यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Tuesday, December 1, 2009

अशांत मणिपुर और बच्‍चों का भविष्‍य

सुरक्षाबलों की मनमानी और आतंक के विरोध में आंदोलन के चलते राज्य की समस्त शैक्षिक गतिविधियां ठप्प हो गई हैं, जिससे लाखों छात्रों का भविष्य अंधकारमय होने की आशंका है, लेकिन सरकार के कानों पर जूं नहीं रेंग रही है.




मणिपुर में सशस्त्र बलों की मनमानी के विरोध में सुलग रही चिंगारी भड़कती जा रही है. इसने अब आम अवाम के साथ बच्चों को भी अपने आगोश में ले लिया है. बीती 23 जुलाई को हुई इस फर्जी मुठभे़ड का मामला लगातार गरमाता जा रहा है, जिसमें संजीत और रवीना नामक निर्दोष युवक-युवती मारे गए थे. इनके अलावा पांच अन्य लोग भी घायल हुए थे. मृतकों के घरवालों ने कसम खा रखी है कि जब तक इन्हें न्याय नहीं मिल जाता, तब तक वे दोनों का श्राद्धकर्म नहीं करेंगे. तीन महीने से ज्यादा समय बीत चुका है, लेकिन अभी तक कोई कार्रवाई नहीं हुई है. वर्किंग कमेटी ऑफ द अपुनबा लुप इसके विरोध में लगातार विरोध प्रदर्शन करती चली आ रही है. इसके समर्थन में राज्य के तीन छात्र संगठनों ऑल मणिपुर स्टूडेंट यूनियन (एमसू), मणिपुर स्टूडेंट्‌स फेडरेशन (एमएसएफ) और कंगलैपाक स्टूडेंट्‌स एसोसिएशन (केएसए) ने भी गत 9 सितंबर से अनिश्चितकालीन कक्षा बहिष्कार कर रखा है. गुस्साई जनता ने हर स्कूल-कॉलेज में ताला जड़ दिया है. इस वजह से पढ़ाई बिल्कुल ठप है. अभिभावक अपने बच्चों के भविष्य को लेकर परेशान हैं. पिछले दो माह से बच्चे स्कूल-कॉलेज नहीं जा पा रहे हैं. लेकिन, राज्य सरकार के कान पर जूं नहीं रेंग रही है. वह हाथ पर हाथ धरे बैठी है. फर्जी मुठभे़ड का मामला अभी तक उलझा पड़ा है.




छात्रों, शिक्षकों और अभिभावकों के आंदोलन को कुचलने के लिए सरकार ने कई बार कर्फ्यू भी लगाया, लेकिन इसका कोई असर आंदोलनकारियों पर नहीं पड़ा. कक्षा बहिष्कार का सबसे ज्यादा असर इंफाल वेस्ट, इंफाल ईस्ट, थौबाल और विष्णुपुर में दिख रहा है. यहां के छात्रों की पढ़ाई पूरी तरह चौपट हो चुकी है, लेकिन मणिपुर की जनता सेना के जुल्मों से इतनी परेशान हो चुकी है कि वह इस बार पीछे हटने के मूड में नहीं है. लोग मरने-मारने तक पर आमादा हैं. वे सड़कों पर निकल चुके हैं और उन्होंने हिंसक रुख अख्तियार कर लिया है. उनका कहना है कि अहिंसक आंदोलन से सरकार सुनने वाली नहीं है. इसी के चलते लोगों ने बीती 17 नवंबर को थौबान जिले के सापम खुनौ में खोंगजोम स्टैंडर्ड इंग्लिश स्कूल का भवन जला दिया, जिसमें लगभग दस लाख रुपये की संपत्ति जलकर राख हो गई. स्कूल के प्रशासक लांगपोकलाकपम शक्तिधर सिंह ने बताया कि यहां नर्सरी से लेकर आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई होती है. इस स्कूल में कुल 620 विद्यार्थी हैं.

अहम बात यह है कि एक तरफ प़ढाई ठप है तो दूसरी तरफ छात्रों को परीक्षा भी देनी है. दसवीं और बारहवीं की परीक्षा तो सबसे महत्वपूर्ण परीक्षा होती है, क्योंकि यहीं से भविष्य की राह खुलती है. छात्रों का कहना है कि इस तरह तो हमारा भविष्य ही अंधकारमय हो जाएगा. इस बार दसवीं कक्षा के 27000 से अधिक और बारहवीं कक्षा के 19000 से अधिक छात्रों को परीक्षा देनी है. इनके साथ-साथ अभिभावक भी चिंतित हैं. उन्होंने सरकार और अपुनबा लुप से अपील की है कि दोनों मिलकर कोई ऐसी राह निकालें, जिससे छात्रों का भविष्य चौपट होने से बचाया सके.




ऑल मणिपुर रिककनाइज प्राइवेट स्कूल्स वेलफेयर एसोसिएशन ने भी सरकार, विद्यार्थी संगठनों और अपुनबा लुप से अपील की है कि मामले का शीघ्र ही कोई समाधान निकाला जाए. इसी बीच सरकार ने 9 नवंबर से स्कूल-कॉलेज खुलने की घोषणा कर दी, लेकिन डर और आंदोलन के चलते छात्र वहां जाने का नाम नहीं ले रहे हैं. मणिपुर विश्वविद्यालय के छात्र भी कक्षा बहिष्कार में शामिल हैं. यहां बीएसी के 9494, बीए के 11746 और बीकॉम के 1268 छात्र कक्षा में नहीं जा रहे हैं.

उल्लेखनीय है कि रवीना और संजीत को सुरक्षाबलों ने एक फर्जी मुठभे़ड में मार गिराया था. सरकार ने इस घटना को दबाने की काफी कोशिश की थी, मगर तहलका पत्रिका ने मामले की 12 तस्वीरें छापकर सरकार की नींद उड़ा दी थी. तस्वीरें बता रही थीं कि संजीत को जानबूझ कर एक फार्मेसी के अंदर ले जाकर गोली मारी गई थी. अफसपा कानून के चलते सेना खुद को सुरक्षित मानती है. सरकार भी मामले को रफा-दफा करना चाहती है. जनता की मांग है कि इस मुठभे़ड का सच सामने लाया जाए. इसमें शामिल लोगों को निलंबित किया जाए. जनता ने मुख्यमंत्री से इस्तीफे की भी मांग की.
एमसू, एमएसएफ और केएसए का कहना है कि शिक्षा से ज्यादा महत्वपूर्ण आदमी के जीने का हक है. जब शांति होगी, तभी प़ढाई हो सकेगी. इसीलिए कक्षा बहिष्कार का निर्णय लिया गया. उधर बारहवीं की परीक्षा आगामी मार्च या अप्रैल माह में होनी तय है. डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्‌स एलाइंस ऑफ मणिपुर (डेसाम) ने लोगों से अपील की है कि वे अपने गुस्से पर काबू रखें. संगठन के अध्यक्ष एल सी संतोष ने कहा कि स्कूल जलाना शिक्षा का विरोध करने के समान है. मुख्यमंत्री ओ इबोबी सिंह ने आश्वासन दिया है कि बहुत जल्द ही प़ढाई सुचारूरूप से चालू हो जाएगी. सेना ने आम आदमी को मार डाला है, यह बात गलत है. घटना की जांच हो रही है और दोषी लोगों को सजा जरूर मिलेगी. जनता को जीने और शिक्षा का अधिकार सरकार की प्राथमिकता में है.



मणिपुर में राइट टू लीव नहीं है. यहां लोग हमेशा भयभीत रहते हैं. बीती 14 अगस्त को नोंगमाइखों में 13 वर्षीया विद्यारानी को इंफाल वेस्ट कमांडो और मराठा लाइट इंफैंट्री के जवान उसके घर से उठा ले गए और उसे चार दिनों तक कस्टडी में रखा गया. वजह, उसके मां-बाप पर शक था कि उनके आतंकवादियों से संबंध हैं. विद्यारानी आज तक दहशत में है. वह हर वक्त चौंकती, चिल्लाती और बुदबुदाती रहती है. विद्यारानी जैसे अनेक बच्चे इसी माहौल में जीते हैं, लेकिन इस बात की चिंता न राज्य सरकार को है और न ही केंद्र सरकार को.


कहां कितने विद्यार्थी

सरकारी हायर सेकेंडरी 10549
मान्यताप्राप्त हायर सेकेंडरी 30389
सरकारी हाईस्कूल 21018
वित्तपोषित हाईस्कूल 13439
मान्यताप्राप्त हाईस्कूल 115379
सरकारी जूनियर हाईस्कूल 21117
वित्तपोषित जूनियर हाईस्कूल 8296
मान्यताप्राप्त जूनियर हाईस्कूल 47755
सरकारी प्राइमरी स्कूल 60537
वित्तपोषित प्राइमरी स्कूल 16031
मान्यताप्राप्त प्राइमरी स्कूल 14885
कॉलेज-विश्वविद्यालय 20000
कुल 379395
उक्त आंक़डे डायरेक्टर ऑफ एजूकेशन (एस) की 2007-08 की रिपोर्ट पर आधारित हैं, जिसमें इंफाल वेस्ट, इंफाल ईस्ट, थौबाल और विष्णुपुर आदि जिले प्रमुख रूप से शामिल हैं.

Tuesday, November 3, 2009

इरोम शर्मिला की भूख हडताल के 10 साल, सत्‍ता तंत्र खामोश



इस 2 नवंबर को इरोम चनु शर्मिला के आमरण अनशन को दस साल हो चुका है. शर्मिला ने वर्ष 2000 में इसी दिन अपना आमरण अनशन शुरू किया था. उन्होंने यह क़दम मणिपुर में 1958 से चले आ रहे आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट के खिलाफ उठाया था. तात्कालिक कारण बना था, इसी दिन इंफाल से 10 किमी दूर मालोम गांव में असम रायफल्स के जवानों द्वारा बस के इंतजार में बैठे 10 आम लोगों को गोलियों से भून डालना. पुलिस के इस कृत्य को सही साबित करने के लिए मणिपुर में लागू क़ानून आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट (अफसपा) था ही. तमाम मानवाधिकार संगठन इस पुलिसिया जुल्म के खिलाफ चिल्लाते रहे, आहत शर्मिला अनशन पर जा बैठीं, लेकिन अफसपा के रहते इन पुलिस वालों का कुछ नहीं बिगड़ना था, सो वास्तव में कुछ नहीं हुआ. यहीं से अत्याचार के खिलाफ शुरू हुई मणिपुर के एक दैनिक अ़खबार हुयेल लानपाऊ की स्तंभकार शर्मिला की गांधीवादी यात्रा.
बात यहीं पर खत्म नहीं होती, पुलिस और सरकार अड़ी है कि वह अफसपा को खत्म नहीं करेगी और दूसरी ओर शर्मिला की जिद है कि जब तक सरकार इस काले क़ानून को खत्म नहीं करती, तब तक वह अनशन नहीं तोड़ेंगी. सत्तामद में चूर हुक्मरानों को जब लगा कि शर्मिला की वजह से उनकी बहुत किरकिरी हो रही है, तो उन्होंने शर्मिला का मनोबल तोड़ने के लिए उन पर आईपीसी की धारा 309 लगाकर आत्महत्या की कोशिश के आरोप में 21 नवंबर 2000 को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया. और, इस तरह एक बार फिर यह साबित कर दिया गया कि सत्ता का चरित्र ही शोषक का होता है.
शर्मिला की रिहाई के लिए राज्य भर में हुए तमाम विरोध और मानवाधिकार संगठनों द्वारा किए गए प्रदर्शन के बावजूद सरकार ने उन्हें नहीं छोड़ा. इस क़ानून के तहत अधिकतम एक साल तक किसी को जेल में रखा जा सकता है और शर्मिला को भी सजा के अधिकतम समय तक जेल में रखा गया. लेकिन, जब सरकार ने देखा कि शर्मिला की लोकप्रियता धीरे-धीरे बढ़ती जा रही है और जनमत इस काले क़ानून के विरोध में बनता जा रहा है, तो उन्हें एक बार फिर क़ैद कर लिया गया. इसके बाद से शर्मिला सजिवा जेल द्वारा संचालित जवाहरलाल नेहरु अस्पताल, इंफाल में क़ैद हैं, जहां लाख कोशिशों के बावजूद शर्मिला के अनशन न तोड़ने पर जबरदस्ती नाक में नली लगाकर खाना खिलाया जा रहा है.



शर्मिला के लगातार दस साल से चले आ रहे इस आमरण अनशन ने इतिहास तो रच दिया, लेकिन इसकी जितनी धमक होनी चाहिए थी, वह नहीं हुई. सवाल उठता है कि आ़िखर ऐसा क्यों हुआ?

इसके जवाब में फ्रीडम एट मिडनाइट के लेखक कॉलिंस और लॉपियर के शब्दों को दोहरा देना ही ज़्यादा उचित प्रतीत होता है, ‘‘अहिंसात्मक आंदोलन का असर अच्छे आदमियों पर होता है.’’
शायद यही वजह है कि पिछले दस वर्षों से शर्मिला के आमरण अनशन पर बैठे रहने के बाद भी उनकी आवाज अनसुनी है, लेकिन इसके बाद भी वह टूटी नहीं हैं. वह आज भी इस काले क़ानून को हटाने की मांग पर कायम हैं और सरकार से अपने लिए रहम की भीख नहीं चाहतीं. वह न तो जमानत चाहती हैं और न ही अनशन तोड़ने को राजी हैं. वह कहती हैं कि सरकार पहले बगैर किसी शर्त के इस काले कानून को हटाए.

उल्लेखनीय है कि पूर्वोत्तर राज्यों में पिछले कई सालों से आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट की आड़ में निर्दोषों की हत्याएं होती आ रही हैं. आतंकवाद पर अंकुश लगाने के नाम पर पुलिस निर्दोषों के साथ फर्जी मुठभेड़ दिखाकर उन्हें मार देती है और आतंकियों को मार गिराने का ऐलान कर अपना कॉलर भी टाइट कर लेती है. 2 जुलाई 2009 को फर्जी मुठभे़ड में मारी गई रवीना और 2004 में असम रायफल्स के जवानों द्वारा हवालात में सामाजिक कार्यकर्ता मनोरमा देवी की बलात्कार के बाद हत्या तो मात्र नमूना भर है. आपको याद होगा कि मनोरमा हत्याकांड को लेकर पेबम चितरंजन ने अपने शरीर पर तेल छिड़क कर इसी साल आत्महत्या कर ली थी. लेकिन इसके बाद भी पुलिस वालों पर कोई कार्रवाई नहीं हुई थी. उक्त सारी घटनाएं यह बताने के लिए पर्याप्त हैं कि अफसपा की आड़ में मणिपुर में किस तरह पुलिसिया जुल्म और आतंक के साये में लोग जी रहे हैं.
हालांकि ऐसा भी नहीं कहा जा सकता कि शर्मिला के इस अहिंसक आंदोलन का कोई असर नहीं है. आम जनमानस तो पूरी तरह से शर्मिला को देवी मान बैठा है. दबाव में ही सही, इस बार का लोकसभा चुनाव जीतने के बाद अगाथा संगमा मणिपुर जाकर शर्मिला इरोम से मिलीं और उन्होंने जनता को यह विश्वास दिलाया कि वह जोर-शोर से संसद में इस मुद्दे को उठाएंगी. हाल ही में गृहमंत्री पी चिदंबरम ने कहा कि अफसपा कानून में संशोधनों को अंतिम रूप देकर स्वीकृति के लिए उसे यूनियन कैबिनेट में भेज दिया गया है. मालूम हो कि इस क़ानून को हटाने की मांग जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने भी की थी.
दूसरी तरफ शर्मिला के इस संघर्ष में कई और जांबाज साथिनें भी 10 दिसंबर 2008 से जुड़ गई हैं. मणिपुर के कई महिला संगठन पिछले साल से ही रिले भूख हड़ताल पर प्रतिदिन बैठ रहे हैं. यानी समूह बनाकर प्रतिदिन भूख हड़ताल. इनमें चनुरा मरूप, मणिपुर स्टेट कमीशन फॉर वूमेन, आशा परिवार, नेशनल कैंपेन फॉर पीपुल्स राइट टू इंफॉरमेशन, नेशनल कैंपेन फॉर दलित ह्यूमेन राइट्‌स, एकता पीपुल्स यूनियन ऑफ ह्यूमेन राइट्‌स, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमेन एसोसिएशन, ऑल इंडिया स्टूडेंट्‌स एसोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स और भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी मार्क्सवादी-लेनिनवादी आदि शामिल हैं.

इतना ही नहीं, विदेशों में भी शर्मिला के बचाव के लिए कई संस्थाएं सतत प्रयास कर रही हैं. इनमें पूरी दुनिया के मानवाधिकार संगठनों और एनआरआई, फ्रेंड्‌स ऑफ साउथ एशिया, एनआरआई फॉर ए सेक्युलर एंड हारमोनिएस इंडिया, पाकिस्तान ऑर्गेनाइजेशंस, पीपुल्स डेवलपमेंट फाउंडेशन, इंडस वैली थिएटर ग्रुप और इंस्टीट्यूट फॉर पीस एंड सेक्युलर स्टडीज आदि शामिल हैं.
शर्मिला अपने आंदोलन को लेकर कहती हैं कि हम लोगों ने क्या और कितना किया, इसको प्रतिशत में नहीं बताया जा सकता, मगर मुझे लगता है कि हम मंज़िल के क़रीब हैं. शर्मिला आगे कहती हैं कि वह उम्मीद करती रहीं कि देश के शासक वर्ग इस जंगल शासन से मुक्ति दिलाएगा. एक ऐसा शासन, जिसमें आम जनता बिना डर-भय के जी सके. लेकिन शासकों ने जब ऐसा कुछ नहीं किया तो मुझे सैकड़ों लोगों की ज़िंदगी बचाने के लिए खुद को समर्पित कर देना पड़ा. जब तक मणिपुरियों को इस काले कानून से मुक्ति नहीं मिल जाती, मेरा संघर्ष जारी रहेगा. शर्मिला की मां कहती हैं कि 10 साल हो गए, उसे घर से गए हुए. वह मुझसे मिलना चाहती थी. उसने मिलने के लिए चिट्ठी भेजी थी, मगर मैंने मना कर दिया. कहा कि जब तक तुम सफल नहीं हो जाती, मुझसे नहीं मिलोगी. तुम जब कामयाब होकर घर लौट आओगी, तब तुम्हारे हाथ का बना खाना खाऊंगी.

वसुधैव कुटुंबकम का नारा देने वाले इस देश ने गांधी, बुद्ध और महावीर जैसे अनेक अहिंसावादियों को जन्म दिया है, जिन्होंने न स़िर्फभारत को, बल्कि पूरी दुनिया को राह दिखाई. अब जबकि शर्मिला भी इसी सत्याग्रही रास्ते के 10 साल हो रहा हैं और इस अवसर पर दो से छह नवंबर तक का समय मानवाधिकार समर्थक संस्थाएं एवं लोग उम्मीद, न्याय व शांति के उत्सव के रूप में मना रहे हैं, तो क्या उम्मीद की जाए कि मणिपुर से अफसपा की कालिमा खत्म होगी. एक नयी सुबह आएगी या यह एक ऐसी काली रात है, जिसकी कोई सुबह नहीं.

अफसपा की आ़ड में पुलिसिया कारनामे
1. 1980 में उइनाम में इंडियन आर्मी ने चार लोगों को गोली चलाकर मारा.
2. 1984 में हैरांगोई थोंग के बोलीबॉल ग्राउंड में सीआरपीएफ की गोली से 13 लोग मारे गए.
3. 1985 में रिम्स गेट से गोली चलाने में नौ लोग मारे गए.
4. 2000 में तोंसेम लमखाई में इलेक्शन ड्‌यूटी के लिए जा रही बस में दस आदमी को गोली मारी.
5. 2000 के दो नवंबर को मालोम में असम रायफल्स द्वारा की गई गोलीबारी से वेटिंग शेड में गाड़ी का इंतजार कर रहे कुल 10 लोग मारे गए, जिसमें 10 साल की एक बच्ची भी शामिल थी.


फेस्टिवल ऑफ होप, जस्टिस एंड पीस का उद्घाटन
21वीं सदी शर्मिला की होगी


10 साल से चले आ रहे शर्मिला के अहिंसात्‍मक आंदोलन को सम्‍मानित करते हुए जस पीस फाउंडेशन के तत्‍वावधान में पांच दिवसीय कार्यक्रम ‘’फेस्टिवल ऑफ होप, जस्टिस एंड पीस’’ आयोजित किया जा रहा है. मुख्‍य अतिथि के रूप में प्रख्‍यात लेखिका महाश्‍वेता देवी और मैरा पायबी युमनाम मंगोल देवी के अध्‍यक्षता में जवाहरलाल नेहरू मणिपुर दांस एकेडमी हॉल में कार्यक्रम शुरू किया गया.

महाश्‍वेता देवी ने कहा कि 21वीं सदी शर्मिला की सदी होगी. शर्मिला की ईमानदारी, उनका स‍मर्पण, साहस, आध्‍यात्‍म और आत्‍मविश्‍वास वाकई लाजवाब है. शर्मिला अहिंसा के पर्याय कहे जाने वाले महात्‍मा गांधी और गौतम बुद्ध से तुलना तुलना की जाने लायक महिला है. कार्यक्रम में महाश्‍वेता देवी ने आगे कहा कि शर्मिला के इस समर्पण को देखते हुए 2010 के फरवरी में दिया जाने वाला पहला ‘मेआइलाम फाउंडेशन एवार्ड’ शर्मिला को दिया जाएगा. यह एवार्ड केरल की मेआइलामा नामक एक मलयाली लडकी जिसने ‘कोका कोला’ के विरोध में आंदोलन किया था, की याद में शुरू किया जा रहा है. शर्मिला को लेकर दिप्‍ती प्रिया महरोत्रा की किताब ‘बर्निंग ब्राइट’ बंगाली भाषा में तत्‍काल अनुवाद करने की भी उन्‍होंने घोषणा की. यह किताब भारत की विभिन्‍न भाषाओं में अनुवाद कर शर्मिला को भारत के हर जनता को बताना जरूरी है. आगे महाश्‍वेता देवी ने शर्मिला की प्रशंसा की कि शर्मिला विशाल हिमालय की तरह है, बडा वृक्ष और दिलदार नदी के बराबर है. साथ में शर्मिला केवल मणिपुर राज्‍य की नहीं हो सकती है, वह पूरे भारत की है. उन्‍होंने शर्मिला से एक बार मिलने की इच्‍छा जाहिर की.
कार्यक्रम में दीप्ति प्रिया महरोत्रा की लिखी किताब ‘ब्रनिंग ब्राइट’ का लोकार्पण किया गया. द्रिक इंडिया और पीस काउंट ने एक फोटो मेला भी मणिपुरी डांस एकाडमी कंप्‍लेक्‍स में लगाया था. ज्ञात हो कि दीप्ति प्रिया महरोत्रा की किताब ‘ब्रनिंग ब्राइट’ का हिंदी अनुवाद का काम दिनिस पब्लिकेशन ने शुरू किया गया. मुख्‍य अतिथि ने द्रिक इंडिया, पीस काउंट, इनसाफ, जेलियांगरोंग प्रतिनिधि, सलाई पुनसिफम, बुधिस्‍ट काउंसिल, मुसलिम प्रतिनिधि, मणिपुर गीता मंडल, दिभाइन लाइफ सोसायटी, अरियान थियेटर, कलम, नहाखोल आदि के प्रतिनिधियों से बातचीत की.

Saturday, September 26, 2009

हम तो हैं परदेस में

हम तो हैं परदेस में, देस में निकला होगा चांद
अपनी रात की छत पर कितना तनहा होगा चांद



जिन आँखों में काजल बनकर तैरी काली रात
उन आँखों में आँसू का इक, कतरा होगा चांद



रात ने ऐसा पेंच लगाया, टूटी हाथ से डोर
आँगन वाले नीम में जाकर अटका होगा चांद



चांद बिना हर दिन यूँ बीता, जैसे युग बीते
मेरे बिना किस हाल में होगा, कैसा होगा चांद

-राही मासूम रज़ा

Friday, September 11, 2009

नगा शांति वार्ता अब केंद्र से सीधे होगी


पिछले 10 सालों से केंद्र सरकार और शीर्ष नगा अलगाववादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन-आईएम) के बीच चली आ रही युद्ध विराम की वार्ता अब सीधे तौर पर होगी. वार्ता के प्रतिनिधि के रूप में पूर्व भारतीय गृह सचिव के पद्मनाभैया का 1999 के 28 जुलाई को चयन किया गया था. उनका कार्यकाल समाप्त करने का केंद्र सरकार ने फैसला कर लिया है. भारत सरकार के प्रतिनिधि के रूप में पद्मनाभैया पिछले 10 साल से कई भागों में वार्ता करते आ रहे थे. अब सीधी बातचीत करने के लिए गृह मंत्रालय के सीनियर ऑफिसिएल ने घोषित किया गया. युद्ध विराम के समझौते 1997 के अगस्त से शुरू हुआ था. इस वार्ता के सबसे पहला मध्यस्थ मिजोरम के पूर्व राज्यपाल स्वाराज कौशल था. उन्होंने 1999 के जुलाई तक यह कार्य किया था.
नगा बागी काफी दिनों से वृहद नगालैंड नगालिम के तहत नगा बहुल इलाकों को एक प्रशासन तंत्र में शामिल करने की मांग पिछले कई सालों से करते रहे हैं. यानी उन्हें नगालिम में नगालैंड के अलावा मणिपुर के चार जिले, असम के दो पहाड़ी जिले और पूर्वी अरुणाचल प्रदेश के दो जिले भी चाहिए. यूपीए सरकार ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत इन राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता बनाए रखने का वादा किया है. असम के मुख्यमंत्री ने तो सीधे तौर पर कहा कि इस तरह की मांग को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जबकि मुख्य विपक्षी दल असम गण परिषद ने कांग्रेस पर यूपीए सरकार को बचाने के लिए असम का ही सौदा करने का आरोप लगाया है. असम, अरुणाचल और मणिपुर की सरकारें और वहां की प्रदेश कांग्रेस समिति इसका विरोध करती रही है. नगालैंड में सोलह नगा जनजातियां हैं और प्रत्येक की अपनी-अपनी बोली और भिन्न पहचान है. प्रत्येक नगा जनजाति का भिन्न नाम है और अपनी पहचान के प्रति सजग है.
पिछले कुछ महीनों में मणिपुर के उख्रुल जिले के सिरुई और नगालैंड के फुटचेरो में एनएससीएन (आईएम) और सुरक्षा बलों के बीच हुई झड़प को लेकर होम मिनिस्टर पी चिदंबरम ने कहा कि भविष्य में अगर वार्ता करनी है तो भारतीय संविधान के दायरे में होनी चाहिए. उन्हें पहले हिंसा का रास्ता छोड़ना होगा. इसलिए दोनों पक्षों को युद्धविराम निभाना ही होगा. एनएससीएन (आईएम) के नेता इसाक मुइवा का वक्तव्य 19 मार्च 09 को नगालैंड के प्रमुख अख़बारों में छपा था कि चिदंबरम नगाओं और इस वार्ता के बारे में कुछ भी जान पा रहे हैं. इसलिए केंद्र सरकार उनकी गलती को सुधारना चाहिए. मुइवा ने कहा कि केंद्र का यह रुख़ अगर बरकरार रहा तो इस वार्ता में कई संकटें आएंगी.



ऐसे में इस वार्ता को लेकर मणिपुर और नगालैंड की जनता और हर संगठन तरह-तरह की मांग कर रहे. नगालैंड के कुकी आदिवासियों ने चेतावनी दी कि जिस क्षेत्र पर उनका समुदाय निवास करता है, उस ज़मीन पर एनएससीएन (आईएम) के नेताओं के साथ सहमति बनती है, तो वे खूनी संघर्ष पर उतर आएंगे. शीर्ष कुकी नेता सतकोखारी चोनगोलीई ने कहा कि हम अपनी इंच भर ज़मीन भी किसी को नहीं देंगे. कुकी आदिवासी समुदाय नगालैंड, असम, त्रिपुरा, मणिपुर और मिजोरम राज्यों में निवास करता है. इनका कहना है कि एनएससीएन (आईएम) ने कुकी समुदाय के हजारों लोगों को गुरिल्ला लड़ाई में मौत के घाट उतार दिया है. वे नहीं चाहते कि उनके समुदाय के दुश्मनों को उनकी जमीन पर अधिकार मिले.
एनएससीएन (आईएम) नेता वी एस अतम ने कहा कि नगा लोगों को विद्रोहियों के रूप में दिखाया गया है. जबकि वे अपनी सभ्यता और संस्कृति को बचाने के लिए सरकार से संघर्ष कर रहे हैं. इस अलगाव की मुख्य वजह, इस क्षेत्र का सामाजिक और राजनीतिक रूप से अलग-थलग रह जाना है. अतम के मुताबिक़ सामाजिक, धार्मिक, ऐतिहासिक और जातीय रूप से हम भारतीयों से भिन्न हैं. यदि शांति वार्ता असफल होती है तो एनएससीएन (आईएम) के जवान भारतीय सेना से लोहा लेने के लिए तैयार हैं.
13 जनवरी 2001 को केंद्र सरकार और एनएससीएन के बीच हुए सीज़ फायर ग्राउंड रूल समझौते को 6 मार्च 09 को लागू किया गया. जिसके तहत,
-यह ग्राउंड रूल केवल नगालैंड राज्य में ही चालू होगा.
-यह रूल चलाने का दायित्व केंद्र सरकार का होगा.
-एक दूसरे के ख़िला़फ कार्रवाई बंद करना और अन्य आतंकवादी गुटों को सहायता न देना.
-एनएससीएन (आईएम) के कार्यकर्ता सीएफसीवी में बताए बिना अपने कैंप से बाहर नहीं जाएंगे, न ही जबरन चंदा लेंगे और न ही नए कार्यकर्ताओं की भर्ती करेंगे.
-आर्मी, पैरा-मिलिट्री फोर्स और पुलिस रक्षा दल या पेट्रोलिंग के लिए अवरूद्ध पैदा नहीं करना.
लेकिन इसके साथ ही यह सवाल अभी बरक़रार है कि क्या इस समझौते से लंबे समय से चली आ रही नगा समस्या का शांतिपूर्ण समाधान हो पाएगा? क्या दूसरे नगा संगठन एनएससीएन-(के) इस समझौते को स्वीकार करेंगे. जो एनएससीएन-आईएम गुट के साथ लगातार खूनी संघर्ष में शामिल रहा है. इससे यह सा़फ है कि यदि केंद्र सरकार और एनएससीएन के बीच भले ही यह समझौता हो जाए, लेकिन जबतक खपलांग गुट इस पर सहमत नहीं होता, यह प्रयास सफल होगा, कहना मुश्किल है. अब देखना यह है कि केंद्र की एनएससीएन (आईएम) से सीधी वार्ता कहां तक सफल होती है.

Monday, September 7, 2009

शर्मिला पर लिखी किताब का लोकार्पण


पिछले 05 सितंबर 2009 को आर्म्‍ड फोर्सेस स्‍पेशल पावर एक्‍ट -1958 (अफसपा) के विरोध में आमरण अनशन पर बैठ रही मणिपुर की बाला इरोम शर्मिला चनु पर लिखी किताब बर्निंग ब्राइट : इरोम शर्मिला एंड द स्‍ट्रग्‍गल फॉर पीच इन मणिपुर का लोकार्पण केंद्र ग्रामीण विकास मंत्री अगाथा संगमा ने इंडिया हेबिटेट सेंटर के गुलमोहर हॉल में किया गया. पेंग्विन बुक्‍स द्वारा प्रकाशित इस किताब की लेखिका दीप्ति प्रिया महरोत्रा है. अंग्रेजी की यह किताब शर्मिला के साथ-साथ मणिपुर के सांस्‍कृति और वहां के प्रतिरोधी को भी टटोलती है.
इस कार्यक्रम में अगाथा संगमा के अलावा बाब्‍लू लोयतोंगबम, डायरेक्‍टर ह्यूमन रायट्स एलर्ट, बिनालक्ष्‍मी नेप्रम, सेक्रेटरी जेनरल कंट्रोल ऑफ आर्म्‍ड फाउंडेशन ऑफ इंडिया और जीवन रेड्डी कमेटी के सदस्‍य संजय हजारिका आदि उपस्थित थे. इस कार्यक्रम की मुख्‍य अतिथि अगाथा संगमा ने कार्यक्रम को संबोधित करते हुए कहा कि यह मेरे लिए बहुत ही महत्‍वपूर्ण कार्यक्रम है. शर्मिला पर लिखी यह किताब पूरे मणिपुर का चेहरा है, जो वहां की जिंदगी को दर्शाता है. उन्‍होंने कहा कि मैं इस मुद्दे पर हर संभव प्रयास कर रही हूं और करती ररूंगी. उल्‍लेखनी है अगाथा पिछले 3 महीने पहले इंफाल में एनसीपी के स्‍थापना दिवस पर गई हुई थी. उस दरमियान वह शर्मिला से मिली और वहां की जनता से वादा किया कि इस काला एक्‍ट को हटाने में हर संभव प्रयास करूंगी. वहां से लौटकर इस मुद्दे पर उन्‍होंने प्रधानमंत्री से भी बात की. इससे वहां के लोगों में आशा का संचार हुआ. लगा कि यह एक्‍ट अब हट जायेगा. कई सालों से इस मामले को लेकर पूछने वाला कोई नेता हो या शासक वर्ग नहीं था.
कार्यक्रम में इस किताब की लेखिका दीप्ति ने शर्मिला के बारे में बताया. जब शर्मिला 2007 में दिल्‍ली आई हुई थी, तब राममनोहर लोहिया अस्‍पताल में वह उनसे जाकर मिली थी. उनका हाल देख कर वह इतना विचलित हुई कि वे साख्‍ता गुस्‍से में उनके मुंह से निकला कि मैं आप पर किताब लिखूंगी. उससे पहले उन्‍होंने अपने इस निर्णय के बारे में पता नहीं था. लेखिका ने मणिपुर की इमाओं (मशाल लेकर प्रदर्शन करती मणिपुर की महिलाएं) की संघर्षपूर्ण कहानी और शर्मिला की तस्‍वीर, उसकी परिवार की तस्‍वीर भी इस कार्यक्रम में एक पावर प्रेजेंटेशन के द्वारा दिखाया.
बाब्‍लू लोयतोंगबम, डायरेक्‍टर ह्यूमन राइट्स एलर्ट ने शर्मिला की संघर्षपूर्ण कहानी भी श्रोताओं के सामने रखी. शर्मिला 2000 के 2 नवंबर से भूख हडताल पर बैठी है. शुरूआती दौर में उनको आत्‍महत्‍या के आरोप में पकडा गया और जेल में धारा 309 लगा कर डाल दिया गया था. उस घटना के चश्‍मदीद बाब्‍लू ने जब इस घटना के बारे में लोगों को बताया, तो पूरे हॉल में सन्‍नाटा छा गया. सभी लोग इस बर्बरपूर्ण कार्रवाई के बारे में सुन कर सकते के हालत में आ गए. बिनालक्ष्‍मी नेप्रम, सेक्रेटरी जेनरल कंट्रोल ऑफ आर्म्‍ड फाउंडेशन ऑफ इंडिया एक सामाजिक कार्यकर्ता होने के साथ-साथ एक मणिपुरी बाला है, जो शर्मिला के बहुत करीब रही है और मणिपुरियों के लिए संघर्ष करती शर्मिला की त्रासदी को शिद्दत से महसूस किया है. शर्मिला और मणिपुरी किन-किन यातनाओं से गुजरे और गुजर रहे हैं, इससे उन्‍होंने दर्दपूर्ण रूप से सभा को रू-ब-रू करवाए. उन्‍होंने कहा कि यह एक्‍ट (अफसपा) मानवता के विरोधी है, जो अमन पसंद लोगों की शांति को भंग करता है.
जीवन रेड्डी कमेटी के सदस्‍य संजय हजारिका ने कहा कि यह एक्‍ट हटना ही चाहिए, क्‍योंकि वहां के हर आदमी, हर संगठन इस एक्‍ट को रीपिल करने की राय देते रहे हैं. यह आवाम की आवाज है. आगे कार्यक्रम में उपस्थित लोगों ने भी अपनी भागीदारी निभाई.


लेखक के साथ शर्मिला इरोम

यह किताब मणिपुरियों की आवाज बन चुकी शर्मिला इरोम की संघर्ष गाथा की जीवंत दस्‍तावेज है. गांधीवादी तरीके से अपने संघर्ष को आगे बढा रही शर्मिला के कुछ दुलर्भ तस्‍वीर भी इस पुस्‍तक में दिए गए है और यह बताया गया है कि कैसे अफसपा मणिपुरियों के लिए एक काला कानून है, जिसे जबरन उनपर थोप दिया गया है और इसे हटाया जाना चाहिए. नहीं तो मणिपुर के इस कानून का आड लेकर सुरक्षा प्रहरियों द्वारा किए जा रहे अत्‍याचार के खिलाफ एक बडा मुहिम खडा हो सकता है. इतना ही नहीं लेखिका का यह भी मानना है कि यदि जल्‍दी ही इस दिशा में कोई सार्थक कदम नहीं उठाया गया, तो मणिपुर अलगाव की राह पर भी जा सकता है. इस काले कानून की आड लेकर अलगाववादी तत्‍व मणिपुर की भोली जनता को भडका कर सरकार के खिलाफ कर सकते हैं, जो संघीय भारत के लिए नुकसानदेह साबित हो सकता है. लेखिका का यह सार्थक प्रयास है कि पूर्वोत्‍तर की एक साधारण महिला पर उसने प्रेम किया और उसको किताब के रूप में पेश किया.

दीप्ति प्रिया महरोत्रा

दीप्ति प्रिया महरोत्रा दिल्‍ली में अपनी बेटी के साथ रहती है. उन्‍होंने दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय में राजनीतिक शास्‍त्र पर पीएचडी की. साथ ही उन्होंने इस पर स्वतंत्र अनुसंधान भी की, जिसके लिए भारत फाउंडेशन, मैकआर्थर फाउंडेशन और भारतीय दार्शनिक अनुसंधान परिषद द्वारा फैलोशिप से नवाजा गया.
इसके अलावा नारीवादी विचारों सहित उनकी दिलचस्पी शिक्षा, रंगमंच, जन-आंदोलन में भी काफी है. उन्‍होंने कई सामाजिक संगठनों में कार्य और रिसर्च भी किया. फिलहाल वे दिल्‍ली विश्‍वविद्यालय के श्रीराम कॉलेज में अध्‍यापिका हैं. वे हिंदी और अंग्रेजी दोनों में लिखती रही हैं. उनकी तीन किताबें गुलाब बाई –द क्विन ऑफ नाटंकी थिएटर, होम ट्रूट्स – स्‍टोरिस ऑफ सिंग्‍ल मडर्स एंड वेस्‍टर्न फिलोसफी और इंडियन फेमिनिज्‍म –फ्रोम प्‍लेटोस एकेडमी टू द स्‍ट्रीट्स ऑफ दिल्‍ली पेंग्विन बुक्‍स द्वारा प्रकाशित भी हो चुकी हैं.

Wednesday, August 26, 2009

आदिवासी औरतों की दुनिया का सच

दिवासी महिलाएं भले ही तन की काली हों, पर दिल की बहुत भोली होती हैं. झरने-सी उन्‍मुक्‍त निश्‍छल फेनिल हंसी और पुटुस के फूलों-सा उनके नैसर्गिक स्‍वभाव का क्‍या कहना. वे जंगलों को प्रेम करती हैं. उसके नाते-रिश्‍ते की परिधि में गाय, बकरी, सुअर भी आते हैं. उनकी दुनिया सारे जहां तक व सिर पर पहाड-सा दुख, हृदय में पहाड-सा धीरज संजोये रहती हैं.

अन्‍य समाजों की तरह आदिवासी समाज भी महिलाओं और पुरुषों की सहभागिता से बना है, लेकिन इसमें जो एक सबसे बडी बात है, वह है आदिवासी समाज की संरचना में महिलाओं का पुरुषों से चौगुना योगदान.औरतें, आदिवासी समाज की अर्थव्‍यवस्‍था की रीढ होती हैं. उन्‍हें खेत खलिहान, जंगल पहाड में ही नहीं, हाट-बाजारों में भी मेहनत-मजदूरी करते हुए देखा जा सकता है. अनाज के एक-एक दाने उनके पसीने से पुष्‍ट होते हैं. उनके घर की बाहरी-भीतरी चिकनी दीवारों और उस पर अंकित अनेक चित्रों से उनके मेहनत, रुचि और कल्‍पनाशीता का अंदाजा लगाया जा सकता है. वह अक्‍सर चुप रह कर सब कुछ सहती हैं. रोज मीलों पैदल चल कर पानी भी लाती हैं और नशे में धुत लडखडाते मर्दों को कंधों का सहारा भी देती हैं. भूख-प्‍यास, थकान से पस्‍त औरत मर्दों के रोज लात-घूसे भी सहती हैं और देर रात गए देह पर पाश्विक तांडव भी.सब कुछ सुनती, मन ही मन गुनती और भीतर ही भीतर लकडी सी घुनती निरंतर ये महिलाएं भला क्‍या जाने कि उनकी आंखों की पहुंच तक ही सीमित नहीं है उनकी दुनिया. वे नहीं जानती कि इतनी महत्‍वपूर्ण भूमिकाओं और त्‍याग बलिदानों के बावजूद उन्‍हें उनके समाज ने उचित मान सम्‍मान और कहीं कोई जगह क्‍यों नहीं दिया क्‍यों संपूर्ण चल अचल संपत्ति पर अपना अधिकार जमा छल-प्रपंच और परंपरा के नाम पर मकडी के जाले-सा उलझा कर रख दिया. शरी के विभिन्‍न अंगों पर असंख्‍य गोदने की तरह विडंबनाएं हैं, उनके जीवन में. कई बंदिशें और वर्जनाएं भी हैं, उनके लिए. जैसे वह हल नहीं छू सकती, चाहे लाख खेती का काम बिगड जाए. अगर भूल से भी मजदूरी में हल छू लिया तो प्रलय मच जायेगा. माझीथान में बैठे देवता का सिंहासन डोल उठेगा और फिर सजोनी किस्‍कू की तरह हल में बैल बना कर जोतने जैसी अमानवीय घटनाओं को अंजाम देने से वे नहीं चूकेंगे. हल की तरह तीर-धनुष छूना भी उनके लिए अपराध है. इसके लिए भी कुछ ऐसी ही निर्धारित शर्त है. जीवन में सिर्फ एक बार शादी के समय लग्‍न मंडप में उन्‍हें तीर-धनुश छूने का मौका मिलता है. उसके बाद फिर कभी नहीं. इतिहास साक्षी है संताल विद्रोह के समय आदिवासी औरतों ने फूलों-झरनों के रूप में जम कर अंग्रे सिपाहियों का मुकाबला किया था और दर्जनों को मौत के घाट उतार दिया था. क्‍या वह काम उसने आंचा मार कर किया था. वे छप्‍पर-छावनी नहीं कर सकती. चाहे घर चू रहा हो या छप्‍पर टूट कर गिर गया हो. इस अपराध के लिए भी वैसी ही सजा है. नाक-कान काट कर घर से धकिया कर निकाल फेंकेगा दकियानूसी समाज. महिलाओं को जाहेर वृक्ष पर चढना या उसकी डालियां तोडना भी महिलाओं के लिए वर्जित है. संतालों की मान्‍यता है कि जाहेर वृक्ष पर बोंगा निवास करते हैं. महिलाओं के उस पर चढने से वह अलविदा हो जाता है. बोंगा नाराज हो जाते हैं और वर्षा को रोक देते हैं, जिससे अकाल पड जाती है.


किसी व्‍यक्ति का बाल काटना भी संताल महिलाओं के लिए वर्जित है. आज संताली समाज में प्रमुख और संपूर्ण चल-अचल संपत्ति का हकदार केवल पुरुष हैं. आदिवासी औरतों का अपने पिता की संपत्ति पर कोई अधिकार नहीं बनता. जब-तक उसकी शादी नहीं होती उनके नाम से जमीन का एक टुकडा अलग रखा जाता है, जिसकी उपज से उसका भरण-पोषण और शादी की जाती है. शादी के बाद वह जमीन उसके भाइयों में बंट जाती है और अगर उसका कोई नहीं रहा तो उनके सबसे करीबी संगोष्ठियों में. अगर उसका पिता किसी को गोद लेकर धर जंवाई बसा लेता है तो ऐसी हालत में उसकी संपत्ति का हकदार उसका पति होता है. किसी कारणवश अगर लडकी को कुंवारी छोड कर उसका पिता मर जाता है तो ऐसे में पिता की संपत्ति पर उसका कोई हक नहीं होता, बल्कि उसके पिता के भाइयों में बंट जाता है. अगर कहीं वह बीच में विधवा हो गई, तो बस पूछिये मत. जमीन जायदाद हडपने की नीयत से उसके गोतिया भाई एक-एक षडयंत्र के तहत तुरंत उस पर डायन का आरोप लगा देंगे. जमीन सहित समस्‍त प्राकृतिक साधनों पर सामूहिक स्‍वामित्‍व की बात झूठी है. पहले कभी रहा होगा, लेकिन अब यह बीते जमाने की बात हो गई. जब खतियान बना, सरकार को मालगुजारी दी जाने लगी तो खतियान में पुरुशों का नाम चढा. कुंवारी लडकियों के साथ भी अजीब विडंबना है, कभी हाट बाजार मेला घूमने गई तो वहां भी जिसको जो पसंद आया भगा कर ले गया और साल छह महीना पास रख कर मन हुआ तो शादी की, नहीं तो छोड दिया. भले ही लडकी उसे पसंद करे न करे. ऐसे मामले में भी समाज का रवैया औरतों के पक्ष में सकारात्‍मक नहीं होता. पहले समुदाय में थोडी बहुत नैतिकता और मानवीय भावना बची हुई थी. इस वजह में संयुक्‍त परिवार था लोगों में सामुदायिक और सामूहिकता थी. घर गांव की चाटुकारिता ने सब कुछ तहस-नहस कर दिया. परिणामत: आज संताली समाज की औरतें न घर की है, न घाट की. इस तरह संताली औरतों के लिए कहीं कोई व्‍यावहारिक व्‍यवस्‍था नहीं है, आदिवासी प्रथागत नियम कानून में. अंग्रेजी गैंजर की रिपोर्ट ने भी संताली प्रथागत कानून को वै़द्य ठहराया और आदिवासी औरतों को जमीन पर अधिकार वे वंचित कर दिया. आज आजादी के इतने सालों पर भी जबकि भारतीय संविधान में कितने संशोधन हुए, संताली प्रथागत कानून में अबतक कोई संशाधन नहीं हुआ. 1956 में जब हिंदू औरतों को पारिवारिक संपत्ति में हिस्‍सा देने के लिए हिंदू उत्‍तराधिकारी अधिनियम बना तो उसी समय आदिवासी औरतों को उस विरादरी से अलग छोड दिया गया, प्रथागत कानून के जयंती शिकंजे में घुट-घुट कर जीने और तिल-तिल कर मरने के लिए. आज जबकि अपने चारों ओर बदलती कमियों को देख कर ये अपने अभिशप्‍त जीवन के खिलाफ जोर-शोर से आवाज उठारही है. छोटी-छोटी जमातों से जुडकर पढना लिखना और मुंह खोलना सीख रही है. अपने हक और अधिकारों के लिए मिल बैठ कर बतियाने लगी है, प्रथागत कानूनों-सी लौह-किवाडों को धकियाने लगी है.

- निर्मला पुतुल

Sunday, August 23, 2009

असम से उठते कुछ जरूरी सवाल

लचित बोरदोलाई के पास सरकार के लिए एक चेतावनी है- अगर सरकार ने उल्‍फा से सीधी वार्ता नहीं शुरू की और सेना अपने मनमाने तरीकों से काम करती रही, तो असम में भी मणिपुर जैसे हालात हो जाएंगे.किसी ने सुना लचित को? वे पीपुल्‍स कंसल्टिव ग्रुप के सदस्‍य हैं, जो पीपुल्‍स कमेटी फॉर पीस इनीशिएटिव्‍स इन असम का मुख्‍य शक्ति स्रोत है. कमेटी में 20 से अधिक संगठन हैं, जो शांति प्रक्रिया शुरू करने और सैन्‍य अभियान रोके जाने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि असम की जनता एक बडे आंदोलन के बारे में सोच रही है. हम शांति के लिए लड रहे हैं. हम सेना के मनमानेपन के मौन गवाह नहीं बने रह सकते. यदि यह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं, असम में भी मणिपुर की तरह सेना विरोधी प्रदर्शन होने लगेंगे. मगर शायद लचित की आवाज सुननेवाले कोई नहीं है. उन बीस से अधिक संगठनों की भी जो शांति के लिए एक मंच पर आए हैं. लचित जब यह बोल रहे थे, 22 फरवरी 2007 को, उससे ठीक एक दिन पहले ही सेना ने अनेक गांवों पर भारी बमबारी की थी. उनमें आदमी ही रहते थे. वे भारतीय सीमा के इस ओर, असम में थे.लगता है कि हम अंधों-बहरों के ही देश में रहते हैं. लगता है कि हम सिर्फ धमाके ही सुन सकते हैं. कुछ समय पहले, जब 79 बिहारियों की असम में हत्‍या कर दी गई, तो सारे देश का ध्‍यान असम पर गया. इन हत्‍याओं को कहीं से जायज नहीं ठहराया जा सकता, मगर यह जानना किसी ने जरूरी नहीं समझा कि इनके लिए जितनी दोषी उल्‍फा है, उससे कम दोषी सरकार नहीं है.माना जाता है कि पीपुल्‍स कंसल्‍टेटिव ग्रुप उल्‍फा के निकट है. ऐसे में शांति प्रक्रिया के लिए उसकी इस तरह की कोशिशें उन लोगों के लिए आश्‍चर्य का विषय हो सकती हैं, जो सरकारी प्रचारतंत्र पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं. असम में जारी युद्ध विराम और शांति प्रक्रिया के टूटने के लिए उल्‍फा से अधिक भारत सरकार जिम्‍मेदार है. शांति प्रक्रिया से जुडे अनेक जानकारों ने यह बार-बार कहा है कि शांति प्रक्रिया के दौरान सरकार ने अडियल रवैया अपनाया. इसके उलट उल्‍फा ने काफी लचीला रुख दिखाया, मगर उसे सरकार से सहयोग नहीं मिला. शांति प्रक्रिया के विफल रहने से असम की व्‍यापक जनता में निराशा और एक हद तक गुस्‍सा भी फैल गया.
दरअसल, हम राष्‍ट्रीय एकता, अखंडता, आजादी और लोकतंत्र आदि सुनहरे शब्‍दों और नारों पर इतने मुग्‍ध रहते हैं कि हम कभी इनसे उपर उठ कर कुछ खरे-खरे सवाल कर ही नहीं पाते. इसका फल यह होता है कि हमारे आसपास क्‍या घट रहा है, इससे हम लगभग अनभिज्ञ रहते हैं और जब कुछ अनहोनी घटती है, तो कुछ सरल और प्राय: भ्रमित किस्‍म की सूचनाओं पर निर्भर और उनसे नियंत्रित होते हैं तथा जल्‍दी ही एक आसान सा निष्‍कर्ष भी निकाल लेते हैं.क्‍या हमने कभी यह जानने की कोशिश की है कि आखिर असम में उल्‍फा या एनडीएफबी जैसे संगठन क्‍यों इतने मजबूत हैं और क्‍यों कुछ भी कर पाने में सफल रहते हैं. असम वस्‍तुत: एक पिछडा प्रदेश है, जहां की दो करोड से अधिक की आबादी में से 15 लाख से अधिक बेरोजगार हैं और उनमें 3.1 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है, इसके उलट प्‍लेसमेंट 20.7 प्रतिशत की दर से घट रहा है. 2002 में वहां कुल शिक्षित बेरोजगारों की संख्‍या 10,45,940 थी, जिनमें से उस साल केवल 70 को रोजगार मिल पाया. असम में प्रति व्‍यक्ति औसत आय राष्‍ट्रीय औसत का 61 प्रतिशत है और बांग्‍लादेश का एक व्‍यक्ति असम के एक व्‍यक्ति से औसतन अधिक कमाता है. असम में साक्षरता की दर भी राष्‍ट्रीय औसत से कम है. वहां सिर्फ 45 प्रतिशत लोगों तक साफ पानी पहुंचता है. असम के सकल घरेलू उत्‍पाद में कृषि का योगदान 31 प्रतिशत है मगर हाल के वर्षों में पैदावार घटी है. असम का किसान 50 रुपए रोज से भी कमाता है. असम की लगभग 72 प्रतिशत विवाहित महिलाओं में खून की भयंकर कमी है, जो कि भारत में सबसे बदतर आंकडा है. वहां मलेरिया भी इसका एक कारण है.ये सिर्फ आंकडे नहीं है, ये इस बात के भी संकेतक है कि हमें असम की कितनी परवाह है. ऐसे में जबकि सरकार विफल होती दिखती है, वहां की जनता अपनी अधिकार मांगने के लिए उठ खडी. होती है मगर जब ऐसा होता है तो सरकार उनसे निपटने के लिए सेना का प्रयोग करती है.असम में 1985 से अफसपा, आर्म्‍ड फोर्सेज स्‍पेशल पावर एक्‍ट लागू है, जो वहां तैनात सेना को असीमित शक्ति दे देता है. इसका परिणाम यह हुआ कि सेना आम जनता का उत्‍पीडन करने लगी. सेना की कोई जवाबदेही नहीं है और इस एक्‍ट के कारण वहां की चुनी हुई सरकारें कोई कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकती. क्‍या हमें पता है कि पूरा राज्‍य लगभग आधी सदी से आपातकाल में जी रहा है? वहां के नागरिकों के मौलिक अधिकार रद्द कर दिए गए हैं, जो बिना औपचारिक रूप से आपातकाल घोषित किए रद्द नहीं किए जा सकते. असम को नजदीक से देखनेवाले यह बताते हैं कि किस तरह वहां इस कानून ने सैन्‍य के जरिए नागरिक प्रशासन को शक्तिहीन किया है. सेना द्वारा जनता का यह उत्‍पीडन हालिया शांति प्रक्रिया के दौरान भी जारी रहा, जबकि उल्‍फा की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई.
मगर बिहारियों की हत्‍या के मामले का एक और आयाम भी है. बिहारियों पर हमले अन्‍य राज्‍यों में भी होते रहे हैं. इसके आर्थिक कारण हैं. चाहे पंजाब हो या महाराष्‍ट्र या आंध्र हर जगह वैश्‍वीकरण की नीतियों के कारण आर्थिक संकट बढ रहा है. गरीबों और वंचितों के लिए अवसर और विकल्‍प लगातार कमते जा रहे हैं. क्‍या हम इस जगह पर प्रथम विश्‍वयुद्ध के बाद की जर्मनी के आर्थिक संकट और हिटलर के उदय को याद करने की इजाजत मांग सकते हैं?
असम में कई छोटे-छोटे विद्रोह होते रहे हैं. हिंसा भी होती रही है, मगर सेना की तरफ से होने वाली हिंसा ही बहस का मूल मुद्दा होना चाहिए. सरकार शांति प्रक्रिया के लिए कितनी गैर संजीदा है, इसका पता इससे भी लगता है कि राष्‍ट्रीय खेलों के बाद समय से अ‍बतक उग्रवादी संगठनों की तरफ से एक भी गोली नहीं चलाई गई है, जब कि सरकार ने अपनी तरफ से कार्रवाई जारी रखी है, शांति प्रक्रिया की तमाम मांगों के बावजूद. उल्‍फा जैसे संगठनों की कार्यशैली से ही स्‍पष्‍ट है कि वे बिना जनता के समर्थन के न तो टिक सकते हैं, न सफल हो सकते हैं. उन्‍हें सेना के बल पर मिटाना मुश्किल हैं. इसका समाधान है, असम की व्‍यापक जनता के लिए असम का विकास. क्‍या सरकार तैयार हैं?

-रेयाज-उल-हक

Saturday, August 22, 2009

रेयाज भैया

रेयाज भैया को मैं काफी दिनों से जानता हूं. उनके साथ प्रभात खबर, पटना संस्‍करण में काम किया. वे एक सक्रिय और निष्‍पक्ष पत्रकार हैं. उनकी कविताओं में भारत की युवा पीढी का सबसे सार्थक प्रतिनिधित्‍व झलकता है. उनके बारे में ज्‍यादा बताना उचित नहीं लगता. उनकी कविता और लेख पढकर आप खुद निर्णय ले सकता है. पेश करता हूं उनकी कविताएं और आलेख.


क्रान्ति के लिए जली मशाल
क्रान्ति के लिए उठे क़दम !

भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात के लिए
मेहनती ग़रीब जाति के लिए
हम लड़ेंगे, हमने ली कसम !

छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ
बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ

साक्षी

कुछ शब्‍द
उनके लिए
जो नंदीग्राम में मार दिए गए
कि मैं गवाह हूं उनकी मौत का

कि मैं गवाह हूं कि नई दिल्‍ली, वाशिंगटन
और जकार्ता की बदबू से भरे गुंडों ने
चलायीं गोलियां, निहत्‍थी भीड पर
अगली कतारों में खडी औरतों पर.

मैं गवाह हूं उस खून का
जो अपनी फसल
और पुरखों की हड्डी मिली अपनी जमीन
बचाने के लिए बहा.

मैं गवाह हूं उन चीखों का
जो निकलीं गोलियों के शोर
और राइटर्स बिल्डिंग के ठहाकों को
ध्‍वस्‍त करतीं.

मैं गवाह हूं
उस गुस्‍से का
जो दिखा
स्‍टालिनग्राद से भागे
और पश्चिम बंगाल में पनाह लिए
हिटलर के खिलाफ.

मैं गवाह हूं
अपने देश की भूख का
पहाड की चढाई पर खडे
दोपहर के गीतों में फूटते
गडेरियों के दर्द का
अपनी धरती के जख्‍मों का
और युद्ध की तैयारियों का.

पाकड पर आते हैं नए पत्‍ते
सुलंगियों की तरह
और होठों पर जमी बर्फ साफ होती है.

यह मार्च
जो बीत गया
आखिरी वसंत नहीं था
मैं गवाह हूं.


शामिल
(सु के लिए,जिसके लिए यह कविता लिखी गई और जिसने इसे संभव बनाया)


तुम कहोगी
कि मैं तो कभी आया नहीं तुम्‍हारे गांव
सलीके से लीपे तुम्‍हारे आंगन में बैठ
कंकडों मिला तुम्‍हारा भात खाने
लाल चींटियों की चटनी के साथ
तो भला कैसेट जानता हूं मैं तुम्‍हारा दर्द
जो मैं दूर बैठा लिख रहा हूं यह सब?

तुम हंसोगी
मैं यह भी जानता हूं

तुम जानो कि मैं कोई जादूगर नहीं
न तारों की भाषा पढनेवाला कोई ज्‍योतिषी
और रमल-इंद्रजाल का माहिर
और न ही पेशा है मेरा कविता लिखना
कि तुम्‍हारे बारे में ही लिख डाला, मन हुआ तो

मैं तुम्‍हें जानता हूं
बेहद नजदीक से
जैसे तुम्‍हारी कलाई में बंधा कपडा
पहचानता है तुम्‍हारी नब्‍ज की गति
और सामने का पेड
चीह्न लेता है तुम्‍हारी आंखों के आंसू

मैं वह हूं
जो चीह्नता है तुम्‍हारा दर्द
और पहचानता है तुम्‍हारी लडाई को
सही कहूं
तो शामिल है उन सबमें
जो तुम्‍हारे आंसुओं और तुम्‍हारे खून से बने हैं

दूर देश में बैठा मैं
एक शहर में
बिजली-बत्तियों की रोशनी में
पढा मैंने तुम्‍हारे बारे में
और उस गांव के बारे में
जिसमें तुम हो
और उस धरती के बारे में
जिसके नीचे तुम्‍हारे लिए
बोयी जा चुकी है बारूद और मौत

सुनाओ कि तुम्‍हारा गांव
अब बाघों के लिए चुन लिया गया है
तुमने सुना-देश को तुम्‍हारी नहीं
बाघ की जरूरत है
बाघ हैं बडे काम के जीव
वे रहेंगे
तो आएंगे दूर देश के सैलानी
डॉलर और पाउंड लाएंगे
देश का खजाना भरोगा इससे

सैलानी आएंगे
तो ठहरेंगे यहां
और बनेंगे इसके लिए सुंदर कमरे
रहेंगे उनमें सभ्‍य नौकर
सुसज्जित वर्दी में
आरामदेह कमरों के बीच
जहां न मच्‍छर, न सांप, न बिच्‍छू
बिजली की रोशनी जलेगी
और हवा रहेगी मिजाज के माफिक

...वे बाघ देखने आएंगे
और खुद बाघ बनना चाहेंगे
तुम्‍हारे गांव में कितनी लडकियां हैं सुगना
दस, बीस, पचास
शायद नाकाफी हैं उनके लिए
उनका मन इतने से नहीं भर सकेगा

जो बाघ देखने आते हैं
उनके पास बडा पैसा होता है
वे खरीद सकते हैं कुछ भी
जैसे खरीद ली है उन्‍होंने
तुम्‍हारी लडकियां
तुम्‍हारा लोहा
तुम्‍हारी जमीनें
तुम्‍हारा गांव
सरकार
...वह जमादार
जो आकर चौथी बार धमका गया तुम्‍हें
वह इसी बिकी हुई सरकार का
बिका हुआ नौकर है
घिनौना गाखरू
गंदा जानवर
ठीक किया जो उसकी पीठ पर
थूक दिया तुमने

आएंगे बाघ देखने गाडियों से
चौडी सडकों पर
और सडकें तुम्‍हारे बाप-दादों की
जमीन तुमसे छीन कर बनाएगी
और तुम्‍हारी पीठ पर
लात मार कर
खदेड देगी सरकार तुम्‍हें
यह
तुम भी जानती हो

पर तुम नहीं जानतीं
दूसरी तरु है बैलाडिला
सबसे सुंदर लोहा
जिसे लाद कर
ले जाती है लोहे की ट्रेन
जापानी मालिकों के लिए
अपना लोहा
अपने लोहे की ट्रेन
अपनी मेहनत
और उस पर मालिकाना जापान का

लेकिन तुम यह जानती हो
कि लोहा लेकर गई ट्रेन
जब लौटती है
तो लाती है बंदूकें
और लोहे के बूट पहने सिपाही
ताकि वे खामोश रहें
जिनकी जगह
बाघ की जरूरत है सरकार को

सुगना, तुमने सचमुच हिसाब
नहीं पढा
मगर फिर भी तुम्‍हें इसके लिए
हिसाब जानने की जरूरत नहीं पडी कि
सारा लोहा तो ले जाते हैं जापान के मालिक
फिर लोहे की बंदूक अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे की ट्रेन अपनी सरकार के पास कैसे
लोके बूट अपनी सरकार के पास कैसे

जो नहीं हुअ अब तक
जो न देखा-न सुनाओ कभी
ऐसा हो रहा है
और तुम अचक्‍की हो
कि लडकियां सचमुच गायब हो रही हैं
कि लडके दुबलाते जा रहे हैं
कि भैंसों को जाने कौन-सा रोग लग गया है
कि पानी अब नदी में आता ही नहीं
कि शंखिनी ओर ढाकिनी का पानी
हो गया है भूरा
और बसाता है, जैसे लोहा
और लोग पीते हैं
तो मर जाते हैं

तुम्‍हारी नदी
तुम्‍हारी धरती
तुम्‍हारा जंगल
और राज करेंगे
बाघ को देखने-दिखानेवाले
दिल्‍ली–लंदन में बैठे लोग

ये बाघ वाकई बडे काम के जीव हैं
कि उनका नाम दर्ज है संविधान तक में
ओर तुम्‍हारा कहीं नहीं
उस फेहरिस्‍त में भी नहीं
जो उजडनेवाले इस गांव के बाशिंदों की है.

बाघ भरते हैं खजाना देश का
तुम क्‍या भरती हो देश के खजाने में सुगना
उल्‍टे जन्‍म देती हो ऐसे बच्‍चे
जो साहबों के सपने में
खौफ की तरह आते हैं- बाघ बन कर

सांझ ढल रही है तुम्‍हारी टाटी में
और मैं जानता हूं
कि मैं तुम्‍हारे पास आ रहा हूं
केवल आज भर के लिए नहीं
हमेशा के लिए
तुम्‍हारे आंसुओं और खून से बने
दूसरे सभी लोगों की तरह
उनमें से एक

हम जानते हैं
कि हम खुशी हैं
और मुस्‍कुराहट हैं
और सबेरा हैं
हम दीवार के उस पार का वह विस्‍तार हैं
जो इस सांझ के बाद उगेगा

हम लडेंगे
हम इसलिए लडेंगे कि
तुम्‍हारे लिए
एक नया संविधान बन सकें
जिसमें बाघों का नहीं
तुम्‍हारा नाम होगा, तुम्‍हारा अपना नाम
और हर उस आदमी का नाम
जो तुम्‍हारे आंसुओं
और तुम्‍हारे खून में से था

जिसने तुम्‍हें बनाया
और जिसे तुमने बनाया
सारी दुनिया के आंसुओं और खून से बने
वे सारे लोग होंगे
अपने-अपने नामों के साथ
तुम्‍हारे संविधान में

जो जिये और फफूंद लगी रोटी की तरह
फेंक दिये गये, वे भी
और जिन्‍होंने आरे की तरह
काट डाला रात का अंधेरा
और निकाल लाये सूरज

जो लडे और मारे गये
जो जगे रहे और जिन्‍होंने सपने देखे
उस सबके नाम के साथ
तुम्‍हारे गांव का नाम
और तुम्‍हारा आंगन
तुम्‍हारी भैंस
और तुम्‍हारे खेत, जंगल
पंगडंडी,
नदी की ओट का वह पत्‍थर
जो तुम्‍हारे नहाने की जगह था
और तेंदू के पेड की वह जड
जिस पर बैठ कर तुम गुनगुनाती थीं कभी
वे सब उस किताब में होंगे एक दिन
तुम्‍हारे हाथों में

तुम्‍हारे आंसू
तुम्‍हाना खून
तुम्‍हारा लोहा
और तुम्‍हारा प्‍यार

... हम यह सब करेंगे
वादा रहा.

(शंखिनी और ढाकिनी : छत्‍तीसगढ की दो नदियां
बैलाडिला : छत्‍तीसगढ की एक जगह, जहां लोहे की खाने हैं और जहां से निकला लोहा उच्‍च गुणवत्‍ता का माना जाता है. दो दशक से भी अधिक समय से यह लोहा बहुत कम कीमत पर जापानी खरीद ले जा रहे हैं.)


जारी...

Wednesday, August 5, 2009

23 जुलाई : मणिपुर के एक और खूनी दिन

उस मासूम बच्चे को क्या पता था कि वह दिन (22 जुलाई 09) उसका अंतिम दिन और वह अपनी मां से हमेशा-हमेशा के लिए बिछड जाएगा. इस काले दिन ने उस मासूम को अनाथ बना दिया, जिसकी कमी उसे जिंदगी भर खलती रहेगी.

घटना स्‍थल से रवीना को उठाती हुई पुलिस
22 जुलाई की सुबह 10.30 बजे इंफाल शहर के बीटी रोड में कमांडो द्वारा फ्रिस्किंग किया जा रहा था. जाहिर है कि इंफाल राजधानी है तो सेक्युीरिटी भी जबरदस्तव होंगी. हाल ही में एसेम्बेली की बैठक में मणिपुर के सीएम ओक्रम इबोबी ने आदेश पारित करने के अनुसार इंफाल शहर में बडी संख्याि में सेक्युइरिटी तैनात की जाए. इसलिए राहगीरों से छानबीन की जा रही थी. उरिपोक की तरफ से एक संदिग्‍ध आदमी उसी तरफ आ रहा था, जिस तरफ कमांडो द्वारा चेकिंग की जा रही थी. उसे रोकने पर बंदूक निकाल कर उसने गोली चलाई और गोली चलाते हुए भागने लगा. जवाबी कार्रवाई में मणिपुर कमांडो ने भी गोली चलानी शुरू कर दी. और उसे मार गिराया. इस गोली बारी में पांच और लोग घायल हो गए. दो को गंभीर चोटें आईं. उसी वक्त अपने तीन साल के बेटे के साथ बाजार में खरीदारी करने आई एक औरत अपने बेटे के सामने जान गंवा बैठी. वह गर्भवती थी. उसका नाम थोकचोम रबीना था, उम्र 23 सा‍ल. उस मासूम जान को क्यां पता होगा कि उसका वह दिन अपनी मां के साथ अंतिम दिन है.

घायलों को अस्‍पताल में ले जाते हुए परिजन

बिलखते परिजन

अपनी मां की तस्‍वीर पर फुल अर्पित करता बच्‍चा

मृतक रवीना

असंतोष जनता किसको जिम्‍मेदारी ठहरायेगी. मुख्‍यमंत्री की इफीजि जला कर प्रदर्शन करती हुई


निर्दोष लोगों को मारने में खाली यही होता है जो प्रदर्शन सडक जाम और इफीजि जलाना उसका नतीजा कुछ नहीं होता

इस घटना के कुछ दिन बाद तहलका में इस घटना को लेकर तेरेसा रहमान की स्‍टोरी आई 12 फोटो के साथ. उस स्‍टोरी और फोटो के छपने के बाद पूरे प्रदेश की जनता जल उठी. प्रदेश सरकार के बयान झुठे निकले. सरकार की नींद उड गई. मामला शांत करने को तैयार हो गए थे मगर घटना की पोल खोलने के बाद जनता शांत नहीं हो सकी. तहलका में छपी स्‍टोरी और तस्‍वीर हैं- तहलका के वेब पेज हैं- http://www.tehelka.com/story_main42.asp?filename=Ne080809murder_in.asp








तलका में ये स्‍टोरी आने से पहले लोग शांत था और समझता था कि वाकई में एनकाउंटर हुआ था. मगर तहलका ने जब घटना की पोल खोली तब प्रदेश की जनता हत्‍यारों को सजा दिलवाने के लिए सडक पर उतरी. फोटो से साफ साफ दिखाया गया कि एनकाउंटर नहीं हुआ जानबुझ कर गोली चलाई थी.




उस घटना को एक कार्टूनिस्‍ट ने इस तरह पेश किए


इस तरह की घटना मणिपुर में आम है. हर दिन कहीं न कहीं घटती रहती है. कई मासूम और निर्दोष जानें बिना वजह की चली जाती हैं. संदिग्धक एक आदमी को मारने के लिए कई निर्दोष लोगों की जान गंवानी पडी हैं. यह सही नहीं है कि एक के लिए भीड में अंधाधुंद गोली चलाना और उसका नतीजा निर्दोष जानों को भुगतना. किसको शिकायत करोगे. जिससे शिकायत करनी थी वो तो गूंगा और बहरा की तरह आंखों में पट्टी बांध कर बैठे हैं. किसी की शिकायत सुनते नहीं है. दिन-ब-दिन बदतर होती जा रही मणिपुर की हालत पर काबू पाने के लिए शासक वर्ग न कोई समझने की कोशिश करते और नही पहल. पिछले 20 सालों से मणिपुर में अशांति फैली हुई है. आतंकवादियों को कुचलने के नाम पर कई निर्दोषों की जानें चली गईं. किसी के मां, बेटे, पिता, भाई-बहन आदि मारे गए. इतनी बेरहम झेलने के बाद भी आज तक किसी भी संस्थाु या कोई भी आदमी आगे नहीं आए. चुपचाप अत्याजचार झेलता रहा. जो आवाज उठाना शुरू हुई, वह भी आत्मआहत्या के आरोप में जेल में समय काट रही है. आखिर किसकी जिम्मेदारी है.
उस घटना को लेकर मुख्यहमंत्री ओ इबोबी कहते हैं कि मारने के सिवाय कोई चारा नहीं है. यह एक अभिभावक और नेतृत्वह की राय नहीं है. शायद उनको पता नहीं है कि मारने से आतंकवादी जड से मिटा नहीं पाएंगे. उसके लिए पहल करना होगा. आतंकवादी का जड को समझना होगा और उसको दूर करने की योजना बनानी होगी. जब तक कारण को नहीं समझेंगे और निदान नहीं करेंगे तब तक आतंकवाद मिटाना मुश्किल है. उनको आठ-दस सालों से माहौल देखते आ रहे हैं. वे मुख्यामंत्री हैं. इसपर सरकार क्यां करना चाहिए, उनको समझना चाहिए. मासुमों की चीख कब तक सुनते रहेंगे. यह जनता को उपेक्षा का एक नमुना है. शोकाकुल परिवार को तो सांत्वचना देंगे और मरहम लगाएंगे. इससे घाव भरेगा. लेकिन कब तक सांत्वलना देते रहेंगे. एक दिन तो पूरे प्रदेश से एक ही आवाज निकलेगी – हमें आजादी चाहिए.

मणिपुर एसेम्बतली की बैठक में मुख्यनमंत्री ने आतंकवादी को लेकर इस तरह भाषण पेश किया-
इस राज्य‍ में असंख्यक आतंकवादियों ने पैसे के लिए किए जा रहे हत्या और हमले से आम जनता बर्दाश्तस नहीं कर पा रही है. आज इंफाल शहर में जो घटना घटी है वह एक दुखद है. इस राज्यद में जो भी आतंकवादी गुट हैं सभी मणिपुरी हैं. सरकार उनको मारना नहीं चाहती है. मगर अब जो भी घटना घट रही है वह सब बर्दाश्तै के बाहर है. उन्हों ने आगे कहा कि इस राज्यद के सात विधानसभा क्षेत्र (एसेम्बाली सेग्मेंैट 7) से अफसपा हटाना केंद्र की पसंद के विपरीत था. अफसपा हटाने के बाद इंफाल शहर में हो रही इस तरह की घटना को देख कर केंद्र सरकार का मानना है कि राज्यट सरकार आतंकवादियों को प्रोत्सा हन दे रही है. केंद्र सरकार नाराज जताती है कि राज्या सरकार आतंकवादियों को बचा रही है. इसके साथ इस राज्य. के आतंकवादियों द्वारा पैसे की मांग करना, धमकी देना और लूटपाट की घटनाओं से केंद्र सरकार भी इस मसले में गंभीर नहीं है. आतंकवादी समस्याट को खात्म् के लिए बातचीत करने को कहने पर मजाकीय लहजे में कहा कि कौन सा आतंकवादी गुट से बातचीत करनी है. केंद्र सरकार ने कहा कि राज्यन सरकार इस विषय में बहुत ढीला-ढाला डील कर रही है. कोई भी आतंकवादी गुट जब तक पैसा कमाते रहेंगे तब तक बातचीत करने को तैयार नहीं होंगे. केंद्र सरकार का विश्वा स है कि तब उन लोगों को बातचीत करने को तैयार होंगे जब यातना देंगे. अब तो देखना यह है कि आतंकवादी शासन करेंगे या सरकार.

Monday, August 3, 2009

मीर, मैं तुम्‍हारे सिरहाने बोल रहा हूं



उन तमाम बच्चों के लिए, जो अमरीकी आर्थिक प्रतिबंध के कारण मारे गए)

तुम्हारे दु:खों को मैं जानता हूं
तुम्हारे आंसू मेरे चेहरे को भींगो रहे हैं
मैं जानता हूं
तुम अभी-अभी रोते-रोते सोये हो
फिर भी
मैं तुम्हारे सिरहाने बैठ कर बोल रहा हूं, मीर!
बहुत उदास है रात,पसरा है मातमी सन्नाटा
कहीं से कोई आवाज नहीं,कोई पुकार भी नहीं
मैं बताना चाहता हूं
कल तक जहां घास के मैदान थे
अब वहां कब्रें हैं, (जहां सोये हैं बच्चे
जो कभी नहीं जागेंगे
वे इराकी हैं,फिलिस्ती नी हैं, सर्बियाई हैं, अफगानी हैं
मीर उन बच्चोंम की कब्रें उदास सी निर्जन पडी हैं
उन पर घास उग आए हैं
उन पर किसी ने फूलों के गुच्छे नहीं रखे
कहीं कोई मोमबत्ती नहीं जल रही
प्रार्थना का कोई स्विर नहीं सुनाई पड रहा है
कहीं उनके लिए एक मिनट का मौन नहीं रखा गया
उनके लिए मर्सिया नहीं पढा गया
उन्होंथने जो जीवन खोया
उसकी कोई पहचान बाकी नहीं है.
मीर! वे मरे नहीं, मारे गए.
उन्हेंथ उनकी मां की गोद से दूर कर दिया गया
उनकी धरती से दूर कर दिया
उनकी हवा से दूर कर दिया गया
उनकी रोटियां छीन ली गईं
दवाइयां छीन ली गईं
उनके खिलौने,उनकी धरती, उनकी हवा पर
प्रतिबंध लगाए गए.
मीर,आज जो लाखों बच्चे कब्रों में सोये पडे हैं
कल तक, उनका अपना आकाश था, अपने गीत थे,
अपना शहर था
घास के मैदान थे, घाटियां थीं, उनके घर थे, चूल्हें थे
उनकी नींद थी और उनके सपने थे
इस उदास रात में जागो, मीर!
देखो बच्चोंा की कब्रें हैं, जो दिख रही हैं
नहीं दिख रहे हैं तो वे जो इनके हत्याहरे हैं
जो प्रतिबंध लगाते हैं और मौत देते हैं.
मीर कितनी रातें कितने गम कितनी बातें बीत गईं
उनके दर्द की दास्तां कहते-कहते, बादल भी रो गए
भले ही उनकी मौत का जिक्र
शहंशाहों की गलियों में न हो
लेकिन अपने आंसुओं से तर, चेहरे के साथ जागो, मीर!
और एक दीप उन बच्चोंट की कब्रों पर जला दो
जो अभी-अभी रोते-रोते सो गए हैं.

-सत्येंद्र कुमार
सौजन्य - जन-ज्वार

Saturday, July 18, 2009

बोलबम के जयघोष के बीच श्रावणी मेला शुरू

सावन की रिमझिम फुहार व बोलबम के जयघोष के बीच 7 जुलाई मंगलवार को देवघर के श्रावणी मेला शुरू हो गया. शरुआत का आयोजन कांवरिया पथ पर झारखंड के प्रवेश द्वार दुम्मा में मुख्यु अतिथि राज्यकपाल के सलाहकार टीपी सिंह ने परंपरागत वैदिक मंत्रोच्चोरण के साथ फीता काट कर उदघाटन किया. राज्यलपाल के सलाहकार सह मंदिर प्रबंधन बोर्ड के अध्य क्ष सिन्हा ने कहा कि श्रद्धालुओं को सुगम दर्शन कराने के साथ देवघर आने पर एक सुखद अनुभूति हो, इसकी व्यकवस्थात की गई है, ताकि कांवरिया यहां से अविस्म रणीय याद लेकर जाएं. मेले के पहले दिन में 50 हजार श्रद्धालुओं ने जल चढा.



झारखंड के देवघर में लगने वाले इस मेले का सीधा वास्ता बिहार के सुल्तारनगंज से है. यही गंगा नदी से जल भरने के बाद बोलबम के जयघोष के साथ कांवरिए नंगे पाव से 105 किमी देवघर की यात्रा आरंभ करते हैं. इस बार पहली बार हुआ है कि बिहार के सुल्ताएनगंज में जिला प्रशासन की लचर व्य वस्थार के कारण मंच तैयार होने के बावजूद मेले का उदघाटन नहीं किया. पहली बार मेला बिना उदघाटन ही शुरू हो गया. विभागीय मंत्री इसको प्रशासनिक चूक मानते हैं. सबसे बडी गलती तो यह है कि मंत्रियों और प्रमुख लोगों को आमंत्रण ही नहीं मिल सका. यह दुर्भाग्यट है कि इतने बडे मेले के लिए आमंत्रण तक पहुंचा नहीं पाए. बावजूद हजारों कांवरियों ने अजगैबीनाथ व अन्यि घाटों पर पवित्र गंगा में डुबकी लगा कर जल उठाया. हर साल डाक बमों को प्रमाण पत्र दिया जाता है. इससे मंदिर में उन लोगों को पहले जल चढाने का मौका मिलता था, मगर इस बार जिला प्रशासन ने प्रमाण पत्र नहीं दिया. कांवरियों ने हंगामा भी किया, फिर भी प्रमाण पत्र नहीं दिया. इसके बाद गुजरात, नागपुर, मथुरा और सुदूर नेपाल सहित अन्या राज्यों से पहुंचे डाक कांवरिए बिना प्रमाण पत्र के ही बाबा के दरबार की ओर चल पडे. बिहार के मुख्यामंत्री नीतीश कुमार ने झारखंड के राज्यरपाल सैय्यद सिब्तेह रजी को फोन पर बात की कि पुराने जमाने से चली आ रही डाक बमों की परंपरा पर छेडछाड न हो.

एक महीना तक चलनेवाला यह मेला महाकुंभ से भी कम नहीं है. हम रोज कांवरियों की भीड लाखों से भी पार कर जाती है. सोमवार में अन्य दिनों की अपेक्षा जल चढाने के लिए देश भर से शिव भक्तों का तांता लगा रहता है. लंबी कतारें, ऐसी लंबी जो तीन-चार दिनों तक लगी रहती हैं. लाइन में ही लोग सो जाते हैं. मंदिर पहुंचते-पहुंचते कई दिन लगता है. मगर उनके पास न श्रद्धा की कमी है और न ही ताकत की.



वैसे कुछ वर्ष पहले इस मेले पर जल चढाने की होड रहती थी, वह अब उतनी नहीं है. आज के बदलते परिवेश में धर्म की अवधारणा ध्वलस्तढ होती गई है. उपभोक्तानवादी इस दौर में लोग खाली सुख-सुविधा पाना चाहता है, लेकिन उसी को पाने में भी पूजा-पाठ का अलग महत्वन रहता है. इस मायने में देवघर स्थित शिवलिंग का अपना अलग महत्वे है, क्योंनकि इसको मनोकामना लिंग भी कहा गया है. यह देश के 12 ज्योितिर्लिंगों में से एक माना जाता है. यह वैद्यनाथधाम से भी जाना जाता है. वैसे देवघर के शिवलिंग के बारे में एक प्रचलित कथा है. रावण ने शिव जी की अराधना की, तो भगवान शिव प्रसन्नक होकर रावण के प्रत्यलक्ष दर्शन दिए. भगवान शिव जी ने रावण को वरदान मांगने को कहा. रावण ने यह वरदान मांगा कि शिव लिंग को लंका ले जाएं. भगवान ने रावण को वह वरदान दे दिया और एक शर्त बताया कि बीच में शिवलिंग कभी मत रखना. अगर किसी भी स्थिति से कहीं नीचे रख दिया, तो उसी जगह पर ही मैं रहूंगा. इस शर्त पर शिवलिंग को रावण ने ले आए. देवताओं को शिवजी के रावण को दिया हुआ वरदान से चकित और निराश हुए. इससे बचाने के लिए भगवान विष्णुे ने एक साधु के रूप में अवतरित होकर आए. भगवान विष्णुए ने रावण को पैशाव जोर से लगवाया. मगर शिवलिंग को सौंपने के लिए कोई नजर नहीं आ रहा था. अंत में भगवान विष्णु के अवतरित उस साधु की नजर आई. रावण साधु को शिवलिंग सौंप कर पैशाब करने गए. विष्णुव भगवान ने रावण को पैशाब खत्मर ही होने नहीं दिया. इधर, साधु ज्याएदा समय शिवलिंग को पकड नहीं पाने से जमीन में रख कर चले गए. काफी देर के बाद पैशाब खत्मि होकर रावण उस साधु के पास आए. उनकी नजर नहीं आई. शिवलिंग तो जमीन पर रखा हुआ है. रावण यह देख कर चौंक गए साथ में नाराज भी, क्यों कि जो शर्त शिवजी ने बताई थी, वह निभा नहीं पाया. रावण ने शिवलिंग को उठाने की कोशिश की, मगर उठा नहीं पाए. अंत में नाराज होकर मुट्ठी से शिवलिंग को मारी थी. तभी से उसी जगह पर ही शिवलिंग बस गए. उसी जगह को आज बाबाधाम के नाम से जाना जा रहा है और रावण ने जो पैशाब किया था उसी जगह को शिब गंगा, एक पोखड के रूप में हो गए. उसी शिवगंगा पर श्रद्धालु मंदिर प्रवेश करने से पहले डुबकी लगाते हैं. मेले के मौके पर देवघर पूरे दिन-रात बोलबम से गुंजायमान हो उठता है. हर गली-मुहल्ले में भक्तिमय माहौल व्या प्तव है.



देवघर के इस श्रावणी मेले के साथ बाजार का अर्थशास्त्र भी जुडा है. मेले का दरमियान देवघर में कई अनगिनत छोटी और बडी दुकानें खुलती हैं. पूजा-पाठ में आवश्य क चीजें जैसे फूल, बेलपत्र और अगरबत्तीघ वगेरह बेचने वाली दुकानें तक पूरे सावर महीने में 40 से 50 हजार कमाती हैं. इसके अलावा कई बडी दुकानें कपडे, चूडा, मिठाई, पेडा, लोहे के सामान, सिंदूर और चुडियों की हैं, जो पूरे सावन में अधिक से अधिक पैसा कमाते हैं, इसके अलावा बाहर से आए दुकानदार भी इस मेले में अधिक कमाते हैं. मुख्यि रूप से बंगाल, उडीसा, यूपी आदि राज्यों से लोग मेले के दौरान सामान बेचने आते हैं. पूरे महीने खरीदारी चलती रहती है. इस तरह सिर्फ श्रावणी मेले में पांच सो करोड की खरीदारी इन वस्तुाओं की होती है. साथ में कांवरियों के साथ कुछ वस्तु्एं साथ में ले जाना आवश्य क होता है जो कि एक हजार रुपए की खरीदारी होती है. जैसे टार्च, अगरबत्तीय, गंजी-बनियान, तौलिया, चादर, दो जल पात्र, मोमबत्ती और माचीस आदि. इसके अलावा कांवरिए रास्तें में चाय, ठंडे पेय, खाद्य आदि पर भी प्रति कांवडिया चार पाच दिनों में दो सौ से ढाई सौ रुपएा तक खर्च करता है. कुल मिला कर श्रावणी मेले का अर्थशास्त्रआ करीब एक हजार करोड का है. मगर दुख की बात है कि इस मेले में कई बडी कंपनी करोडों कमाती है. जैसे टी सीरिज है जो कि कांवरियों के गाने फिल्म और एल्बेम की सीडी काफी मात्रा में बेचती है. मगर श्रद्धालुओं के लिए कांवरिया पथ में सुविधा मुहैया कराने के लिए एक भी रुपए खर्च नहीं करती. सावन खत्म् होते ही अपना सामान समेट कर चलती है. सुल्ताानगंज से देवघर की दूरी 105 किमी है. इसमें सुइया पहाड जैसे दुर्गम रास्तेो और नंगे पांव गुजरने में नुकीले पत्थार पांव में चुभने वाली कई जगह शामिल हैं. मगर शिवभक्तोंह को इसके परवाह नहीं करते. कई दिन-रात बिना खाए थकते नहीं हैं. उनके मुंह से एक ही आवाज निकलती है बोल बम, बोलबम का नारा है बाबा एक सहारा है. भक्तैजनों की श्रद्धा अद्भुत है. गंगा जल भरते हुए पैदल 105 किमी की दूरी तय करके शिवजी के ज्योातिर्लिंग पर जल चढाना एक साधारण आदमी की वश की बात नहीं है. वहीं आदमी कर सकता है, जिसे भोलेनाथ का आशीर्वाद हो.


अब बिहार सरकार की नजर इस धार्मिक यात्रा पर पडी. राज्यर सरकार ने इस वर्ष कांवरियों के लिए कच्चीह सडक का निर्माण प्रारंभ कराया है. खुशी की बात तो यह है कि इस कार्य के पूरा होने के बाद सुल्ताानगंज से देवघर की दूरी 17 किमी कम हो जाएगी और नंगे पांव से यात्रा सुगम होगी. श्रावणी मेला को और आकर्शण बनाने के लिए हरिला जोडी और शिवगंगा को दर्शनीय स्थ ल के रूप में विकसित करने की योजना बनाई गई है. इससे बाबा के दर्शन के साथ तीर्थ यात्री मनोरंजन के साथ पर्यटक स्थ ल का भी आनंद उठा सकेगा. त्रिकुट रोप वे का भी कार्य शुय होनेवाला है. टेक्निकल स्वीहकृति मिल गई है. वहीं हरिशरणम कुटिया को पार्क के रूप में विकसित करेंगे. झारखंड पर्यटन विभाग ने देवघर में इस बार मोबाइल बेस्डय सूचना प्रणाली स्थातपित किया है. इससे लोगों का एसएमएस के जरिए पर्यटन की जानकारी मिलेगी. मेले को सुव्यलवस्थित करने मेला प्राइज़ का गठन और श्रावणी मेले को राष्ट्रीएय मेले का दर्जा देने के लिए देवघर के विधायकों का प्रयास जारी है. लोगों का मानना है कि मेला प्राइज़ के गठन से न सिर्फ सुल्ता नगंज से लेकर बासुकिनाथधाम तक मेले का एक समान विकास हो पाएगा, बल्कि श्रावण महीने में विभिन्नब जिलों के प्रशासन खास कर, देवघर भागलपुर और दुमका के जिला प्रशासन पर पडने वाले अतिरिक्त‍ बोझ भी कम होगा और जिले के विकास कार्य भी प्रभावित नहीं रहेगा. यह कहने में गलत नहीं होगा कि आने वाले दिनों में यह उम्मी द की जा सकती है कि कांवरिए सुगम यात्रा के साथ बाबा को जल चढा सकेंगे.



मेले में आते हैं भांति-भांति के बम
सुल्तानगंज से देवघर तक 105 किमी की पैदल कांवरयात्रा में तरह-तरह के बम होते हैं. अधिकतर ऐसे कांवरिए होते हैं, जो साधारण पात्रों में जल भर कर उठते-उठते, सोते-जागते, खाते पीते दो से चार दिनों में अपनी कांवर यात्रा पूरी करते हैं. इन्हें साधारण बम कहा जाता है. दूसरे होते हैं खडा कांवर बम, जो रास्तेा में कही भी न तो जमीन पर अपना कांवर रखते हैं और न ही कांवर स्टैंबडों में. ऐसे में बम प्राय: एक सहायक लेकर चलते हैं और उनके आराम के वक्तर सहायक व्यवक्ति ही कांवर अपने कंधे पर रखता है. तीसरे होते हैं डाक बम, जो जल भरने के बाद लगातार चल कर 24 घंटे में देवघर पहुंच कर बाबा का जलाभिषेक करते हैं. ऐसे बम कांवर नहीं रखते हैं, बल्कि छोटे पात्रों में जल भर कर इसे पीठ पर लटका लेते हैं. इन्हेंे हर जगह विशेष सुविधा प्राइज़ होती है. दंडी बम रास्ते भर दंड देते हुए आते हैं और यह सबसे माना जाता है, जब माहवारी बम प्रत्येजक महीने पैदल आकर बाबा को जल चढाते हैं.

Thursday, July 2, 2009

विशेष कानून : अगाथा ने भी मिलाया शर्मिला से सुर

पूर्वोत्तर की दो शीर्ष महिलाएं आपस में मिलीं. दोनों ने एक-दूसरे के दुख-दर्द बांटे थे. कई दिनों से आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट-1958 के चलते मणिपुर में व्याप्त आशांति का जायजा लेने केंद्र की सबसे युवा सांसद अगाथा संगमा पिछले दिनों तीन दिनों की यात्रा पर मणिपुर आई थी. जेएन अस्पताल के विशेष तौर पर सुरक्षित वार्ड में इस एक्ट के विरोध में जिंदगी और मौत से लड़ रही इराम शर्मिला से मुलाकात की.



इस मुलाकात में शर्मिला ने मणिपुर से यह कानून हटाने में अगाथा की मदद की आस लगाई. आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट को रद्द करवाने को लेकर पिछले आठ साल से अनसन पर बैठी इरोम शर्मिला से मुलाकात के बाद पत्रकारों को संबोधित करती हुई अगाथा ने कहा कि इस काले कानून को रद्द करने को केंद्र सरकार से वह मांग जरूर करेंगी. उन्होंने कहा कि वह जनता को आश्वाशन देती हैं कि जितना हो सके, इस मुद्दे को प्राथमिकता देंगी. उसके कुछ ही समय बाद उन्होंने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस मसले पर मुलाकात कर अनशन पर बैठी शर्मिला को बचाने की अपील की. उनकी इस मुलाकात से प्रदेश की जनता को उम्मीद है कि पिछले कई सालों से प्रदेश में इस कानून के सहारे जो मनमानी की जा रही है, उसका अंत होगा. यूपीए सरकार की सबसे युवा मंत्री अगाथा संगमा ने लिखित ज्ञापन देकर शर्मिला की जिंदगी बचाने की मांग की.
अगाथा की इस मुलाकात से प्रदेश में कई सालों से आस लगा रही जनता को उम्मीद की नई किरण दिखी हैं. इसकी वजह यह है कि कई सालों से शर्मिला के इस संघर्ष को किसी राजनेता या किसी अधिकारी ने न तो जानने की कोशिश की और न ही इस मामले का जायजा लिया. इस मसले पर केंद्र सरकार ने हर वक्त कठोर कदम उठाए हैं. केंद्र यह मानने को तैयार नहीं है कि पूर्वोत्तर राज्यों से विशेष सशस्त्र बल कानून हटाया जाए. इस मामले को लेकर राज्य सरकार का रुख भी वैसा ही है, जैसा केंद्र का है. राज्य सरकार कई मुद्दों पर मजबूर हो जाती है और केंद्र के इशारों का इंतजार करती रहती है.



मणिपुर की जनता तो इस कानून को जंगल का कानून मानती है, जिसके मुताबिक कभी भी किसी को मार गिराया जा सकता है. इस कानून को लोग बेहद खराब नजर से देखते हैं. 2004 में कथित तौर पर असम रायफल्स के जवानों ने सामाजिक कार्यकर्ता मनोरमा देवी की हवालात में बलात्कार के बाद हत्या कर दी थी. उसके विरोध में समूचे प्रदेष में आग लग गई, जो अभी भी सुलग रही है. इस कानून को लेकर शर्मिला का मानना है कि इस दुनिया में मनमानी से कोई किसी को मार नहीं सकता. यह सोचने-समझने वाले मनुष्य की दुनिया है, जानवारों को नहीं. शर्मिला देश के शासक वर्ग से यह सवाल पूछ रही है कि जंगलराज के भीतर कब तक आम आदमी बिना डर के जी सकता है? शर्मिला कहती हैं कि यह भूख-हड़ताल तभी खत्म होगी, जब सरकार वगैर किसी शर्त के आर्म्ड फोर्सेस स्पेच्चल पावर एक्ट को हटाएगी. आतंकवादी समस्या पूर्वोत्तर राज्यों के लिए एक आंतरिक और स्थाई समस्या है. इसके अलावा सबसे बड़ी समस्या है विशेष सशस्त्र बल कानून 1958, जिसको हथियार बनाकर आतंकवाद को कुचलने के नाम पर निर्दोष लोगों पर जुल्म हो रहे हैं. इससे आमजन का अमन-चैन छिन रहा है.
अगाथा की शर्मिला से मुलाकात को लोगों ने बहुत सराहा. मणिपुर की आम जनता ने इसके पीछे कोई राजनीतिक उद्देश्य न देख कर उनकी संजीदगी देखी. उनको ऐसा लगा कि परिवार की कोई बहन अपनी बड़ी बहन से मिल रही हो. गौरतलब है कि असम रायफल्स के जवानों ने 2000 में 10 निर्दोषों को मार दिया था. इसके विरोध में ही शर्मिला आमरण अनशन पर बैठ गई. उसी वक्त राज्य सरकार ने इंफाल शहर के कई विधानसभा क्षेत्रों से यह कानून हटा दिया था. केंद्र के मना करने के बावजूद मणिपुर सरकार ने एक प्रयोग के तौर पर कुछ खास इलाकों में इस एक्ट को रद्द करना शुरू किया था. कानून-व्यवस्था अगर दुरुस्त रही, तो इस एक्ट को अन्य जगहों से भी हटाने की घोषणा राज्य सरकार ने की. मगर शर्मिला ने इस एक्ट को राज्य से पूरी तरह से हटाने की मांग की. इस बात को लेकर वह अड़ी रहीं. उल्लेखनीय है कि कइस एक्ट के विरोध में मणिपुर से लेकर उत्तर पूर्व के अन्य राज्यों और देच्च के कुछ हिस्सों में अप्रिय घटना घटने के बाद केंद्र सरकार ने जस्टिस जीवन रेड्डी के नेतृत्व में एक समिति बनाई. समिति ने भी इस एक्ट को आपत्तिजनक बताया था. दूसरी तरफ शर्मिला को बचाने के लिए पिछले छह महीने से शर्मिला बचाव समिति पीडीए कांप्लेक्स, इंफाल में अनशन कर रही है. इस अभियान में सिने एक्टर्स गिल्ड मणिपुर के सदस्यों ने भी जून 28 से शिरकत करने का फैसला किया. कुल मिला कर अगाथा संगमा की मणिपुर यात्रा और इस मुद्दे पर प्रधानमंत्री से उनकी मुलाकात से लगता है कि राज्य से इस काले कानून को हटा दिया जाएगा.

क्या है आर्म्ड फोर्स स्पेच्चल पावर एक्ट?

आर्म्ड फोर्स स्पेशल पावर एक्ट को 11 सितंबर 1958 को संसद में पारित किया गया था. यह पूर्वोत्तर के राज्यों - अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नगालैंड और त्रिपुरा जैसे अच्चांत क्षेत्रों में सेना को विशेष ताकत देने के लिए पारित किया गया था.

यह कानून लागू होने वाले इलाके में सेना क्या-क्या कर सकती है.

1.भले ही मौत का कारण बने, फिर भी इसके तहत किसी पर देखते ही गोली चलाई जा सकती है.
2.इस एक्ट के अनुसार किसी को भी शक के आधार पर ही वारंट के बिना भी जबरदस्ती गिरफ्‌तार किया जा सकता है.
3.किसी को गिरफ्‌तार करने के लिए सेना किसी भी इलाके की तलाच्ची ले सकती है.

इस एक्ट के विरोध में कौन-कौन

पूरे देश के सौ से भी अधिक मानवाधिकार कार्यकर्ताओं और एच्चिया से भी आए मानवाधिकार कार्यकर्ताओं ने इंफाल में विरोध प्रदर्शन कर इस एक्ट को हटाने के लिए संघर्ष कर रही शर्मिला का समर्थन किया. भारत की कई महत्वपूर्ण संस्थाएं इस एक्ट का समर्थन करती हैं. वे हैं - आशा परिवार, नेशनल कैंपेन फॉर पीपल्स राइट टू इंफोरमेच्चन, राइट टू फूड कैंपेन, असोसिएशन ऑफ पैरेंट्स ऑफ डिसअपियर परच्चंस, नेशनल कैंपेन फॉर दलित ह्‌यूमन राइट्स, एकता पीपल्स यूनियन ऑफ ह्‌यूमन राइट्स, इंसाफ लोकराज संगठन, हिंद नव जवान एकता सभा, ऑल इंडिया कैथोलिक यूनियन, ऑल इंडिया प्रोग्रेसिव वूमन असोसिएशन, ऑल इंडिया स्टूडेंट्स असोसिएशन, फोरम फॉर डेमोक्रेटिक इनिसिएटिव्स और भारतीय कम्यूनिस्ट पार्टी 'मार्क्सवादी-लेनिनवादी' आदि

विदेशों से भी समर्थन

केवल भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के मानवाधिकार संगठनों और एनआरआई ने भी इस एक्ट का विरोध किया है. द पीस कॉलिच्चन ऑफ पीपल ऑफ साउथ एशिया, फ्रेंड्स ऑफ साउथ एशिया, एनआरआई फॉर ए सेकुलर एंड हारमोनिअस इंडिया, पाकिस्तान ऑर्गेनाइजेशंस, पीपल्स डेवलपमेंट फाउंडेशान, इंडस वैली थिएटर ग्रुप और इंस्टीट्यूट फॉर पीस एंड सेकुलर स्टडीज.

Sunday, June 21, 2009

18 जून मणिपुर के इतिहास में एक यादगार दिन


केंद्र सरकार और एनएससीएन आईएम के बीच युद्ध विराम यानी सीज फायर की खबर जब मणिपुर पहुंची, उससे पहले से ही प्रदेश की जनता इस बात की उम्मीद लगा चुकी थी. 2001 के 18 जून को केंद्र सरकार और एनएससीएन आईएम के बीच युद्धविराम लागू कराने वाली जगहों को बढ़ाने में मणिपुर भी शामिल था. लेकिन यु+द्ध विराम हो, इससे पहले यह खबर इंफाल पहुंच गई. यह खबर पूरे राज्य में बवंडर की तरह फैल गई. मणिपुर की कई संस्थाओं ने इसे मानने से इंकार कर दिया. अमुको, एमसु, निपको, एमकिल, ईपसा, यूपीएफ आदि ने मिल कर इस निर्णय को वापस लेने के लिए केंद्र सरकार पर दबाव बनाने के इरादे से आम हड़ताल की घोषणा कर दी, जो 15 जून की रात से लागू होकर 18 जून तक चला. हड़ताल की शुरुआत में केंद्र के सत्ताधारियों सहित राज्य में शासन कर रहे नेताओं का पुतला दहन कर इन संस्थाओं ने अपना विरोध जताया. हड़ताल का चौथा दिन, 18 जून. यह दिन राज्य के इतिहास में काला दिन साबित हुआ. इस दिन में कई मासूमों की जान चली गई. इस दिन भोर में ग्रेटर इंफाल के इलाके में रहनेवाली जनता ने जगह-जगह नुक्कड़ पर इकट्ठा होकर बैठक करना शुरू किया. भारी तादाद में लोगों के सड़क पर निकलने से राज्य के बाकी हिस्से के लोग भी जोश से भर गए और निर्भय होकर अपने-अपने घरों से निकल पडे+. रक्षाकर्मियों ने भीड़ को भगाना शुरू किया. मगर लोग घर तो नहीं गये, हां और ज्यादा आक्रोच्च से जरूर भर गये. भीड़ और ज्यादा सड़को पर निकल आई.

भीड़ ने जनसैलाब की शक्ल अख्तियार कर ली. पुलिस ने उन पर काबू पाने के लिए टियर ग्यास और ब्लेंक फायर करना शुरू किया. आक्रोच्च से भरी भीड़ ने जवाबी हमला करते हुए पुलिस पर पत्थर फेंकना शुरू किया. विच्चाल संख्या में मौजूद पुलिस फोर्स ने भीड़ को नियंत्रित करने की नाकाम कोच्चिच्च की. लेकिन वांगखै और नोंगमैबुंग के रास्ते से आए लोग आगे बढ़ते-बढ़ते राज्यपाल के बंगले के सामने जा पहुंचे. उरिपोक, सगोलबंद और टिडीम रोड के रास्ते से आए लोग एक साथ होकर राज्यपाल बंगले के सामने जा धमके.

इतनी बड़ी तादाद में जमी भीड़ ने राज्यपाल से बात करने का प्रस्ताव रखा. बात करने का मौका न मिलने पर जनता और भी आक्रोच्चित हो गई. इतनी बड़ी भीड़ को रोकने की इन सेक्यूरिटी पार्सोनेल के पास शक्ति नहीं थी. और भीड़ थी कि लगातार बढ़ती ही जा रही थी. राजभवन के सामने होम मिनिस्टर और प्राइम मिनिस्टर का पुतला जलाया गया. आक्रोच्चित भीड़ ने राजनेताओं और उसके आवास को जलाकर राख कर दिया. विशेष बल आने पर भी स्थिति नियंत्रण नहीं हो पाई. गुस्साए लोगों ने कैशामपात स्थित मणिपुर स्टेट कांग्रेस पार्टी के ऑफिस को जला दिया. ऑफिस कंपलेक्स के अंदर स्थित कैंटिन भी जल कर राख हो गई. बीटी रोड स्थित मणिपुर प्रदेश कांग्रेस कमेटी ऑफिस, रूपमहल टेंक स्थित समता पार्टी का ऑफिस और सीपीआई का ऑफिस आदि को भी जलाने की कोच्चिच्च की. पिपल्स रोड स्थित एमपीपी के ऑफिस भी जलाकर राख कर दिया. ऑफिस जलाने के बाद गुस्साए लोगों ने मणिपुर लेजिस्लेटिव असेंबली को निशाना बनाया और उसे जलाना शुरू किया.


इतना ही नहीं सीआरपीएफ से लैस मणिपुर के मुख्यमंत्री के बंगले के पश्चिम गेट को तोड़कर भीड़ अंदर घुस गई और तोड़-फोड़ मचा कर रख दिया. साथ में सामान को जलाने भी लगे. मुख्यमंत्री आवास के कंफरेंस हॉल और पड़ोसी कमरे जल कर राख हो गए. उस वक्त मुख्यमंत्री दिल्ली में थे. आगे एमएलए क्वार्टर में लोगों ने घुस कर यूनियन मिनिस्टर ऑफ स्टेट का
क्वार्टर, कई मंत्री के क्वार्टर और प्लानिंग विभाग के ऑफिस आदि एक-एक कर जला डाले.
जवाबी कार्रवाई करते हुए सीआरपीएफ ने भी अंधाधुंध गोली चलाई. उसमें 13 लोगों की मौत तत्काल घटना स्थल पर ही हो गई. शाम तक मरने वालों की संख्या 18 हो गई. मुख्यमंत्री का बंगला जलाने के बाद से ही सीआरपीएफ ने गोली चलाना शुरू कर दिया था. उस घटना में दो एक्स एमएलए जल मरे थे. साथ में और भी सरकारी संपत्तियां जलीं. इसके बाद मणिपुर घाटी के तीन जिले में कफ्‌र्यू लगा दिया गया. सड़क पर जो कोई भी दिखे, उसे गोली मारने का आदेच्च दे दिया गया.


इस तरह मणिपुर की अखंडता बचाने के लिए 18 जानों ने 18 जून 2001 को कुरबानी दे दी. अखंडता तोड़ने के बदले हम अपनी जान दे देंगे. शांति पसंद मणिपुर की जनता केंद्र सरकार को कई बार मणिपुर में सीज फायर लागू नहीं करवाने के लिए अपनी मांग प्रस्तुत कर चुकी है. बावजूद इसके केंद्र सरकार ने नगालैंड के साथ मिल कर सीज फायर एक्सटेंट करने की जो घोषणा की थी, उसी का नतीजा था 18 जून 2001 की यह अमानवीय घटना. हर साल 18 जून को लोग इसे एक सामाजिक पर्व की तरह मनाते हैं. इस दिन का इतिहास जब तक लोगों के दिलों में जिंदा रहेगा, तब तक मणिपुर के अखंडता कोई तोड़ नहीं सकता. इस विश्वास के साथ लोग इस दिन को एक लोकोत्सव की तरह मनाते हैं.

दिल्‍ली नहीं आना चाहिए था

पटना से एक पुराने मित्र दिल्‍ली आए थे. दिल्‍ली में शुरू में टिकने के लिए मुश्किलें सामना करना स्‍वाभाविक बात है. उसने पुराने मित्रों से संपर्क किया और उन लोगों के पास जाकर राय-परामर्श लिया. एक बुजुर्ग साथी ने उनसे कहा कि यार अभी दिल्‍ली नहीं आना चाहिए था तुमको. पटना में ही रहना चाहिए था. अभी तो मंडी का दौर है. मैं तो यही राय दूंगा कि आप पटना में ही रहिए. उस पुराने मित्र ने हमको फोन किया. आप कहां है. मैंने अपना पता बताया तो बोले कि मैं तुमसे मिलना चाहता हूं. मैंने कहा कि हम मिलते हैं कनाटप्‍लेस में. अगले दिन कनाटप्‍लेस में मिले रिगेल के सामने. सामने पार्क में बैठकर पुरानी यादों को ताजा किया. और दिल्‍ली के माहौल के बारे में बातचीत करने लगे. इस दरमियान उसने हमको पूरी कहानी बताई. मैं मन ही मन सोचने लगा कि जब आदमी संकट में पड जाते हैं तो उसकी मदद करने में क्‍यों लोग कंजुस करता है. मदद की बात तो छोडिए. कोई दिल्‍ली आकर नौकरी के बारे में राय परामर्श लेता है तो लोगों को ये लगता है कि नौकरी उनसे ही मांगने आ रहा है. और कहने लगता है कि यार तुमको दिल्‍ली आना नहीं चाहिए था. अभी समय खराब चल रहा है. अरे भैया कौन सा समय कब सही चलता है. मनके जीते जीत मनके हारे हार. आप अच्‍छे सोचते हैं तो अच्‍छा है. खराब सोचते हैं तो खराब. लोग खुद भी बढता नहीं है और दूसरों को भी बढने नहीं देता है. सामने कोई बढता है तो लोगों को अच्‍छा नहीं लगता. किसी को दिल्‍ली में आकर आपने आपको आगे बढाने के लिए कोशिश करना कितनी अच्‍छी बात है. खाली दिल्‍ली की बात नहीं है कोई भी बडे शहरों में जाकर खुद के और परिवार के लिए कुछ करना बहुत हिम्‍मत की बात तो है. हर आदमी से इस तरह नहीं होता है. दिल्‍ली में नौकरी का ऑप्‍सन जितना मिल रहा है उतना कोई और शहर में नहीं मिलता होगा. मेरा मानना है कि दिल्‍ली आना ही चाहिए था. मंडी में ही कीमत बढती है. लोग कहने लगता है कि मंडी का दौर चल रहा है. मंडी का दौर में ही नौकरी की तलाश आसानी होती है. मैं उम्‍मीद करता हूं कि लोग खुब संघर्ष करें. और आगे बढे.

मणिपुर में कांग्रेस ही कांग्रेस

मणिपुर में दोनों संसदीय सीटों पर कांग्रेस का कब्‍जा रहा. भीतरी मणिपुर इनर में डॉ टी मैन्‍य और बाहरी आउटर में थांगसो बाइटे ने सफलता हासिल की. यह मणिपुर के इतिहास में पहली बार हुआ है कि लोकसभा की दोनों सीटों पर कांग्रेस ने अपने पांव जमाए.

भीतरी यानी इनर की सीट पर निवर्तमान सांसद डॉ थोकचोम मैन्‍य ने अपने निकटतम प्रतिस्‍पर्धी सीपीआई के डॉ नर सिंह को 30960 वोट से परास्‍त किया. पूर्व केंद्रीय मंत्री एमपीपी के प्रत्‍याशी थौनाउजम चाउबा को 101787 वोट मिले, जबकि पूर्व मुख्‍यमंत्री और भाजपा के प्रत्‍याशी डब्‍ल्‍यू निपामचा को 34098 वोट ही मिले. निर्दलीय प्रत्‍याशियों में ए रहमन और एन होमेंद्रो को क्रमश: 13805 और 1450 वोट मिले. आरबीसीपी के प्रत्‍याशी एल क्षेत्रानी को 1290 वोट मिले. इनर के सफल प्रत्‍याशी डॉ मैन्‍य को पिछले लोकसभा चुनाव में 154055 वोट मिले थे, जबकि इस बार 76821 वोट अधिक मिले. डॉ मैन्‍य को सबसे ज्‍यादा वोट दिलाने वाला विधानसभा क्षेत्र अंद्रो है, जहां से 16280 वोट मिले. सबसे कम उनको शिंगजमै विधानसभा क्षेत्र से 2626 वोट मिले. सीपीआई को सबसे ज्‍यादा वोट लिलोंग विधानसभा क्षेत्र से 10898 मिले, जबकि सबसे कम 1618 वोट नंबोल से सीपीआई को मिले. जिला स्‍तर पर मतदान को देखें तो इंफाल (ईस्‍ट) में कांग्रेस को 79610 वोट और सीपीआई को 69212 इंफाल (वेस्‍ट) में कांग्रेस को 77765 सीपीआई को 75621, थौबाल जिले में कांग्रेस को 29330 और सीपीआई को 27845 और विष्‍णुपुर जिले में कांग्रेस को 44132 और सीपीआई को 27212 वोट मिले. बाहरी (आउटर) संसदीय सीट पर भी कांग्रेस के प्रत्‍याशी थांसो वाइटे ने पीडीए के प्रत्‍याशी और निवर्तमान सांसद मनि चरानमै को 119798 से भी ज्‍यादा वोट से हराया. वाइटे को कुल 388517 वोट मिले, जबकि मनि चरानमै को 224719 वोट मिले. आउटर में तीसरे स्‍थान पर बीजेपी के डी लोलि अदानि रहे, जिन्‍हें 93052 मत मिले, चौथे स्‍थान पर एनसीपी के एलबी सोना रहे, जिनको 79849 वोट मिले. आरजेडी के एमवाई हाउकिप को 4859, निर्दलीय वेली रोज को 4735, निर्दलीय एल गांते को 2070, एलजेपी के थांखानगिन को 1252 और निर्दलीय रोज मांस हाउकिप को 1128 वोट मिले. सांसद थांसो वाइटे को सबसे ज्‍यादा वोट साइकुल विधानसभा क्षेत्र से मिले, जहां उनको 27516 वोट मिले और सबसे कम यानी 850 मत माओ विधानसभा क्षेत्र से मिले. पीडीए के प्रत्‍याशी मनि चरानमै को सबसे ज्‍यादा 22194 वोट चिंगाई विधानसभा क्षेत्र से मिले और सबसे कम 106 वोट सुगनु विधानसभा क्षेत्र से ही मिले.

इस तरह मणिपुर के सभा सांसद कांग्रेस के हो गए हैं. गौरतलब है कि मणिपुर से राज्‍यसभा के रिशांग कैसिंग हैं, जो कांग्रेस के पुराने और बडे नेता हैं. और, इस बार लोकसभा के लिए चुने गए दोनों सदस्‍यों के भी कांग्रेसी होने से राज्‍य में कांग्रेस का पूरा वर्चस्‍व हो गया है. यही कारण है कि रिशांग कैसिंग ने सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह से मांग की हे कि इस बार मणिपुर से भी किसी सांसद को केंद्र में मंत्री बनाया जाए.
बहरहाल, अब इन दोनों लोकसभा सदस्‍यों का सर्वप्रथम कार्य यही होगा कि आतंकवादी समस्‍या खत्‍म हो. दोबारा सांसद बने डॉ मैन्‍य ने तो जनता को यह आश्‍वासन भी दिया है कि उनकी प्राथमिकता प्रदेश में शांति व्‍यवस्‍था कायम करना है.