यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Tuesday, September 16, 2014

पूर्वोत्तर की गांधी

इरोम शर्मिला 

मणिपुर में आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफ्सपा)  हटाने की मांग को लेकर पिछले 14 वर्षों से भूख हड़ताल कर रहीं इरोम शर्मिला को मणिपुर हाईकोर्ट के आदेश के बाद रिहा तो किया गया, लेकिन दूसरे ही दिन आत्महत्या की कोशिश के आरोप में उन्हें फिर गिरफ्तार कर लिया गया. अपने आदेश में हाईकोर्ट ने कहा कि शर्मिला के ऊपर आत्महत्या का कोई मामला नहीं बनता. बावजूद इसके राज्य सरकार ने शर्मिला पर वही आरोप दोबारा लगाकर उन्हें गिरफ्तार कर लिया. यह राज्य सरकार की कौन-सी रणनीति है, यह कह पाना मुश्किल है. लेकिन, पिछले 14 वर्षों से, चाहे केंद्र सरकार हो या राज्य सरकार, किसी ने शर्मिला से बातचीत करने का कोई प्रयास नहीं किया. राज्य सरकार की ज़्यादती का आलम यह कि दोबारा गिरफ्तार किए जाते वक्त पुलिस उन्हें इस तरह खींच-घसीट कर ले गई, जैसे वह किसी शातिर और दसियों मुकदमों में वांछित अपराधी को ले जा रही हो. गिरफ्तारी के दौरान शर्मिला को काफी चोटें आईं. सवाल यह उठता है कि सरकार को ऐसी कार्रवाई की आख़िर क्या ज़रूरत पड़ी? शर्मिला की शारीरिक एवं मानसिक हालत का अंदाजा किए बगैर उनके साथ इस तरह का बर्ताव आख़िर क्या बताता है? राज्य के गृह मंत्री गाइखांगम के अनुसार, मेडिकल टीम ने कहा कि शर्मिला की तबीयत लगातार खराब होती जा रही है, चार-पांच दिनों के अंदर उनकी हालत और भी ज़्यादा खराब होने की आशंका है, इसलिए उन्हें सुरक्षित जगह पर रखना ज़रूरी हो गया है. यह जान-बूझकर की गई कार्रवाई नहीं है, बल्कि उन्हें मजबूरन उठाना पड़ा.

कब से शुरू हुआ था अनशन

2 नवंबर, 2000 को असम राइफल्स के जवानों ने इंफाल से सात किमी दूर मालोम बस स्टैंड पर 10 बेकसूर लोगों को गोलियों से भून डाला. घटना की दिल दहला देने वाली तस्वीरें अगले दिन स्थानीय अख़बारों में छपीं. मरने वालों में 62 वर्षीया महिला लिसेंगबम इबेतोमी और 18 वर्षीय सिनाम चंद्रमणि भी शामिल थे. चंद्रमणि 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार पा चुका था. इस घटना से विचलित होकर 28 वर्षीया शर्मिला ने 4 नवंबर को सत्याग्रह शुरू कर दिया.


कौन है शर्मिला 

इरोम चनु शर्मिला का जन्म 14 मार्च, 1972 को इंफाल के कोंगपाल में हुआ था. वह सामाजिक कार्यकर्ता एवं कवयित्री हैं. इंफाल के पशु चिकित्सालय में काम करने वाले एक अनपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सबसे छोटी बेटी शर्मिला हमेशा से अकेले रहना पसंद करती थीं. कक्षा में वह सबसे पीछे बैठती और अच्छी श्रोता थीं. घर में आठ बड़े भाई-बहन और थे. जब शर्मिला का जन्म हुआ, तो उनकी 44 वर्षीया मां इरोम सखी का दूध सूख चुका था. जब शाम होती और गांव अंधेरे में डूबने लगता, तो शर्मिला रोना शुरू कर देती थीं. उनके सामने से हटने के लिए मां को निकट स्थित किराने की दुकान पर जाना पड़ता था, ताकि भाई सिंहजीत अपनी छोटी बहन को गोद में उठाकर पड़ोस की किसी महिला के पास दूध पिलाने ले जा सके. शर्मिला के भाई सिंहजीत का मानना है कि शायद इस तरह वह उन सब माताओं के दूध का कर्ज चुका रही हैं. शर्मिला की इच्छाशक्ति हमेशा से असाधारण रही है. शायद इसीलिए वह सबसे अलग भी हैं. वह इंफाल के एक दैनिक हुयेल लानपाऊ में अपना नियमित कॉलम भी लिखती थीं. शर्मिला बचपन में मुर्गियां पालती और उनके अंडे बेचकर उनका पैसा वह नेत्रहीन बच्चों के विद्यालय को दान कर देती थीं. इरोम स़िर्फ 12वीं कक्षा तक पढ़ी हैं. इसके बाद उन्होंने नेत्रहीन बच्चों के लिए सोशल वर्क किया. शर्मिला को ब्रिटिश मूल के देसमोंड कोटिंहो से प्यार है, जिससे वह शादी करना चाहती हैं.

क्या है आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (1958)

आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट संसद में 11 सितंबर, 1958 को पारित किया गया था. यह क़ानून पूर्वोत्तर के सात अशांत (डिस्टर्ब) राज्यों (असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं नगालैंड) में लागू है. यह क़ानून अशांत क्षेत्रों में सेना को विशेष अधिकार देने के लिए पारित किया गया था. जम्मू- कश्मीर में भी यह क़ानून 1990 से लागू है. अफ्सपा की आड़ लेकर सेना एवं सुरक्षाबलों द्वारा किसी को भी घर में घुसकर ढूंढना, किसी को भी शक के आधार पर पकड़ना और महिलाओं के साथ दुर्व्यहार करना आम बात हो गई है. यह क़ानून पहले असम और मणिपुर में लागू किया गया था, बाद में संशोधन करके 1972 में इसे पूरे पूर्वोत्तर (असम, मणिपुर, त्रिपुरा, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं नगालैंड) में लागू कर दिया गया. अफ्सपा लागू होने के बाद पूरे पूर्वोत्तर में फर्जी मुठभेड़, बलात्कार, लूट और हत्या जैसी घटनाओं की बाढ़ आ गई. जब 1958 में अफ्सपा क़ानून बना, तो यह केवल राज्य सरकार के अधीन था, लेकिन 1972 में हुए संशोधन के बाद इसे केंद्र सरकार ने अपने हाथों में ले लिया. संशोधन के मुताबिक, किसी भी क्षेत्र को डिस्टर्ब एरिया घोषित कर वहां अफ्सपा लागू किया जा सकता है. इस क़ानून के सेक्शन 4-ए के अनुसार, सेना किसी पर भी गोली चला सकती है और अपने बचाव के लिए शक को आधार बना सकती है. सेक्शन 4-बी के अनुसार, सेना किसी भी संपत्ति को नष्ट कर सकती है. सेक्शन 4-सी के अनुसार, सेना किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है और वह भी बिना वारंट के. सेक्शन 4-डी के अनुसार, सेना द्वारा किसी भी घर में घुसकर बिना वारंट के तलाशी ली जा सकती है. सेक्शन 6 के अनुसार, केंद्र सरकार की अनुमति के बिना सेना के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. मणिपुर में राज्य सरकार द्वारा अगस्त 2004 में कुछ इलाकों से यह क़ानून हटा दिया गया था, लेकिन केंद्र सरकार इसके पक्ष में नहीं थी. जीवन रेड्डी कमेटी ने भी सरकार को संकेत कर दिया था कि यह क़ानून दोषपूर्ण है और इसमें संशोधन की ज़रूरत है. इस क़ानून के चलते पिछले दो दशकों से प्रभावित क्षेत्रों में हिंसा बढ़ गई है. इस विवादास्पद क़ानून के विरोध में 10 सितंबर, 2010 को जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला समेत कई लोग प्रदर्शन भी कर चुके हैं.

जीवन रेड्डी कमेटी
वर्ष 2004 में असम राइफल्स के जवानों ने थांगजम मनोरमा नामक महिला को हिरासत में लेकर पहले उसके साथ सामूहिक बलात्कार किया और फिर उसे मौत के घाट उतार दिया. इस घटना के बाद एक पांच सदस्यीय कमेटी का गठन किया गया, जिसके प्रमुख सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस बीपी जीवन रेड्डी थे. रेड्डी कमेटी ने 6 जून, 2005 को सौंपी गई अपनी रिपोर्ट में यह क़ानून हटाने की सिफारिश की, लेकिन तत्कालीन रक्षा मंत्री प्रणब मुखर्जी ने रेड्डी कमेटी की सिफारिश नामंजूर कर दी. उन्होंने कहा कि अफ्सपा को डिस्टर्ब एरिया से हटाना कतई संभव नहीं है. 

पूर्वोत्तर की महिलाएं

पुरुषों से दो क़दम आगे 

भारत नारी को शक्ति का प्रतीक मानता है, लेकिन महिलाओं के साथ आएदिन होने वाले भेदभाव ने इस प्रतीक को शक्तिहीन बना दिया है. वातानुकूलित कमरों में बैठ कर तमाम किस्म के विमर्श होते हैं कि कैसे महिलाओं को सशक्त बनाया जाए. लेकिन, भारत में एक ऐसी जगह भी है, जहां की महिलाएं इस पूरी कहानी की अलग और सुंदर तस्वीर पेश करती हैं. आइए, जानते हैं, पूर्वोत्तर की महिलाओं की वे कहानियां, जो बताती हैं कि असल में महिला सशक्तिकरण के मायने क्या हैं....

देश के विभिन्न हिस्सों में महिलाओं को सम्मान दिलाने की जद्दोजहद जारी है, वहीं दूसरी तरफ़ पूर्वोत्तर की महिलाएं शिक्षा, खेल एवं समाजसेवा आदि हर क्षेत्र में अपने-अपने राज्यों का प्रतिनिधित्व करते हुए देश का नाम रोशन कर रही हैं. घरेलू महिलाएं भी घर के कामकाज के अलावा कुछ ऐसे कार्यों से जुड़ी हुई हैं, जो इन्हें आत्मनिर्भर बनने में मदद करते हैं. इससे न केवल इनकी अपनी आर्थिक स्थिति में सुधार आ रहा है, बल्कि इसका असर राज्य की अर्थव्यवस्था पर भी पड़ता है.


मणिपुर स्थित ईमा कैथेल केवल महिलाओं का बाज़ार है. यह बाज़ार महिला सशक्तिकरण का एक प्रतीक है. ईमा कैथेल राजधानी इंफाल के बीचोबीच स्थित है. राज्य की महिलाओं को कार्यस्थल, घर एवं समुदाय की ओर से कई तरह की सहूलियतें हासिल हैं, जो देश के बाकी हिस्सों में बहुत कम मिलती हैं. इस बाज़ार की दुकानदार महिलाओं की अपनी एक अलग जीवनशैली है. यहां हरी सब्जियां, खाद्य पदार्थ, लोहे के औजार, मछलियां, कपड़े, बांस निर्मित वस्तुएं एवं मिट्टी के बर्तन आदि का व्यवसाय होता है. ईमा कैथेल के माध्यम से मणिपुर की महिलाओं ने व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में अपने क़दम आगे बढ़ाए हैं. इन दुकानदार महिलाओं को समय-समय पर राजनीतिक और सैन्य हलचलों का भी सामना करना पड़ता है. जीवन को स्वदेशी बनाए रखने में इन महिलाओं की बड़ी भूमिका है. अपने परिवार एवं समुदाय के लिए ये आर्थिक स्तंभ की तरह हैं. ये 4,000 शक्तिशाली महिलाएं अपने बेहतर भविष्य के लिए हमेशा एकजुट रहती हैं.

पूर्वोत्तर मूल रूप से महिला प्रधान समाज है. यहां महिलाओं की स्थिति बहुत मजबूत है. पुरुषों की अपेक्षा परिवार की ज़्यादातर ज़िम्मेदारियां महिलाएं संभालती हैं. ये घर से बाहर निकल कर मज़दूरी करती हैं, अपनी खेती-बाड़ी का काम संभालती हैं, पुरुषों से कई गुना ज़्यादा काम करके अपना परिवार चलाती हैं. यहां की महिलाएं कोई भी निर्णय अपने स्तर पर लेने में सक्षम एवं स्वतंत्र हैं. नगालैंड की महिलाएं दुर्गम पहाड़ों पर खेती का काम करती हैं. इन मेहनतकश महिलाओं पर घर-समाज की ओर से किसी तरह की पाबंदी नहीं होती. ये महिलाएं उतने ही बिंदास अंदाज में रहती हैं, जितने पुरुष. मिजोरम, जो अधिकतर पहाड़ पर बसा हुआ है, की महिलाएं अपने बच्चे को पीठ पर बैठाकर लकड़ी काटने जाती हैं, कटी हुई लकड़ी सिर पर लाद कर देर शाम अपने घर लौटती हैं, लेकिन परिवार में किसी को उनसे शिकायत नहीं रहती. त्रिपुरा में महिलाएं खेती-बाड़ी का ज़िम्मा खुद संभालती हैं, दुर्गम पहाड़ों पर चढ़ कर झरने से पानी लाती हैं. यह स़िर्फ एक दिन की बात नहीं है, बल्कि यह जीवन का हिस्सा है. मणिपुर में महिलाएं झील से मछली पकड़ने के काम में घर के पुरुषों की मदद करती हैं. साक्षरता के मामले में भी पूर्वोत्तर की महिलाएं किसी से कम नहीं हैं. अगर पुरुषों का प्रतिशत 80 है, तो महिलाएं भी 70 फ़ीसद दर के साथ उनके क़दम से क़दम मिला रही हैं.

इतिहास गवाह है कि पूर्वोत्तर की महिलाओं ने विषम से विषम परिस्थितियों में मोर्चा संभाला है. 1904 और 1939 में हुए संघर्ष नुपी लाल में मणिपुर की महिलाओं ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया था. ब्र्रिटिश सरकार के अन्याय के ख़िलाफ़ महिलाओं ने कपड़ा बुनने में इस्तेमाल होने वाले लकड़ी के टुकड़े को अपना हथियार बनाया और पुरुषों से एक क़दम आगे बढ़कर मोर्चा संभाल लिया. आज भी हर साल 12 दिसंबर को उन महिलाओं को याद किया जाता है. नगा स्वतंत्रता सेनानी रानी गायदिनलू को भी लोग याद करते हैं. काफी लंबे समय तक वह जेल में रहीं. उन्होंने गांधी जी द्वारा बताए गए मार्ग पर चलकर 14 सालों तक आज़ादी की लड़ाई लड़ी.

पूर्वोत्तर की महिलाओं को स्वयं के महिला होने का कोई दु:ख नहीं होता, क्योंकि उन्हें घर और समाज का पर्याप्त संरक्षण हासिल है. माता-पिता बेटी-बेटे के बीच फर्क नहीं करते, कोई पक्षपात नहीं बरतते. जबकि उत्तर भारत में बेटी का जन्म होते ही बहुधा घर में मायूसी छा जाती है. वजह भी है. समाज में दहेज प्रथा आज भी खुशियों को ग्रहण लगा रही है. वहीं पूर्वोत्तर में अलग रिवाज है. वर पक्ष वधु के घर वालों को खुद दहेज देते हैं, जिससे वधु अपने पारंपरिक परिधान खरीदती है. बॉक्सिंग में पांच बार विश्‍व चैंपियन रहीं मैरी कॉम के जीवन पर आधारित एक फिल्म भी आ रही है. मैरी कॉम पूर्वोत्तर की महिलाओं का एक सशक्त रूप है. ग़रीब परिवार में पैदा होने के बावजूद खेल के क्षेत्र में उन्होंने देश का नाम रोशन किया. दो बच्चों की मां बनने के बाद वह विश्‍व चैंपियन बनीं. यह उनके लिए एक चुनौती थी.