यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Wednesday, July 30, 2008

एक आवाज



मुझे सुनो फिर जिवीत होते हुए इन वनों में
स्मृति की शाखाआं के नीचे
जहां हरी मैं गुजरती हूं,
धरती पर प्राचीन पौधों की जली हुई मुस्कान,
भोर से जन्म कोयला,
मुझे सुनो फिर जीवित होते हुए, मैं तुम्हें ले जाउंगी।

उपस्थिति की वाटिका में
शाम को छोड़ी गई, छायाओं से घिरी हुई
जहां इस नए प्रेम में, तुम्हारा घर मिलता है।

कल के बीहड़ राज्य में मैं
एक जंगली पत्ती थी, मरने के लिए स्वतंत्र।
पर समय पक रहा था, घाटियों में काली कराह,
पानी का घाव दिने के पत्थरों में।

ईव बोनफूआ
फ्रेंच कवि

Tuesday, July 29, 2008

वोट की ओट में नगालिम

नगालिम के सवाल पर मणिपुर के सांसद मणि चारेनामेइ के ताजा बयान से मणिपुर और असम में फिर से विवाद गहराने लगा है। वृहद नगालैंड ÷नगालिम' की मांग के समर्थक रहे मणिपुर के निर्दलीय सांसद मणि चारेनामइ के बयान से मणिपुर और असम में राजनीतिक गर्माहट बढ़ गई है। अपने बयान में उन्होंने इसी शर्त पर यूपीए सरकार का समर्थन की बात कही है कि सरकार के न्यूनतम साझा कार्यक्रम में मणिपुर की क्षेत्रीय अखंडता के साथ छेड़छाड़ न करने की शर्त पर केंद्र सरकार पुनर्विचार करेगी। नगा बागी काफी दिनों से नगालिम के तहत नगा बहुल इलाकों को एक प्रशासन तंत्र में शामिल करने की मांग करते रहे हैं। यानी उन्हें नगालिम में नगालैंड के अलावा मणिपुर के चार जिले, असम के दो पहाड़ी जिले और पूर्वी अरुणाचल प्रदेश के दो जिले भी चािहए। यूपीए सरकार ने अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम के तहत इन राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता बनाए रखने का वादा किया है। मणिपुर के सांसद मणि का कहना है कि केंद्र सरकार ने उस पर पुनर्विचार का वादा किया है। उनके कहने का सीधा मतलब यही है कि केंद्र सरकार ने नगा बागियों की इस मांग पर पुनर्विचार करने का आश्वासन दिया है। यूपीए सरकार या कांग्रेस आलाकमान की तत्काल कोई प्रतिक्रिया नहीं आई है, लेकिन इस सांसद के इस बयान पर मणिपुर और असम में राजनीतिक गर्मी बढ़ गई है। असम में मुख्यमंत्री ने तो सीधे तौर पर कहा कि इस तरह की मांग को स्वीकार नहीं किया जा सकता है, जबकि मुख्य विपक्षी दल असम गण परिषद ने तो कांग्रेस पर यूपीए सरकार को बचाने के लिए असम का ही सौदा करने का आरोप लगाया है। मणिपुर में भी इस बयान पर तीखी प्रतिक्रिया हो रही है। वहां पर कांग्रेस ने चुप्पी साध रखी है।
नगालैंड में अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए कांग्रेस ने नगा बागियों की तर्ज पर अपने चुनावी घोषणा पत्र में नगा बहुल इलाकों को एक शासन में लाने का वादा किया था। इसका सीधा मतलब नगालिम की मांग का समर्थन करना था। खैरियत है कि कांग्रेस चुनाव हार गई, लेकिन सत्ता में दोबारा आने वाली एनपीए सरकार ने भी अपने चुनावी घोषणा पत्र में नगालिम का वादा किया था। असम, अरुणाचल और मणिपुर की सरकारें और वहां की प्रदेश कांग्रेस समिति इसका विरोध करती रही है। रियो सरकार ने तो मणिपुर के नगा बहुल इलाके में नगालैंड विद्यालय परीक्षा पाठ्यक्रम के तहत पढ़ाई आरंभ करने की वकालत भी थी। कांग्रेस ने अपने चुनावी घोषणापत्र में नगालैेंड को राज्य का दर्जा देने के दौरान हुए सोलह सूत्रीय समझौते को लागू करने का वादा कर रही है, जिसकी तेरहवीं धारा में सभी नगा बहुल क्षेत्रों को एक शासन प्रणाली में लाने की बात कही गई है। इस समझौते की धारा दो में नगालैंड को विदेश मंत्रालय के अधीन लाने का बात दर्ज है। 1963 में नगालैंड को पूर्ण राज्य का दर्जा मिलने के पहले यह राज्य करीब छह साल तक सीधे विदेश मंत्रालय के अधीन था। उसके बाद इसे गृह मंत्रालय के अधीन कर दिया गया। उस सोलह सूत्रीय समझौते पर हस्ताक्षर करने वालों में सिर्फ गोवा के मौजूदा राज्यपाल एससी जमीर जिंदा बचे हैं। यही वजह है कि नगालिम के सवाल पर कांग्रेस को नगालैंड के बाहर परेशानी होती है और वह इस सवाल को टाल जाना चाहती है।

रविशंकर रवि
लेखक उत्तर पूर्व मामलों के विशेषज्ञ हैं

Tuesday, July 22, 2008

श्रद्धांजलि

दोस्तो आज एक खबर मिली कि ज्ञानेश्वर नहीं रहे. यह खबर सुन कर मुझे हैरान हुआ और दुख भी। आपलोग नहीं जानते होंगे कि ज्ञानेश्वर कौन है. वह मेरे सहपाठी था. हमसे उम्र में बडा था. एक रुम में रहकर पढाई करता था. वह इकलौता बेटा था. बहुत गंभीर और ईमानदार भी था. पढाई लिखाई को लेकर हमेशा प्रयासरत था. उनकी मां कई सालों से दिल की बीमारी से जूझ रही थी. उनके मां बाप की आशा की किरणा था वह. उनके पिता एक प्राइवेट स्कूल के शिक्षक हैं. उनके पिता उनके उपर कितनी उम्मीद रखते थे. शायद उनकी उम्र 26 की रही होगी. सरकारी नौकरी के लिए उन्होंने इंटरव्यू भी दिए थे. उसके इंतजार में प्राइवेट स्कूल चला रहा था. उनकी शादी भी नहीं हुई. जिंदगी की सुबह में ही उनका सायं काल आ गया. परिजनों को वक्त ने कौन सा मोड पर ला खडा कर दिया. उनके परिवार वालों को कैसा दुखा दर्द झेला होगा. एक असहनीय दृश्य हुआ होगा. मुझे अभी तक याद है कि जब हम लोग इंफाल से गुवाहाटी के लिए गाडी पकडना था. उनके पितजी उनको छोडने आए थे. हम लोग पूरी टीम थी. पूरी टीम में सबसे बडे भी वे ही थे. फिरभी बच्चा समझ कर उनको छोडने आया था. भले ही बडा हो होशियार हो मगर मां बांप की नजर में नदान बच्चे ही लगते है.
इस खबर से जिंदगी की एक सच्चाई ने याद दिलाए कि हम सब एक दिन छोड कर जाना है. जिंदगी की आपाधापी में यह कभी कभी भूल जाता है कि हम लोग वहीं जाना है जहां से हम आए हैं. हर कोई अकेला आता है. अकेला जाएगा.
मैं श्रद्धांजिल अर्पित करते हुए ईश्वर से दुआ करता हूं कि उनकी आत्मा को शांति दें.

Friday, July 18, 2008

श्रावणी मेले से जुड़ी मेरी यादें



श्रावणी मेला शब्द सुनते ही लगता है कि कोई मेरा परिचित हो। श्रावणी मेला और देवघर ये दो शब्द मेरी जहन में रच-बस गए हैं। दोनों शब्दों से मैं उस तरह परिचित हूं जैसे कोई अपने पड़ोसी को जानता हो। देवघर एक शांत और धाार्मिक वातावरणयुक्त एक जगह है। मैंने देवघर में रहकर अपनी आंखों से श्रावणी मेला देखा। मेरी पढ़ाई-लिखाई से लेकर नौकरी की शुरुआत देवघर से ही की। उस दरमियान यह पवित्र पर्व श्रावणी मेला मुझे वाकिफ था। उस पवित्र पर्व का मैं भी एक हिस्सा था। इसलिए देवघर मेरे लिए बहुत खास है। देवघर से जुड़ी कई यादें मेरी स्मृति में हैं। उन यादों में श्रावणी मेला भी विशिष्ट है।
2003 में इस पावन भूमि पर मैं आया था सिर्फ और सिर्फ हिंदी की शिक्षा पाने के लिए। शिवजी के आशीर्वाद से पढ़ाई के साथ-साथ नौकरी भी करने लगा। शुरुआत दिनों में मेरे पास मैट्कि की डिग्री के सिवाय कुछ नहीं था। सब अधूरा था। न भाषा का ज्ञान था, न तकनीकी ज्ञान और न ही व्यवहारिक ज्ञान। मगर इस पावन धरती ने मुझे बहुत कुछ दिया और बहुत कुछ सिखाया। उतना तो मां-बाप अपने बच्चों को भी नहीं सिखाते होंगे।

पहला सावन जब आया तो श्रद्धा, जोश और उमंग के साथ भक्तों का तांता लगाना शुरू गया। इन आंखों ने पहली बार श्रावणी मेले का नजारा देखा। भक्तजनों की श्रद्धा अद्भुत है। गंगा जल भरते हुए पैदल 105 किमी की दूरी तय करके शिवजी के ज्योर्तिलिंग पर जल चढ़ाना एक साधारण आदमी के बस की बात नहीं। वही आदमी कर सकता है जिसे भोलेनाथ का आशीर्वाद प्राप्त हो। पूरा देवघर 'बोलबम' से गुंजायमान हो उठता था। हर गली-मुहल्ले में भक्तिमय माहौल व्याप्त था। पूरा देवघर पीला रंग से रंगा था। श्रद्धालु भक्ति के रंग से सराबोर होते थे। कई दिन-रात बिना खाए और सोए कांवरिएं थकते नहीं थे। उनके मुंह से एक ही आवाज निकलती थी - बोलबम का नारा है, बाबा एक सहारा है।
रात में दफ्‌तर से काम खत्म करके अक्सर साथियों के साथ शिवगंगा होते हुए चाय पीने निकलता था। बोलबम का नजारा रात में भी कायम था। सावन महीने में पूरे देवघर में दिन-रात में कोई अंतर नहीं रहता था। भक्तों की लंबी-लंबी कतारें मंदिर की ओर लगी रहती थी। रात के समय में शिवगंगा का दृश्य अद्भुत था। चारों तरफ के स्ट्ीट लाइट से पूरा पोखर चमकता रहता था। उसके बीच शिवजी की भव्य मूर्ति विराजमान थी। मूर्ति की चोटी से पानी का झरना निकला हुआ था। ऐसा लगता था कि हिमालय की चोटी से गंगाजल बह रहा हो। कितना मनोरम दृश्य था। यह दृश्य देख पाने के लिए भक्तजनों को कई साल लग जाते थे, फिर भी उनकी मनोकामना पूरी नहीं होती थी। सामने खड़ा होकर शिवजी की मूर्ति को मैं एकटक देखता रहता था। लगता था कि शिवजी स्वयं खड़े होकर मुझे साक्षात्कार दे रहे हैं।

मंदिर के प्रांगण में भक्तों का जमावड़ा लगा रहता था। किसी के मां, बाप, भाई व बच्चे
भीड़ में अक्सर गायब हो जाते थे। सुरक्षाकर्मियों को भी कतारें व्यवस्थित करने में लाठी का सहारा भी लेना पड़ता था। मगर भक्तजनों की भक्ति के सामने लाठी का कोई असर नहीं पड़ता था। अद्भुत इच्छाशक्ति थी उनकी। लंबी कतारें, ऐसी लंबी जो तीन-तीन दिनों तक लगी रहती थी। लाइन में ही लोग सो जाते थे। मंदिर पहुंचते-पहुंचते कई दिन लगता था। मगर उनके पास न श्रद्धा की कमी थी और न ही ताकत की।
मुझे अभी तक याद है। अंतिम सोमवार की रात थी। पूरे दफ्‌तर में जल चढ़ाने की चर्चा जोर-शोर से हो रही थी। स्वाभाविक बात है कि अंतिम सोमवार को तो अधिक भीड़ रहती ही है। वह अंतिम सोमवारी पर मेरी दादी की पुण्यतिथि भी थी। मैंने सोचा कि मैं भी मंदिर जाकर जल चढ़ा लूं। इससे भोलेनाथ की कृपा से मेरी स्वर्गीय दादी के पास कुछ फूल और जल पहुंच सके। वीआईपी पास से जाना था। वरिष्ठ साथियों से पूछ कर मैं भी 3.30 बजे तक तैयार हो गया। पूरी तैयारी के बाद पता चला कि वीआईपी पास कम हो गया है और आदमी ज्यादा नहीं जा पाएंगे। मुझे बहुत दुःख हुआ था। मैंने एक साथी को तोड़े हुए फूल शिवजी पर चढ़ाने के लिए दे दिया था। खैर उनकी इच्छा कौन काट सकता है। आज भी मेरे रोम-रोम में बोलबम की गूंज बसी हुई है।
कुल मिला कर देवघर मेरे जीवनयात्रा का एक सफल और सुखद हिस्सा रहा। उस पावन धरती पर कुछ साल रहना मेरे लिए सौभाग्य की बात है। श्रावणी मेले के पावन अवसर पर मैं भगवान शिव के चरणों पर श्रद्धा-सुमन अर्पित करता हूं।

Wednesday, July 16, 2008

हिंदी में आत्म-आलोचना का अभाव है

अपनी बहिन की शादी के बाद ही मैं अपने पुराने दोस्त और साथी श्री शिवप्रसाद गुप्त से मिलने के लिए बनारस गया। गुप्तजी एक बरस से भी ज्यादा अरसे से बीमार थे। जब वह लखनउ जेल में थे, अचानक उनको लकवा मार गया और अब वह धीरे-धीरे अच्छे हो रहे थे। बनारस की इस यात्रा के अवसर पर मुझे हिंदी-साहित्य की एक छोटी-सी संस्था की ओर से मानपत्र दिया गया और वहां उसके सदस्यों से दिलचस्प बातचीत करने का मुझे मौका मिला। मैंने उनसे कहा जिस विषय का मेरा ज्ञान बहुत अधूरा हे उस पर उनके विशेषज्ञों, से बोलते हुए मुझे हिचक होती है, लेकिन फिर भी मैंने उन्हें थोड़ी-सी सूचनाएं दीं। आजकल हिंदी में जो क्लिष्ट और अलंकारिक भाषा इस्तेमाल की जाती हे, उसकी मैंने कुछ कडी आलोचना की। उसमें कठिन, बनावटी और पुराने शैली के संस्कृत -शब्दों की भरमार रहती है। मैंने यह कहने का भी साहस किया कि यह थोड़े-से लोगों के काम में आनेवाली दरबाजी शैली अब छोड़ देनी चाहिए और हिंदी-लेखकों को यह कोशिश करनी चाहिए कि वे हिंदुस्तान की आम जनता के लिए लिखें और ऐसी भाषा में लिखें जिसे लोग समझ सकें। आम जनता के संसर्ग से भाषा में नया जीवन और असली सच्चापन आ जाएगा। इससे स्वयं लेखकों को जनता की भाव-व्यंजनाशक्ति मिलेगी और वे अधिक अच्छा लिख सकेंगे। साथ ही, मैंने यह भी कहा कि हिंदी के लेखक पश्चिमी विचारों या साहित्य का अध्ययन करें तो उससे उन्हें बड़ा लाभ होगा। यह और भी अच्छा होगा कि यूरोप की भाषाओं के पुराने साहित्य और नवीन विचारों के ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद कर डाला जाए। मैंने यह भी कहा कि संभव है कि आज गुजराती, बंगला और मराठी-साहित्य इन बातों में आजकल के हिंदी-साहित्य से अधिक उन्नत हो, और यह तो मानी हुई बात हे कि पिछले वर्षों में हिंदी की अपेक्षा बंगला में कहीं अधिक रचनात्मक सात्यि लिखा गया है।
इन विषयों पर हम लोग मित्रतापूर्ण बातचीत करते रहे और उसके बाद मैं चला आया। मुझे इस बात का जरा भी ख्याल न था कि मेंने जो कुछ कहा वह अखबारों में दे दिया जाएगा, लेकिन वहां उपस्थिति लोगों में से किसी ने हमारी उस बातचीत को हिंदी-पत्रों में प्रकाशित करवा दिया। फिर क्या था, हिंदी अखबारों में मुझपर और हिंदी-संबंधी मेरी इस घृष्टता पर खासतौर से हमले शुरू हुए कि मैंने हिंदी को वर्तमान बंगला, गुजराती और मराडी से हलका क्यों कहा। मुझे अनजान-इस विषय में मैं सचमुच था भी अनजान-कहा गया। मेरे विचारों की टीका में बहुत कठोर शब्द काम में लाए गए। मुझे तो इस वाद-विवाद में पड़ने की फुरसत ही नहीं थी, लेकिन मुझे बताया गया कि यह झगड़ा कई महीनों चलता रहा-उस समय तक जबतक कि मैं फिर जेल में नहीं चला गया।
यह घटना मेरे लिए आंख खोलनेवाली थी। उसने बतलाया कि हिंदी के साहित्यिक और पत्रकार कितने ज्यादा तुनकमिजाज है। मुझे पता लगा कि वे अपने शुभचिंतक मित्र की सदभावनापूर्ण आलोचना भी सुनने को तैयार नहीं थे। साफ ही यह मालूम होथा था कि इस सबकी तह में अपने को छोटा समझने की भावना ही काम कर रही थी। आत्म-आलोचना की हिंदी में पूरी कमी है, और आलोचना का स्टैंडर्ड बहुत ही नीचा है। एक लेखक और उसके आलोचक के बीच एक-दूसरे के व्यक्तित्व पर गाली-गलौच होना हिंदी में कोई असधारण बात नहीं है। यहां का सारा दृष्टिकोण बहुत संकुचित और दरबारी-सा है और ऐसा मालूम होता है, मानो हिंदी का लेखक और पत्रकार एक-दूसरे के लिए और एक बहुत ही छोटे-से दायरे के लिए लिखते हों। उन्हें आम जनता और उसके हितों से मानो कोई सरोकार ही नहीं है। हिंदी का क्षेत्र इतना विशाल और आकर्षक है कि उसमें इन त्रुटियों का होना मुझे अत्यंत खेदजनक और हिंदी लेखकों के प्रयत्न शक्ति का अपव्यय-सा जान पड़ा।
हिंदी-साहित्य का भूतकाल बडा गौरवमय रहा है, लेकिन वह सदा के लिए उसी के बल पर तो जिंदा नहीं रह सकता। मुझे पूरा यकीन है कि उसका भविष्य भी काफी उज्ज्वल है और मैं यह भी जानता हूं कि किसी दिन देश में हिंदी के अखबार एक जबरदस्त ताकत बन जाएंगे, लेकिन जबतक हिंदी के लेखक और पत्रकार पुरानी रूढ़ियों व बंधनों से अपने-आपको बाहर नहीं निकालेंगे और आम जनता के लिए लिखना न सीखेंगे तबतक उनकी अधिक उन्नति न हो सकेंगी।

-जवाहर लाल नेहरू

(नेहरू की आत्मकथा का एक अंश, 1936 ई.)

Thursday, July 10, 2008

डेमोक्रेसी के इस राज में



गड्ढे में नाले में कीचड़ है
राजपथ सना है कीचड़ से
पड़ा कूड़े का ढेर सब दरवाजों पर
अस्पताल भी बना है
कूड़े का ढेर.

बाजार में होता, सामानों का मोलभाव
ऑफिस में भी होता नोकरियों का मोल-भाव
एलपी स्कूल में लड़ते हैं बच्चे
एसेंबली हॉल में लड़ते हैं विधायक.
गली-गली में चोरी करते हैं लोग
राजमहल में भी चोरी करते हैं अधिकारी.
अधिकारियों द्वारा पकड़े गए जन-साधारण पर
पहरा देते हैं पहरेदार.
अधिकारी और राजा का भी
पहरा देते हैं पहरेदार.
वेश्याएं बेचती हैं वासनायुक्त शरीर
जिन्हें खरीदते हैं राजा और अधिकारी

यहां हे डेमोक्रेसी का शासन
जिसकी है-एक ही रीति
जिसका है एक ही स्वरूप.

-लनचेनबा मीतै

साक्षी



कुछ शब्द
उनके लिए
जो नंदीग्राम में मार दिये गये
कि मैं गवाह हूं उनकी मौत का

कि मैं गवाह हूं कि नई दिल्ली, वाशिंगटन
और जकार्ता की बदबू से भरे गुंडों ने
चलाई गोलियां, निहत्थी भीड़ पर
अगली कतारों में खड़ी औरतों पर.

मैं गवाह हूं उस खून का
जो अपनी फसल
और पुरखों की हड्डी मिली अपनी जमीन
बचाने के लिए बहा.

मैं गवाह हूं उन चीखों का
जो निकलीं गोलियों के शोर
और राइटर्स बिल्डिंग के ठहाकों को
ध्वस्त करतीं.

मैं गवाह हूं
उस गुस्से का
जो दिखा
टालिनग्राद से भागे
और पश्चिम बंगाल में पनाह लिये
हिटलर के खिलाफ.

मैं गवाह हूं
अपने देश की भूख का
पहाड़ की चढ़ाई पर खड़े
दोपहर के गीतों में फूटते
गड़ेरियों के दर्द का
अपनी धरती के जख्मों का
और युद्ध की तैयारियों का.

पाकड़ पर आते हैं नये पत्ते
सुलंगियों की तरह
और होठों पर जमी बर्फ साफ होती है.

यह मार्च
जो बीत गया
आखिरी वसंत नहीं था
मैं गवाह हूं.

-रेयाज-उल-हक

रेयाज-उल-हक की कविताओं में भारत की युूवा पीढ़ी का सबसे सार्थक पतिनिधित्व झलकता है. प्रभात खबर पटना में उप संपादक हैं.

Wednesday, July 9, 2008

नंदीग्राम के बाद




मैं लाल झंडे की कसम खाता हूं
नंदीग्राम के बारे में मैं कोई बहस नहीं करूंगा
क्योंकि कामरेडों ने नंदीग्राम पर बहस पर रोक लगा दी है

आज मैं मुक्तिबोध पर बहस करूंगा
जिन्होंने लिखा था कि अभिव्यक्ति की रक्षा के लिए
उठाने ही होंगे खतरे, तोड़ने ही होंगे मठ और गढ़ सब

आज मैं सफदर हाशमी की हत्या के बारे में बहस करूंगा
जो मार दिए गए उस समय,
जब वे बोल रहे थे साम्राज्य की शक्तियों के खिलाफ

आज मैं गुजरात के बारे में बहस करूंगा
जहां राजसत्ता और हिंदूवादी गुंडों ने
गोधरा के बहाने मचाया था कत्लेआम

आज मैं जालियांवाला बाग के बारे में बहस करूंगा
जहां देश के लोग मारे गये थे विदेशी राजसत्ता की गोलियों से
जब वे उनकी गुलामी स्वीकार करने से
इनकार करने लगे थे

आज मैं भगत सिंह के बारे में बहस करूंगा
जिन्होंने इन तमाम तरह की फासीवादी ताकतों के खिलाफ
लड़ने का आह्‌वान किया था

लेकिन मैं नंदीग्राम के बारे में कोई बहस नहीं करूंगा
क्योंकि नंदीग्राम में मैंने
जालियांवाला बाग, गुजरात और सफदर की हत्या का दृश्य
एक साथ देखा है

नंदीग्राम के बारे में बहस करना
अब बेमानी है
नंदीग्राम के बाद सिर्फ पक्ष चुनना बाकी है
कि तुम किसकी तरफ से लड़ोगे

और मैंने अपना पक्ष चुन लिया है
इसलिए नंदीग्राम के बारे में मैं कोई बहस नहीं करूंगा.


-नरेंद्र कुमार

23 मार्च को शहीद भगत सिंह शहादत दिवस पर पटना में आयोजित कार्यक्रम में नंदीग्राम का जिक्र भर करने पर सीपीएम के लोगों ने वक्ता को बोलने से रोक दिया और उसके साथ दुर्व्यवहार किया. कविता इसी संदर्भ में है.
नरेंद्र कुमार राजनीतिक कार्यकर्ता हैं.
मौजूदा व्यवस्था पर प्रहार करते उनके दो उपन्यास 20वीं सदी के नायक तथा चुनाव आ चुके हैं.

Tuesday, July 8, 2008

कविता पाठ से पहले एक लम्हे का मौन




इससे पहले कि मैं यह कविता
पढ़ना शुरू करूं
मेरी गुजारिश है कि हम सब एक
मिनट का मौन रखें
ग्यारह सितंबर को वर्ल्ड टे्‌ड
सेंटर और पेंटागन में मरे लोगों
की याद में
और फिर एक मिनट का मौन
उन सब के लिए जिन्हें प्रतिशोध
में
सताया गया, कैद किया गया
जो लापता हो गए जिन्हें
यातनाएं दी गईं
जिनके साथ बलात्कार हुए, एक
मिनट का मौन
अफगानिस्तान के मजलूमों और अमरीकी मजलूमों के लिए
और अगर आप इजाजत दें तो

पूरे एक दिन का मौन
हजारों फिलिस्तीनियों के लिए
जिन्हें उनके वतन पर दशकों से
काबिज
इस्राइली फौजों ने अमेरीकी
सरपरस्ती में मार डाला
छह महीने का मौन उन पंद्रह
लाख इराकियों के लिए, जिन्हें
मार डाला
ग्यारह साल लंबी घेराबंदी, भूख
और अमरीकी बमबारी ने

इससे पहले कि मैं यह कविता
शुरू करूं

दो महीने का मौन दक्षिण
अफ्रीका के अश्वेतों के लिए
जिन्हें नस्लवादी शासन ने
अपने ही मुल्क में अजनबी बना
दिया नौ महीने का मौन
हिरोशिमा और नागासाकी के
मृतकों के लिए, जगहां मौत बरसी
चमड़ी, जमीन, फौलाद और
कंक्रीट की हर परत को उधेड़ती
हुई
जहां बचे रह गए लोग इस तरह
चलते-फिरते रहे जैसे कि जिंदा हों
एक साल का मौन वियतनाम के
लाखों मुरदों के लिए
...कि वियतनाम किसी जंग का
नहीं, एक मुल्क का नाम है...
एक साल का मौन कंबोडिया
और लाओस के मृतकों के लिए
जो
एक गुप्त युद्ध का शिकार
थे... और जरा धीरे बोलिए,
हम नहीं चाहते कि उन्हें पता चले कि वे मर चुके हैं. दो महीने
का मौन
कोलंबिया के दीर्घकालीन मृतकों
के लिए जिनके नाम उनकी
लाशों की तरह
जमा होते रहे, फिर गुम हो गए
और जबान से उतर गए.
इससे पहले
कि मैं कविता
शुरू करूं

एक घंटे का मौन एल सल्वादोर
के लिए
एक दोपहर भर का मौन
निकारागुआ के लिए
दो दिन का मौन ग्वातेमालावासियों के लिए
जिन्हें अपनी जिंदगी में चैन की
एक घड़ी नसीब नहीं हुई.45
सेकेंड का मौन
आकतिआल, चियापास में मरे
45 लोगों के लिए
और पच्चीस साल का मौन उन
करोड़ों गुलाम अफ्रीकियों के लिए
जिनकी कब्रें समुंदर में हैं इतनी
गहरी कि जितनी उंची कोई
गगनचुंबी इमारत भी न होगी.
उनकी पहचान के लिए कोई
डीएनए टेस्ट नहीं होगा, दंत
चिकित्सा के रिकार्ड नहीं खोले
जाएंगे.

उन अश्वेतों के लिए जिनकी
लाशें गूलर के पेड़ों पर झूलती
थीं
दक्षिण, उत्तर, पूर्व और पश्चिम

एक सदी का मौन

यहीं इसी अमरीका महाद्वीप के
करोड़ों मूल बाशिंदों के लिए
जिनकी जमीनें और जिंदगियां
उनसे छीन ली गईं
पिक्चर पोस्टकार्ड से मनोरम
खित्तों में... जैसे पाइन रिज,
वूंडेड नी, सैंड क्रीक, फालन
टिंबर्स या
ट्ेल ऑफ टिअर्स अब ये नाम
हमारी चेतना के फ्रिजों पर
चिपकी चुंबकीय काव्य पंक्तियां
भर हैं.

तो आपको चाहिए खामोशी का
एक लम्हा?
जबकि हम बेआवाज हैं
हमारे मुंहों से खिंच ली गई हैं
जबानें
हमारी आंखें-सी दी गई हैं
खामोशी का एक लम्हा
जबकि सारे कवि दफनाये जा
चुके हैं
मिट्टी हो चुके हैं सारे ढोल

इससे पहले कि मैं यह कविता
शुरू करूं
आप चाहते हैं एक लम्हे का मौन
आपको गम है कि यह दुनिया
शायद पहले जैसी नहीं रह
जाएगी
इधर हम सब चाहते हैं कि यह
पहले जैसी हर्गिज न रहे.
कम-से-कम वैसे जैसी यह अब
तक चली आई है.

क्योंकि यह कविता 9/10 के
बारे में नहीं है
यह 9/10 के बारे में है
यह 9/9 के बारे में है
9/8 और 9/7 के बारे में है
यह कविता 1942 के बारे में हैं

यह कविता उन चीजों के बारे में
है जो ऐसी कविता का कारण
बनती है.
और अगर यह कविता 9/11
के बारे में है तो फिर
यह सितंबर 9, 1917 के चिले
देश के बारे में है. यह सितंबर
12, 1977 दक्षिण अफ्रीका
और स्टीवेन बीको के बारे में हैं.
यह 13 सितंबर 1971 और
एटिका जेल, न्यूयॉर्क में बंद
हमारे भाइयों के बारे में है.

यह कविता सोमालिया, सितंबर
14, 1992 के बारे में है.

यह कविता हर उस तारीख के
बारे में है जो धुल-पुंछ कर मिट
जाया करती है. यह कविता उन
110 कहानियों के बारे में है जो
कभी कहीं नहीं गईं.110
कहानियां, इतिहास की
पाठ्यपुस्तकों में जिनका कोई
जिक्र नहीं पाया जाता, जिनके
लिए सीएनएन, बीबीसी,
न्यूयॉर्क टाइम्स और न्यूजवीक
में कोई गुंजाइश नहीं निकलतीं.
यह कविता इसी कार्यक्रम में
रुकावट डालने के लिए है

आपको फिर भी अपने मृतकों
की याद में एक लम्हे का मौन
चाहिए?
हम आपको दे सकते हैं
जीवन भर का खालीपन
बिना निशान की कब्रें
हमेशा के लिए खो चुकी भाषाएं
जड़ों से उखड़े हुए दरख्त, जड़ों
से उखड़े हुए इतिहास
अनाम बच्चों के चेहरे से झांकती
मुरदा टकटकी
इस कविता को शुरू करने से
पहले हम हमेशा के लिए खामोश
हो सकते हैं
या इतना कि हम धूल से ढंक
जायें
फिर भी आप चाहेंगे कि
हमारी ओर से कुछ और मौन.

अगर आपको चाहिए एक लम्हा
मौन
तो रोक दो तेल के पंप
बंद कर दो इंजन और
टेलीविजन
डुबा दो समुद्री सैरवाले जहाज
फोड़ दो अपने स्टॉक मार्केट
बुझा दो ये तमाम रंगीन बत्तियां
डिलिट कर दो सारे इंस्टेंट मैसेज
उतार दो पटरियों से अपनी रेलें
और लाइट रेल टंजिट

अगर आपको चाहिए एक लम्हा
मौन, तो टैको बैल की खिड़की
पर ईंट मारो,
और वहां से मजदूरों का खोया हुआ वेतन वापस दो. ध्वस्त कर
दो तमाम
शराब की दुकानें, सारे के सारे
टाउन हाउस, ह्‌वाइट हाउस,
जेल हाउस, पेंट हाउस और
प्लेब्वाय
अगर आपको चाहिए एक लम्हा
मौन
तो रहो मौन सुपर बॉल
इतवार के दिन
फोर्थ ऑफ जुलाई के रोज
डेटन की विराट 13 घंटेवाली
सेल के दिन
या अगली दफे जब कमरे में
हमारे हसीन लोग जमा हों
और आपका गोरा अपराधबोध
आपको सताने लगे.

अगर आपको चाहिए एक लम्हा
मौन
तो अभी है वह लम्हा
इस कविता के शुरू होने से
पहले
-एमानुएल ओर्तीज



11 सितंबर 2002
1. 1942 के साल कोलंबस अमेरीकी महाद्वीप जा पहुंचा था.
2. टैको बैल : अमेरिका की एक बड़ी फास्ट फूड चेन है.
3. सुपर बॉल : अमेरिकी फुटबॉल की राष्ट्ीय चैंपियनशिप के फाइनल का दिन इस दिन अमेरिका में गैरसरकारी तौर पर राष्ट्ीय छुट्टी हो जाती है.
4. फोर्थ ऑफ जुलाई : अमेरीका का स्वतंत्रता दिवस और राष्ट्ीय छुट्टी का दिन 14 जुलर्ाी, 1775 को अमेरिका में डिक्लियरेशन ऑफ इंडिपेंडेंस पारित किया गया था.
5. डेटन : मिनियापोलिस नामक अमरीकी शहर का मशहूर डिपार्टमेंटल स्टोर

एमानुएल ओर्तीज मेक्सिको पुएर्तोरिको मूल के युवा कवि हैं और मिनियोपोलिस शहर में रहते हैं. इनके कई कविता संकलन प्रकाशित हैं. वह एक कवि- संगठनकर्ता हं और आदि अमेरिकी बाशिंदों, विभिन्न प्रवासी समुदायों और अल्पसंख्यक अधिकारों के लिए सक्रिय कई प्रगतिशील संगठनों से जुड़े हुए हैं

अनुवाद : असद जैदी
पहल से साभार

मधुशाला



मृदु भावों के अंगूरों की आज बना लाया हाला,
प्रियतम, अपने ही हाथों से आज पिलाऊँगा प्याला,
पहले भोग लगा लूँ तेरा फिर प्रसाद जग पाएगा,
सबसे पहले तेरा स्वागत करती मेरी मधुशाला।।१।

प्यास तुझे तो, विश्व तपाकर पूर्ण निकालूँगा हाला,
एक पाँव से साकी बनकर नाचूँगा लेकर प्याला,
जीवन की मधुता तो तेरे ऊपर कब का वार चुका,
आज निछावर कर दूँगा मैं तुझ पर जग की मधुशाला।।२।

प्रियतम, तू मेरी हाला है, मैं तेरा प्यासा प्याला,
अपने को मुझमें भरकर तू बनता है पीनेवाला,
मैं तुझको छक छलका करता, मस्त मुझे पी तू होता,
एक दूसरे की हम दोनों आज परस्पर मधुशाला।।३।

भावुकता अंगूर लता से खींच कल्पना की हाला,
कवि साकी बनकर आया है भरकर कविता का प्याला,
कभी न कण-भर खाली होगा लाख पिएँ, दो लाख पिएँ!
पाठकगण हैं पीनेवाले, पुस्तक मेरी मधुशाला।।४।

मधुर भावनाओं की सुमधुर नित्य बनाता हूँ हाला,
भरता हूँ इस मधु से अपने अंतर का प्यासा प्याला,
उठा कल्पना के हाथों से स्वयं उसे पी जाता हूँ,
अपने ही में हूँ मैं साकी, पीनेवाला, मधुशाला।।५।

मदिरालय जाने को घर से चलता है पीनेवला,
‘किस पथ से जाऊँ?’ असमंजस में है वह भोलाभाला,
अलग-अलग पथ बतलाते सब पर मैं यह बतलाता हूँ -
‘राह पकड़ तू एक चला चल, पा जाएगा मधुशाला।’। ६।

चलने ही चलने में कितना जीवन, हाय, बिता डाला!
‘दूर अभी है’, पर, कहता है हर पथ बतलानेवाला,
हिम्मत है न बढूँ आगे को साहस है न फिरुँ पीछे,
किंकर्तव्यविमूढ़ मुझे कर दूर खड़ी है मधुशाला।।७।

मुख से तू अविरत कहता जा मधु, मदिरा, मादक हाला,
हाथों में अनुभव करता जा एक ललित कल्पित प्याला,
ध्यान किए जा मन में सुमधुर सुखकर, सुंदर साकी का,
और बढ़ा चल, पथिक, न तुझको दूर लगेगी मधुशाला।।८।

मदिरा पीने की अभिलाषा ही बन जाए जब हाला,
अधरों की आतुरता में ही जब आभासित हो प्याला,
बने ध्यान ही करते-करते जब साकी साकार, सखे,
रहे न हाला, प्याला, साकी, तुझे मिलेगी मधुशाला।।९।

सुन, कलकल़ , छलछल़ मधुघट से गिरती प्यालों में हाला,
सुन, रूनझुन रूनझुन चल वितरण करती मधु साकीबाला,
बस आ पहुंचे, दुर नहीं कुछ, चार कदम अब चलना है,
चहक रहे, सुन, पीनेवाले, महक रही, ले, मधुशाला।।१०।

जलतरंग बजता, जब चुंबन करता प्याले को प्याला,
वीणा झंकृत होती, चलती जब रूनझुन साकीबाला,
डाँट डपट मधुविक्रेता की ध्वनित पखावज करती है,
मधुरव से मधु की मादकता और बढ़ाती मधुशाला।।११।

मेंहदी रंजित मृदुल हथेली पर माणिक मधु का प्याला,
अंगूरी अवगुंठन डाले स्वर्ण वर्ण साकीबाला,
पाग बैंजनी, जामा नीला डाट डटे पीनेवाले,
इन्द्रधनुष से होड़ लगाती आज रंगीली मधुशाला।।१२।

हाथों में आने से पहले नाज़ दिखाएगा प्याला,
अधरों पर आने से पहले अदा दिखाएगी हाला,
बहुतेरे इनकार करेगा साकी आने से पहले,
पथिक, न घबरा जाना, पहले मान करेगी मधुशाला।।१३।

लाल सुरा की धार लपट सी कह न इसे देना ज्वाला,
फेनिल मदिरा है, मत इसको कह देना उर का छाला,
दर्द नशा है इस मदिरा का विगत स्मृतियाँ साकी हैं,
पीड़ा में आनंद जिसे हो, आए मेरी मधुशाला।।१४।

जगती की शीतल हाला सी पथिक, नहीं मेरी हाला,
जगती के ठंडे प्याले सा पथिक, नहीं मेरा प्याला,
ज्वाल सुरा जलते प्याले में दग्ध हृदय की कविता है,
जलने से भयभीत न जो हो, आए मेरी मधुशाला।।१५।

बहती हाला देखी, देखो लपट उठाती अब हाला,
देखो प्याला अब छूते ही होंठ जला देनेवाला,
‘होंठ नहीं, सब देह दहे, पर पीने को दो बूंद मिले’
ऐसे मधु के दीवानों को आज बुलाती मधुशाला।।१६।

धर्मग्रन्थ सब जला चुकी है, जिसके अंतर की ज्वाला,
मंदिर, मसजिद, गिरिजे, सब को तोड़ चुका जो मतवाला,
पंडित, मोमिन, पादिरयों के फंदों को जो काट चुका,
कर सकती है आज उसी का स्वागत मेरी मधुशाला।।१७।

लालायित अधरों से जिसने, हाय, नहीं चूमी हाला,
हर्ष-विकंपित कर से जिसने, हा, न छुआ मधु का प्याला,
हाथ पकड़ लज्जित साकी को पास नहीं जिसने खींचा,
व्यर्थ सुखा डाली जीवन की उसने मधुमय मधुशाला।।१८।

बने पुजारी प्रेमी साकी, गंगाजल पावन हाला,
रहे फेरता अविरत गति से मधु के प्यालों की माला’
‘और लिये जा, और पीये जा’, इसी मंत्र का जाप करे’
मैं शिव की प्रतिमा बन बैठूं, मंदिर हो यह मधुशाला।।१९।

बजी न मंदिर में घड़ियाली, चढ़ी न प्रतिमा पर माला,
बैठा अपने भवन मुअज्ज़िन देकर मस्जिद में ताला,
लुटे ख़जाने नरपितयों के गिरीं गढ़ों की दीवारें,
रहें मुबारक पीनेवाले, खुली रहे यह मधुशाला।।२०।

बड़े बड़े पिरवार मिटें यों, एक न हो रोनेवाला,
हो जाएँ सुनसान महल वे, जहाँ थिरकतीं सुरबाला,
राज्य उलट जाएँ, भूपों की भाग्य सुलक्ष्मी सो जाए,
जमे रहेंगे पीनेवाले, जगा करेगी मधुशाला।।२१।

सब मिट जाएँ, बना रहेगा सुन्दर साकी, यम काला,
सूखें सब रस, बने रहेंगे, किन्तु, हलाहल औ’ हाला,
धूमधाम औ’ चहल पहल के स्थान सभी सुनसान बनें,
झगा करेगा अविरत मरघट, जगा करेगी मधुशाला।।२२।

भुरा सदा कहलायेगा जग में बाँका, मदचंचल प्याला,
छैल छबीला, रसिया साकी, अलबेला पीनेवाला,
पटे कहाँ से, मधु औ’ जग की जोड़ी ठीक नहीं,
जग जर्जर प्रतिदन, प्रतिक्षण, पर नित्य नवेली मधुशाला।।२३।

बिना पिये जो मधुशाला को बुरा कहे, वह मतवाला,
पी लेने पर तो उसके मुह पर पड़ जाएगा ताला,
दास द्रोहियों दोनों में है जीत सुरा की, प्याले की,
विश्वविजयिनी बनकर जग में आई मेरी मधुशाला।।२४।

हरा भरा रहता मदिरालय, जग पर पड़ जाए पाला,
वहाँ मुहर्रम का तम छाए, यहाँ होलिका की ज्वाला,
स्वर्ग लोक से सीधी उतरी वसुधा पर, दुख क्या जाने,
पढ़े मर्सिया दुनिया सारी, ईद मनाती मधुशाला।।२५।

एक बरस में, एक बार ही जगती होली की ज्वाला,
एक बार ही लगती बाज़ी, जलती दीपों की माला,
दुनियावालों, किन्तु, किसी दिन आ मदिरालय में देखो,
दिन को होली, रात दिवाली, रोज़ मनाती मधुशाला।।२६।

नहीं जानता कौन, मनुज आया बनकर पीनेवाला,
कौन अपिरिचत उस साकी से, जिसने दूध पिला पाला,
जीवन पाकर मानव पीकर मस्त रहे, इस कारण ही,
जग में आकर सबसे पहले पाई उसने मधुशाला।।२७।

बनी रहें अंगूर लताएँ जिनसे मिलती है हाला,
बनी रहे वह मिटटी जिससे बनता है मधु का प्याला,
बनी रहे वह मदिर पिपासा तृप्त न जो होना जाने,
बनें रहें ये पीने वाले, बनी रहे यह मधुशाला।।२८।

सकुशल समझो मुझको, सकुशल रहती यदि साकीबाला,
मंगल और अमंगल समझे मस्ती में क्या मतवाला,
मित्रों, मेरी क्षेम न पूछो आकर, पर मधुशाला की,
कहा करो ‘जय राम’ न मिलकर, कहा करो ‘जय मधुशाला’।।२९।

सूर्य बने मधु का विक्रेता, सिंधु बने घट, जल, हाला,
बादल बन-बन आए साकी, भूमि बने मधु का प्याला,
झड़ी लगाकर बरसे मदिरा रिमझिम, रिमझिम, रिमझिम कर,
बेलि, विटप, तृण बन मैं पीऊँ, वर्षा ऋतु हो मधुशाला।।३०।

तारक मणियों से सज्जित नभ बन जाए मधु का प्याला,
सीधा करके भर दी जाए उसमें सागरजल हाला,
मज्ञल्तऌा समीरण साकी बनकर अधरों पर छलका जाए,
फैले हों जो सागर तट से विश्व बने यह मधुशाला।।३१।

अधरों पर हो कोई भी रस जिहवा पर लगती हाला,
भाजन हो कोई हाथों में लगता रक्खा है प्याला,
हर सूरत साकी की सूरत में परिवर्तित हो जाती,
आँखों के आगे हो कुछ भी, आँखों में है मधुशाला।।३२।

पौधे आज बने हैं साकी ले ले फूलों का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर पिरमल-मधु-सुरिभत हाला,
माँग माँगकर भ्रमरों के दल रस की मदिरा पीते हैं,
झूम झपक मद-झंपित होते, उपवन क्या है मधुशाला!।३३।

प्रति रसाल तरू साकी सा है, प्रति मंजरिका है प्याला,
छलक रही है जिसके बाहर मादक सौरभ की हाला,
छक जिसको मतवाली कोयल कूक रही डाली डाली
हर मधुऋतु में अमराई में जग उठती है मधुशाला।।३४।

मंद झकोरों के प्यालों में मधुऋतु सौरभ की हाला
भर भरकर है अनिल पिलाता बनकर मधु-मद-मतवाला,
हरे हरे नव पल्लव, तरूगण, नूतन डालें, वल्लरियाँ,
छक छक, झुक झुक झूम रही हैं, मधुबन में है मधुशाला।।३५।

साकी बन आती है प्रातः जब अरुणा ऊषा बाला,
तारक-मणि-मंडित चादर दे मोल धरा लेती हाला,
अगणित कर-किरणों से जिसको पी, खग पागल हो गाते,
प्रति प्रभात में पूर्ण प्रकृति में मुखिरत होती मधुशाला।।३६।

उतर नशा जब उसका जाता, आती है संध्या बाला,
बड़ी पुरानी, बड़ी नशीली नित्य ढला जाती हाला,
जीवन के संताप शोक सब इसको पीकर मिट जाते
सुरा-सुप्त होते मद-लोभी जागृत रहती मधुशाला।।३७।

अंधकार है मधुविक्रेता, सुन्दर साकी शशिबाला
किरण किरण में जो छलकाती जाम जुम्हाई का हाला,
पीकर जिसको चेतनता खो लेने लगते हैं झपकी
तारकदल से पीनेवाले, रात नहीं है, मधुशाला।।३८।

किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देती हाला
किसी ओर मैं आँखें फेरूँ, दिखलाई देता प्याला,
किसी ओर मैं देखूं, मुझको दिखलाई देता साकी
किसी ओर देखूं, दिखलाई पड़ती मुझको मधुशाला।।३९।

साकी बन मुरली आई साथ लिए कर में प्याला,
जिनमें वह छलकाती लाई अधर-सुधा-रस की हाला,
योगिराज कर संगत उसकी नटवर नागर कहलाए,
देखो कैसों-कैसों को है नाच नचाती मधुशाला।।४०।

वादक बन मधु का विक्रेता लाया सुर-सुमधुर-हाला,
रागिनियाँ बन साकी आई भरकर तारों का प्याला,
विक्रेता के संकेतों पर दौड़ लयों, आलापों में,
पान कराती श्रोतागण को, झंकृत वीणा मधुशाला।।४१।

चित्रकार बन साकी आता लेकर तूली का प्याला,
जिसमें भरकर पान कराता वह बहु रस-रंगी हाला,
मन के चित्र जिसे पी-पीकर रंग-बिरंगे हो जाते,
चित्रपटी पर नाच रही है एक मनोहर मधुशाला।।४२।

घन श्यामल अंगूर लता से खिंच खिंच यह आती हाला,
अरूण-कमल-कोमल कलियों की प्याली, फूलों का प्याला,
लोल हिलोरें साकी बन बन माणिक मधु से भर जातीं,
हंस मज्ञल्तऌा होते पी पीकर मानसरोवर मधुशाला।।४३।

हिम श्रेणी अंगूर लता-सी फैली, हिम जल है हाला,
चंचल नदियाँ साकी बनकर, भरकर लहरों का प्याला,
कोमल कूर-करों में अपने छलकाती निशिदिन चलतीं,
पीकर खेत खड़े लहराते, भारत पावन मधुशाला।।४४।

धीर सुतों के हृदय रक्त की आज बना रक्तिम हाला,
वीर सुतों के वर शीशों का हाथों में लेकर प्याला,
अति उदार दानी साकी है आज बनी भारतमाता,
स्वतंत्रता है तृषित कालिका बलिवेदी है मधुशाला।।४५।

दुतकारा मस्जिद ने मुझको कहकर है पीनेवाला,
ठुकराया ठाकुरद्वारे ने देख हथेली पर प्याला,
कहाँ ठिकाना मिलता जग में भला अभागे काफिर को?
शरणस्थल बनकर न मुझे यदि अपना लेती मधुशाला।।४६।

पथिक बना मैं घूम रहा हूँ, सभी जगह मिलती हाला,
सभी जगह मिल जाता साकी, सभी जगह मिलता प्याला,
मुझे ठहरने का, हे मित्रों, कष्ट नहीं कुछ भी होता,
मिले न मंदिर, मिले न मस्जिद, मिल जाती है मधुशाला।।४७।

सजें न मस्जिद और नमाज़ी कहता है अल्लाताला,
सजधजकर, पर, साकी आता, बन ठनकर, पीनेवाला,
शेख, कहाँ तुलना हो सकती मस्जिद की मदिरालय से
चिर विधवा है मस्जिद तेरी, सदा सुहागिन मधुशाला।।४८।

बजी नफ़ीरी और नमाज़ी भूल गया अल्लाताला,
गाज गिरी, पर ध्यान सुरा में मग्न रहा पीनेवाला,
शेख, बुरा मत मानो इसको, साफ़ कहूँ तो मस्जिद को
अभी युगों तक सिखलाएगी ध्यान लगाना मधुशाला!।४९।

मुसलमान औ’ हिन्दू है दो, एक, मगर, उनका प्याला,
एक, मगर, उनका मदिरालय, एक, मगर, उनकी हाला,
दोनों रहते एक न जब तक मस्जिद मन्दिर में जाते,
बैर बढ़ाते मस्जिद मन्दिर मेल कराती मधुशाला!।५०।

कोई भी हो शेख नमाज़ी या पंडित जपता माला,
बैर भाव चाहे जितना हो मदिरा से रखनेवाला,
एक बार बस मधुशाला के आगे से होकर निकले,
देखूँ कैसे थाम न लेती दामन उसका मधुशाला!।५१।

और रसों में स्वाद तभी तक, दूर जभी तक है हाला,
इतरा लें सब पात्र न जब तक, आगे आता है प्याला,
कर लें पूजा शेख, पुजारी तब तक मस्जिद मन्दिर में
घूँघट का पट खोल न जब तक झाँक रही है मधुशाला।।५२।

आज करे परहेज़ जगत, पर, कल पीनी होगी हाला,
आज करे इन्कार जगत पर कल पीना होगा प्याला,
होने दो पैदा मद का महमूद जगत में कोई, फिर
जहाँ अभी हैं मन्िदर मस्जिद वहाँ बनेगी मधुशाला।।५३।

यज्ञ अग्नि सी धधक रही है मधु की भटठी की ज्वाला,
ऋषि सा ध्यान लगा बैठा है हर मदिरा पीने वाला,
मुनि कन्याओं सी मधुघट ले फिरतीं साकीबालाएँ,
किसी तपोवन से क्या कम है मेरी पावन मधुशाला।।५४।

सोम सुरा पुरखे पीते थे, हम कहते उसको हाला,
द्रोणकलश जिसको कहते थे, आज वही मधुघट आला,
वेदिवहित यह रस्म न छोड़ो वेदों के ठेकेदारों,
युग युग से है पुजती आई नई नहीं है मधुशाला।।५५।

वही वारूणी जो थी सागर मथकर निकली अब हाला,
रंभा की संतान जगत में कहलाती ‘साकीबाला’,
देव अदेव जिसे ले आए, संत महंत मिटा देंगे!
किसमें कितना दम खम, इसको खूब समझती मधुशाला।।५६।

कभी न सुन पड़ता, ‘इसने, हा, छू दी मेरी हाला’,
कभी न कोई कहता, ‘उसने जूठा कर डाला प्याला’,
सभी जाति के लोग यहाँ पर साथ बैठकर पीते हैं,
सौ सुधारकों का करती है काम अकेले मधुशाला।।५७।

श्रम, संकट, संताप, सभी तुम भूला करते पी हाला,
सबक बड़ा तुम सीख चुके यदि सीखा रहना मतवाला,
व्यर्थ बने जाते हो हिरजन, तुम तो मधुजन ही अच्छे,
ठुकराते हिर मंिदरवाले, पलक बिछाती मधुशाला।।५८।

एक तरह से सबका स्वागत करती है साकीबाला,
अज्ञ विज्ञ में है क्या अंतर हो जाने पर मतवाला,
रंक राव में भेद हुआ है कभी नहीं मदिरालय में,
साम्यवाद की प्रथम प्रचारक है यह मेरी मधुशाला।।५९।

बार बार मैंने आगे बढ़ आज नहीं माँगी हाला,
समझ न लेना इससे मुझको साधारण पीने वाला,
हो तो लेने दो ऐ साकी दूर प्रथम संकोचों को,
मेरे ही स्वर से फिर सारी गूँज उठेगी मधुशाला।।६०।

कल? कल पर विश्वास किया कब करता है पीनेवाला
हो सकते कल कर जड़ जिनसे फिर फिर आज उठा प्याला,
आज हाथ में था, वह खोया, कल का कौन भरोसा है,
कल की हो न मुझे मधुशाला काल कुटिल की मधुशाला।।६१।

आज मिला अवसर, तब फिर क्यों मैं न छकूँ जी-भर हाला
आज मिला मौका, तब फिर क्यों ढाल न लूँ जी-भर प्याला,
छेड़छाड़ अपने साकी से आज न क्यों जी-भर कर लूँ,
एक बार ही तो मिलनी है जीवन की यह मधुशाला।।६२।

आज सजीव बना लो, प्रेयसी, अपने अधरों का प्याला,
भर लो, भर लो, भर लो इसमें, यौवन मधुरस की हाला,
और लगा मेरे होठों से भूल हटाना तुम जाओ,
अथक बनू मैं पीनेवाला, खुले प्रणय की मधुशाला।।६३।

सुमुखी तुम्हारा, सुन्दर मुख ही, मुझको कन्चन का प्याला
छलक रही है जिसमंे माणिक रूप मधुर मादक हाला,
मैं ही साकी बनता, मैं ही पीने वाला बनता हूँ
जहाँ कहीं मिल बैठे हम तुम़ वहीं गयी हो मधुशाला।।६४।

दो दिन ही मधु मुझे पिलाकर ऊब उठी साकीबाला,
भरकर अब खिसका देती है वह मेरे आगे प्याला,
नाज़, अदा, अंदाजों से अब, हाय पिलाना दूर हुआ,
अब तो कर देती है केवल फ़र्ज़ -अदाई मधुशाला।।६५।

छोटे-से जीवन में कितना प्यार करुँ, पी लूँ हाला,
आने के ही साथ जगत में कहलाया ‘जानेवाला’,
स्वागत के ही साथ विदा की होती देखी तैयारी,
बंद लगी होने खुलते ही मेरी जीवन-मधुशाला।।६६।

क्या पीना, निर्द्वन्द न जब तक ढाला प्यालों पर प्याला,
क्या जीना, निरंिचत न जब तक साथ रहे साकीबाला,
खोने का भय, हाय, लगा है पाने के सुख के पीछे,
मिलने का आनंद न देती मिलकर के भी मधुशाला।।६७।

मुझे पिलाने को लाए हो इतनी थोड़ी-सी हाला!
मुझे दिखाने को लाए हो एक यही छिछला प्याला!
इतनी पी जीने से अच्छा सागर की ले प्यास मरुँ,
सिंधँु-तृषा दी किसने रचकर बिंदु-बराबर मधुशाला।।६८।

क्या कहता है, रह न गई अब तेरे भाजन में हाला,
क्या कहता है, अब न चलेगी मादक प्यालों की माला,
थोड़ी पीकर प्यास बढ़ी तो शेष नहीं कुछ पीने को,
प्यास बुझाने को बुलवाकर प्यास बढ़ाती मधुशाला।।६९।

लिखी भाग्य में जितनी बस उतनी ही पाएगा हाला,
लिखा भाग्य में जैसा बस वैसा ही पाएगा प्याला,
लाख पटक तू हाथ पाँव, पर इससे कब कुछ होने का,
लिखी भाग्य में जो तेरे बस वही मिलेगी मधुशाला।।७०।

कर ले, कर ले कंजूसी तू मुझको देने में हाला,
दे ले, दे ले तू मुझको बस यह टूटा फूटा प्याला,
मैं तो सब्र इसी पर करता, तू पीछे पछताएगी,
जब न रहूँगा मैं, तब मेरी याद करेगी मधुशाला।।७१।

ध्यान मान का, अपमानों का छोड़ दिया जब पी हाला,
गौरव भूला, आया कर में जब से मिट्टी का प्याला,
साकी की अंदाज़ भरी झिड़की में क्या अपमान धरा,
दुनिया भर की ठोकर खाकर पाई मैंने मधुशाला।।७२।

क्षीण, क्षुद्र, क्षणभंगुर, दुर्बल मानव मिटटी का प्याला,
भरी हुई है जिसके अंदर कटु-मधु जीवन की हाला,
मृत्यु बनी है निर्दय साकी अपने शत-शत कर फैला,
काल प्रबल है पीनेवाला, संसृति है यह मधुशाला।।७३।

प्याले सा गढ़ हमें किसी ने भर दी जीवन की हाला,
नशा न भाया, ढाला हमने ले लेकर मधु का प्याला,
जब जीवन का दर्द उभरता उसे दबाते प्याले से,
जगती के पहले साकी से जूझ रही है मधुशाला।।७४।

अपने अंगूरों से तन में हमने भर ली है हाला,
क्या कहते हो, शेख, नरक में हमें तपाएगी ज्वाला,
तब तो मदिरा खूब खिंचेगी और पिएगा भी कोई,
हमें नमक की ज्वाला में भी दीख पड़ेगी मधुशाला।।७५।

यम आएगा लेने जब, तब खूब चलूँगा पी हाला,
पीड़ा, संकट, कष्ट नरक के क्या समझेगा मतवाला,
क्रूर, कठोर, कुटिल, कुविचारी, अन्यायी यमराजों के
डंडों की जब मार पड़ेगी, आड़ करेगी मधुशाला।।७६।

यदि इन अधरों से दो बातें प्रेम भरी करती हाला,
यदि इन खाली हाथों का जी पल भर बहलाता प्याला,
हानि बता, जग, तेरी क्या है, व्यर्थ मुझे बदनाम न कर,
मेरे टूटे दिल का है बस एक खिलौना मधुशाला।।७७।

याद न आए दूखमय जीवन इससे पी लेता हाला,
जग चिंताओं से रहने को मुक्त, उठा लेता प्याला,
शौक, साध के और स्वाद के हेतु पिया जग करता है,
पर मै वह रोगी हूँ जिसकी एक दवा है मधुशाला।।७८।

गिरती जाती है दिन प्रतिदन प्रणयनी प्राणों की हाला
भग्न हुआ जाता दिन प्रतिदन सुभगे मेरा तन प्याला,
रूठ रहा है मुझसे रूपसी, दिन दिन यौवन का साकी
सूख रही है दिन दिन सुन्दरी, मेरी जीवन मधुशाला।।७९।

यम आयेगा साकी बनकर साथ लिए काली हाला,
पी न होश में फिर आएगा सुरा-विसुध यह मतवाला,
यह अंितम बेहोशी, अंतिम साकी, अंतिम प्याला है,
पथिक, प्यार से पीना इसको फिर न मिलेगी मधुशाला।८०।

ढलक रही है तन के घट से, संगिनी जब जीवन हाला
पत्र गरल का ले जब अंतिम साकी है आनेवाला,
हाथ स्पर्श भूले प्याले का, स्वाद सुरा जीव्हा भूले
कानो में तुम कहती रहना, मधु का प्याला मधुशाला।।८१।

मेरे अधरों पर हो अंितम वस्तु न तुलसीदल प्याला
मेरी जीव्हा पर हो अंतिम वस्तु न गंगाजल हाला,
मेरे शव के पीछे चलने वालों याद इसे रखना
राम नाम है सत्य न कहना, कहना सच्ची मधुशाला।।८२।

मेरे शव पर वह रोये, हो जिसके आंसू में हाला
आह भरे वो, जो हो सुरिभत मदिरा पी कर मतवाला,
दे मुझको वो कान्धा जिनके पग मद डगमग होते हों
और जलूं उस ठौर जहां पर कभी रही हो मधुशाला।।८३।

और चिता पर जाये उंढेला पत्र न घ्रित का, पर प्याला
कंठ बंधे अंगूर लता में मध्य न जल हो, पर हाला,
प्राण प्रिये यदि श्राध करो तुम मेरा तो ऐसे करना
पीने वालांे को बुलवा कऱ खुलवा देना मधुशाला।।८४।

नाम अगर कोई पूछे तो, कहना बस पीनेवाला
काम ढालना, और ढालना सबको मदिरा का प्याला,
जाति प्रिये, पूछे यदि कोई कह देना दीवानों की
धर्म बताना प्यालों की ले माला जपना मधुशाला।।८५।

ज्ञात हुआ यम आने को है ले अपनी काली हाला,
पंिडत अपनी पोथी भूला, साधू भूल गया माला,
और पुजारी भूला पूजा, ज्ञान सभी ज्ञानी भूला,
किन्तु न भूला मरकर के भी पीनेवाला मधुशाला।।८६।

यम ले चलता है मुझको तो, चलने दे लेकर हाला,
चलने दे साकी को मेरे साथ लिए कर में प्याला,
स्वर्ग, नरक या जहाँ कहीं भी तेरा जी हो लेकर चल,
ठौर सभी हैं एक तरह के साथ रहे यदि मधुशाला।।८७।

पाप अगर पीना, समदोषी तो तीनों - साकी बाला,
नित्य पिलानेवाला प्याला, पी जानेवाली हाला,
साथ इन्हें भी ले चल मेरे न्याय यही बतलाता है,
कैद जहाँ मैं हूँ, की जाए कैद वहीं पर मधुशाला।।८८।

शांत सकी हो अब तक, साकी, पीकर किस उर की ज्वाला,
‘और, और’ की रटन लगाता जाता हर पीनेवाला,
कितनी इच्छाएँ हर जानेवाला छोड़ यहाँ जाता!
कितने अरमानों की बनकर कब्र खड़ी है मधुशाला।।८९।

जो हाला मैं चाह रहा था, वह न मिली मुझको हाला,
जो प्याला मैं माँग रहा था, वह न मिला मुझको प्याला,
जिस साकी के पीछे मैं था दीवाना, न मिला साकी,
जिसके पीछे था मैं पागल, हा न मिली वह मधुशाला!।९०।

देख रहा हूँ अपने आगे कब से माणिक-सी हाला,
देख रहा हूँ अपने आगे कब से कंचन का प्याला,
‘बस अब पाया!’- कह-कह कब से दौड़ रहा इसके पीछे,
किंतु रही है दूर क्षितिज-सी मुझसे मेरी मधुशाला।।९१।

कभी निराशा का तम घिरता, छिप जाता मधु का प्याला,
छिप जाती मदिरा की आभा, छिप जाती साकीबाला,
कभी उजाला आशा करके प्याला फिर चमका जाती,
आँखिमचौली खेल रही है मुझसे मेरी मधुशाला।।९२।

‘आ आगे’ कहकर कर पीछे कर लेती साकीबाला,
होंठ लगाने को कहकर हर बार हटा लेती प्याला,
नहीं मुझे मालूम कहाँ तक यह मुझको ले जाएगी,
बढ़ा बढ़ाकर मुझको आगे, पीछे हटती मधुशाला।।९३।

हाथों में आने-आने में, हाय, फिसल जाता प्याला,
अधरों पर आने-आने में हाय, ढुलक जाती हाला,
दुनियावालो, आकर मेरी किस्मत की ख़ूबी देखो,
रह-रह जाती है बस मुझको मिलते-िमलते मधुशाला।।९४।

प्राप्य नही है तो, हो जाती लुप्त नहीं फिर क्यों हाला,
प्राप्य नही है तो, हो जाता लुप्त नहीं फिर क्यों प्याला,
दूर न इतनी हिम्मत हारुँ, पास न इतनी पा जाऊँ,
व्यर्थ मुझे दौड़ाती मरु में मृगजल बनकर मधुशाला।।९५।

मिले न, पर, ललचा ललचा क्यों आकुल करती है हाला,
मिले न, पर, तरसा तरसाकर क्यों तड़पाता है प्याला,
हाय, नियति की विषम लेखनी मस्तक पर यह खोद गई
‘दूर रहेगी मधु की धारा, पास रहेगी मधुशाला!’।९६।

मदिरालय में कब से बैठा, पी न सका अब तक हाला,
यत्न सहित भरता हूँ, कोई किंतु उलट देता प्याला,
मानव-बल के आगे निर्बल भाग्य, सुना विद्यालय में,
‘भाग्य प्रबल, मानव निर्बल’ का पाठ पढ़ाती मधुशाला।।९७।

किस्मत में था खाली खप्पर, खोज रहा था मैं प्याला,
ढूँढ़ रहा था मैं मृगनयनी, किस्मत में थी मृगछाला,
किसने अपना भाग्य समझने में मुझसा धोखा खाया,
किस्मत में था अवघट मरघट, ढूँढ़ रहा था मधुशाला।।९८।

उस प्याले से प्यार मुझे जो दूर हथेली से प्याला,
उस हाला से चाव मुझे जो दूर अधर से है हाला,
प्यार नहीं पा जाने में है, पाने के अरमानों में!
पा जाता तब, हाय, न इतनी प्यारी लगती मधुशाला।।९९।

साकी के पास है तिनक सी श्री, सुख, संपित की हाला,
सब जग है पीने को आतुर ले ले किस्मत का प्याला,
रेल ठेल कुछ आगे बढ़ते, बहुतेरे दबकर मरते,
जीवन का संघर्ष नहीं है, भीड़ भरी है मधुशाला।।१००।

साकी, जब है पास तुम्हारे इतनी थोड़ी सी हाला,
क्यों पीने की अभिलषा से, करते सबको मतवाला,
हम पिस पिसकर मरते हैं, तुम छिप छिपकर मुसकाते हो,
हाय, हमारी पीड़ा से है क्रीड़ा करती मधुशाला।।१०१।

साकी, मर खपकर यदि कोई आगे कर पाया प्याला,
पी पाया केवल दो बूंदों से न अधिक तेरी हाला,
जीवन भर का, हाय, पिरश्रम लूट लिया दो बूंदों ने,
भोले मानव को ठगने के हेतु बनी है मधुशाला।।१०२।

जिसने मुझको प्यासा रक्खा बनी रहे वह भी हाला,
जिसने जीवन भर दौड़ाया बना रहे वह भी प्याला,
मतवालों की जिहवा से हैं कभी निकलते शाप नहीं,
दुखी बनाय जिसने मुझको सुखी रहे वह मधुशाला!।१०३।

नहीं चाहता, आगे बढ़कर छीनूँ औरों की हाला,
नहीं चाहता, धक्के देकर, छीनूँ औरों का प्याला,
साकी, मेरी ओर न देखो मुझको तिनक मलाल नहीं,
इतना ही क्या कम आँखों से देख रहा हूँ मधुशाला।।१०४।

मद, मदिरा, मधु, हाला सुन-सुन कर ही जब हूँ मतवाला,
क्या गति होगी अधरों के जब नीचे आएगा प्याला,
साकी, मेरे पास न आना मैं पागल हो जाऊँगा,
प्यासा ही मैं मस्त, मुबारक हो तुमको ही मधुशाला।।१०५।

क्या मुझको आवश्यकता है साकी से माँगूँ हाला,
क्या मुझको आवश्यकता है साकी से चाहूँ प्याला,
पीकर मदिरा मस्त हुआ तो प्यार किया क्या मदिरा से!
मैं तो पागल हो उठता हूँ सुन लेता यदि मधुशाला।।१०६।

देने को जो मुझे कहा था दे न सकी मुझको हाला,
देने को जो मुझे कहा था दे न सका मुझको प्याला,
समझ मनुज की दुर्बलता मैं कहा नहीं कुछ भी करता,
किन्तु स्वयं ही देख मुझे अब शरमा जाती मधुशाला।।१०७।

एक समय संतुष्ट बहुत था पा मैं थोड़ी-सी हाला,
भोला-सा था मेरा साकी, छोटा-सा मेरा प्याला,
छोटे-से इस जग की मेरे स्वर्ग बलाएँ लेता था,
विस्तृत जग में, हाय, गई खो मेरी नन्ही मधुशाला!।१०८।

बहुतेरे मदिरालय देखे, बहुतेरी देखी हाला,
भाँित भाँित का आया मेरे हाथों में मधु का प्याला,
एक एक से बढ़कर, सुन्दर साकी ने सत्कार किया,
जँची न आँखों में, पर, कोई पहली जैसी मधुशाला।।१०९।

एक समय छलका करती थी मेरे अधरों पर हाला,
एक समय झूमा करता था मेरे हाथों पर प्याला,
एक समय पीनेवाले, साकी आलिंगन करते थे,
आज बनी हूँ निर्जन मरघट, एक समय थी मधुशाला।।११०।

जला हृदय की भट्टी खींची मैंने आँसू की हाला,
छलछल छलका करता इससे पल पल पलकों का प्याला,
आँखें आज बनी हैं साकी, गाल गुलाबी पी होते,
कहो न विरही मुझको, मैं हूँ चलती फिरती मधुशाला!।१११।

कितनी जल्दी रंग बदलती है अपना चंचल हाला,
कितनी जल्दी घिसने लगता हाथों में आकर प्याला,
कितनी जल्दी साकी का आकर्षण घटने लगता है,
प्रात नहीं थी वैसी, जैसी रात लगी थी मधुशाला।।११२।

बूँद बूँद के हेतु कभी तुझको तरसाएगी हाला,
कभी हाथ से छिन जाएगा तेरा यह मादक प्याला,
पीनेवाले, साकी की मीठी बातों में मत आना,
मेरे भी गुण यों ही गाती एक दिवस थी मधुशाला।।११३।

छोड़ा मैंने पथ मतों को तब कहलाया मतवाला,
चली सुरा मेरा पग धोने तोड़ा जब मैंने प्याला,
अब मानी मधुशाला मेरे पीछे पीछे फिरती है,
क्या कारण? अब छोड़ दिया है मैंने जाना मधुशाला।।११४।

यह न समझना, पिया हलाहल मैंने, जब न मिली हाला,
तब मैंने खप्पर अपनाया ले सकता था जब प्याला,
जले हृदय को और जलाना सूझा, मैंने मरघट को
अपनाया जब इन चरणों में लोट रही थी मधुशाला।।११५।

कितनी आई और गई पी इस मदिरालय में हाला,
टूट चुकी अब तक कितने ही मादक प्यालों की माला,
कितने साकी अपना अपना काम खतम कर दूर गए,
कितने पीनेवाले आए, किन्तु वही है मधुशाला।।११६।

कितने होठों को रक्खेगी याद भला मादक हाला,
कितने हाथों को रक्खेगा याद भला पागल प्याला,
कितनी शक्लों को रक्खेगा याद भला भोला साकी,
कितने पीनेवालों में है एक अकेली मधुशाला।।११७।

दर दर घूम रहा था जब मैं चिल्लाता - हाला! हाला!
मुझे न मिलता था मदिरालय, मुझे न मिलता था प्याला,
मिलन हुआ, पर नहीं मिलनसुख लिखा हुआ था किस्मत में,
मैं अब जमकर बैठ गया हँू, घूम रही है मधुशाला।।११८।

मैं मदिरालय के अंदर हूँ, मेरे हाथों में प्याला,
प्याले में मदिरालय बिंिबत करनेवाली है हाला,
इस उधेड़-बुन में ही मेरा सारा जीवन बीत गया -
मैं मधुशाला के अंदर या मेरे अंदर मधुशाला!।११९।

किसे नहीं पीने से नाता, किसे नहीं भाता प्याला,
इस जगती के मदिरालय में तरह-तरह की है हाला,
अपनी-अपनी इच्छा के अनुसार सभी पी मदमाते,
एक सभी का मादक साकी, एक सभी की मधुशाला।।१२०।

वह हाला, कर शांत सके जो मेरे अंतर की ज्वाला,
जिसमें मैं बिंिबत-प्रतिबंिबत प्रतिपल, वह मेरा प्याला,
मधुशाला वह नहीं जहाँ पर मदिरा बेची जाती है,
भेंट जहाँ मस्ती की मिलती मेरी तो वह मधुशाला।।१२१।

मतवालापन हाला से ले मैंने तज दी है हाला,
पागलपन लेकर प्याले से, मैंने त्याग दिया प्याला,
साकी से मिल, साकी में मिल अपनापन मैं भूल गया,
मिल मधुशाला की मधुता में भूल गया मैं मधुशाला।।१२२।

मदिरालय के द्वार ठोंकता किस्मत का छंछा प्याला,
गहरी, ठंडी सांसें भर भर कहता था हर मतवाला,
कितनी थोड़ी सी यौवन की हाला, हा, मैं पी पाया!
बंद हो गई कितनी जल्दी मेरी जीवन मधुशाला।।१२३।

कहाँ गया वह स्वर्गिक साकी, कहाँ गयी सुरिभत हाला,
कहँा गया स्वपिनल मदिरालय, कहाँ गया स्वर्णिम प्याला!
पीनेवालों ने मदिरा का मूल्य, हाय, कब पहचाना?
फूट चुका जब मधु का प्याला, टूट चुकी जब मधुशाला।।१२४।

अपने युग में सबको अनुपम ज्ञात हुई अपनी हाला,
अपने युग में सबको अदभुत ज्ञात हुआ अपना प्याला,
फिर भी वृद्धों से जब पूछा एक यही उज्ञल्तऌार पाया -
अब न रहे वे पीनेवाले, अब न रही वह मधुशाला!।१२५।

‘मय’ को करके शुद्ध दिया अब नाम गया उसको, ‘हाला’
‘मीना’ को ‘मधुपात्र’ दिया ‘सागर’ को नाम गया ‘प्याला’,
क्यों न मौलवी चौंकें, बिचकें तिलक-त्रिपुंडी पंिडत जी
‘मय-महिफल’ अब अपना ली है मैंने करके ‘मधुशाला’।।१२६।

कितने मर्म जता जाती है बार-बार आकर हाला,
कितने भेद बता जाता है बार-बार आकर प्याला,
कितने अर्थों को संकेतों से बतला जाता साकी,
फिर भी पीनेवालों को है एक पहेली मधुशाला।।१२७।

जितनी दिल की गहराई हो उतना गहरा है प्याला,
जितनी मन की मादकता हो उतनी मादक है हाला,
जितनी उर की भावुकता हो उतना सुन्दर साकी है,
जितना ही जो रिसक, उसे है उतनी रसमय मधुशाला।।१२८।

जिन अधरों को छुए, बना दे मस्त उन्हें मेरी हाला,
जिस कर को छूू दे, कर दे विक्षिप्त उसे मेरा प्याला,
आँख चार हों जिसकी मेरे साकी से दीवाना हो,
पागल बनकर नाचे वह जो आए मेरी मधुशाला।।१२९।

हर जिहवा पर देखी जाएगी मेरी मादक हाला
हर कर में देखा जाएगा मेरे साकी का प्याला
हर घर में चर्चा अब होगी मेरे मधुविक्रेता की
हर आंगन में गमक उठेगी मेरी सुरिभत मधुशाला।।१३०।

मेरी हाला में सबने पाई अपनी-अपनी हाला,
मेरे प्याले में सबने पाया अपना-अपना प्याला,
मेरे साकी में सबने अपना प्यारा साकी देखा,
जिसकी जैसी रुिच थी उसने वैसी देखी मधुशाला।।१३१।

यह मदिरालय के आँसू हैं, नहीं-नहीं मादक हाला,
यह मदिरालय की आँखें हैं, नहीं-नहीं मधु का प्याला,
किसी समय की सुखदस्मृति है साकी बनकर नाच रही,
नहीं-नहीं किव का हृदयांगण, यह विरहाकुल मधुशाला।।१३२।

कुचल हसरतें कितनी अपनी, हाय, बना पाया हाला,
कितने अरमानों को करके ख़ाक बना पाया प्याला!
पी पीनेवाले चल देंगे, हाय, न कोई जानेगा,
कितने मन के महल ढहे तब खड़ी हुई यह मधुशाला!।१३३।

विश्व तुम्हारे विषमय जीवन में ला पाएगी हाला
यदि थोड़ी-सी भी यह मेरी मदमाती साकीबाला,
शून्य तुम्हारी घड़ियाँ कुछ भी यदि यह गुंजित कर पाई,
जन्म सफल समझेगी जग में अपना मेरी मधुशाला।।१३४।

बड़े-बड़े नाज़ों से मैंने पाली है साकीबाला,
किलत कल्पना का ही इसने सदा उठाया है प्याला,
मान-दुलारों से ही रखना इस मेरी सुकुमारी को,
विश्व, तुम्हारे हाथों में अब सौंप रहा हूँ मधुशाला।।१३५।

पिरिशष्ट से

स्वयं नहीं पीता, औरों को, किन्तु पिला देता हाला,
स्वयं नहीं छूता, औरों को, पर पकड़ा देता प्याला,
पर उपदेश कुशल बहुतेरों से मैंने यह सीखा है,
स्वयं नहीं जाता, औरों को पहुंचा देता मधुशाला।

मैं कायस्थ कुलोदभव मेरे पुरखों ने इतना ढ़ाला,
मेरे तन के लोहू में है पचहज्ञल्तऌार प्रतिशत हाला,
पुश्तैनी अधिकार मुझे है मदिरालय के आँगन पर,
मेरे दादों परदादों के हाथ बिकी थी मधुशाला।

बहुतों के सिर चार दिनों तक चढ़कर उतर गई हाला,
बहुतों के हाथों में दो दिन छलक झलक रीता प्याला,
पर बढ़ती तासीर सुरा की साथ समय के, इससे ही
और पुरानी होकर मेरी और नशीली मधुशाला।

पित्र पक्ष में पुत्र उठाना अर्ध्य न कर में, पर प्याला
बैठ कहीं पर जाना, गंगा सागर में भरकर हाला
किसी जगह की मिटटी भीगे, तृप्ति मुझे मिल जाएगी
तर्पण अर्पण करना मुझको, पढ़ पढ़ कर के मधुशाला।

-हरिवंश राय बच्चन

Friday, July 4, 2008

मेरा धन है स्वाधीन कलम

राजा बैठे सिंहासन पर, यह ताजों पर आसीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

जिसने तलवार शिवा को दी
रोशनी उधार दिवा को दी
पतवार थमा दी लहरों को
खंजर की धार हवा को दी
अग-जग के उसी विधाता ने, कर दी मेरे आधीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

रस-गंगा लहरा देती है
मस्ती-ध्वज फहरा देती है
चालीस करोड़ों की भोली
किस्मत पर पहरा देती है
संग्राम-क्रांति का बिगुल यही है, यही प्यार की बीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

कोई जनता को क्या लूटे
कोई दुखियों पर क्या टूटे
कोई भी लाख प्रचार करे
सच्चा बनकर झूठे-झूठे
अनमोल सत्य का रत्नहार, लाती चोरों से छीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

बस मेरे पास हृदय-भर है
यह भी जग को न्योछावर है
लिखता हूँ तो मेरे आगे
सारा ब्रह्मांड विषय-भर है
रँगती चलती संसार-पटी, यह सपनों की रंगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

लिखता हूँ अपनी मर्ज़ी से
बचता हूँ कैंची-दर्ज़ी से
आदत न रही कुछ लिखने की
निंदा-वंदन खुदगर्ज़ी से
कोई छेड़े तो तन जाती, बन जाती है संगीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

तुझ-सा लहरों में बह लेता
तो मैं भी सत्ता गह लेता
ईमान बेचता चलता तो
मैं भी महलों में रह लेता
हर दिल पर झुकती चली मगर, आँसू वाली नमकीन कलम
मेरा धन है स्वाधीन कलम

-गोपाल सिंह नेपाली

Thursday, July 3, 2008

मणिपुरी में हिंसा का एक दृश्य

अक्सर मणिपुर में इस तरह के हिंसा आम बात है. युवा वर्ग कितना संवेदनशील से रहता है इस वीडियो से गवाह है.यह देखकर आप अनुमान लगा सकता है कि मणिपुर में आम लोगों के प्रति रक्षकों का क्या व्यवहार है.यह खुद जान सकते हैं.


ख़बर क्यों नहीं बनते किसान



मेरे लिए यह समय बेहद तकलीफ का है। हमारा महान देश हरित क्रांति के बाद सबसे बड़े कृषि संकट से जूझ रहा है और दुर्भाग्य से कश्मीर से कन्याकुमारी तक की सरकारें इस भयावह संकट के प्रति शुर्तुमुर्गी प्रवृत्ति अपनाए हुए हैं। क्या आप जानते हैं कि पिछले 10 सालों के दौरान जब टीवी और पत्र-पत्रिकाओं में इंडिया शाइन हो रहा था, ठीक उसी समय आठ लाख अन्नदाताओं ने किसानी से तौबा कर ली और गांवों से पलायन कर गए। ये चौंकाने वाले आंकड़े सरकारी हैं (एनएसएस)। इतनी बड़ी आबादी के पलायन के बाद भी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि इतनी बड़ी आबादी कहां गईं। मैं पूछना चाहता हूं कि आखिर ऐसा क्यों ?
जब कुछ लोगों ने महाराष्ट्र्‌ की मुख्यमंत्री से पूछा कि एनएसएस की रिपोर्ट के अनुसार हर तीस मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है तो उनका सवाल था यह एनएसएस क्या होता है ? शायद उन्हें लगा होगा कि हो न हो यह जरूर किसी विपक्षी पार्टी की यूथ विंग का नाम होगा। यह उस प्रदेश के मुख्यमंत्री का हाल है जहां आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद सबसे ज्यादा है। मैं देश के कृषि मंत्री के एक बयान का भी जिक्र करना चाहूंगा। देश में गेहूं की कमी के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि यह संकट इसलिए पैदा हुआ है क्यांकि दक्षिण भारतीय चावल छोड़ कर चपातियां खाने लगे हैं।
देश में सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ रहा क्षेत्र कौन सा है ? तो लोग आईटी का नाम लेंगे, लेकिन हम एक क्षेत्र में उसे भी पीछे छोड़ चुके हैं और वह है असमानता का क्षेत्र। हमारे देश में विभिन्न आय वर्गों के बीच बढ़ रही असमानता की दर रिकार्ड 96 फीसदी है। शेयर मार्केट में जरा सी उठापठक होते ही टीवी पर विशेषज्ञ अर्थ नीति का पोस्टमार्टम करने लगते हैं लेकिन लाखों की संख्या में मर रहे किसानों की मौत इनके लिए खबर ही नहीं होती।
वैश्विक बाजारीकरण के मकड़जाल में फंसे मीडिया ने देश की 70 फीसदी जनता को खबर मानने से इंकार कर दिया है। जागरूक और लोकतंत्र के चेथे स्तंभ माने जाने वाले मीडिया का नजरिया इस विषय को लेकर कैसा है उसे समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी है। अभी हाल में ही संपन्न हुए लैक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिए विभिन्न संस्थानों के 512 मान्यता प्राप्त और लगभग इतने ही गैर मान्यता प्राप्त पत्रकार मौजूद थे। जिस समय यह लोग सही एंगल और एक झलक पाने के लिए एक दूसरे के कंधों पर टूटे पड़ रहे थे, ठीक उसी समय वहां से मात्र एक घंटे की उड़ान की दूरी पर, कपास किसानों की दुर्दशा कवर करने के लिए मात्र 6 पत्रकार मौजूद थे। वह भी उन किसानां की दुर्दशा को नहीं बल्कि वहां का दौरा कर रहे प्रधानमंत्री को कवर करने आए थे। विदर्भ जहां कि हर रोज एक सुबह से दूसरी सुबह का फासला तय करने में 6 लोग जिंदगी से हार मान कर खुदकुशी कर रहे हैं, को इस फैशन वीक के मुकाबले दसवां हिस्सा भी कवरेज नहीं मिला। इस देश के मीडिया ने जहां की 836 मिलियन आबादी 20 रुपए प्रतिदिन से कम कमा पाती है, के लिए अपने दरवाजें बंद कर लिए हैं। एक बात जो मैं और बताना चाहूंगा, दलितों की पैरवी में गांवों की धूल फांक रहे हमारे नेताओं को शायद ही पता हो कि इस 836 मिलियन लोगों में 88 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों से हैं।
कितने ऐसे अखबार होंगे जिसमें कृषि की बीट होगी और इसे कवर करने के लिए संवाददाता होंगे। बाजारवाद ने पत्रकारिता को स्टेनोग्राफी में बदल दिया है। हमारे अखबार आत्मसंतुष्टि का शिकार हो गए हैं। समूचे मीडिया जगत का कारपोरेट हाईजैक हो गया है। अभी हाल में ही एक महत्वपूर्ण हिंदी दैनिक की योग्य महिला ने मर्सिया लिखने वाली शैली में लखे संपादकीय में इस बात का रो रोया कि देश की चालीस फीसदी मध्यवर्ग की खर्च सीमा निम्नतम है। यह उस देश के बुद्धिजीवी पत्रकारों की चिंता है जहां कि 70 फीसदी आबादी दो वक्त रोटी जुटा पाने में असमर्थ है। फोर्ब्स का हवाला देकर देश के करोड़पतियों की बढ़ती संख्या प्रर्दशित करने वाला मीडिया यह क्यों नहीं बताता कि भुखमरी की अंतरराष्ट्रीय सूची में हमारा स्थान 10वां है और हम सिएरा लियोन जैसे अनजान देश के पीछे है, बाल शिक्षा में भी हमारा स्थान दसवां है। मानव विकास के मामले में हम 50 वें स्थान पर हैें और बोस्नियां जैसे देश हमसे उपर हैं। हम यह क्यों नहीं बताते कि अकेले झारखंड की एक लाख से ज्यादा महिलाएं देश की राजधानी में कामकाजी महिलाओं के बच्चों की देख-रेख कर रही हैं, वह भी अपने बच्चों को मातृत्व सुख से वंचित रखने की कीमत पर। क्या कोई इसे भी जानने का प्रयास करेगा ?

-पी साईनाथ