यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, May 23, 2008

ट्राम में एक याद

चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
कुछ-कुछ खुश
कुछ-कुछ उदास
कभी देखती तारे
कभी देखती घास
चेतना पारीक, कैसी दिखती हो ?
अब भी कविता लिखती हो ?
तुम्हें मेरी याद न होगी
लेकिन मुझे तुम नहीं भूली हो
चलती ट्राम में फिर आँखों के आगे झूली हो
तुम्हारी कद-काठी की एक
नन्ही-सी, नेक
सामने आ खड़ी है
तुम्हारी याद उमड़ी है
चेतना पारीक, कैसी हो ?
पहले जैसी हो ?
आँखों में उतरती है किताब की आग ?
नाटक में अब भी लेती हो भाग ?
छूटे नहीं हैं लाइब्रेरी के चक्कर ?
मुझ-से घुमन्तू कवि से होती है कभी टक्कर ?
अब भी गाती हो गीत,
बनाती हो चित्र ?
अब भी तुम्हारे है बहुत-बहुत मित्र ?
अब भी बच्चों को ट्यूशन पढ़ाती हो ?
अब भी जिससे करती हो प्रेम उसे दाढ़ी रखाती हो ?
चेतना पारीक, अब भी तुम नन्ही गेंद-सी उल्लास से भरी हो ?
उतनी ही हरी हो ?
उतना ही शोर है इस शहर में
वैसा ही ट्रैफ़िक जाम है
भीड़-भाड़ धक्का-मुक्की ठेल-पेल ताम-झाम है
ट्यूब-रेल बन रही चल रही ट्राम है
विकल है कलकत्ता दौड़ता अनवरत अविराम है
इस महावन में फिर भी एक गौरैये की जगह ख़ाली है
एक छोटी चिड़िया से एक नन्ही पत्ती से सूनी डाली है
महानगर के महाट्टहास में एक हँसी कम है
विराट् धक्-धक् में एक धड़कन कम है कोरस में एक कण्ठ कम है
तुम्हारे दो तलवे जितनी जगह लेते हैं उतनी जगह ख़ाली है
वहाँ उगी है घास वहाँ चुई है ओस वहाँ किसी ने निगाह तक नहीं डाली है
फिर आया हूँ इस नगर में चश्मा पोंछ-पोंछ देखता हूँ
आदमियों को किताब को निरखता लेखता हूँ
रंग-बिरंगी बस-ट्राम रंग-बिरंगे लोगरोग-शोक हँ
सी-खुशी योग और वियोग देखता हूँ
अबके शहर में भीड़ दूनी है
देखता हूँ तुम्हारे आकार के बराबर जगह सूनी है
चेतना पारीक,
कहाँ हो कैसी हो ?
बोलो, बोलो, पहले जैसी हो !
-ज्ञानेंद्रपति

Wednesday, May 21, 2008

दुआ

यह 2004 की बात है। उस समय मैं हिंदी विद्यापीठ देवघर में हिंदी पढ रहा था। मुझे हिंदी कविताओं से प्रभावित था। हिंदी साहित्य की प्रेरणा मेरे गुरुजी शंकर मोहन झा से खूब मिली थी। उन्होंने कई सुख्स्मा बातें बताई। कवि गोष्ठियों में ले जाया करते थे। मुझे याद है देवघर शिवगंगा स्थित पुस्तकालय में आयाजित एक काव्य गोष्ठी में वे मुझे ले जाते थे। गोष्ठी के दरमियान सर ने एक कविता का पाठ किया। कविता की लेखिका थी अमृता प्रीतम। उस कविता ने मुझे अमृता प्रीतम को परिचित करवाया। वह कविता है-
दोस्तो!
उदासियों का मौसम बहुत लंबा है
हमारा एक शायर है कई सालों से
जब भी कोई साल विदा होता है
तो कैद वामुशक्कत काट कर
कैद से रिहा होते साल को मिलता
पाले में ठिठुरते कंधों पर
उसका फटा हुआ खेस लिपटाता
उसे अलविदा कहता
वक्त के एक मोड पर उसे छोड आता है---
फिर किसी दरगाह पर अकेला बैठ कर
नए साल की दुआ करता है-
कि आने वाले!
खैर से आना खैरियत से आना!
यह उदासियों का मौसम बहुत लंबा है
वारूदी हवाएं चलती हैं
तो पेडों के नए पत्ते
पेडों से गिर जाते हैं
शाखाऒं की कोखा रोती है
पेड की की जडों को देखती
और कहती-
यह कैसी तकदीर है
जो एक मिट्टी के खून को
कई फिरकों में बांट देती है
नफरत रगों में चलती
तो सारी बद्दुआ मांओं की कोख को लगती---
मेरे खुदा! हमदर्दों ने एक खत लिखा था
अपने हाल हैवाल का
कि रोशनी रोज चुगलियां खाती है
और अंधेरा घरों की चटखनी खोल देता है
रोज नींद की छत टपकती है
वाहर चीखों का पानी बरसता है
तो उनका लिहाफ भीग जाता है---
वे हंडिया में दाल नहीं
खौफ पकाते हैं
और बेजायका सालन के लिए
किसी दुकान से नहीं मिलती---
लेकिन उनका यह खत कहीं नहीं पहुंच पाया
कि खत को सच का सिरनामां नहीं मिलता
दोस्तो! दुआ मांगो कि मौसम बदल जाए
पेडों की की उम्र पेडों को नसीब हो!
टहनियों के आंगन में
हरे पत्तों को जवानी की दुआ लगे
दोस्तो दुआ मांगो
कि बदनसीबों को मौसम बदल जाए
सूरज की किरण मस्तक की मित्र बने
तो वतन के कागज पर
अमन की तारीख लिखी जाती है
चांद की बत्ती राहों की मित्र बने
तो पैरों की सलामती
अंधेरे का मुकद्दर बदल देती है।
दुआ मांगो-
कि सूरज की किरण
इंसान के माथे से दोस्ती कर ले
और चांद की बत्ती
अंधेरे राह की गवाही दे!
दोस्तो वतन से बडी
कोई दरगाह नहीं होती
वतन वालो!
दिल का चिराग रोशन करो!
और एक कहीं हमारा जो शायर है
अकेला बैठ कर दुआ करता है
अपनी और उसकी दुआ की
कबूलियत मांगो।
कहते हैं-
इंसान के पेडों पर दुआओंका का छिट्टा दे दें
तो खुदा महक जाता है-
मुहब्बत ता चिराग रोशन करें
तो सब में खुदा दिखता है
हवाओं में खुदा महक जाए
तो बंदे की दुआ कबूल होती है---
- अमृता प्रीतम

Monday, May 19, 2008

मुझे बिहार आना ही था


बिहार की मिट्टी की खुशबू दुनिया की हर कोने में मिलती है। इसका कारण है कि पराजय शब्द वहाँ के लोगों को परिचित नहीं है। बिहार की विशेषताओं के बारे में जो भी लिखूं कम ही होगा। मैंने बिहार को निकट से देखा और वहां के गुणों को महसूस किया।
मैं २० जनवरी २००६ को इंफाल से गुवाहाटी के लिए निकला था। सुबह साढे नौ बजे बस का टिकट लिया। गाड़ी ड्राईवर ने पूछा कि आपको कहां जाना है। मैंने एकाएक जवाब दिया था कि मुझे पटना जाना है। यानी बिहार। असल में उस समय मैं प्रभात ख़बर, देवघर में । उस साल के अंतिम महीना होते-होते मैं पटना आ गया था। उन शब्दों का खारा उतरा था। मुझे लगभग आठ महीने हो गए थे बिहार में। मुझे लगता था कि मैं अकेला होऊंगा जो पुर्वोत्त्तर यानी अहिंदी भाषी इलाके से इधर काम कर रहा हो। मुझे इस बात पर गर्व था कि बिहार जैसे मेहनती राज्य में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी बहाने मुझे भी मेहनत करने की आदत पड़ी थी।
मैंने बचपन में सुना था कि बिहार के लोग बहुत मेहनती होते हैं। इसका उदाहरण है कि पुर्वोत्त्तर राज्यों के हर घर में कहते थे कि जिंदगी में आगे जाना है तो बिहारियों की तरह मेहनत करो। वह उदाहरण उस समय मैंने अपनी आंखों से देखा था कि बिहार के लोग कैसे मेहनत करते हैं। वहां के लोगों में लोहा मनवाने की ताकत, इच्छा शकि्त व धैय लाजवाब है। वहां के कला, संस्कृति, साहित्य व सांगीतिक संपदा गौरवपूर्ण व समृद्धशाली रही है। वह महाकवि विद्यापति की भूमि है, जो उनकी रचनाएं विश्वजनीन हैं। दुनिया भर में उनकी रचनाएं पढी-पढाई जाती है। वह देश रत्न राजेंद्र बाबू की धरती है जिनकी परीक्षा की काॅपी दुनिया भर में मशहूर है। उस धरती पर रह कर मैं अपने आपको ह्रदय से गाैरवानि्वत महसूस करता था। राजेंद्र यादव कहते हैं - " बिहार हिंदी साहित्यकारों को रोटी देनेवाला प्रदेश है। "
वहां रहते हुए मुझे इस बात का एहसास नहीं था कि यह घर नहीं बाहर है। वहां के लोगों में अपने बल पर व अपने भारोसे जीने की कला मैंने देखी और सीखी है। कोई भी आदमी स्वतंत्र रूप से काम कर सकता है जो दूसरे राज्यों में नहीं है।
इस मामले में तो शायद बिहार सबसे गरीब प्रान्त है कि खुद पर इतराना नहीं आता है और न गर्व बोध होता है। बिहारवासियों को अपने ऊपर गर्व होना चाहिए। अपनी मिट्टी की खुशबू वे खुद नहीं जान पाए। जैसे हिरण की नाभी में कस्तुरी की गंध हो। मेरा मानना है कि कोई भी देश व राज्य अपनी साहित्य, संस्कृति व भाषा की समृद्ध नहीं होती तब तक वह देश या राज्य विकास होना संभव नहीं है।
अब जरूरत है कि अपने देश का लोहा अपनी दीवारों व छतों की सुरक्षा में अभिमंत्रित होकर सादर शारीक हो। अन्यथा क्या कारण है कि उस ड्राईवर को दूसरी जगह भी जवाब दे सकता था, इसिलए कि मुझे बिहार आना ही था।






Friday, May 16, 2008

मत रो माँ

इतिहास के इस नाजुक मोड़ पर
मैंने अपनी छोटी सी जिंदगी में
केवल आतंक और दहला देने वाली हिंसा देखि हैं
मैं जानती हूँ अब मेरी पीठ पर
रायफल को ही रहना हैं।
अगर वक्त मुझे अनदेखा करके चला गया
तो भला मैं लम्बी जिंदगी का क्या करूंगी।

-फेजेका मैकोनीज साभार : जनसत्ता
साउथ अफ्रीका