यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Thursday, August 23, 2012

पूर्वोत्‍तर की सुनें पुकार


जब कभी मेरा पूर्वोत्‍तर जाना होता है, तो वहां के लोग मुझसे यही कहते हैं प्‍लीज, हमें तवज्‍जों दिलाने में मदद करें. हमारे साथ भी अन्‍य भारतीयों की तरह बर्ताव हो, बाहरी लोगों की तरह नहीं. वे लोग ऐसा क्‍यों महसूस करते हैं? आखिर हम देश के 28 में से इन 7 राज्‍यों की आवाज बेहतर ढंग से क्‍यों नहीं सुन पाते? आज डिजिटली जुडाव के इस दौर में भी भारत का यह हिस्‍सा खुद को अलग-थलग क्‍यों महसूस करता है? हाल ही में असम के दंगे और देश के कुछ शहरों से पूर्वोत्‍तर के आतंकित लोगों के सामूहिक पलायन जैसी घटनाएं बताती हैं कि हम उनकी बात नहीं सुन पा रहे हैं. इस क्षेत्र के कई मसले हैं, लेकिन उन्‍हें मुख्‍यधारा में तवज्‍जों नहीं मिल पाती. उनकी समस्‍याएं बढती जाती हैं और हम उनके बारे में कदाचित तभी चर्चा करते हैं, जब पानी सिर से उपर निकल जाता है.

हमें पूर्वोत्‍तर के लोगों की समस्‍याओं पर गौर करने के अलावा उनके प्रति सहानुभूति व करुणा दर्शाने की भी जरूरत है. मैं इस तरह की राजनीतिक जुमलेबाजियों का इस्‍तेमाल नहीं करना चाहता कि हम सब एक हैं और हमें पूर्वोत्‍तर के लोगों को अपने भाई-बहनों की तरह समझना चाहिए. सच कहूं तो इस तरह के उपदेशों का कोई अर्थ भी नहीं है. भारत एक देश हो सकता है और हम भी ज्‍यादातर दिल से अच्‍छे लोग हो सकते हैं. अलबत्‍ता इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हम संभवत: अंदरूनी तौर पर दुनिया के सबसे ज्‍यादा नस्‍लवादी राष्‍ट्र हैं. हां यह सच है कि हम सब राष्‍ट्रगान के सम्‍मान में उठ कर खडे हो जाते हैं. हम अपनी क्रिकेट टीम या ओलंपिक पदक विजेताओं की सफलता पर साथ मिल कर जश्‍न मनाते हैं, लेकिन इनके खत्‍म होते ही ऐसा लगता है मानो हम एक-दूसरे को अविश्‍वास की नजरों से देखते हुए नफरत के कारण तलाशने की कोशिश कर रहे हों. और अपनी इसी सतही सोच के चलते जब हमें कोई अपने से अलग नजर आता है तो हम उसके साथ भेदभाव करने लगते हैं. पूर्वोत्‍तर के लोग खूबसूरत व आकर्षक हैं. वे अपने नैन-नक्‍श ओर कदकाठी की वजह से हमसे थोडा अलग हैं. इस वजह से हम शेष भारतीय उनकी उपेक्षा करते हैं, उनका मजाक बनाते हैं या उन्‍हें अलग-थलग कर देते हैं. यह शर्मनाक ढंग से पुरातनपंथी और बीमार सोच की निशानी है. आखिर हम ऐसे कैसे हो गए? क्‍या हमारे स्‍कूलों में यह नहीं सिखाया गया कि हम खुली मानसिकता अपनाएं? यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिस पर हम गर्व करें. यह पूर्वोत्‍तरवासियों के मुकाबले हम जैसे अलगाववादी लोगों को कहीं ज्‍यादा छोटा बनाती है. यह चिंता की बात है. यदि हम अपने लोगों के बीच ऐसे मामूली फर्क को स्‍वीकार नहीं कर सकते, तो हम वैश्‍वीकृत दुनिया के साथ कभी कैसे जुड सकेंगे? क्‍या हम हर उस विदेशी का मजाक बनाएंगे, जो कारोबार के लिए भारत आता है और गोरा नहीं है (गोरों की तो हम स्‍वत: जीहुजूरी करने लगते हैं)?

क्‍या हम ऐसा ही राष्‍ट्र चाहते हैं, जहां पर लोग समानताओं के बजाय असमानताओं पर ज्‍यादा ध्‍यान देते हों? हालांकि हमारे ओर पूर्वोत्‍तर के लोगों के बीच हमारी सोच से कहीं अधिक समानता है. पूर्वोत्‍तर के युवा भी देश के बाकी हिस्‍सों के युवाओं की तरह अच्‍छी शिक्षा और बढिया नौकरी पाना चाहते हैं. पूर्वोत्‍तर के लोग भी अच्‍छे नेताओं के अभाव के साथ भ्रष्‍ट राजनेताओं, खराब बुनियादी ढांचे और तेजी से बढती महंगाई की मार झेल रहे हैं. उनके प्राकृतिक संसाधनों को भी लूटा जा रहा है. हमारी तरह पूर्वोत्‍तर के लोग भी एक लीटर पेट्रोल के लिए 70 रुपए से ज्‍यादा चुकाते हैं. वहां भी बिजली की कीमतों पर करों का बोझ है, भले ही राजनेताओं के करीबी लोगों को खदानें मुफ्त में मिल जाएं.

हां, हमारे आम दुखों में पूर्वोत्‍तरवासी भी शामिल हैं. यदि हम सब मिल कर काम करें तो अपने नेताओं पर ऐसी कुछ समस्‍याओं को खत्‍म करने के लिए दबाव डाल सकते हैं. या फिर हम अंदरूनी तौर पर यूं ही झगड़ते रहें. जैसा राजनेता चाहते हैं ताकि हम भेड़ों के झुंड की तरह उनके वोट बैंक बन जाएं और वे हमें लगातार लूटते रहे.

हम जैसे भारत के बाकी लोग ठंडे दिमाग से यह विचार करें कि किस तरह हमारी इस सतही नस्‍लवादी सोच ने न सिर्फ पूर्वोत्‍तरवासियों, बल्कि हमें भी नुकसान पहुंचाया है. उधर पूर्वोत्‍तर के लोग भी कुछ अग्रगामी, व्‍यावहारिक कदम उठा सकते हैं. इससे पूर्वोत्‍तर भूगोल के अध्‍यायों में सीमित रहने के बजाय वापस लोगों के जेहन में उभर आएगा.

यहां ऐसे पांच उपाय पेश हैं जो कारगर हो सकते हैं. पहला, वहां पर्यटन में तेजी लाई जाए. पूर्वोत्‍तर में प्राकृतिक सौंदर्य के कई बेहद दर्शनीय नजारे हैं जो पर्यटकों को लुभा सकते हैं. वहां कुछ और होटल परिसरों, कुछ विश्‍वस्‍तरीय रिसॉर्ट्स, थोडे-बहुत प्रमोशन और थोडी बेहतर कनेक्टिविटी के साथ चमत्‍कार हो सकता है. दूसरा, निम्‍न-कर/सेज टाइप शहर या इलाके के लिए लॉबिंग करने से भी मदद मिल सकती है. भारत को वैसे भी इस तरह के इलाकों की जरूरत है. यह निवेश, नाकरियों और महानगरीय संस्‍कृति को आकर्षित करेगा, जिसकी इस अंचल को बेहद जरूरत है. तीसरा, गुवाहाटी से बैंकॉक सड़कमार्ग के जरिए महज 2400 किमी दूर है. इंफाल-बैंकॉक की दूरी 2000 किमी से भी कम है. इसके अलट गुवाहाटी-मुंबई की दूरी 2800 किमी है. थाईलैंड-पूर्वोत्‍तर हाईवे के बारे में बातचीत चल रही है, जिसे शीर्ष प्राथमिकता दी जानी चािहए. पूर्वोत्‍तर इलाका सुदूर-पूर्व के लिए प्रवेश-द्वार बन सकता है. यह भारत के व्‍यापार के एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍से को नियंत्रित कर सकता है. यह भारत के व्‍यापार के एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍से को नियंत्रित कर सकता है. एक बार आप व्‍यापार करने लगें, फिर लोग आपको नजरअंदाज नहीं करते. चौथा, पूर्वोत्‍तर मीडिया की आवाजाही बढाने के लिए जमीन जैसे कुछ संसाधन मुहैया करा सकता है. एक बार वहां मीडिया की पर्याप्‍त मौजूदगी हो गई तो इस अंचल को बेहतर ढंग से कवर किया जाएगा. पांचवां, भव्‍य संगीत समारोह या कार्निवाल जैसे कुछ शानदार इवेंट्स जो स्‍थानीय संस्‍कृति से जुड़े होने के साथ-साथ शेष भारत को आकर्षित कर सकें, इस अंचल को हमसे बेहतर ढंग से जोड सकते हैं.

गौरतलब है कि पूर्वोत्‍तर अक्‍सर गलत कारणों से खबरों में रहता आया है. हम शेष भारतीयों ने पूर्वोत्‍तर के लोगों को थोडा मायूस किया है. हमें उनके प्रति अपनी सोच बदलनी होगी. हम उम्‍मीद करें कि पूर्वोत्‍तर को अपनी उचित जगह मिलेगी और यह अब एक उपेक्षित बच्‍चा नहीं, वरन हमारे राष्‍ट्रीय परिवार की आंखों का तारा बन कर रहेगा. 

-चेतन भगत

Tuesday, August 21, 2012

पूर्वोत्‍तर के प्रति हमारी नदानी


पत्रकारिता की पढाई के दौरान मुझे एक सम्‍मानीय टीचर ने तीन उदाहरण के नियम के बारे में पढाया था. इसलिए पिछले सप्‍ताह के दौरान अच्‍छे-बुरे कारणों से चर्चा में रहे उत्‍तर-पूर्व के संबंध में मैंने तीन घटनाएं चुन लीं. पहली दो घटनाएं मणिपुरी मुक्‍केबाज मेरी कोम की सफलता को लेकर हिंदी सिनेमा की प्रतिक्रिया से जुडी है. आश्‍चर्य नहीं कि शाहिद कपूर ने मेरी कोम के नाम की स्‍पेलिंग गलत लिख दी. इसके बाद काफी वरिष्‍ठ, बेहद पढाकू और समझदार अमिताभ बच्‍चन ने उन्‍हें असम का बता दिया. हालांकि बाद में उन्‍होंने गलती को सुधार भी लिया. तीसरी घटना एक टीवी शो के दौरान हुई जहां उत्‍तर पूर्व में लंबे समय तक कार्यरत एक प्रशासकीय अधिकारी से मेरी हल्‍की बहस हुई. यहां विमर्श का विषय था कि क्‍या मेरी कोम की सफलता उत्‍तर पूर्व के प्रति हमारा नजरिया बदल देगी? वह इस बात से नाखुश थे कि उत्‍तर पूर्व से आने वाले बहुत से युवक-युवतियां पूरे भारत में सेवा उद्योग – रेस्‍तरां, एयरलाइंस और अस्‍पताल आदि में ही कार्यरत हैं. वे और महत्‍वपूर्ण काम क्‍यों नहीं कर रहे हैं? हममें से हरेक उत्‍तर-पूर्व के प्रति अनभिज्ञता, असंवेदनशीलता और मुख्‍यधारा को महत्‍व देने के दृष्टिकोण के पहलुओं को रेखांकित करता है.


आप समझ सकते हैं कि शाहिद कपूर अपनी पसंदीदा बॉकसर का नाम सही नहीं लिख पाए, किंतु सीनियर बच्‍चन? पुरानी पीढी का कोई व्‍यक्ति जैसे कि मैं नागा, मिजो, खासी या गारो को गलती से असमिया समझ लूं तो समझ में आता है. नागालैंड, मिजोरम और मेघालय पुराने असम के ही जिले थे. किंतु मणिपुर? यह तो भारत के सबसे पुराने और विशिष्‍ट राज्‍यों में से एक है. हमारे उत्‍तर-पूर्व राज्‍यों की जनसांख्यिकी किसी को भी चकरा सकती है. मणिपुर के पहाडों पर रहने वाले सभी आदिवासियों जैसे नागा, मिजो, कुकी और मेरी कोम के कोम के संबंधी पडोसी देश म्‍यांमार में भी रहते हैं. इसलिए आप सीनियर बच्‍चन के मुगालते को समझ सकते हैं. इन तीनों में से सबसे महत्‍वपूर्ण उदाहरण पूर्व प्रशासनिक अधिकारी का था. अपनी चिंता के दोनों कारणों कि उत्‍तर-पूर्व से आने वालों को केवल सेवा क्षेत्र में ही रोजगार मिलता है तथा उत्‍तर- पूर्व के लोगों के शेष भारत से मेलमिलाप के लिए और अधिक प्रयास की आवश्‍यकता है, मैं उन्‍होंने यह रेखांकित किया कि उस क्षेत्र के सत्‍ता प्रतिष्‍ठान का कुलीनतावादी नजरिया पिछले कुछ दशकों से बदला नहीं है. यह अभी भी दूरदराज का और कटा हुआ क्षेत्र हैं और इसके भारतीकरण की आवश्‍यकता है. इस प्रयास में मेरी कोम जैसे स्‍टार हमारी और उनकी सहायता कर सकते हैं. उन्‍होंने आगे कहा कि उत्‍तर-पूर्व के लोग दूर्भाग्‍यशाली हैं और अब दिल्‍ली जैसे बडे शहरों में उनके खिलाफ गैरकानूनी जातीय कटाक्ष किए जा रहे हैं. इस क्षेत्र का भारतीकरण में रूपांतरण तभी हो सकता है जब यहां के लोग अधिक महत्‍वपूर्ण कामों में लगें. यह बयान आर्थिक गतिशीलता की नासमझी का नमूना है. दरअसल, लोग उन्‍हीं नौकरियों और पेशों में आगे आते हैं, जिनमें उनकी विशिष्‍ट योग्‍यता होती है. इसके अलावा, श्रम की गरिमा और जातिविहीन, वर्गविहीन समतामूलक समाज, जिनमें कबीलाई समाज रहता आया है और आज भी इन मूल्‍यों को सहेजे हुए है, भी इस कार्यविभाजन का जिम्‍मेदार है. इस गैरवर्णक्रम वाले जीवन से मेरा पहला सबका तब हुआ था जब मैंने उत्‍तरपूर्व की अपनी शुरुआती यात्राओं में देखा कि ड्राइवर, चपरासी, पुलिसकर्मी भी मंत्री के बगल में बैठ कर ढाबों में खाना खाते थे. यह दृश्‍य देखकर मैं हैरान रह गया था. उस समय मेरे मित्र शिक्षा मंत्री फनाई मालस्‍वमा को उनके ड्राइवर ने टेबिल टेनिस में बुरी तरह धोने के बाद कहा कि जबसे वह मंत्री बने हैं तबसे आलसी और ढीले-ढाले हो गए हैं. वहां खडे अन्‍य लोग जिनमें अधिकांश ड्राइवर और कनिष्‍ठ कर्मचारी थे, इस बात पर खुश होकर ताली बजा रहे थे. शेश देश में मुझे एक ड्राइवर दिखाएं जो अपने मंत्री को किसी भी खेल में हरा सकता हो. या फिर कोई ऐसा मंत्री जो इस हार का भी मजा ले. यह तो आदिवासियों के जातिविहीन समतावाद, श्रम की गरिमा का नतीजा है कि उत्‍तरपूर्व के लोगों ने बडे शहरों में तेजी से बढते सेवा क्षेत्र में अपनी अहमियत तलाश ली. मुक्‍केबाजी, तीरंदाजी तथा वेटलिफ्टिंग के अलावा अन्‍य क्षेत्रों में भी उनमें जबरदस्‍त प्रतिभा भरी हुई है. रेस्‍तरांओं और बार में बडी तादाद में उत्‍तरपूर्व के गायक और संगीतकार मिलेंगे. क्‍या हमें उन्‍हें दंभपूर्ण दया के साथ देखना चाहिए? ये भयभीत लोग उत्‍तरपूर्व के हमवतनों की पहली पीढी का प्रतिनिधित्‍व कर रहे हैं जो मुख्‍यभूमि में गरिमा के साथ जिंदगी बिता रही है. हमारी जिम्‍मेदारी है कि उन्‍हें सम्‍मान और सुरक्षा का अहसास कराएं. बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते कि ये अल्‍पसंख्‍यक कितनी छोटी तादाद में हैं.

नागाओं की संख्‍या महज 15 लाख है, मिजो दस लाख से भी कम हैं और मणिपुर के तमाम आदिवासी दस लाख भी नहीं हैं. इसमें दस लाख की आबादी वाले खासिस और गारोस जोडे जा सकते हैं. अरुणाचल प्रदेश में केवल दस लाख  आदिवासी हैं, जबकि बोडो की संख्‍या बस 15 लाख है. हमारे शहरों में उनकी बढती उपस्थिति तथा अपरिहार्यता उनकी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाती है ज‍बकि इसके बदले में उन्‍हें मिलती है हमारी अवहेलना. हमारी यह अवहेलना या नादानी ही उनके प्रति सम्‍मान के अभाव का कारण है साथ ही हमारे यह समझ पाने की विफलता कि उन्‍हें गुस्‍सा क्‍यों आता है? हमारे आलसी नजरिए का नवीनतम और सबसे दुखद उदाहरण है मुख्‍यभूमि के सांप्रदायिक, चुनावी राजनीति के चश्‍मे से बोडोहिंसा को देखना. पहचान, जातीयता, जीविकोपार्जन और अस्तित्‍व की जद्दोजहद उत्‍तरपूर्व के बेहद जटिल मुद्दे हैं. ये मूल स्‍थान की विशिष्‍टताओं से संचालित हैं, न कि हमारे हिंदू-मुस्लिम प्रतिमान से. अधिकांश बोडो परंपरागत रूप से हिंदू तक नहीं है. बहुत से अपनी खुद की आस्‍था में विश्‍वास रखते हैं और काफी बडी संख्‍या ईसाइयों की भी है. ये घुसपैठियों पर हमला इसलिए नहीं कर रहे हैं कि ये मुसलमान हैं, बल्कि मुसलमानों, बांग्‍लाभाषियों पर इसलिए हमला कर रह हैं, क्‍योंकि ये घुसपैठिए हैं. बेहतर होगा कि इन गंभीर और जटिल गुत्थियों पर फिर किसी दिन विचार किया जाए. फिलहाल तो हमें इनका सही नाम बोलने और इनके प्रदेश का सही नाम बताने तक में कठिनाई काम सामना करना पड रहा है. 31 साल पहले जब मैं रिपोर्ट के तौर पर उत्‍तर पूर्व गया था तो हमारे कैशियर ने पूछा था कि आपको किस मुद्रा में वेतन चाहिए. पिछले दस दिनों की घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि इस बीच हम जरा भी नहीं बदले. 

- शेखर गुप्‍ता,
प्रधान संपादक, द इंडियन एक्‍सप्रेस 

Monday, August 20, 2012

क्यों भड़की ऩफरत की आग


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संसदीय क्षेत्र असम एक के बाद एक, कई घटनाओं के चलते इन दिनों लगातार सुर्खियों में है. महिला विधायक की सरेआम पिटाई, एक लड़की के साथ छेड़खानी और अब दो समुदायों के बीच हिंसा. कई दिनों तक लोेग मरते रहे, घर जलते रहे. राज्य के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार का मुंह ताकते रहे और हिंसा की चपेट में आए लोग उनकी तऱफ, लेकिन सेना के हाथ बंधे थे. राहत के नाम पर कहीं भी कुछ नहीं था. असम के जनजातीय इलाकों में ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि गैर जनजातीय समुदाय खुलेआम जनजातीय आबादी के विरुद्ध मुखर हो जाएं. दो समुदायों के आमने-सामने आ खड़े होने की यह पहली घटना थी. इसकी शुरुआत हुई एक अन्य इलाके में, जहां राभा जनजाति अपने लिए स्वायत्तता की मांग कर रही है. वहां रहने वाले विभिन्न गैर राभा समुदायों ने उसकी उक्त मांग के विरोध में आंदोलन छेड़ दिया. इस वजह से वहां समय-समय पर हिंसा भी फैलती रही. इस हिंसा की आग से कोकराझाड़, चिरांग एवं धुबड़ी आदि इलाके सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं, जबकि बंगाईगांव एवं बाक्सा में भी खासी हिंसा हुई. दरअसल, बीटीसी (बोडोलैंड टेरटोरिएल काउंसिल) इलाके में तनाव कोई एक दिन में नहीं फैला. बोडो और गैर बोडो समुदायों के बीच तनाव पिछले कई महीनों से चल रहा था. इस तनाव का कारण है बीटीसी में रहने वाले गैर बोडो समुदायों का बोडो समुदाय द्वारा की जाने वाली अलग बोडोलैंड राज्य की मांग के विरोध में खुलकर सामने आ जाना. गैर बोडो समुदायों के दो संगठन मुख्य रूप से बोडोलैंड की मांग के विरुद्ध सक्रिय हैं. इनमें से एक है गैर बोडो सुरक्षा मंच और दूसरा है अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ. गैर बोडो सुरक्षा मंच में भी मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के कार्यकर्ता सक्रिय हैं. इन दोनों संगठनों की सक्रियता उन स्थानों पर अधिक है, जहां बोडो आबादी अपेक्षाकृत कम है. लेकिन इससे एक तनाव तो बन ही रहा था, जिसकी प्रतिक्रिया कोकराझाड़ जैसे बोडो बहुल इलाकों में हो रही थी. इन दोनों संगठनों की जो बात बोडो संगठनों को नागवार गुजर रही थी, वह यह थी कि बीटीसी इलाके के जिन गांवों में बोडो समुदाय की आबादी आधी से कम है, उन्हें बीटीसी से बाहर करने की मांग उठाना.

बोडोलैंड की मांग 

बोडोलैंड की मांग का समर्थन करने वाले दोनों संगठन समय-समय पर प्रदर्शन और बंद का आह्वान करते रहे हैं. बीते 16 जुलाई को भी गैर बोडो समुदायों ने गुवाहाटी में राजभवन के सामने प्रदर्शन करके शासन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया था. उन्होंने रेलगाड़ियां रोक कर यह बताने की कोशिश की कि बोडोलैंड राज्य की मांग हमने अभी तक नहीं छोड़ी है. बोडो समुदाय के दो चरमपंथी गुट, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) और वार्तापंथी पृथक बोडोलैंड राज्य की मांग कर रहे हैं. जबकि केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रवक्ता अब तक यही कहते आए हैं कि अलग राज्य बनाने का सवाल ही नहीं पैदा होता. बीटीसी इलाके में गैर बोडो समुदायों की नाराजगी का एक प्रमुख कारण शायद यह भी है कि वहां स्वायत्त शासन लागू होने के बाद से कानून-व्यवस्था की स्थिति पहले से बदतर हो गई है. गैर बोडो समुदाय अक्सर अपने साथ भेदभाव होने और शिकायत करने पर पुलिस द्वारा उचित कार्रवाई न किए जाने का आरोप लगाते रहे हैं.

स्थानीय बनाम बाहरी 

असम में फैली इस हिंसा की जड़ में बाहरी घुसपैठ भी है. इसी के चलते यहां के मूल निवासियों और बांग्लादेश से आए लोगों के बीच हिंसा भड़की. राज्य में जनसंख्या का स्वरूप बदल रहा है. बांग्लादेश की सीमा से सटे धुबड़ी जिले में यह एक बड़ी समस्या बन चुका है. 2011 की जनगणना में यह जिला मुस्लिम बहुल हो चुका है. 1991-2001 के बीच असम में मुसलमानों की आबादी 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गई है. राज्य में 42 से अधिक विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए निर्णायक बहुमत में हैं. हाल में राज्य में विधानसभा चुनावों का यह कहकर बहिष्कार किया गया कि उसमें ज़्यादातर प्रवासियों की भागीदारी है. 1966 के बाद राज्य में आए प्रवासियों के चुनाव में हिस्सा लेने पर रोक लगा दी गई थी.

रोज़ी-रोटी के सवाल 

पिछले कुछ समय में असम में बोंगाइगांव, कोकराझाड़, बरपेटा और कछार के करीमगंज एवं हाईलाकड़ी में मुस्लिमों की आबादी बढ़ी है. ज़मीन और रोज़गार में लगातार कमी आ रही है. बोडो जनजातियों की ज़मीन पर अतिक्रमण आम बात है. मैदानी ज़मीन पर खेती, पशुपालन और हैंडलूम एवं हस्तशिल्प का काम मुख्य रूप से बोडो जनजातियों की आजीविका का साधन है. बोडो को राज्य के कारबीआंगलोंग और नॉर्थ कछार हिल इलाके में जनजातीय नहीं माना जाता और न मैदानी क्षेत्रों में, जबकि बोडो जनजातियों के लिए राज्य में स्वायत्त परिषद बनी और शेष पूरे देश में वे अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल हैं.


हिंसा की पुरानी आग
कोकराझाड़ में दंगा और हिंसा कोई नई बात नहीं है. इसका एक इतिहास रहा है. 1993 में बोडोलैंड में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया, जिसमें 50 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. मारे गए लोग कोकराझाड़ एवं बोंगाई गांव निवासी बांग्लादेशी मुसलमान थे. इसके बाद मई 1994 में हिंसा ने फिर अप्रवासी मुसलमानों को शिकार बनाया, जिसमें एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई. हिंसा का यह दौर यही नहीं थमा. 1996 में बोडो एवं आदिवासी शरणार्थियों के बीच हुई हिंसा और आगजनी की घटनाओं में करीब 200 लोगों की मौत हुई और 2.2 लाख से भी अधिक लोगों को बेघर होना पड़ा. फिर 2008 में उदलगुड़ी जिले में अप्रवासी मुसलमानों एवं बोडो आदिवासियों के बीच हुए संघर्ष में एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई.

 जब बीटीसी (बोडोलैंड टेरटोरिएल काउंसिल) बनी थी तो सरकार को यह सोचना चाहिए था कि बीटीसी के इलाके में अल्पसंख्यक भी हैं, लेकिन सरकार ने दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया. गैर बोडो को भी उनके अधिकार मिलने चाहिए. बोडोलैंड बनने से वहां के अल्पसंख्यकों को उनका हक नहीं मिलेगा. दूसरी बात यह है कि माइग्रेशन को पूरी तरह रोकना होगा, इसके लिए सरकार को कठोर क़दम उठाने होंगे.
-दिनकर कुमार, संपादक, द सेंटिनल, असम.

Friday, August 10, 2012

अशांति का शिकार पूर्वोत्‍तर


भारत का पूर्वोत्‍तर सर्वाधिक दहकता हुआ क्षेत्र है. करीब 250 प्रजातियां अपने पहचान की लडाई में एक-दूसरे के साथ-साथ नई दिल्‍ली के साथ भिडी हुई हैं. इनमें कुछ भारत के बाहर भी जाना चाहती हैं. धार्मिक आधार पर हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों का अनुपात कमोवेश बराबर का है. घुसपैठ से समस्‍या और बढी है. यह घुसपैठ ज्‍यादातर बांग्‍लादेश या पुराने पूर्वी पाकिस्‍तान से होती रही है. भाषाई आधार पर राज्‍यों का पुनर्गठन होने पर 1955 में असमियों को अलग असम राज्‍य मिला था लेकिन अपने ही असम में मूल असमी अल्‍पसंख्‍यक बन गए हैं. असम के एक हिस्‍से में बोडो प्रजाति के लोगों ने सांप्रदायिक उन्‍माद फैला रखा है. बंगाली मुसलमान इनके निशाने पर हैं. राहत शिविरों में इन बंगाली मुसलमानों पर हमला किया जा रहा है. दरअसल बोडो अपनी जमीन वापस चाहते हैं. 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद मूल निवासियों की जिस जमीन पर घुसपैठिए और बाहरी लोगों ने कब्‍जा कर रखा है, बोडो उस जमीन की वापसी चाहते हैं. बोडो प्रजाति के लोगों को स्‍वायत्‍तशासी काउंसिलों के जरिए स्‍वायत्‍तता मिली हुई है. फिर भी दूसरी प्रजातियों की तरह अलग बोडो राज्‍य की मांग भी कर रहे हैं. जब कुछ प्रजातियों ने असम से अलग होकर अपने अपने अलग राज्‍य अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा का गठन किया तो बोडो लोगों ने असम में ही बने रहना बेहतर माना था लेकिन गुवाहाटी का प्रशासन बोडो प्रजाति की भिन्‍नता के साथ तालमेल नहीं बैठा सका. बोडो द्वारा हिंसा का सहारा लेने के कारण बंगाली मुसलमानों को भारी तबाही झेलनी पडी है. हाल में बोडो लोगों के गढ कोकराझाड का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पडा कि असम की हिंसा देश पर एक धब्‍बा है लेकिन इसके लिए नई दिल्‍ली असम को दोषी कैसे ठहरा सकती है? हकीकत तो यह है कि यह धब्‍बा तो केंद्र पर है, जिसने पूर्वोत्‍तर की स्थिति को सही तरीके से नहीं निपटाया. नई दिल्‍ली का पसंदीदा फार्मूला है कि पूर्वोत्‍तर में जो कुछ भी होता है, वह कानून एवं व्‍यवस्‍था की समस्‍या है. शांति बहाली का जिम्‍मा पहले से ही सेना के हाथों में है. राज्‍य अर्द्धसैनिक बल के नियंत्रण में है. यहां तक कि राज्‍य पुलिस को भी हमेशा सेना का मुंह ताकना पडता है जो बराबर कहती रहती है कि सारी समस्‍याएं राजनीतिक हैं. पूर्वोत्‍तर की समस्‍याओं को सुलझाने के लिए केंद्र ने वहां गृह मंत्रालय के कुछ अधिकारियों को भेजने के सिवा और कुछ नहीं किया है. सेना को मनमर्जी तरीके से काम करने की पूरी छूट है.

उसके पास आर्म्‍ड फोर्स स्‍पेशल पावर एक्‍ट से मिले अधिकार हैं. इन अधिकारों के बूते सेना के जवानों को महज संदेह के आधार पर किसी को भी मार डालने की आजादी है. प्रताडित लोग पूरे तौर पर सेना के भरोसे हैं. क्षेत्र की अक्षम सरकार और प्रशासन हर मामले में सशस्‍त्र बल पर आश्रित है. ऐसे में बार बार यह सुनने को मिलता है कि समस्‍याग्रस्‍त इलाके में सेना देर से पहुंची. यह सुन कर कोई आश्‍चर्य नहीं होता. असम के मुख्‍यमंत्री तरुण गोगोई ने हाल की घटना के बाद सार्वजनिक तौर पर कहा है कि सेना देर से पहुंची और जब बेहद जरूरत थी उस वक्‍त केंद्र ने करीब आधे अर्द्धसैनिक बल को वापस बुला लिया है. अगर यह रिपोर्ट सही है तो बुनियादी सवाल खडा होता है. सवाल यह है कि क्‍या सेना सिविल अधि‍कारियों की मदद करने को बाध्‍य नहीं है जैसा कि कानून में शामिल है या फिर सेना मेरिट के आधार पर अलग-अलग मामलों में अलग-अलग फैसला करेगी. इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच सहमति की जरूरत है लेकिन वे आपस में लडने में व्‍यस्‍त हैं और मूल मुद्दे से परहेज कर रहे हैं. साफ तौर पर कहें तो स्थिति से कैसे निपटा जाए, इसके बारे में राजनीतिक दलों के पास कोई समझ नहीं है. वे मूल मु्द्दे से परहेज कर रहे हैं. केंद्र में कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की किसी भी सरकार ने जब कभी समाधान तलाशने की कोशिश की तो वह समस्‍या की गहराई में नहीं गई. नागालैंड क्षेत्र का सबसे बडा राज्‍य है.

आजादी के समय से नई दिल्‍ली और कोहिमा के बीच युद्धविराम की स्थिति बनी हुई हे. दोनों पक्ष भारत की सार्वभौमिकता से समझौता किए बिना स्‍वतंत्र दर्जा दिए जाने पर विचार विमर्श करते रहते हैं. समाधान की तलाश में वे बार बार प्रयास करते हैं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता. अरुणाचल प्रदेश भारत का राज्‍य है. इसकी सीमा चीन से सटी हुई हे. फिर भी चीन अरुणाचल प्रदेश के लिए अलग से वीजा जारी करता है और भारत सरकार उसे स्‍वीकार करती है लेकिन चीन से वीजा लेकर आने वालों को भारत सरकार कहीं जाने से कभी नहीं रोकती. मणिपुर में सूर्यास्‍त के बाद कर्फ्यू लग जाता है वर्षों से जारी इस प्रतिबंध से यहां की जनता अभ्‍यस्‍त हो चुकी है, लेकिन इरोम शर्मिला एएफएसपीए हटाने की मांग को लेकर पिछले दस सालों से भूख हडताल पर है. चूंकि पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में केंद्र सरकार पूरे तौर पर सेना पर आश्रित है, इस कारण वह कडे कानूनों में जरा सी रियायत देने को भी तैयार नहीं होती. कुछ साल पहले एक कमेटी ने इस कानून को हटाने का सुझाव दिया था लेकिन अंतत- जीत सेना की हुई. केंद्र को सेना के आगे झुकना पडा. मेघालय में जातीय पहचान की समस्‍या है लेकिन यहां के लोग शांति का लाभ देख चुके हैं और वे हिंसा के पुराने दौर में लौटना नहीं चाहते. यहां विद्रोही गतिविधियां चलती रहती हैं लेकिन नई दिल्‍ली इस बात से संतुष्‍ट है कि दोनों पडोसी देश बांग्‍लादेश और म्‍यांमार अब विद्रोहियों को पनाह नहीं दे रहे. समस्‍या को जटिल बनाने वाली एक समस्‍या घुसपैठ की है.

पचास के दशक में अपना वोट बैंक बढाने के लिए कांग्रेस ने खुद इस घुसपैठ को बढावा दिया था. तत्‍कालीन कांग्रेस अध्‍यक्ष देवकांत बरुआ ने मुझसे कहा था कि वे यहां अली और कुली लाएंगे और चुनाव जीतेंगे. विदेशियों की पहचान और वोटर लिस्‍ट से उनका नाम हटाने के लिए कांग्रेस को कम से कम राजीव गांधी और ऑल असम स्‍टूडेंट्स यूनियन के बीच हुए करार को लागू करना चाहिए था लेकिन मुख्‍यमंत्री तरुण गोगोई ऐसा नहीं करना चाहते क्‍योंकि ये विदेशी वोटर चुनाव में कांग्रेस को बढत दिलाते हैं. वे पिछले दो चुनाव बाहरी वोटरों की मदद से ही जीते हैं. बांग्‍लादेशी आर्थिक कारणों से भारत आते हैं. अगर वर्क परमिट की व्‍यवस्‍था होती तो वे यहां आते और काम कर अपने देश को लौट जाते लेकिन ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है. फिर भी उनकी समस्‍या को पूर्वोततर राज्‍यों की जटिलता से जोड कर नहीं देखा जाना चाहिए. पूर्वोत्‍तर की समस्‍या पर केंद्र को अभी गंभीरता से विचार करना है. 

-कुलदीप नैयर
वरिष्‍ठ पत्रकार