यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Saturday, April 16, 2016

जीवन चलने का नाम

मणिपुर की इन विधवाओं के हौसले को सलाम 

मरने वाला कभी अकेला नहीं मरता. उसके साथ मरती हैं कई और ज़िंदगियां. ताउम्र, तिल-तिल कर. हम बात कर रहे हैं पूर्वोत्तर भारत के राज्य मणिपुर की उन विधवाओं की, जिनके पति पुलिस-सेना और चरमपंथी संगठनों के बीच जारी जंग का शिकार बन गए. मणिपुर, जिसकी आबादी महज 27 लाख है, में ऐसी विधवाएं आपको हर जगह मिल जाएंगी. अब तक आपने वृंदावन या बनारस में विधवाओं का जमघट देखा होगा, लेकिन वृंदावन की विधवाओं और मणिपुर की विधवाओं में एक बुनियादी ़फर्क़ है. वृंदावन आने वाली विधवाओं का मामला जहां धार्मिक है, वहीं मणिपुर की विधवाओं की कहानी हमारी व्यवस्था, पुलिस, सरकार एवं समाज की संवेदनहीनता और नाकामी की कहानी है.

सरकारी आंकड़ों के मुताबिक, राज्य में 20 हज़ार ऐसी विधवाएं हैं, जिन्होंने अपना पति सशस्त्र संघर्ष के चलते गंवा दिया. असल आंकड़ा इससे अधिक हो सकता है. अकेले 2007 से 2015 के बीच राज्य में 3,867 हिंसक घटनाएं हुईं, जिनमें 1,205 चरमपंथी और 486 आम नागरिक मारे गए. अब जरा सोचिए, ये विधवाएं, जिन्होंने अपना पति खो दिया, कैसे अपना भरण-पोषण करती होंगी? क्या उन्हें विधवा पेंशन या अन्य योजनाओं का लाभ मिलता है? यह सवाल इसलिए, क्योंकि इस तरह मरने वाले शख्स के परिवार को आम तौर पर कोई शासकीय सहायता तब तक नहीं मिलती, जब तक अदालत में साबित न हो जाए कि वह चरमपंथी नहीं था. सवाल यह भी है कि क्या राज्य सरकार के पास ऐसी विधवाओं को संरक्षण प्रदान करने के लिए कोई योजना है या फिर उन्हें उनके हाल पर छोड़ दिया जाता है? क़ाबिले ग़ौर बात यह है कि सरकार की तमाम उपेक्षा के बावजूद बड़ी संख्या में ऐसी विधवा महिलाएं वक्त की चुनौती स्वीकार करते हुए न स़िर्फ अपना और परिवार का भरण-पोषण कर रही हैं, बल्कि बच्चों को पढ़ा भी रही हैं. इसके लिए उन्होंने हथियार बनाया अपने हुनर को, अपनी मेहनत को. वे आज बुनाई, कढ़ाई के अलावा खेती-बाड़ी में अपना पसीना बहा रही हैं. और संदेश दे रही हैं कि अगर हौसला हो, तो कठिन से कठिन हालात का मुक़ाबला भी
हंसते-हंसते किया जा सकता है.
पूर्वी इंफाल के थोंगजु निवासी नामैराकपम जिलागमबी देवी ने सशस्त्र संघर्ष के चलते अपना पति गंवा दिया. वह आज बुनाई का काम करती हैं. तीन बच्चों की मां नामैराकपम जिलागमबी देवी को मणिपुरी शॉल और खुदै मतेक (मणिपुरी पुरुषों द्वारा पहना जाने वाला वस्त्र) बनाने में महारथ हासिल है. अपनी अल्प आय से वह न स़िर्फ परिवार चलाती हैं, बल्कि उनके तीनों बच्चे पढ़ने भी जाते हैं. इसी तरह लाइश्रम मेमचा (45) थऊबाल ज़िले के लांगमैडोंग मनिंग लैकाइ की रहने वाली हैं. मेमचा पति की मौत के बाद बुनाई का काम करने लगीं. वह वांगखै फी (मणिपुरी महिलाओं द्वारा शादी में पहना जाने वाला वस्त्र) बनाती हैं. वांगखै फी के एक पीस की लागत चार से पांच हज़ार रुपये आती है. मेमचा पिछले 20 वर्षों से यह काम कर रही हैं. वह अपने सात वर्षीय बेटे के साथ रहती हैं. मेमचा अपने वांगखै फी के लिए खासी शोहरत हासिल कर चुकी हैं. वह ऑर्डर मिलने पर ग्राहकों की मांग के अनुसार वस्त्रों में डिजाइन भी करती हैं.

चांदेल ज़िले के कांगशांग गांव निवासी मोनिंगसान को ग़ुजरे 14 वर्ष हो गए. पति की मौत के बाद तोनतांगा तुंगफेर ने परिवार की ज़िम्मेदारी संभाली. मोनिंगसान के निधन के वक्त उनकी बेटी महज डेढ़ वर्ष की थी, जिसे पालने के लिए तोनतांगा तुंगफेर ने जो भी काम मिला, उसे किया. तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें कोई सरकारी मदद नहीं मिली. इलाके में जीवनयापन का एकमात्र ज़रिया मौसमी खेती है. तोनतांगा दिल की मरीज होने के बावजूद जमकर मेहनत करती हैं. वह खेती-बाड़ी, मज़दूरी, बुनाई यानी जो भी काम मिलता है, करती हैं. वह अपनी बेटी को पढ़ा-लिखा कर आत्मनिर्भर बनाना चाहती हैं.

इदिना वाइखोम ने आ़िखरी बार पति आनंद निंथौजम को तब देखा था, जब वह सुबह काम पर जाने के लिए घर से बाहर निकले थे. शाम को इदिना को पता चला कि मुठभेड़ में आनंद और एक अन्य शख्स को मार दिया गया. इदिना अब एक छोटी-सी दुकान में खाने-पीने की चीजें और पान आदि बेचती हैं. उसी अल्प आय से उनका जीवनयापन होता है. 43 वर्षीय रमथारमावी चूड़ाचांदपुर ज़िले के मॉलवाइफै गांव में अपने घर के बाहर बैठी शाम का खाना पका रही थीं. उनके पास तीन बेटे और बेटी भी बैठे थे. बड़े बेटे की उम्र 21 वर्ष और बेटी की उम्र 13 वर्ष थी. रमथारमावी को अचानक स्थानीय ग्राम परिषद अध्यक्ष ने बुलाया और बताया कि उनके पति, जो इंफाल स्थित रिम्स हॉस्पिटल में चपरासी थे, की लाश हॉस्पिटल के शवगृह से मिली है. रमथारमावी के पति हॉस्पिटल में अनुबंध पर काम कर रहे थे, इसलिए उन्हें पेंशन का हक़दार नहीं माना गया. सगे-संबंधी भी नहीं थे, जो रमथारवामी को मदद करते. रमथारवामी बुनाई का काम करती हैं. वह फनेक (मणिपुरी महिलाओं द्वारा ओढ़ा जाने वाला कपड़ा)  बनाती हैं. वह एक महीने में दो फनेक बना पाती हैं, जिसकी लागत प्रति पीस दो हज़ार रुपये आती है. रमथारवामी सुबह चार बजे उठकर काम में जुट जाती हैं. वह अपने काम से बहुत खुश हैं. रमथारवामी शादी से पहले भी फनेक बनाती थीं.

मणिपुर वुमेन गन सर्वाइवर नेटवर्क की संस्थापक बीनालक्ष्मी नेप्रम का मानना है कि हिंसा में मारे गए लोगों का सरकारी आंकड़ा कम करके दिखाया गया है. नेप्रम का कहना है कि बड़ी संख्या में मौतों को नज़रअंदाज़ कर दिया गया है. मात्र दो फीसद विधवाओं को सरकारी मदद मिल पाती है. नेप्रम कहती हैं कि ज़्यादातर मामले फर्जी मुठभेड़ के हैं. मणिपुर वुमेन गन सर्वाइवर नेटवर्क फर्जी मुठभेड़ में पति खो चुकी महिलाओं की मदद के लिए 2004 में शुरू किया गया था. नेटवर्क की को-ऑर्डिनेटर रीना मुतुम के मुताबिक, नेटवर्क में पांच हज़ार से ज़्यादा महिलाएं शामिल की गई हैं, जिनमें वे महिलाएं भी हैं, जिनके पति मुठभेड़ में मारे गए. जो घटना नेटवर्क की स्थापना की वजह बनी, वह थी 24 दिसंबर, 2004 को 27 वर्षीय बुद्धि नामक युवक की हत्या. बुद्धि एक कार बैट्री वर्कशॉप में काम करता था. हथियारों से लैस तीन लोगों ने उसे उठाकर वर्कशॉप से कुछ दूरी पर मार गिराया. बुद्धि की पत्नी रेबिका अखाम आज तक समझ नहीं सकीं कि उनके पति को क्यों मारा गया. बीनालक्ष्मी ने रेबिका को 4,500 रुपये की आर्थिक मदद के साथ-साथ एक सिलाई मशीन भी दी.
नेटवर्क अब तक पांच हज़ार से ज़्यादा महिलाओं के बैंक खाते खुलवा चुका है. मणिपुर की इन विधवाओं को बुनाई का धागा और सब्जी बीज खरीदने के लिए आर्थिक मदद भी दी जाती है. नेटवर्क हैंडलूम-हैंडिक्राफ्ट से संबंधित सारे संसाधन मुहैया कराता है. 300 से ज़्यादा गांवों में सक्रिय यह नेटवर्क इन
विधवाओं द्वारा बनाए गए कपड़े और सामान बाज़ार तक पहुंचाता है, जिससे उनकी सही क़ीमत मिल सके. पिछले दिनों कंट्रोल ऑर्म्ड फाउंडेशन ऑफ इंडिया और मणिपुर वुमेन गन सर्वाइवर नेटवर्क ने राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली के दिल्ली हाट और नैचर बाज़ार में फनेक, कुकी शॉल, खमथंग शॉल, सिल्क दुपट्टा और पारंपरिक वस्त्र लैरूम की एक प्रदर्शनी भी आयोजित की थी.

इस हिंसा की वजह क्या है 
पूर्वोत्तर भारत के राज्य मणिपुर में देश आज़ाद होने से लेकर अब तक सशस्त्र विद्रोह चल रहा है. राजधानी इंफाल डिस्टर्ब एरिया घोषित है. पूर्वोत्तर में लागू ऑर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफसपा) 1958 के तहत सेना को किसी भी शख्स को शक के आधार पर गिरफ्तार करने या गोली मारने का अधिकार हासिल है. सेना यह काम बेहिचक अंजाम देती है. दूसरी तऱफ राज्य में 37 चरमपंथी संगठन सक्रिय हैं, जो खुद को भारत से अलग मानते हुए सशस्त्र युद्ध कर रहे हैं. पुलिस-सेना और चरमपंथी संगठनों के बीच जारी इस जंग में निर्दोष आम नागरिक पिस रहे हैं. चरमपंथी भी आम मणिपुरी लोगों से वसूली करते हैं, उन्हें धमकाते हैं और उनकी हत्या तक कर देते हैं.

हमने मणिपुर के क़रीब तीन सौ गांवों में जाकर विधवा महिलाओं को आर्थिक-सामाजिक रूप से सशक्त बनाने का काम किया. दु:ख की बात यह है कि हमें सरकार की ओर से कोई सहयोग नहीं मिलता. अच्छी बात यह है कि मणिपुर की महिलाएं स्वभावत: आत्मनिर्भर होती हैं. उन्हें बुनाई की कला बचपन से आती है. जिनके पास थोड़ी-बहुत ज़मीन है, वे सब्जी वगैरह उगाकर पैसा कमा लेती हैं. हमने मणिपुर में 37 बुनाई सेंटर बनाए हैं, जहां उक्त विधवा महिलाएं अपने द्वारा बनाई गई वस्तुएं लाती हैं, जिन्हें हम दिल्ली और अन्य शहरों में बिक्री के लिए भेज देते हैं. मणिपुर की उक्त विधवा महिलाएं सम्मान के साथ अपनी ज़िंदगी बसर कर रही हैं, संघर्ष करके आगे बढ़ना उनकी खासियत है.
-बीनालक्ष्मी नेप्रम, 
संस्थापक, मणिपुर वुमेन गन सर्वाइवर नेटवर्क. 




कब खत्म होगा रिहाई-गिरफ्तारी का सिलसिला

इस कहानी में कुछ भी नया नहीं है. यह स़िर्फ भारतीय क़ानून का एक अनोखा अंदाज़ है. मणिपुर की आयरन लेडी इरोम शर्मिला एक बार फिर रिहा हुईं और गिरफ्तार भी हो गईं. यह एक वार्षिक परंपरा है. ग़ौरतलब है कि शर्मिला पूर्वोत्तर से आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट-1958 हटाने की मांग को लेकर पिछले 15 वर्षों से आमरण अनशन पर हैं. राज्य सरकार ने उन्हें आत्महत्या की कोशिश के आरोप में आईपीसी की धारा 309 के तहत गिरफ्तार किया था. न्यायिक हिरासत की समय सीमा पूरी होने पर हर वर्ष उन्हें रिहा किया जाता है और फिर तुरंत गिरफ्तार भी कर लिया जाता है. जैसे शर्मिला का अनशन जारी है, वैसे यह परंपरा भी पिछले 15 वर्षों से जारी है. न तो शर्मिला अपना अनशन तोड़ रही हैं और न केंद्र-राज्य सरकारें उनकी मांग के प्रति कोई सकारात्मक रुख अपना रही हैं, जिससे यह रिहाई-गिरफ्तारी का सिलसिला खत्म हो. इस बार भी उन्हें बीती 29 फरवरी को रिहा किया गया, लेकिन उनका अनशन जारी था. सो, वह फिर गिरफ्तार कर ली गईं. 

शर्मिला को आत्महत्या के आरोप में 15 बार गिरफ्तार और रिहा किया जा चुका है. यह एक तरह से मज़ाक भी है. सवाल यह है कि क्या शर्मिला सचमुच अपना जीवन ़खत्म करने के लिए अनशन कर रही हैं? कतई नहीं. शर्मिला कई बार अपनी इच्छा ज़ाहिर कर चुकी हैं कि वह भी अन्य लोगों की तरह जीना चाहती हैं, भोजन-पानी करना चाहती हैं, शादी करना चाहती हैं. शर्मिला ने अपना प्यार अब तक संजो रखा है. वह उस दिन के इंतज़ार में हैं, जब उन्हें अपने मकसद में कामयाबी मिलेगी. शर्मिला ने अपनी मां से वादा कर रखा है कि जिस दिन वह अपने संघर्ष में सफल होंगी, उस दिन उनके हाथों से खाना खाएंगी. लेकिन, आज के दौर में शर्मिला का संघर्ष फीका पड़ता जा रहा हैै. बीते 15 वर्षों से उनकी सेहत लगातार बिगड़ती जा रही है. इस बार जब वह रिहा हुईं, तो महिला कार्यकर्ताओं के सहयोग से इंफाल स्थित शहीद मीनार पर माथा टेकने के बाद वहीं अनशन पर बैठ गईं. पुलिस द्वारा मना करने पर उन्हें वहां से हटना पड़ा. मीडिया से उन्होंने कहा, मैं यहां इसलिए आई हूं, ताकि मेरा संघर्ष सफल हो. मैं अफ्सपा के ़िखला़फ लड़ती रहूंगी.

शर्मिला ने कहा कि सरकार को यह नहीं भूलना चाहिए कि हत्या या दमन कोई समाधान नहीं है. इस मा़ैके पर मणिपुर के राजा लैसेंबा सनाजाउबा भी शर्मिला से मिलने आए. उन्होंने कहा कि शर्मिला इस संघर्ष में अकेली नहीं हैं. सभी लोग अफ्सपा से पीड़ित हैं, इसलिए घाटी एवं पहाड़ों में रहने वाले सभी लोगों को इस संघर्ष में शामिल होना चाहिए. इंफाल को अशांत क्षेत्रों की सूची से हटाकर अफसपा खत्म किया जाना चाहिए. शर्मिला को इस बात का भी अ़फसोस है कि उनकी मांगों का समर्थन जिस पैमाने पर होना चाहिए, नहीं हो रहा है. शर्मिला प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भी पत्र लिख चुकी हैं, लेकिन उसका कोई जवाब उन्हें नहीं मिला. केंद्रीय गृह राज्यमंत्री किरण रिजिजू ने स्पष्ट कर दिया है कि अफ्सपा को पूर्वोत्तर से हटाना संभव नहीं है. एक तऱफ तो केंद्र पूर्वोत्तर के राज्यों को मुख्य धारा में जोड़ने की बात करता है, वहीं दूसरी तऱफ अफसपा जैसे काले क़ानून को लेकर उसका रुख लचीला है. अगर पूर्वोत्तर में शांति के लिए अफ्सपा ज़रूरी है, तो फिर बीते 15 वर्षों में पूर्वोत्तर, ़खासकर मणिपुर में शांति क्यों नहीं स्थापित हो सकी, सिवाय अलगाव की भावना बढ़ाने के? यह एक ऐसा सवाल है, जिसका जवाब एक न एक दिन सरकार को देना होगा.

क्या है आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (1958)
आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट संसद में 11 सितंबर, 1958 को पारित किया गया था. यह क़ानून पूर्वोत्तर के अशांत राज्यों जैसे असम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं नगालैंड में लागू है. यह क़ानून अशांत क्षेत्रों में सेना को विशेषाधिकार देने के लिए बनाया गया था. अफ्सपा लागू होने के बाद पूरे पूर्वोत्तर में फर्जी मुठभेड़, बलात्कार, लूट एवं हत्या जैसी घटनाओं की बाढ़ आ गई. जब 1958 में अफ्सपा बना, तो यह राज्य सरकार के अधीन था, लेकिन 1972 में हुए संशोधन के बाद इसे केंद्र सरकार ने अपने हाथों में ले लिया. संशोधन के मुताबिक, किसी भी क्षेत्र को अशांत क्षेत्र (डिस्टर्ब एरिया) घोषित कर वहां अफ्सपा लागू किया जा सकता है. इस क़ानून के सेक्शन 4-ए के अनुसार, सेना किसी पर भी गोली चला सकती है और अपने बचाव के लिए शक को आधार बना सकती है. सेक्शन 4-बी के अनुसार, सेना किसी भी संपत्ति को नष्ट कर सकती है. सेक्शन 4-सी के अनुसार, सेना किसी को भी गिरफ्तार कर सकती है और वह भी बिना वारंट के. सेक्शन 4-डी के अनुसार, सेना द्वारा किसी भी घर में घुसकर बिना वारंट के तलाशी ली जा सकती है. सेक्शन 6 के अनुसार, केंद्र सरकार की अनुमति के बिना सेना के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं की जा सकती. ग़ौरतलब है कि जीवन रेड्डी कमेटी ने भी सरकार को संकेत कर दिया था कि यह क़ानून दोषपूर्ण है और इसमें संशोधन की ज़रूरत है.

कब और क्यों शुरू हुआ अनशन

दो नवंबर, 2000 को असम राइफल्स के जवानों ने इंफाल से सात किलोमीटर दूर मालोम बस स्टैंड पर 10 बेकसूर लोगों को गोलियों से भून डाला. घटना की दिल दहला देने वाली तस्वीरें अगले दिन स्थानीय अख़बारों में छपीं. मरने वालों में 62 वर्षीया महिला लिसेंगबम इबेतोम्बी एवं 18 वर्षीय सिनाम चंद्रमणि भी शामिल थे. चंद्रमणि 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार पा चुका था. इस घटना से विचलित होकर 28 वर्षीया शर्मिला ने चार नवंबर, 2000 को सत्याग्रह शुरू कर दिया.