यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, October 9, 2015

सुदूर इलाकों में रह रहे लोगों के जीने-मरने पर भी निगाह रखे नैशनल मीडिया

दिल्‍ली नहीं सुनती मणिपुर की आवाज

राष्‍ट्रीय मीडिया में सक्रिय पत्रकारों में कितने लोगों ने सापम रॉबिनहुड का नाम सुना होगा ? कितने लोगों को मालूम है कि चूड़ाचांदपुर और इंफाल के बीच कितनी दूरी है और कितने लोगों को पता है कि पुलिस की गोली से मारे गए नौ आदिवासियों के शव मणिपुर के एक अस्‍पताल में पिछले एक महीने से पड़े-पड़े सड़ रहा है? जी हां, नैशनल मीडिया की हेडलाइंस से दूर चूड़ाचांदपुर के एक अस्‍पताल में नौ कुकी आदिवासियों के मृत शरीर एक मुर्दाघर में पड़े हैं. न तो राज्‍य सरकार हरकत में है, न ही केंद्र सरकार को इसकी परवाह है. इससे भी बड़ी बात यह है कि राष्‍ट्री मीडिया में इस खबर का कोई अता पता नहीं है.

विरोध की वजह
इस शवगृह में रेफ्रीजेरेशन की सुविधा नहीं है इसलिए लाशों को खराब होने से बचाने और दुर्गंध फैलने से रोकने के लिए कुकी समुदाय बर्फ, तरबूज और नींबू का इस्‍तेमाल कर रहा है. बहुत से लोगों के जेहन में सवाल उठेगा कि आखिर ये कुकी आदिवासी हैं कौन और क्‍यों ये अपनों के शव नहीं दफना रहे. इसे समझने के लिए इंफाल से कोई सत्‍तर किलोमीटर दूर चूड़ाचांदपुर जाइए. पिछले एक महीने से इस कस्‍बे को एक खामोशी और हताशा ने ढक रखा है लेकिन एक गुस्‍सा भी यहां भीतर ही भीतर उबल रहा है. 31 अगस्‍त को इसी जगह पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए थे. उस दिन कुकी समुदाय राज्‍य सरकार की ओर से बनाए गए तीन कानूनों के खिलाफ विरोध प्रदर्शन करने सड़कों पर उतरा था.

भौगोलिक रूप से मणिपुर दो हिस्‍सों में बंटा है- घाटी और पहाड़ी. पहाड़ी में राज्‍य के दो प्रमुख आदिवासी समुदाय कुकी और नगा रहते हैं, जबकि घाटी में गैर आदिवासी मैतई समुदाय बहुसंख्‍या में है. घाटी का क्षेत्रफल पूरे राज्‍य का केवल दस प्रतिशत है लेकिन यहां आबादी का दबाव काफी है. मणिपुर के करीब साठ प्रतिशत लोग घाटी में रहते हैं. पहाड़ी इलाकों में गैर आदिवासियों के लिए जमीन खरीदने पर मनाही है लेकिन घाटी में जमीन खरीदने या बसने पर कोई रोक नहीं. इसलिए मैतई समुदाय के भीतर यह भावना घर कर रही है कि बाहरी लोगों के घाटी के इलाके में बसने से उनके संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है.

इसी बात को लेकर लंबे समय से मणिपुर में भी अरुणाचल, नगालैंड और मिजोरम की तर्ज पर इनर लाइन परमिट कानून की मांग होती रही है. मोटे तौर पर इस कानून के मुताबिक बाहरी लोगों को आने से पहले इजाजत मांगनी होती है. इस साल गर्मियों में दो महीने तक घाटी में इस मांग को लेकर विरोध प्रदर्शन होते रहे. मैतई समुदाय के पंद्रह साल के छात्र सापम रॉबिनहुड की पुलिस की गोली लगने से मौत हो गई तो समुदाय ने करीब दो महीने तक रॉबिनहुड का अंतिम संस्‍कार नहीं किया, जब तक 31 अगस्‍त को सरकार ने ऐसे तीन कानून पास नहीं किए. लेकिन इन नए कानूनों के बनने के बाद कुकी और नगा समुदाय में गुस्‍सा भड़क गया.

उन्‍हें लग रहा है कि ये कानून इनर लाइन परमिट का ही बदला रूप हैं और इससे घाटी के लोगों द्वारा पहाड़ी इलाकों में रह रहे आदिवासियों की जमीन खरीद का रास्‍ता खुलेगा. आदिवासियों के इस गुस्‍से का केंद्र चूड़ाचांदपुर बना, जहां पुलिस फायरिंग में नौ लोग मारे गए. यहां भड़की हिंसा राष्‍ट्रीय मीडिया में जहां तहां जरूर दिखी लेकिन फिर गायब हो गई. आज कुकी कह रहे हैं कि वह अपने शहीदों को तभी दफनाएंगे जब सरकार इन कानूनों को वापस लेगी.

हिंसा, कर्फ्यू और अशांति के माहौल को झेलना मणिपुर के लोगों के लिए जिंदगी का हिस्‍सा बन गया है. मणिपुर में ताजा हिंसा के दौरान पेट्रोल करीब 200 रुपये लीटर हो गया था. यह खबर पहले सोशल मीडिया में आई, फिर राष्‍ट्रीय मीडिया में. लेकिन इस महंगाई की वजह हिंसा और कर्फ्यू नहीं बल्कि इंफाल को देश के बाकी हिस्‍सों से जोड़ने वाले हाईवे का कट जाना था. मणिपुर के लिए यह ज्‍यादती भी नई नहीं है. यहां अक्‍सर लोग महंगे पेट्रोल के अलावा 1200 से 1500 रुपये तक का एलपीजी सिलिंडर खरीदते रहे हैं. जिस वक्‍त मणिपुर जल रहा था, उसका पड़ोसी राज्‍य असम बाढ़ में डूबा था. असम और उससे लगे इलकों में हर साल दो महीने बाढ़ का तांडव होता है. लाखों लोग विस्‍थापित होते हैं और सैकड़ों मरते हैं लेकिन नेशनल मीडिया में यह साइड स्‍टोरी का हिस्‍सा ही बनता है.

हाशिए की आवाज
सवाल है कि दिल्‍ली को इन इलाकों की आवाज क्‍यों सुनाई नहीं देती? क्‍या इसलिए कि ये देश के सबसे कमजोर और कटे हुए हिस्‍से हैं. उत्‍तर पूर्व ही नहीं, मध्‍य भारत के छत्‍तीसगढ़, झारखंड और ओडिशा जैसे राज्‍यों में भी कोई दिलचस्‍पी नहीं दिखती. दिल्‍ली में 26 जनवरी को दो मेट्रो स्‍टेशनों के कुछ घंटे बंद रहने की खबर टीवी के प्राइम टाइम और अखबार के पहले पन्‍ने पर जगह बना लेती है लेकिन नॉर्थ ईस्‍ट का कोई इलाका महीनों जलता रहे तो भी हमारी नजर वहां तक नहीं जाती. अभी जब शहरों में महंगाई राष्‍ट्रीय मीडिया की चिंता का प्रमुख विषय बनी हुई है, झारखंड में सैकड़ों आदिवासी भोजन, काम और पेंशन के अधिकार को लेकर राज्‍य की राजधानी रांची की ओर मार्च कर रहे हैं. लेकिन क्‍या यह खबर दिल्‍ली तक पहुंचेगी?

हृदयेश जोशी
-लेखक सीनियर टीवी जर्नलिस्‍ट हैं 

Tuesday, August 25, 2015

नगा शांति समझौता

शांति की कोशिश कहीं अशांति न फैला दे 
तीन अगस्त को केंद्र सरकार और नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एम) के सचिव थुइंगालैंग मुइवा के बीच एक फ्रेमवर्क एग्रीमेंट पर हस्ताक्षर हुए. इस युद्ध विराम समझौते की नींव वर्ष 1997 में पूर्व प्रधानमंत्री आईके गुजराल के कार्यकाल में पड़ी थी, लेकिन बीते 18 वर्षों में इस संदर्भ में कोई खास प्रगति नहीं हुई, लेकिन अब यह समझौता ज़मीन पर उतरता नज़र आ रहा है. केंद्र सरकार ने इस समझौते को एक ऐतिहासिक क़दम बताया है और मुइवा भी इससे खुश नज़र आ रहे हैं. 15 अगस्त को जब मुइवा दीमापुर में स्वतंत्रता दिवस के कार्यक्रम में शरीक होने पहुंचे, तो वहां नगाओं ने उनका ज़ोर-शोर से स्वागत किया. लेकिन, सवाल यह है कि क्या केंद्र सरकार नगाओं की मांगें पूरी करके इस क्षेत्र में शांति स्थापित कर पाने में सफल होगी? मुइवा की मांग एक वृहद नगालैंड की है, जिसमें पड़ोसी राज्यों मसलन, मणिपुर के चार ज़िले, अरुणाचल प्रदेश के दो ज़िले और असम के दो पहाड़ी ज़िले भी शामिल हैं. इस मामले को लेकर तीनों राज्यों में विरोध के स्वर शुरू से उठते आ रहे हैं. सबसे ज़्यादा विरोध मणिपुर में हुआ, क्योंकि उसके चार ज़िले इसमें शामिल हैं. ज्ञात हो कि 18 जून, 2011 को मणिपुर में इस मामले को लेकर हुए विरोध प्रदर्शन के दौरान 18 लोग मारे गए थे. 

यह जानना बहुत ज़रूरी है कि इस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट में कौन-कौन से बिंदु शामिल किए गए हैं, जिन पर दोनों पक्षों में सहमति कायम हुई है. लेकिन, यह बात किसी को भी नहीं मालूम. इसके बारे में देश के गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजु तक नहीं बता पा रहे हैं. जब असम, अरुणाचल एवं मणिपुर के मुख्यमंत्रियों से इस बारे में सवाल किए गए, तो वे आश्चर्यचकित रह गए और उनसे कोई जवाब देते नहीं बना. इस समझौते का नगाओं ने तो खूब स्वागत किया, लेकिन अन्य समुदायों के लोगों ने तीनों राज्यों में इसके विरोध में जमकर प्रदर्शन किया और अपने राज्य की सीमा की अखंडता न टूटने देने का नारा लगाया. सवाल यह उठता है कि आ़िखर केंद्र सरकार इस एग्रीमेंट को गुप्त क्यों रखना चाहती है? गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने स़िर्फ इतना बताया कि इस फ्रेमवर्क एग्रीमेंट में पड़ोसी राज्यों का पूरा ख्याल रखा गया है. 

एक महत्वपूर्ण सवाल यह है कि मुइवा की ग्रेटर नगालैंड की मांग क्या पूरे नगा समुदाय की मांग है? क्या इससे सारे नगा खुश हैं? नगाओं में और भी कई सशस्त्र विद्रोह करने वाले संगठन हैं. मुइवा का प्रमुख विरोधी गुट है, एनएससीएन ( के), जिसकी कमान खापलांग के हाथ में है. वह पिछले दिनों मणिपुर में हुए हमले, जिसमें सेना के 18 जवान शहीद हुए थे, का ज़िम्मेदार है. इतना ही नहीं, एमएनपीएफ (मणिपुर नगा पीपुल्स फ्रंट), जिसकी सशस्त्र शाखा एमएनपीए (मणिपुर नगा पीपुल्स आर्मी) है, का मानना है कि इस समझौते के पीछे केंद्र सरकार का उद्देश्य एनएससीएन (आईएम) के दोनों नेताओं इशाक चिसी और टीएच मुइवा की ढलती उम्र का ़फायदा उठाना भर हैै, यह जनता के हित में नहीं है और नगा जनता इन दोनों नेताओं से ऊपर है. एनएससीएन (आईएम) नगाओं का एकमात्र प्रतिनिधि नहीं है. इस संगठन का कहना है कि छह दशकों से चला आ रहा नगाओं का संघर्ष केवल आर्थिक पैकेज या ग्रेटर ऑटोनोमी के लिए नहीं है. इस लंबी समयावधि में बड़ी संख्या में नगाओं ने अपनी जान गंवाई. इसलिए इस समझौते के अंतिम रूप लेने से पहले आईएम के नेताओं को सोचना चाहिए. कैसे माना जा सकता है कि यह समझौता पूरे नगा समुदाय के लिए है? संगठन का यह भी मानना है कि नगाओं की मांग तब पूरी होगी, जब सारे सशस्त्र गुट एकजुट होकर लड़ें. 

नगा एक जनजाति समुदाय है, जो पूर्वोत्तर भारत और उत्तर-पश्चिमी बर्मा के इलाकों में बसा हुआ है. पूर्वोत्तर यानी मणिपुर, अरुणाचल प्रदेश एवं असम कुछ हिस्से. नगाओं की भाषा नगामीज और अंग्रेजी है. अलग-अलग स्थानों पर अलग-अलग उपभाषाएं बोली जाती हैं, जो कि 36 से भी ज़्यादा हैं, लेकिन संपर्क भाषा नगामीज है. वर्ष 2012 तक नगालैंड में आधिकारिक तौर पर 17 नगा जनजातियों को मान्यता दी चुकी है. 99 प्रतिशत नगा ईसाई धर्म मानते हैं और कुछ लोग प्रकृति पूजा (एनीमिज्म) करते हैं. शिकार करना और जानवरों के सिर काटकर एकत्र करना नगाओं की संस्कृति का हिस्सा है. एनएससीएन (आईएम) और केंद्र सरकार के बीच जारी यह वार्ता तभी शांति वार्ता कहलाएगी, जब पड़ोसी राज्यों का समुचित ख्याल रखा जाएगा, अन्यथा आशंका यह भी जताई जा रही है कि खूनखराबे की स्थिति पैदा हो सकती है. इसलिए केंद्र सरकार को एक ऐसा रास्ता निकालना चाहिए, जिससे सांप भी मर जाए और लाठी भी न टूटने पाए. 

नगाओं के सशस्त्र संगठन 

एनएससीएन (आईएम) : वर्ष 1980 में स्थापित इस संगठन के पास साढ़े चार हज़ार लड़ाके हैं. इसके नेता हैं इशाक चिसी और टीएच मुइवा. यह संगठन नगाओं के प्रभुत्व और एकीकरण के लिए काम करता है और नए प्रस्तावित राज्य को नगालिम नाम देना चाहता है. 

एनएससीएन (के ): इस संगठन का मुखिया खापलांग शिलांग संधि-1975 (नगा नेशनल काउंसिल और भारत सरकार के बीच हुआ समझौता)  का विरोध करता था. दरअसल, पहले


एनएससीएन नामक एक ही संगठन था, जो 1988 में दो हिस्सों में विभाजित हो गया, एनएससीएन (के) उसका दूसरा हिस्सा है, जिसकी कमान खापलांग के हाथ में है. दोनों गुटों यानी एनएससीएन (आईएम) और एनएससीएन (के) के बीच भी वर्चस्व की लड़ाई है. 

एमएनपीएफ : एमएनपीएफ (मणिपुर नगा पीपुल्स फ्रंट) मणिपुर से संचालित होता है. यह मणिपुरी नगाओं का एक उग्रपंथी संगठन है. यह 2013 में बना था, जिसके अध्यक्ष जोहन फ्रांसिस कशुंग हैं. उनका मानना है कि नगाओं की मांग तब पूरी होगी, जब सारे सशस्त्र विरोधी गुट एकजुट होकर लड़ें.

एमएनपीए: एमएनपीए (मणिपुर नगा पीपुल्स आर्मी) एमएनपीएफ की सशस्त्र शाखा है. दोनों संगठन एक-दूसरे के पूरक हैं. दोनों का मकसद और कार्यप्रणाली समान है. एमएनपीए के महासचिव हैं विल्सन टाव. 

किसने क्या कहा

हम इस शांति समझौते का स्वागत करते हैं. लेकिन, यदि मणिपुर की सीमा को लेकर कोई ़खतरा पैदा होगा, तो मेरी सरकार केंद्र और एनएससीएन (आईएम) के बीच हो रही इस शांति वार्ता को स्वीकार नहीं करेगी. 
-ओक्रम इबोबी सिंह, मुख्यमंत्री, मणिपुर. 
हम नगा मुद्दों को निपटाने के लिए इस समझौते का स्वागत करते हैं और आशा करते हैं कि यह विवाद ़खत्म हो. लेकिन, यदि असम को एक इंच ज़मीन भी ऩुकसान होगा, तो उसका विरोध ज़रूर करूंगा. इस समझौते के बिंदुओं को सबसे छिपाया गया.  
-तरुण गोगोई, मुख्यमंत्री, असम.


इस समझौते के बारे में टेलीविजन के माध्यम से पता चला. अगर राज्य सरकार के सुझाव केंद्र को मंजूर हैं, तो यह समझौता स्वीकार करूंगा. 
-नबम टूकी, मुख्यमंत्री, अरुणाचल प्रदेश.

नगालैंड सड़क घोटाला

ऐसे होगा पूर्वोत्तर का विकास!
पूर्वोत्तर के राज्य और वहां के लोग खुद को अलग-थलग पाते हैं. पूर्वोत्तर को विकास और देश की मुख्य धारा से जोड़ने के लिए सरकार द्वारा लगातार प्रयास जारी हैं. लेकिन, शहरों और दिलों को जोड़ने का काम करने वाली सड़क के निर्माण में घोटाला किए जाने का मामला प्रकाश में आने से पूर्वोत्तर के लोगों को खासा झटका लगा है. नगालैंड के चार ज़िले एक-दूसरे से कटे हुए हैं. वहां के लोगों को दूसरे ज़िले में जाने के लिए दुर्गम पहाड़ों को पार करना पड़ता है. एनएच-39, जिसे वहां की लाइफ लाइन माना जाता है, का निर्माण कार्य कई वर्ष पहले शुरू हुआ था, जो आज तक जारी है. बरसात के मौसम में भू-स्खलन होने की वजह से आवागमन ठप हो जाता है. खाद्य सामग्री, एलपीजी, पेट्रोल-डीजल और दवाओं की आपूर्ति बाधित हो जाती है. इसके चलते लोगों को खासी दिक्कतों का सामना करना पड़ता है. मीडिया में भी इन समस्याओं की ़खबरें न के बराबर आती हैं. नगालैंड के इन ज़िलों में पेयजल के लिए लोग झरनों पर निर्भर रहते हैं. महिलाओं को पानी लाने के लिए दुर्गम पहाड़ों पर मीलों दूर जाना पड़ता है.

ऐसे में इन क्षेत्रों में सड़कों का महत्व भलीभांति समझा जा सकता है. लेकिन, यदि सड़क निर्माण कार्य में सैकड़ों करोड़ रुपये का घोटाला हो जाए, तो फिर क्या होगा? फिर कैसे विकसित भारत का सपना पूरा होगा? कैसे हम सुदूर पूर्वोत्तर को देश की मुख्य धारा से जोड़ सकेंगे? मामला नगालैंड का है, जहां लोंगलैंग- चांगटोंज्ञा, मोन-तामलू-मेरांगकोंग, फेक-फूटजेरो और जूनहेबटो-चाकाबामा को एक-दूसरे से जोड़ने वाली सड़कों के निर्माण कार्य में 1,700 करोड़ रुपये का घोटाला किए जाने का मामला प्रकाश में आया है.

उक्त पूरी धनराशि सरकारी खजाने से निकल गई, लेकिन निर्माण कार्य आज तक पूरा नहीं हो सका. ग़ौरतलब है कि यह प्रोजेक्ट चार अलग-अलग सेक्टरों का था, जिसे बाद में जोड़कर एक कर दिया गया. 329 किलोमीटर लंबे इस मार्ग के निर्माण का ठेका मेटास इंफ्रा, जो आईएल एंड एफएस इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड के नाम से जानी जाती है, को दिया गया था. मालूम हो कि मेटास इंफ्रा सत्यम घोटाले से जुड़ी कंपनी है. आईएल एंड एफएस कंपनी गायत्री प्रोजेक्ट्‌स के साथ 62 और 38 ़फीसद हिस्सेदारी के साथ ज्वॉइंट वेंचर के तौर पर काम करती है.
हैरानी की बात यह है कि प्रोजेक्ट शुरू होते ही इसकी लागत ढाई गुना बढ़ गई है. आईएल एंड एफएस और गायत्री प्रोजेक्ट्‌स पर आरोप है कि उन्होंने नगालैंड सरकार को 1,700 करोड़ रुपये की चपत लगाई. वर्ष 2010 में मेटास इंफ्रा और गायत्री प्रोजेक्ट्‌स को नगालैंड पीडब्ल्यूडी से 329 किलोमीटर लंबी सड़क बनाने का ठेका मिला था. मेटास इंफ्रा और गायत्री प्रोजेक्ट्‌स को 9 दिसंबर, 2010 को केंद्र की मंजूरी मिली थी. इसके बाद 3 फरवरी, 2011 को दोनों कंपनियों को पीडब्ल्यूडी नगालैंड ने ठेका दिया था. शर्त यह थी कि प्रोजेक्ट फरवरी 2014 तक पूरा हो जाना चाहिए. प्रोजेक्ट मिलने के नौ महीने के अंदर मेटास इंफ्रा का नाम बदल कर आईएल एंड एफएस इंजीनियरिंग एंड कंस्ट्रक्शन कंपनी लिमिटेड हो गया. इस प्रोजेक्ट के प्रमोटर रामालिंगम राजू को हाल में सत्यम घोटाले में सात साल की सजा हुई है. प्रोजेक्ट शुरू होने के साल भर के अंदर आईएल एंड एफएस ने इसकी लागत रिवाइज्ड करके ढाई गुना बढ़ा दी. जानकारों के अनुसार, यह प्रोजेक्ट 1,296 करोड़ रुपये में पूरा हो जाना चाहिए था, लेकिन इसकी लागत बढ़ाकर 2,978 करोड़ रुपये कर दी गई. 

सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि इस निर्माणाधीन सड़क की लंबाई पहले 329 किलोमीटर तय की गई थी, जिसे बाद में घटाकर 313 किलोमीटर कर दिया गया. सवाल यह है कि जब निर्माणाधीन सड़क की लंबाई 16 किलोमीटर कम हो गई, तो लागत क्यों नहीं घटी? हैरानी की बात तो यही है कि लागत घटने के बजाय ढाई गुना बढ़ गई. इस प्रोजेक्ट की कॉन्ट्रैक्ट डिटेल प्रोजेक्ट रिपोर्ट नगालैंड के पीडब्ल्यूडी ने तैयार की थी और इसके बाद प्रस्ताव केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय को भेजा गया, क्योंकि हाईवे प्रोजेक्ट की फंडिंग केंद्रीय सड़क परिवहन मंत्रालय ही करता है, जबकि राज्य सरकारें वर्क कॉन्ट्रैक्ट देने का काम करती हैं. सूत्रों के अनुसार, आईएल एंड एफएस ने कम से कम 1,682 करोड़ रुपये से ज़्यादा रकम झटकने की योजना बनाई थी. यह योजना तब बनाई गई, जब सड़क की लंबाई 329 किलोमीटर तय की गई थी, जबकि बाद में सड़क की लंबाई घटाकर 313 किलोमीटर कर दी गई.

आईएल एंड एफएस ने स़फाई पेश की है कि लागत में इजा़फा ज़रूर हुआ है, लेकिन इसके पीछे ज़मीन की खुदाई में आने वाला खर्च है. कंपनी का कहना है कि डीपीआर (ऊशींरळश्रशव झीेक्षशलीं ठशिेीीं) में खामी थी और उसने निर्माण लागत बढ़ने की जानकारी पीडब्ल्यूडी-नगालैंड को दे दी थी तथा 2011 में नगालैंड सरकार को भी इस बारे में अवगत करा दिया था. सवाल यह है कि जब कंपनी को पता था कि उसे कितनी लंबी और कहां तक सड़क बनानी है, तो फिर क्या उसे यह पता नहीं था कि सड़क बनाने के लिए कितनी खुदाई करनी पड़ेगी और उस पर कितना खर्च आएगा? और, अगर डीपीआर में खामी थी, तो उसने यह मामला प्री-बिड मीटिंग में क्यों नहीं उठाया? राज्य सरकार को नौ माह बाद जानकारी क्यों दी गई? कंपनी द्वारा पेश की गई स़फाई कहीं से गले नहीं उतरती.

इस सड़क घोटाले से केंद्र सरकार हैरान है और वह इसकी जांच सीबीआई से कराने पर विचार कर रही है. जांच का बिंदु संभवत: यह होगा कि जब चारों ज़िलों के लिए अलग-अलग प्रोजेक्ट थे, तो उन्हें मिलाकर एक क्यों कर दिया गया? सूत्रों के मुताबिक, यह प्रोजेक्ट निरस्त होगा और फिर इसे नए सिरे से बनाया जाएगा. मजे की बात है कि जब रिवाइज्ड कॉस्ट पर सवाल उठे, तो सड़क परिवहन मंत्रालय ने कंसल्टेंसी कंपनी राइट्‌स को चार करोड़ रुपये बतौर शुल्क देकर प्रोजेक्ट की वैल्यूएशन जांचने का ज़िम्मा सौंपा. राइट्‌स ने अपनी शुरुआती रिपोर्ट में रिवाइज्ड कॉस्ट पहले से 15 करोड़ रुपये ज़्यादा बताई. इस रिपोर्ट के बाद राइट्‌स की भी मंशा सामने आ गई. राइट्‌स की रिपोर्ट संगठित भ्रष्टाचार का जीता-जागता उदाहरण है.