा में बंधे हैं और जिन्हें जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव मुख्य भूमि के लोगों से सांस्कृतिक और नस्लीय मामले में अलग मानते हैं. राष्ट्रीय एकता को लेकर इस तरह की चिंता उसी समय से इस क्षेत्र के लिए बनाई नीति का मुख्य आधार हो गई जब माना गया कि राष्ट्र एक स्वतंत्र राज्य के रूप में आजाद हुआ है. सैन्य बल की तैनाती और आर्थिक कदम उठाना दरअसल दंड और पुरस्कार की पद्धति है ताकि इस क्षेत्र में जनजातीय और नस्लीय समूहों के रूप में चिन्हित उद्दंड और पिछड़े लोगों को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधा जा सके.

इस दृष्टिकोण को अनिवार्य और सर्वसम्मत किया गया लेकिन इसमें राष्ट्र की वह सच्चाई ओझल है जो बेनेडिक्ट एंडरसन के शब्दोें में उसे कल्पित समुदाय बनाती है. दक्षिण एशिया में राष्ट्रवाद का जन्म यहा के लोगों पर यूरोपीय शासकों द्वारा बड़े पैमाने पर थोपे गए औपनिवेशिक अपमान से ही हुआ है. मसलन, दक्षिण एशिया के लोगों पर इस आरोप के जवाब में कि उनका कोई इतिहास नहीं है, राष्ट्रभक्तों (जैसे, बंकिमचंद्र चट्‌टोपाध्याय) ने इतिहास लिखने की कोशिश की और दावा किया कि यहां का इतिहास पांच हजार वर्ष पुरानी सभ्यता से जुड़ा हुआ हे. इतिहास-विज्ञान का यहां मुख्य मानदंड है जिसके आधार पर राष्ट्रवादियों ने राजनीतिक रूप से स्वतंत्रता के अधिकार का दावा किया ताकि भारत को राष्ट्रों के समूह का सदस्य बनाया जाए. इस पुष्टि से जहां भारत को सांस्कृतिक पहचान मिली, वहीं पूर्ववर्ती शासनों का राजनीतिक ढांचा और खास कर ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन का ढांचा नए राज्य की कल्पना का आधार बना. संंस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों आदि की विविधता को देखत ेहुए वांछित राजनीतिक अस्तित्व में एक उदारवाी लोकतंत्र लोकाचार अपनाया गया जिसमें मतभेदों को एक राजनीतिक तंत्र में समेटने की इच्छा जताई गई.

हालांकि इतिहास के मुताबिक, बहु-सांस्कृतिक स्थिति के बावजूद सांस्कृतिक परिकल्पना का एकल-सांस्कृतिक दबाव पर ही जोर रहता है. इसी दबाववश एक उच्च जातीय ब्राह्‌मणवादी राष्ट्रीय माहौल बना जिसने 1920 तथा 1930 के दशकों के दौरान राष्ट्रवादी आंदोलन को (मुस्लिमों और पिछड़ी जातियों/दलितों के प्रश्न पर) खंडित कर दिया. दरअसल, हिंदुओं की परिकल्पना भारत माता (कुछ बंगाली राष्ट्रवादियों की काल्पनिक उपज) के स्वाभाविक बच्चों और मुस्लिमों की गोद लिए बच्चों के तौर पर की गई. यह परिकल्पना नेहरू जैसे उदारवादी राष्ट्रवादी में भी फ्रायडियन चूक की तरह उभरी जब उन्होंने मुस्लिमोंे और ईसाइयों को ऐसे समूह के रूप में चित्रित किया जो देश की साझा संस्कृति, हिंदू धर्म से ज्यादा बड़ी चीज, अपना कर भारतीय बन गए थे. इससे यही संकेत मिलता है कि भारतीयता के संदर्भ में हिंदुओं को मिश्रित संस्कृति अपनाने की जरूरत नहीं है और यह बहु-सांस्कृतिक परिवेश में एकल-संस्कृति पर जोर दिए जाने का ही एक नमूना है.

भारत की सांस्कृतिक परिकल्पना के हिंदुओं (उच्च जातीय/ब्राह्‌मणवादी) रूप ने 20वीं सदी के दक्षिण एशिया में राष्ट्रवादी राजनीति में फूट पैदा की तो इंडिक सिविलाइजेशन (उपर्युक्त सांस्कृतिक बदलाव) की धारणा ने राष्ट्र की परिकल्पना से ही पूर्वोत्तर को अलग-थलग रखा. एक पूर्व केंद्रीय मंत्री का मानना है कि दक्षिणपूर्व एशिया भारत के पूर्वोत्तर से ही शुरू होता है. हानिरहित सा दिखने वाला यह नजरिया पूर्वोत्तर के सांस्कृतिक अलगाव को रेखांकित करता है. आखिर दक्षिण एशिया ही इंडिक सिविलाइजेशन का ही घर है और दक्षिण पूर्व एशिया को अक्सर एक ऐसे स्थान के रूप में देखा जाता है जो अतिथि सभ्यता की छाप है, खास कर इंडिक सिविलाइजेशन और सिनिक (चीनी) सिविलाइजेशन की छाप रखता है. पूर्वोत्तर के लोगों को मुख्य हिस्से से सांस्कृतिक और नस्लीय तौर पर भिन्न मानना पूर्वोत्तर की बाह्‌यता का साक्ष्य है. राष्ट्रीय मीडिया से इस क्षेत्र की सामान्य अनुपस्थिति भी इसी तरह के विलगाव का सूचक है.

इस तरह का सांस्कृतिक विलगाव राजनीतिक विलगाव के एक अन्य रूप से परिपूरित होता है. इसक बेहतरीन मिसाल कुख्यात साशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम है जिसके तहत कानून और व्यवस्था बहाल करने के लिए है जो प्रदेशिक सूची में है, सेैनिकों की तैनाती का अधिकार है, किसी भी राज्य में है. देश की सुरक्षा और एकता के लिए खतरा बनने वाले सशस्त्र विद्रोहियों से निपटने के लिए संविधान में आपात तैनाती के बनने वाले सशस्त्र विद्रोहियों से निपटने के लिए संविधान में आपात तैनाती के बनने वाले सशस्त्र विद्रोहियों से निपटने के लिए संविधान में आपात तैनाती के प्रावधान (अनुच्छेद 352) पर विचार किया गया है जो राज्य के आंतरिक मामलों में सेना के दखल की व्यवस्था करता है. हालांकि इस अधिनियम पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले (1997) में साफ कहा गया है कि सशस्त्र विद्रोहियों के कारण जिन-जिन जगहों पर यह अधिनियम लागू किया गया हे वहां अशांत स्थिति प्रदर्शित करने के लिए कोई तथ्यात्मक साक्ष्य नहीं मिला है. लेकिन अब भी कई लोग यह कह रहे हैं कि वहां सशस्त्र विद्रोही मौजूद हैं और उन्हें कुचलने के लिए सशस्त्र बलों का इस्तेमाल जरूरी है. असल में, उदारवादी लोकतंत्र की संवैधानिक भावना ऐसी कानूनी कल्पना के आधार पर ही सैन्य तैनाती को कानूनन जायज ठहराती है. सशस्त्र उग्र वामपंथियों की तुलना में पूर्वोत्तर के विद्रोहियों से कम खतरा लगता है लेकिन लोकतांत्रिक राज्य आपात स्थिति लागू करते हुए पूर्वोत्तर में ही कानून-व्यवस्था की समस्या से निपटने के लिए सैनिकों की तैनाती करता है, वह भी आधी शताब्दी से ज्यादा समय से.

बीसवीं सदी में उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन का हवाला देते हुए ज्यां पॉल सॉत्र ने कहा कि बहिष्कृत अपनी राष्ट्रीयता विशिष्टता की पुष्टि करते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि इस क्षेत्र में उपनिवेशवाद के बाद के भारतीय गणराज्य में उपजे सशस्त्र विद्रोह इसका उदाहरण है. इसलिए हर किसी के लिए स्वतंत्रता दिवस के जश्न को सार्थक बनाने के संदर्भ में इन विलगाव पर सचमुच ध्यान दिए जाने की जरूरत है.

-बिमोल अकोइजम
प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय
bimol_akoijam@yahoo.co.in

Thursday, September 22, 2011

हमारे हृदय में सिक्किम है क्या?

विगत 18 सितंबर को देश के पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद दरके मकान, हिलते-डुलते सामान, सीसीटीवी फुटेज, लोगों की प्रतिक्रियाएं और पटना- दिल्ली के दृश्यों से सिक्किम के भूकंप की कहानी बनाकर राष्ट्रीय चैनलों ने कई घंटे दर्शकों को बांधे रखा. सरकार भी चार-छह हेलीकॉप्टर भेज कर खराब मौसम का हवाला देकर बारह घंटे के लिए सो गई. लेकिन रोते-बिलखते अपनों को ढूंढ़ते लोगों तक पहुंचने में देश के ताकतवर मीडिया को चौबीस घंटे से ज्यादा का समय लग गया.

राहत और रसद तो छोड़िए, भूकंप की भयावहता को आंकने में भी केंद्र सरकार को एक दिन से ज्यादा का समय लग गया. घंटों कैबिनेट सचिव दावा करते रहे कि कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है. लेकिन वस्तुस्थिति का आकलन न आपदा प्रबंधन वाले कर पाए, न राहत वाले समय पर पहुंच पाए और न ही मीडिया पहुंच पाया.
जब भूकंप में घायल लोग दम तोड चुके मृतकों की अर्थियां उठ गईं, घरों में डर और सन्नाटा पसर गया, तब 24 घंटे बाद मीडिया पहुंचा. लेकिन उनका दुस्साहस देखिए कि सबने अपने-अपने स्क्रीन के ऊपर में लगाया सिक्किम पहुंची हमारी टीम. मानो वे युगांडा या कैरिबियन आइलैंड पहुंचने की बात कर रहे हों.

इस देश में दो भारत बसते हैं- एक अमीरों का, दूसर गरीबों का. एक उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम का, तो दूसरा पूर्वोत्तर का. एक भारत के लिए सारी नीतियां दिल्ली में बनती हैं. दूसरे भारत के लिए पैसा तो दिल्ली से जाता है, पर उसकी चिंता दिल्ली वैसे ही करता है, जैसे मां-बाप बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में भेज कर करते हैं.
आपको इन दोनों भारत के बीच बढ़ती खाई का एक वाकया सुनाता हूं. कुछ वर्ष पूर्व हमें तवांग जाने का मौका मिला. चीन 1962 की लड़ाई के बाद तवांग को अपना इलाका मानता रहा है. तब पूरे अरुणाचल प्रदेश में इसे बड़ी देखने वहां पहुंच थे.

अरुणाचल में चीने घुसपैठ की खबरें आती रहती हैं, जिसे दिल्ली का शासन नकारता रहता है. हमें उस यात्रा के दौरान भारतीय सेना के बड़े अधिकारी और गांववालों ने घटना के तौर पर देखा जा रहा था, क्योंकि देश-विदेश के हजारों मीडियाकर्मी दलाई लामा की इस तवांग यात्रा को कई कहानियां सुनाई कि कैसे चीनी उनके इलाकों में घुस कर भेड़ बकरी उठा ले जाते हैं और उनकी फसलें बरबाद कर जाते हैं. लेकिन दिल्ली तक उनकी बात पहुंचती नहीं या अनसुनी कर दी जाती है. एक बूढ़े-से आदमी ने कहा कि दिल्ली हमारी न बात सुनती है न समझती है. इससे पहले बीजिंग हमारी चिंता समझ लेता है. उस व्यक्ति की देशभक्ति पर हमें संदेह नहीं था, बल्कि अशांति और अलगाव की चिंताएं साफ झलक रही थीं. हर जगह हमें यही सुनने को मिला कि चीनियों से टक्कर लेने के लिए वे सड़क रेल लाइन और हवाई पट्‌टी बनाने की मांग करते हैं, लेकिन कोई आश्वासन भी नहीं मिलता. उनकी आवाज घाटियों में गूंज कर रह जाती है.

तवांग से हम सिक्किम पहुंचे, तो वहां भी वहीं सब कुछ सुनने को मिला. गंगटोक में ग्रीनफील्ड अयरपोर्ट बनाने का प्रोजेक्ट वर्षों से चल रहा है लेकिन अब तक बना नहीं. जिसकी वजह से बागडोगरा के एयरपोर्ट से काम चलाना पड़ता है. वहां के प्राकृतिक संसाधनों को बड़ी कंपनियां लूट रही है और वहां के लोग गरीब और अलवागवादी बनते जा रहे हैं.

इन सबके बीच सुकूनदेह बात यह थी कि अंगरेजी के बदले हिंदी वहां संपर्क भाषा थी. स्थानीय भाषा से ज्यादा वहां के लोग हिंदी पर भरोसा करते हैं. अफसोस कि हिंदीपट्‌टी के नीति निर्धारकों को इनकी कोई चिंता नहीं है और न ही इस देश के मीडिया के नक्शे में पूर्वोत्तर की कोई जगह बनती है. मीडियाकर्मी भूल जाते हैं कि वह भी इसी देश का हिस्सा है. सचाई तो यह है कि राष्ट्रीय मीडिया के संवाददाता पूर्वोत्तर में गुवाहाटी से आगे बढ़ते ही नहीं. ज्यादातर हिंदी चैनलों ने तो गुवाहाटी के ब्यूरो को बंद कर दिया है. हमें पूर्वोत्तर के प्रति इस उपेक्षा को समझना होगा और इसका निदान ढूंढ़ना होगा. इससे पहले कि काफी देर हो जाए हमें उनकी भावनाओं को समझना होगा.

-शंकर अर्निमेष

Thursday, September 8, 2011

मणिपुर और शर्मिला को अन्ना का इंतज़ार


अन्ना हजारे के आंदोलन ने संसद को हिला दिया. सरकार अन्ना की आवाज़ अनसुना नहीं कर पाई, उसने अन्ना की मांग को गंभीरता से लिया और उस पर अमल भी करना शुरू कर दिया. पूरे देश की जनता ने अन्ना का साथ दिया. दो सप्ताह तक पूरा देश अन्नामय रहा. दूसरी तऱफ इरोम शर्मिला चनु हैं, जो पिछले 11 वर्षों से अहिंसात्मक तरीक़े से आमरण अनशन कर रही हैं, सेना के विशेषाधिकार क़ानून को मणिपुर से हटवाने के लिए. इस क़ानून की आड़ में सेना जो चाहे कर सकती है. थांगजम मनोरमा इस बात का जीता-जागता उदाहरण है. आतंकवादियों से कथित संबंधों के आरोप में सुरक्षाबल के जवान उसे घर से उठाकर ले गए और सामूहिक बलात्कार करने और मौत के घाट उतारने के बाद अगले दिन उसकी लाश घर के पास फेंक गए. मनोरमा को सात गोलियां मारी गईं. मनोरमा जैसे कई और उदाहरण हैं, जिन्हें लोग सुनना और जानना नहीं चाहते. इस घिनौनी हरकत के विरोध में पेबम चितरंजन नामक एक सामाजिक कार्यकर्ता ने आत्मदाह कर दिया. वर्ष 1958 में यह क़ानून इस उद्देश्य के साथ लागू किया गया था कि नगालैंड में सशस्त्र विद्रोह का सामना करने के लिए भारतीय सशस्त्र बलों को अधिक शक्तियां प्रदान की जा सकें. 1980 में यह क़ानून मणिपुर में भी लागू हो गया.
2 नवंबर, 2000 को असम रायफल्स के जवानों ने मणिपुर घाटी के मालोम क़स्बे में बस की प्रतीक्षा कर रहे दस निर्दोष नागरिकों को गोलियों से भून डाला. एक किशोर और एक बूढ़ी महिला को अपनी जान गंवानी पड़ी. हादसे की दर्दनाक तस्वीरें अगले दिन अख़बारों में छपीं. 28 वर्षीय सामाजिक कार्यकर्ता, पत्रकार एवं कवयित्री इरोम शर्मिला ने भी ये तस्वीरें देखीं. असम रायफल्स ने अपने बचाव में तर्क दिया कि आत्मरक्षा के प्रयास में क्रॉस फायर के दौरान ये नागरिक मारे गए, लेकिन आक्रोशित नागरिक स्वतंत्र न्यायिक जांच की मांग कर रहे थे. इसकी अनुमति नहीं दी गई, क्योंकि असम रायफल्स को अफसपा के तहत ओपन फायर के अधिकार हासिल थे. तभी से शर्मिला ने शपथ ली कि वह लोगों को इस क़ानून से मुक्त कराने के लिए संघर्ष करेंगी. उनके सामने अनशन के अलावा और कोई चारा नहीं था. उन्होंने अपनी मां का आशीर्वाद लिया और 4 नवंबर, 2000 को अनशन शुरू कर दिया. एक दशक बीतने के बावजूद क़ानून यथावत लागू है और शर्मिला का अभियान भी जारी है.
मणिपुर वूमेन गन सरवाइवर्स नेटवर्क की संस्थापक महासचिव बीना लक्ष्मी नेप्रम कहती हैं कि अन्ना हजारे के आंदोलन को देखकर मणिपुर के हज़ारों युवाओं के दिल में यह सवाल उठ रहा है कि आखिर शर्मिला के अहिंसात्मक आंदोलन को नज़रअंदाज़ क्यों किया जा रहा है. मणिपुर में भी बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार है. एक ओर देश की संसद लोगों को जीने का अधिकार देती है, मगर अफसपा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट) लोगों का वह अधिकार छीन लेता है. अगर केंद्र सरकार वाकई पूर्वोत्तर के लोगों की चिंता करती है तो उसे यह क़ानून हटा लेना चाहिए. मणिपुर में प्रतिदिन तीन-चार आदमी सेना की गोली का शिकार बनते हैं. लोग कहते हैं कि हमें अन्ना पर गर्व है. इस देश को उनकी ज़रूरत है. अन्ना इंफाल आएं और शर्मिला के आंदोलन का समर्थन करें.
शर्मिला का आंदोलन 11 साल से जारी है, मगर आज तक राज्य और केंद्र सरकार ने कोई पहल नहीं की. शर्मिला की मांग पर चर्चा क्यों नहीं हो रही है. 2005 में जस्टिस जीवन रेड्डी कमेटी भी इस क़ानून को दोषपूर्ण बता चुकी है. फिर भी सरकार ने चुप्पी साध रखी है. ऐसे में सवाल यह उठता है कि क्या अनशन केवल उत्तर भारतीयों के लिए विरोध का हथियार है. अगर दो सप्ताह के अंदर ही सरकार और संसद अन्ना की मांग पर चर्चा करना ज़रूरी समझ लेती है तो उसे 11 सालों से अनशन कर रही शर्मिला की मांग ज़रूरी क्यों नहीं लगती? शर्मिला को बीते 30 अगस्त को एक मामले की सुनवाई के लिए अदालत आई थीं, तब उन्होंने कहा कि एक दिन मानवाधिकार हनन के ख़िला़फ मेरे संघर्ष और मांग को सरकार मान्यता देगी. उन्होंने कहा कि अन्ना मणिपुर आएं और यहां की स्थिति अपनी आंखों से देखें. शर्मिला के भाई सिंहजीत सिंह का कहना है कि सरकार शर्मिला की मांग को नहीं सुन रही है. शर्मिला आम लोगों की लड़ाई लड़ रही है. उसका अनशन अंतिम समय तक चलता रहेगा. मणिपुर के सांसद थोकचोम मैन्य सिंह कहते हैं कि 2005 में जस्टिस जीवन रेड्डी कमेटी ने कहा था कि अफसपा को हटाना ज़रूरी है. कई मंत्रियों ने भी इसका समर्थन किया. मैं हमेशा इस एक्ट को हटवाने के लिए अपील करता रहता हूं, मगर संसद में अकेला पड़ जाता हूं.
उत्तर-पूर्व को देश की मुख्यधारा में लाने के लिए सरकार को वहां की जनता की भावनाओं को समझना होगा. एक अनुरोध अन्ना से भी है कि वह अब आप स़िर्फ महाराष्ट्र या उत्तर भारत के नहीं हैं, पूरा देश उनका है. वह शर्मिला का समर्थन करके यह दिखा दें कि आज भी भारत एक है, हम सब एक हैं. मणिपुर और शर्मिला को आपका इंतज़ार है अन्ना.

Friday, August 19, 2011

मणिपुर जातीय तनाव की चपेट में

देश के सुदूर उत्तर-पूर्व राज्यों की सुध लेने वाला कोई नहीं है. राज्य सरकार ही नहीं, केंद्र सरकार भी इस बारे में गंभीर नहीं है. कम से कम पिछले एक सप्ताह से मणिपुर को जो़डने वाली लाइफ लाइन यानी एनएच 53 और 39 की आर्थिक नाकेबंदी से तो ऐसा ही लग रहा है. मामला सदर हिल्स डिस्ट्रिक बनाने की मांग का है. आम आदमी परेशान है, लेकिन राज्य सरकार इस सब से मानो बे़खबर है. आ़खिर, मणिपुर इस जातीय तनाव से कब मुक्त होगा?
सदर हिल्स डिस्ट्रिक की मांग धीरे-धीरे तूल पकड़ रही है. लोग सड़क पर उतर रहे हैं. महिलाएं और बच्चे भी इसमें शामिल हो रहे हैं. शांति व्यवस्था प्रभावित हो रही है. कई गाड़ियां जलाई गईं, एनएच 53 के बीचोंबीच खुदाई कर रखी है. पेसेंजर बस सेनापति ज़िले में फंसी रही. सामान लाने वाली गाड़ियां सिक्युरिटी द्वारा कोहिमा से उख्रूल ज़िले के जेसामी होते हुए इंफाल लाई जा रही हैं. पुलिस लाचार है. इस इकोनॉमी ब्लॉकेड से आम जीवन प्रभावित हो रहा है. रोज़मर्रा के जीवन में उपयोग होने वाले सामान की कमी से वस्तुओं के दाम बढ़ रहे हैं. किसान सबसे ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं.
मणिपुर में छोटी-छोटी जातियों के बीच सांप्रदायिक तनाव हमेशा होता रहा है. इस बार फिर सदर हिल्स डिस्ट्रिक डिमांड कमेटी ने सदर हिल्स डिस्ट्रिक्ट बनाने की मांग की है और जिसे लेकर प्रदेश में का़फी तनाव है. 31 जुलाई की रात से मणिपुर के दोनों राष्ट्रीय राज्यमार्ग (एनएच 53 और 39) नाकेबंदी शुरू हो गई थी. इस दौरान एक छात्र समेत पांच लोगोंे की मौत हो गई. 10 सरकारी ऑफिस भी जलाए गए, जिनमें सपरमैना स्थित डीआई ऑफिस के गोडाउन, ट्राइवल डेवलपमेंट ऑफिस और साइकुल स्थित एसडीओ ऑफिस आदि शामिल हैं. एनएच 53 में स्कोर्ट के लिए गई एक गाड़ी खाई में गिर गई और छह एमआर (मणिपुर रायफल्स) के जवान घायल हो गए. खाने-पीने का सामान ढोकर आ रही 150 गाड़ियां एनएच 53 में फंसी हुई हैं.
मणिपुर विधानसभा चुनाव अगले साल ़फरवरी में होने हैं. ऐसे में जातियों के बीच तनाव या झगड़े का मक़सद राजनीतिक दलों का ध्यान आकृष्ट करने का भी होता है. सेनापति ज़िले को दो टुकड़ों में तोड़ कर सदर हिल्स ज़िला बनाने की यह मांग का़फी समय से की जा रही है. सदर हिल्स डिस्ट्रिक डिमांड कमेटी कुकियों की है. सदर हिल्स एरिया में नगा जाति अधिक संख्या में है. जब 1992 में नगा और कुकी जातियों के बीच लड़ाई हुई थी, तब से दोनों जातियों के बीच हमेशा तनाव बना हुआ था. भले ही दोनों जातियों के बीच बाहरी दिखावा हो, मगर उन दोनों का पॉलिटिकल एजेंडा अलग-अलग है. घाटी स्थित बड़ी आबादी वाली मीतै जाति भी दोनों जातियों के बीच की लड़ाई में कुछ नहीं बोल रही है. मीतै ने सदर हिल्स डिस्ट्रिक बनाने की मांग पर अभी तक कोई राय ज़ाहिर नहीं की है. मगर सेनापति ज़िले में बसी नगा जाति का दावा है कि यह ज़िला केवल उन लोगों का है. इसलिए यह ज़िला उनकी मर्ज़ी के बिना नहीं बन सकता. सदर हिल्स डिस्ट्रिक बनाने में सबसे ज़्यादा आपत्ति नगा जाति को है. अगर नगा जाति का विरोध नहीं होता तो सदर हिल्स डिस्ट्रिक बहुत पहले बन गया होता. कुकी जाति की उप जातियां- आइमोल, अनाल, चोथे, चीरू, गांटे, मार, कोइरेंग, कोम, लमकां, लूसाइ, मोयोन, मोनशांग, पाइटे, थादौ, वाइफै, पुरुम, जौ आदि शुरुआत से ही मणिपुर में रह रही थीं. मणिपुर के राजा नरसिंह के समय से ये कुकी उप जातियां पहाड़ों पर बसने लगी थीं. उन लोगों की मदद से राजा नरसिंह की सैन्य ताक़त में और भी ब़ढोतरी हुई थी. ऐसा माना जाता है कि कुकी जातियां म्यांमार के चितांगों पहाड़ों से आई हैं. वह मणिपुर के राजा से दोस्ती कर मोयरांग नामक जगह पर बस गई थीं. माउ सब डिविजन से कुछ जगह, तमेंगलोंग से कुछ गांव, सेंट्रल इंफाल ज़िले से कुछ इलाक़े निकाल कर सदर हिल्स बनाया था. सदर हिल्स में दो तिहाई तो नगा जाति बसी हुई है. इसलिए कुकी होमलैंड बनाने की बात को लेकर नगा जाति परेशान रहती है. इस तरह नगाओं के मालिकाना होने के बाद भी सदर हिल्स डिस्ट्रिक बनाने की कुकियों की यह मांग एंटी नगा पॉलिसी मानी जा रही है.       
आ़िखर इस तरह के जातीय तनाव पर सरकार को अपनी नीति स्पष्ट करनी चाहिए, अन्यथा धीरे-धीरे यह जातीय तनाव पूरे प्रदेश में भी फैल सकता है. सदर हिल्स डिस्ट्रिक डिमांड कमेटी को नगा संगठनों से बातचीत करनी चाहिए, ताकि हल का रास्ता निकल आए.

 नगाओं की अनुमति के बिना सरकार ़फैसला नहीं कर सकती - एस.डी.एस.ए.

सदर हिल्स को पूर्ण ज़िला बनाने को लेकर हो रही मांग पर सेनापति डिस्ट्रिक स्टूडेंट एसोसिएशन ने कहा कि राज्य सरकार नगाओं की अनुमति के बिना निर्णय लेगी तो उसके बाद जो भी घटना घटेगी, उसकी ज़िम्मेदारी मणिपुर सरकार की होगी. सदर हिल्स डिस्ट्रिक डिमांड कमेटी 31 जुलाई से एनएच 39 और 53 की आर्थिक नाकेबंदी कर आम जनता को ज़्यादा परेशान कर रही है. मेडिकल एंबुलेंस पर पथराव करना, श्राद्ध कर्म पर जाने वाली गाड़ी रोकना और स्कूली बच्चों की गाड़ी रोकना, परीक्षा के लिए जा रहे छात्रों को रोकना, ये सब ग़लत है. एसडीएसए ने कहा कि मानवीय मुद्दों पर छूट देनी चाहिए. नगाओं के हक़ को नकारते हुए अगर ज़िला बनाया तो जातियों के बीच का़फी तनाव पैदा होगा, इसलिए सरकार सही निर्णय ले.

Thursday, July 7, 2011

हिंदी हमारी राष्‍ट्रभाषा नहीं है

हिंदी, हिंद और हम, एक हिंदुस्तानी की पहचान इससे ज़्यादा और क्या हो सकती है, लेकिन जिस पहचान को दुनिया मानती है, जानती है, उसे हमारी अपनी सरकार मानने को तैयार नहीं है. शायद तभी केंद्र सरकार ने खुलकर और आधिकारिक तौर पर कह दिया है कि हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा नहीं है. 
हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है. हिंदी जन-जन की भाषा है. आजादी की लड़ाई में हिंदी ने लोगों को जोड़ने का काम किया, लेकिन यह बात हमारी सरकार और संसद नकारती रही है. पिछले साल गुजरात हाईकोर्ट ने एक मामले की सुनवाई के दौरान कहा था कि भारत की अपनी कोई राष्ट्रभाषा है ही नहीं. अदालत ने कहा कि भारत में अधिकांश लोगों ने हिंदी को राष्ट्रभाषा के तौर पर स्वीकार कर लिया है. बहुत से लोग हिंदी बोलते हैं और इसे देवनागरी लिपि में लिखते भी हैं, लेकिन यह भी एक तथ्य है कि हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा नहीं है. मुख्य न्यायाधीश एस जे मुखोपाध्याय की खंडपीठ ने यह बात उस समय कही, जब उसे डिब्बा बंद सामानों पर हिंदी में विवरण लिखे जाने से संबंधित एक मामले में फैसला सुनाना था. सुरेश कचाड़िया ने गुजरात हाईकोर्ट में पीआईएल दायर करके मांग की थी कि डिब्बा बंद सामानों पर हिंदी में उत्पाद संबंधी विवरण लिखा होना चाहिए और यह नियम केंद्र और राज्य सरकारों द्वारा लागू कराया जाना चाहिए. पीआईएल में कहा गया था कि डिब्बा बंद सामानों पर कीमत आदि जैसी जरूरी जानकारियां हिंदी में भी लिखी होनी चाहिए. तर्क यह था कि हिंदी इस देश की राष्ट्रभाषा है और देश के अधिकांश लोगों द्वारा बोली और समझी जाती है, इसलिए यह जानकारी हिंदी में छपी होनी चाहिए. इस मामले की सुनवाई के दौरान अदालत का कहना था कि क्या इस तरह का कोई नोटिफिकेशन है कि हिंदी भारत की राष्ट्रभाषा है, क्योंकि हिंदी तो अब तक राजभाषा यानी आधिकारिक भर है. सरकार द्वारा ऐसा कोई नोटिफिकेशन अब तक अदालत में पेश नहीं किया गया है. हिंदी देश के राज-काज की भाषा है, न कि राष्ट्रभाषा.
दूसरी तरफ अभी हाल में केंद्रीय गृह मंत्रालय के राजभाषा विभाग से एक खबर आई कि संविधान में राष्ट्रभाषा का प्रावधान नहीं है. यह जानकारी विभाग ने सामाजिक कार्यकर्ता मनोरंजन रॉय को दी है. रॉय ने बीते 6 जून को सूचना का अधिकार अधिनियम के तहत गृह मंत्रालय से राष्ट्रभाषा के संबंध में जानकारी मांगी थी. मंत्रालय के जवाब के मुताबिक, भारतीय संविधान के अनुच्छेद 343 के अंतर्गत हिंदी केंद्र की राजभाषा जरूर है, परंतु संविधान में राष्ट्रभाषा का कोई प्रावधान नहीं है.                                                                                
सामाजिक कार्यकर्ता रॉय ने कहा कि देश को हिंदी में भारत, अंग्रेजी में इंडिया और उर्दू में हिंदुस्तान के नाम से पुकारा जाता है. इसलिए उन्होंने अपनी आरटीआई की अर्जी में पूछा था कि इस देश का आधिकारिक नाम क्या है? बहरहाल, इन दोनों उदाहरणों को देखते हुए इस देश में हिंदी की दशा और दिशा का अंदाजा लगाया जा सकता है. वर्ष 1965 में संसद द्वारा हिंदी राजभाषा अधिनियम पारित किया गया था. तभी से हिंदी को सिर्फ राजभाषा का दर्जा हासिल है, लेकिन राष्ट्रभाषा का नहीं? क्यों? जब स्वतंत्रता आंदोलन के वक्त यह कहा जाता रहा कि हिंदी ही देश की राष्ट्रभाषा हो सकती है, तब आजादी के बाद संविधान में सिर्फ राजभाषा का ही उल्लेख क्यों किया गया? 
राष्ट्रभाषा कहने के दो तात्पर्य निकलते हैं. एक है राष्ट्र की एकमात्र भाषा. किसी भी बहुभाषिक देश में अन्य सारी भाषाओं की अस्मिता को ठुकराते हुए उनके स्थान पर सिर्फ एक भाषा को ही स्वीकार करने वाली बात किसी भी जनतांत्रिक देश में सही नहीं मानी जा सकती. इस कारण कुछ विद्वान राष्ट्रभाषा के प्रश्न पर विचार करते हुए इस शब्द के अर्थ को विस्तार देकर कहते हैं कि हिंदी, तमिल, तेलुगु और बांग्ला आदि सभी हमारी राष्ट्रभाषाएं हैं. फिर इस अर्थ में राष्ट्रभाषा का कोई निश्चित अर्थ नहीं रह जाता. 
राष्ट्रभाषा का दूसरा अर्थ यह है कि उससे सांकेतिक सम्मान प्रकट होता है, जैसे राष्ट्रगान से. हिंदी भाषा का प्रश्न सम्मान से अधिक उसके प्रयोजनों का है, उसकी भूमिकाओं का है. राजभाषा के तौर पर हिंदी की अहम भूमिका है. इसकी अन्य महत्वपूर्ण भूमिकाएं भी हैं. यह देश की भाषाओं के बीच एक सेतु है, एक संपर्क भाषा है. यह दस से अधिक देशों में बोली जाती है और लगभग 150 विदेशी विश्वविद्यालयों में पढ़ाई जाती है. भारतेंदु बाबू की एक पंक्ति आज भी जेहन में ताजा है-निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के आपा मिटे हिय को सूल.  
आजादी के 64 सालों बाद भी आज हिंदी उपेक्षा की शिकार है. हिंदी अपने ही घर में सौतेला व्यवहार झेल रही है. पूरे देश को एक सूत्र में पिरोने वाली भाषा हिंदी ही हो सकती है. हिंदी राजभाषा, संपर्क भाषा और राष्ट्रभाषा के तौर पर इस विविधता से भरे देश को एकता के सूत्र में बांधने का काम कर सकती है. केंद्र सरकार का यह कर्तव्य है कि वह हिंदी भाषा का प्रचार-प्रसार करे, उसका विकास करे, जिससे वह संपूर्ण भारतवर्ष की अभिव्यक्ति का माध्यम बन सके. 

Saturday, May 14, 2011

खांडू की मौत से उपजे सवाल

बीते 30 अप्रैल को हेलीकाप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से अरुणाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री दोरजी खांडू की असामयिक मृत्यु हो गई. इससे भी ज़्यादा दु:ख की बात यह है कि इस तरह की दुर्घटनाएं बार-बार हो रही हैं. इस हादसे से पहले भी कई वीवीआईपी हेलीकॉप्टर दुर्घटना के शिकार हो चुके हैं, लेकिन यह दुर्घटना एक साथ कई सवाल खड़े कर रही है. मालूम हो कि अरुणाचल की सीमा चीन से लगी हुई है. चीन सीमा से सटे होने के कारण अरुणाचल प्रदेश में ढांचागत सुविधाओं का अभाव है. अपने कड़े रुख के कारण खांडू चीन की आंखों की किरकिरी बने हुए थे. खांडू ने बीते 30 अप्रैल की सुबह पवन हंस हेलीकॉप्टर कंपनी के यूरोकाप्टर बी-8 से उड़ान भरी थी. उड़ान भरने के 20 मिनट बाद ही यह हेलीकॉप्टर लापता हो गया और उसका संपर्क नियंत्रण कक्ष से टूट गया. इसी बीच किसी अज्ञात सेटेलाइट फोन से ़खबर आई कि खांडू को ले जा रहा हेलीकॉप्टर भूटान के सीमावर्ती क्षेत्र में उतर गया है, लेकिन बाद में इसकी पुष्टि नहीं हुई. यह किसका सेटेलाइट फोन था, इस पर भी अभी रहस्य बना हुआ है. अरुणाचल जैसे दुर्गम क्षेत्र में पवन हंस कंपनी के हेलीकॉप्टरों के बार-बार दुर्घटनाग्रस्त होने के बावजूद सरकार सबक क्यों नहीं ले रही है? पिछले दिनों तवांग में पवन हंस का एक और हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो गया था, जिसमें 17 लोगों की मौत हो गई थी. उसके बाद पवन हंस कंपनी की सेवा और लापरवाही को लेकर कई सवाल भी उठे थे. यही नहीं, पूूर्वोत्तर की विभिन्न राज्य सरकारें भी कई बार शिकायत कर चुकी थीं. बावजूद इसके इस इलाक़े में पवन हंस कंपनी की हेलीकॉप्टर सेवा जारी रहना कई तरह के संदेह पैदा करता है. तवांग जैसे बीहड़ क्षेत्र में मुख्यमंत्री को ले जाने वाले पवन हंस हेलीकॉप्टर में केवल एक इंजन लगा होना लापरवाही का सबसे बड़ा उदाहरण है. सरकार को इस बात की जांच करनी चाहिए कि पवन हंस कंपनी का रिकॉर्ड इतना खराब होने के बावजूद उसके एक इंजन वाले हेलीकॉप्टर की सेवा क्यों ली गई? लगातार पांच दिनों तक सेना, सीमा सड़क संगठन, भारत-तिब्बत सीमा पुलिस, एसएसबी और अरुणाचल पुलिस के क़रीब 3 हज़ार जवान हेलीकॉप्टर खोजने के अभियान में जुटे रहे. यही नहीं, वायुसेना के सुखोई-30 विमानों-हेलीकॉप्टरों और इसरो ने भी इस अभियान में का़फी मेहनत की, लेकिन सफलता हाथ नहीं लगी. सारे प्रयास धरे के धरे रह गए. बाद में ग्रामीणों ने शवों और हेलीकॉप्टर के मलवे को देखा और उन्होंने ही अरुणाचल नियंत्रण कक्ष को इसकी सूचना दी. उसके बाद सुरक्षाबल वहां पहुंचे और शवों की पहचान हुई. दोरजी का शव क्एला और लोबोथांग के बीच पाया गया. इस दुुर्घटना में जान गंवाने वालों में खांडू के अलावा पायलट जे एस बब्बर, कैप्टन टी एस मामिक, खांडू के सुरक्षा अधिकारी एशी कोडक और तवांग के विधायक त्सेवांग धोंडप की बहन एशी ल्हामू भी शामिल थे. अरुणाचल की जनता द्वारा पवन हंस कंपनी के कार्यालय में तोड़फोड़ करना स्वाभाविक था. केंद्र सरकार को तत्काल प्रभाव से पवन हंस की सेवा बंद कर देनी चाहिए, साथ ही इस कंपनी को काली सूची में डाल देने की ज़रूरत है. इस बात की जांच होनी चाहिए कि अनुभवहीन पायलटों के कारण तो ऐसी घटना नहीं हुई? केंद्र सरकार को इस दिशा में गंभीरता से क़दम उठाना होगा. खांडू से पहले भी विभिन्न विमान दुर्घटनाओं में अनेक महत्वपूर्ण व्यक्तियों की मौत हो चुकी है. वर्ष 2009 में आंध्र प्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री वाई एस राजशेखर रेड्डी भी नल्लामल्ला की पहाड़ियों में हेलीकॉप्टर दुर्घटनाग्रस्त हो जाने से मारे गए थे. कांग्रेस के वरिष्ठ नेता माधवराव सिंधिया, पूर्व लोकसभा अध्यक्ष जी एम सी बालयोगी, कांग्रेस के युवा नेता संजय गांधी और पूर्व केंद्रीय इस्पात मंत्री मोहन कुमार मंगल की मौत भी इसी प्रकार हुई थी.

बांग्लादेश युद्ध और दोरजी


56 वर्षीय दोरजी खांडू मोनपा जनजाति के थे. उनके परिवार में चार पत्नियां, चार पुत्र और दो पुत्रियां हैं. दोरजी एक ज़मीनी कार्यकर्ता थे. वह अपनी मेहनत के बल पर राज्य के मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे. खांडू ने अपना राजनीतिक सफर राज्य के दूरदराज इलाक़ों में स्कूल खोलने और पेयजल आपूर्ति सुनिश्चित कराने में मदद करने वाले स्थानीय नेता के रूप में शुरू किया था. वह बौद्ध धर्म मानते थे. दो-दो बार मुख्यमंत्री पद संभालने वाले खांडू सात साल तक सेना की ़खु़िफया शाखा से जुड़े रहे. 1971 में भारत-पाक युद्ध के दौरान उल्लेखनीय सेवा के लिए उन्हें स्वर्ण पदक से नवाजा गया. तीन मार्च, 1955 को तवांग में जन्मे खांडू 1980 में अंचल समिति के सदस्य बने. इसके बाद उन्होंने दूरदराज के गांवों में सामाजिक कार्यों पर अपना ध्यान केंद्रित किया. उन्होंने अपने गृह ज़िले में पेयजल, बिजली एवं संचार सुविधाएं पहुंचाने और स्कूल स्थापित कराने में अहम भूमिका निभाई. 1983 में वह वेस्ट कामेंग डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के उपाध्यक्ष बने और 1990 में मुक्तो क्षेत्र से निर्विरोध विधायक चुने गए. 2007 में वह गेगांग अपांग की जगह मुख्यमंत्री बने.

Monday, May 9, 2011

गृहमंत्री जी, मणिपुर के बच्चे मुस्कुराते नहीं हैं!


मणिपुर में मुझे तमाम बातें खास लगीं। ऐसी बातें जिन्हें आप पढ़ कर या देख कर जान तो सकते हैं, लेकिन जिन्हें महसूस करने के लिए आपको वहां जाना ही पड़ेगा। सच ये हैं कि मुझे वैसा कोई कड़वा अनुभव नहीं हुआ, जैसा आमतौर पर उत्तर भारत में रहने वालों के दिमाग में रहता है। लेकिन फिर भी चीजें कहीं न कहीं वैसे ही हैं, जैसे हम समझते हैं।

सबसे ज्यादा परेशान करने वाली थी कि वहां के बच्चे आपको देख कर मुस्कुराते नहीं। आप कितने ही बच्चों को देख कर अलग-अलग बार अलग-अलग जगहों पर इसकी कोशिश करके देख लें। आप निराश होंगे। वे आपको देख कर डरते तो नहीं, लेकिन असहज जरूर हो जाते हैं। वे आपको ऐसा आदमी समझते हैं, जो उनकी और उनके परिवार, गांव और समाज की मुश्किलें नहीं समझ सकता। सौभाग्य से सलाम भाई मेरे साथ था, इसलिए मुझे कुछ बच्चों से जुड़ने का मौका मिला। लेकिन सच यही है कि बौद्ध लामाओं से दिखने वाले ये बच्चे जब मुस्कुराहट की भाषा में बात नहीं करते, तो एक भारतीय होने, विकास करने और दुनिया में पहचान बनाने की भावना अजीब सी लगने लगती है।

दूसरी खास बात महिलाओं की जिंदगी को लेकर मैंने महसूस की। कितनी मुश्किलें हैं उनकी जिंदगी में और कितनी बड़ी भूमिका निभाती हैं वे। आप उन्हें वहां आते-जाते देख कर ही जान सकते हैं। गाढ़े लाल रंग (मैरून) का फनेक (पेटीकोट जैसा पहनावा) और गुलाबी रंग का दुपट्‌टा डाल कर वे दिखने में बेहद खूबसूरत लगती हैं। उनका आत्मविश्वास संतुलन अनुशासन और सबसे बढ़ कर चेहरे पर गरिमा। मणिपुर के बच्चों के चेहरों पर जो दर्द मासूमियत और अजनबीपन है, वह जैसे महिलाओं के चेहरों पर विस्तार पा गया है। दिल्ली में आप उन्हें हल्का और चीप समझ कर उन पर भद्दे कमेंट कर कितना बड़ा अपराध करते हैं – इसका एहसास आपको मणिपुर में उनकी असली जिंदगी देख कर ही होगा।

ऐसा नहीं कि उत्तर प्रदेश या उत्तर भारत के गांवों में (मैं लखनऊ का हूं) महिलाएं मेहनत नहीं करतीं या उनमें कम गरिमा है, लेकिन उनके साथ हम अपने ही देश में बड़े शहरों में खास कर राजधानी दिल्ली में उतना घटिया बर्ताव भी तो नहीं करते।

वे घर का सारा काम करती हैं। पहाड़ पर चढ़ कर लकड़ियां काट कर लाती हैं। रोजी-रोटी के लिए मछलियां पकड़ती हैं। पीठ पर एक कपड़े से बच्चे को बांध कर साइकिल चलाती हैं। खूब पैदल चलती हैं और जरूरी होने पर टैक्सी भी लेती हैं।

एक घटना याद आ रही है। एक दिन मैं और सलाम भाई टैक्सी से लौट रहे थे, इंफाल से। टैक्सी में अंदर सीट नहीं थी। इसलिए हम पीछे की जगह पर खड़े होकर जा रहे थे। रास्ते में एक महिला ने हाथ हिला कर टैक्सी रुकवायी और अंदर जगह न होने की बात जान कर भी कुछ कहे बगैर पीछे हमारे साथ खड़ी हो गयी। टैक्सी चल पड़ी। मुझे आश्चर्य हुआ, क्योंकि वह महिला खूब सजी-धजी हुई थी और शायद किसी शादी में जा रही थी। उसने मेकअप भी कर रखा था। उसे पीछे खड़े होकर जाने में कोई झिझक नहीं हुई। यह है उनकी जिंदगी और हिम्मत। हमारे यहां शादी में जाने वाली महिलाएं उस दौरान कितने दिखावे की दुनिया में रहती हैं, ये हम सब जानते हैं। बाद में सलाम भाई ने बताया कि यहां ये कॉमन बात है। चाहे शादी में जाना हो, या कहीं और। अगर जगह नहीं है, तो वह पीछे खड़ी होकर भी जाएगी।

हम अगर ये जानना चाहें कि मणिपुर के लोगों का हमारे प्रति और भारत के प्रति चिढ़ने वाला नजरिया क्यों है, तो ये कोई मुश्किल काम नहीं है। बशर्ते हम ईमानदारी से अपने और उनके हालात को जानें। उनको, खास कर दिल्ली में तो चिंकी पिंकी या फिर नेपाली कह कर अपमानित करने से क्या वे हमको इज्जत देंगे? वो उसी दृष्टि से देखेंगे, जो हम उनको देखते हैं। सबसे बड़ा कारण तो अफसपा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट) है। इस कानून ने वहां के लोगों की जिंदगी को तबाह कर दिया है। इस कानून की वजह से वहां के लोग उत्तर भारतीयों को मयांग (बाहरी आदमी) कह कर पुकारते हैं।

मैं दिल्ली में रहता हूं और मेरे पास पानी लेने के लिए यहां चार तरह के इंतजाम हैं। किचन में एक टंकी है। एक बाथरूम में, एक टॉयलेट में और एक बेसिन में। मणिपुर के गांवों में कहीं भी टंकी तो दूर, सरकारी नल भी नहीं है। हर घर के पास एक पोखर है, जिसमें बारिश का पानी इकट्‌ठा किया जाता है। सबकी कोशिश होती है कि पोखर के पानी को साफ रखें। वहां कुत्ते नहीं दिखते, शायद इसलिए कि वे पानी को गंदा कर सकते हैं। गाय भी कम पाली जाती है। लोगों को चाय पीने की आदत नहीं है। सुबह मछली-चावल खाने के बाद लोग देर शाम को खाना खाते हैं। बीच में चाय-नाश्ते की कोई आदत नहीं। दिन भर काम करना और रात को जल्दी सो जाना।

सड़कें यहां जरूर बनी हैं और सड़कों पर आर्मी की ओर से रात में थोड़ी-थोड़ी दूरी पर सफेद लाइटें जगमगाती रहती हैं, लेकिन सच यह है कि ये लाइटें नाउम्मींदी के गहरे अंधेरे की तरह हैं। क्योंकि घरों में बिजली एक दिन आती है, अगले दिन नहीं आती। यूपी के गांवों में जिस तरह से सरकारी नल लगवाना या शौचालय बनवाना आसान हो गया है, उसे देख कर आप खुद से ही सवाल पूछेंगे कि पानी, बिजली और शौचालय जैसी बुनियादी जरूरतों से महरूम रखे गये इन लोगों का कुसूर आखिर क्या है?

यहां प्राकृतिक खूबसूरती है। शांत माहौल है। लोग मेहनती हैं। उनके चेहरे पर मेहनत और आत्मसम्मान की गरिमा है, लेकिन वे दिल से खुश नहीं है। खुश शायद हम उत्तर भारत यूपी, बिहार और दिल्ली के लोग भी नहीं हैं, लेकिन हमारे लिए इसकी वजहें दूसरी हैं। हम शहरों की ओर भाग रहे हैं। हम जाति-धर्म, दहेज और दिखावों में जकड़े हुए लोग हैं, जो मौकों को दूसरों से छीनना चाहते हैं। हमारे साथ सरकारें उस तरह का बर्ताव हर्गिज नहीं कर रहीं, जैसा नार्थ ईस्टा के साथ किया जा रहा। उनका गुस्सा बिल्कुल जायज है। आखिर क्यों वे आपसे घुले मिलें, क्यों आपको अपनी मुसीबतों का साझीदार बनाएं, इसलिए कि आप उन्हें आदिवासी, पिछड़ा और हिंसक करार दे कर उनके अधिकारों से महरूम कर दें? आपकी दया का पात्र बन कर वे नहीं जीना चाहते। उनका भी एक इतिहास है। ये देश उनका भी उतना ही है, जितना आपका। इसके बावजूद आप चाहते हैं कि आप उनका साथ ऐसा बर्ताव करें, जैसे वे किसी दूसरे देश से आये हैं या इस देश में आपसे कम दर्जे के नागरिक हैं।

- दीपक भारती (deepakbharti2008@gmail.com)

मैं मणिपुरी हूं और मणिपुर में जंगल का कानून चलता है

मैं एक मणिपुरी हू। और इस नाते महसूस करता हूं कि मणिपुर के लोग खुद को भारत से कटा हुआ और अजनबी महसूस करते हैं। उन्हें जब कोई इंडियन कहता है तो उन्हें ये थोपा हुआ लगता है। वजह सिर्फ इतनी है कि आप जैसा बर्ताव करेंगे, वैसा ही
असर होगा।

मणिपुर में उस कानून का राज है, जो जंगल में रहने वाले जानवरों के लिए होता है। यानी जंगल का कानून। मसलन, अफसपा। इस कानून के तहत किसी को भी गोली मारना, पकड़ कर जेल में डाल देना और महिलाओं का बलात्कार करना एक आम घटना है। सेना के जवान जवाब देते हैं कि वह आतंकवादी था, इसलिए ये सब किया है। मुख्यमंत्री ने यहां तक कहा था कि मारने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है। लेकिन सच तो सामने आ ही गया था कि आतंकवादी के नाम पर लोगों पर जुल्म ढाये जा रहे हैं। तहलका ने 12 तस्वीरें छाप कर पर्दाफाश कर दिया था।

सब के पास समानता का अधिकार है। भारत जितना हिंदी भाषियों का है, उतना ही अहिंदीवासियों का भी है। रही बात राजनीति की तो मणिपुर में कांग्रेस की सरकार है। यह दूसरी बार बनी है। मगर, प्रदेश की सरकार ने मानो आंख-कान बंद कर लिये हैं। प्रदेश की सरकार ही ध्यान नहीं दे रही है, तो केंद्र सरकार क्या करेगी। इन दस सालों में आज तक किसी भी बड़े नेता या अधिकारी ने इनकी समस्यााओं पर गौर करना मुनासिब नहीं समझा। यह कभी नहीं हुआ। आंकड़ों में दिखता कुछ और है और जमीनी हकीकत कुछ और। इसका जीता जागता उदाहरण है इरोम शर्मिला का अनशन।

इरोम के अनशन को दस साल हो गये। अफसपा के खिलाफ। आज तक केंद्र की तरफ से कोई पहल नहीं हुई। न किसी ने जानने-समझने की कोशिश की। उसका अनशन अभी भी उम्मीद की आस लिए जारी है। अगर पूर्वोत्तर राज्यों खास कर मणिपुर को राष्ट्रीय मुख्यधारा में लाना है तो सरकार को अपनी सोच और नजरिये में बदलाव लाना होगा। उनकी समस्याओं को समझना और सुनना होगा। उनके करीब जाकर दिल में जगह बनानी होगी

-एस. बिजेन सिंह (sbijensngh@gmail.com)