यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, August 24, 2018

एनआरसी

पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों तक पहुंची असम की आंच
30 जुलाई को असम में प्रकाशित राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर (एनआरसी) का व्यापक असर पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में देखने को भी मिला. यह मुद्दा राजनीतिक हो सकता है, लेकिन पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों के लोगों का इससे भावनात्मक लगाव दिख रहा है. लोगों में डर है कि बाहर से आ बसे लोग उनकी जमीनें हथिया लेंगे, इसलिए असम की तर्ज पर बाकी राज्यों में भी एनआरसी लागू करने की मांग हो रही है, ताकि बाहरी लोगों को अलग किया जा सके. पूर्वोत्तर के सीमावर्ती राज्यों में बाहर से आए लोगों की तादाद तेजी से बढ़ रही है. पूर्वोत्तर के ज्यादातर राज्यों में भाजपा की सरकार है. सरकार की मंशा कुछ भी हो सकती है, लेकिन स्थानीय लोगों को एनआरसी ज्यादा पसंद आ रहा है.

बाहर से आए लोगों को रोकने के लिए पूर्वोत्तर के राज्यों अरुणाचल प्रदेश, नगालैंड और मिजोरम में पहले से ही बंगाल इस्टर्न फ्रंटियर रेगुलेशन- 1983 के तहत इनर लाइन परमिट लागू है. मणिपुर और मेघालय में भी इनर लाइन परमिट को लेकर संघर्ष जारी रहा है. भारत के सीमावर्ती देशों के समीप होने की वजह से पूर्वोत्तर में बाहरी बनाम स्थानीय को लेकर हमेशा टकराव रहा है. अब असम सरकार द्वारा एनआरसी मसौदा लाए जाने से पूर्वोत्तर के बाकी राज्यों में भी काफी हलचल मच गई है. देखते हैं, एनआरसी मसौदा प्रकाशित होने के बाद अन्य राज्यों में इसका क्या असर हो रहा है:

मणिपुर : अलग-अलग सामाजिक संगठनों द्वारा मांग उठ रही है कि असम की तर्ज पर मणिपुर में भी एनआरसी लागू हो. इथनो हेरिटेज काउंसिल (हेरिकोन) ने कहा है कि राज्य सरकार, असम की तरह एनआरसी अपडेट कर राज्य पोपुलेशन कमीशन बनाकर तत्काल प्रभाव से राज्य में एनआरसी लागू करे. हेरिकोन के उपाध्यक्ष एल सनाजाउबा मैतै का कहना है कि मणिपुर में अवैध घुसपैठ रोकने के लिए यहां के लोगों ने बहुत कोशिशें की हैं. कई वर्षों से वे सरकारों से अपील करते रहे हैं. छात्र आंदोलन के बाद 22 जुलाई 1980 को मणिपुर स्टूडेंट्‌स को-ओर्डिनेटिंग कमेटी और राज्य सरकार के बीच बाहरी लोगों की घुसपैठ रोकने के लिए एक समझौता हुआ था. दुर्भाग्यवश, 38 साल बाद भी राज्य सरकार ने इसे कार्यान्वित नहीं किया. हेरिकोन के उपाध्यक्ष ने इसे लेकर सवाल उठाया है कि असम के एनआरसी मसौदे में शामिल नहीं किए गए 40 लाख लोग अब कहां जाएंगे? बेशक, असम के पड़ोसी राज्यों में ही आएंगे. इस स्थिति में राज्य सरकार को चौकन्ना रहना चाहिए. साथ में सामाजिक संगठनों को भी इसकी जिम्मेदारी लेनी चाहिए. राज्य के मुख्यमंत्री के आदेश पर असम से सटे हुए मणिपुर के इलाकों में सुरक्षा बढ़ा दी गई है. डेमोक्रेटिक स्टूडेंट्‌स एलाइन्स ऑफ मणिपुर (डेसाम) के अध्यक्ष एडिसन ने कहा है कि 23 फरवरी 2017 को राज्य में एनआरसी अपडेट कराने के लिए एक ज्ञापन मुख्यमंत्री को सौंपा गया था. दुर्भाग्य से अबतक सरकार की तरफ से कोई स्पष्टीकरण नहीं दिया गया है.

राज्य के पुलिस महानिदेशक एलएम खौते ने कहा है कि असम से सटे हुए मणिपुर के जिले जिरिबाम में सुरक्षा व्यवस्था बढ़ा दी गई है. गुवाहाटी-नगालैंड होते हुए मणिपुर आ रहे नेशनल हाईवे 39 और राज्य के सीमावर्ती जिले सेनापती के माउ गेट में भी सुरक्षा कड़ी कर दी गई है. बाहर से आए लोगों की जांच की जा रही है. साथ ही सीमाई नदी जिरि और बराक में भी मणिपुर पुलिस के जवान नाव के माध्यम से पहरा दे रहे हैं. जिरिबाम एसपी एम मुवी ने कहा है कि जिरिबाम रेलवे स्टेशन से 12 किमी दूर स्थित भंगाइचुंगपाव स्टेशन से 300 बाहरी लोगों को जांच कर वापस भेजा गया है. उनके पास पर्याप्त जरूरी कागजात नहीं थे.

अरुणाचल प्रदेश : असम में एनआरसी मसौदा प्रकाशित होने के बाद ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्‌स यूनियन (एएपसू) ने चेतावनी दी है कि पंद्रह दिनों के अंदर अवैध घुसपैठिए अरुणाचल प्रदेश छोड़ कर चले जाएं. इस संगठन को डर है कि असम के एनआरसी मसौदे के बाद अप्रवासियों की अभूतपूर्व संख्या अरुणाचल प्रदेश में घुसपैठ कर सकती है. वैसे भी पूर्वोत्तर के सभी राज्यों को इस मसौदे के बाद बड़ी संख्या में होने वाले घुसपैठ से सतर्क कर दिया गया है. इस छात्र संगठन ने सीमावर्ती क्षेत्र से 1400 अवैध अप्रवासियों को बाहर निकाला है और 1700 घुसपैठियों को अपने कब्जे में लिया है. अरुणाचल प्रदेश के साथ असम की 804 किलोमीटर लम्बी सीमा जुड़ी है. इसलिए भारी मात्रा में घुसपैठ की आशंका है. इसी कारण ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्‌स यूनियन ने अवैध अप्रवासियों को पंद्रह दिनों के अंदर राज्य छोड़ कर चले जाने की धमकी दी है और उन्हें जल्द-से-जल्द अपने कागजात जुटाने को कहा है, जिनके पास नागरिकता के पर्याप्त सबूत या इनर लाइन पर्मिट से सम्बन्धित कागजात नहीं हैं. एएपसू के अध्यक्ष तोबोम दाई ने कहा है कि हमने ऑपरेशन क्लीन ड्राइव शुरू करने का फैसला लिया है, ताकि अवैध घुसपैठिए को राज्य से निकाला जा सके. इस ड्राइव का नेतृत्व ऑल अरुणाचल प्रदेश स्टूडेंट्‌स यूनियन करेगा. उन्होंने अपील की कि राज्य के सभी लोग और छात्र संगठन भी इस कार्य में अपना सहयोग दें. साथ ही उन्होंने राज्य सरकार से भी अपील की है कि राज्य में अवैध अप्रवासियों की घुसपैठ रोकने के लिए सरकार तेजू, पासीघाट, बेंडरदेवा, रोइंग आदि जगहों पर अधिक चौकी बनाकर नजर रखे.

मेघालय : असम में एनआरसी मसौदा पेश होने के बाद मेघालय ने असम सीमा पर सुरक्षा बढ़ा दी है. असम से प्रवेश करने वाले अवैध अप्रवासियों की जांच को लेकर जिला अधिकारियों ने आदेश जारी किया है. राज्य के उपमुख्यमंत्री प्रेस्टोन तिनसोंग ने संभावना व्यक्त की है कि एनआरसी सूची से बाहर निकलने वाले लोग मेघालय में घुस सकते हैं. उन्होंने कहा है कि राज्य के सीमावर्ती क्षेत्रों में प्रवेश और निकास बिंदुओं की कड़ी सुरक्षा के इंतजाम कर दिए गए हैं, ताकि अवैध अप्रवासी राज्य में प्रवेश न कर सकें. राज्य की सीमा पर लोगों के आने-जाने के लिए 22 चेकपोस्ट बनाए गए हैं. खासी स्टूडेंट्‌स यूनियन (केएसयू) ने एक प्रस्ताव मुख्यमंत्री कॉनराड संगमा को भेजा है कि असम की तर्ज पर राज्य में भी एनआरसी की प्रक्रिया शुरू हो. यूनियन की तरफ से प्रस्ताव में यह जिक्र किया गया है कि राज्य में एनआरसी की लिस्ट जल्द ही निकाली जानी चाहिए, ताकि अवैध घुसपैठियों को राज्य से बाहर किया जा सके. उन्होंने इसके लिए 1971 को कट ऑफ इयर बनाने की बात कही है. इस तरह की प्रक्रिया राज्य के वास्तविक निवासियों की पहचान करने में सहायक सिद्ध होगी और इससे मूल निवासियों के संरक्षण में सहायता मिलेगी. केएसयू ने यह भी कहा है कि राज्य के मूल निवासियों की बेहतरी के लिए सभी सामाजिक संगठनों व सभी वर्ग के लोगों को साथ मिलकर चर्चा करनी चाहिए.

त्रिपुरा : त्रिपुरा में भी एनआरसी की मांग उठ रही है. इस अभियान में सबसे आगे आदिवासी पार्टी इनडिजिनस नेशनलिस्ट पार्टी ऑफ त्रिपुरा (आईएनपीटी) है. वे बांग्लादेशी अप्रवासियों की पहचान करने, उन्हें बाहर निकालने और इनर लाइन परमिट लागू कराने की मांग कर रहे हैं, ताकि ट्राइवल ऑटोनोमस काउंसिल क्षेत्र में बाहरी घुसपैठ को रोका जा सके. पार्टी का कहना है कि एनआरसी लागू कराने के लिए पूरे राज्य में आंदोलन खड़ा करेंगे. लेकिन राज्य की भाजपा सरकार इसे लेकर अब तक स्पष्ट रुख नहीं अपना रही है. पार्टी के उपाध्यक्ष अनंत देव वर्मा ने कहा है कि हम पहले भी राज्य में एनआरसी लागू करने की मांग कर चुके हैं, लेकिन अब तक इस दिशा में कोई ठोस कार्य नहीं किया गया है. एनआरसी का मुद्दा आते ही राज्य के मुख्यमंत्री बिप्लब देव के जन्मस्थान को लेकर भी चर्चा होने लगी है. लोगों का सवाल है कि क्या बिप्लब देव का जन्म बांग्लादेश में हुआ था? 

मणिपुर: इनर लाइन परमिट

ब्रिटिश प्रथा में भाजपा का भरोसा
 मणिपुर में पिछले चार सालों से विवाद में रहा इनर लाइन परमिट बिल एक बार फिर चर्चा में है. 28 जून को राज्य की भाजपा सरकार ने इस विवादित बिल का एक नया प्रारूप तैयार कर राज्य के पहाड़ और घाटी के जन प्रतिनिधियों के सामने रखा. 20 जुलाई से शुरू हो रहे विधानसभा के मानसून सत्र में सरकार यह बिल पेश करेगी. पास हो जाने के बाद यह बिल मणिपुर पीपुल एक्ट- 2018 के नाम से जाना जाएगा. इस बिल के अनुसार, मणिपुर को राज्य का दर्जा (21 जनवरी, 1972) मिलने से पहले यहां रह रहे लोगों को ही राज्य का नागरिक माना जाएगा. बिल लागू होने के बाद डीएम या संबंधित अधिकारी को चीफ रजिस्ट्रेशन ऑथोरिटी बनाकर बाहर से आए लोगों के पंजीकरण का काम किया जाएगा. बिल लागू होने के बाद, बाहरी लोगों के लिए मणिपुर आने पर संबंधित रजिस्ट्रेशन ऑथोरिटी में रजिस्टर कराना आवश्यक हो जाएगा और उनके लिए यहां रहने की समय सीमा अधिकतम छह महीने होगी. हालांकि आवश्यकतानुसार समय-समय पर नजदीकी रजिस्ट्रेशन सेंटर के जरिए इस समयावधि को बढ़ाया जा सकेगा. अगर रजिस्ट्रेशन सेंटर पर इसकी परमिट नहीं मिलती है, तो चीफ रजिस्ट्रेशन ऑथोरिटी इस बारे में शिकायत दर्ज कर सकेगा. अगर राज्य से बाहर का कोई व्यक्ति बिना रजिस्ट्रेशन के यहां रहते हुए पाया जाता है, तो उसे फौरन वापस भेज दिया जाएगा. साथ में स्थानीय मकान मालिकों को भी किराए पर रह रहे बाहरी लोगों के बारे में हर 15 दिन में चीफ रजिस्ट्रेशन ऑथोरिटी को रिपोर्ट देना होगा. अगर मकान मालिकों ने ऐसा नहीं किया, तो उनके ऊपर पांच से दस हजार रुपए का जुर्माना लगेगा. केंद्र सरकार, राज्य सरकार, सरकारी संस्थाओं या कानूनी रूप से स्वीकार्य स्थानीय संस्थाओं में कार्यरत लोगों पर इस बिल का कोई प्रावधान लागू नहीं होगा.

बिल ड्राफ्टिंग कमिटी के कन्वेनर थोंगाम विश्वजीत सिंह ने इसके बारे में कहा है कि हमने इस नया बिल का प्रारूप जनता के सामने रखा है. जन प्रतिनिधियों को इसे देखने और समझने का समय चाहिए. इसे हम पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों में चल रहे इनर लाइन परमिट की तरह पेश कर राज्य में लागू कराना चाहते हैं. इस बिल के माध्यम से मणिपुर में बाहर से आए लोगों को सरकार से परमिट लेना आवश्यक हो जाएगा. यह प्रथा ब्रिटिश राज के दौरान स्वदेशी संस्कृतियों की रक्षा करने के लिए शुरू हुई थी.

गौरतलब है कि 31 अगस्त 2015 को राज्य सरकार ने विधानसभा द्वारा तीन विधेयक-मणिपुर जन संरक्षण विधेयक-2015, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार (सातवां संशोधन) विधेयक-2015 और मणिपुर दुकान एवं प्रतिष्ठान (दूसरा संशोधन) विधेयक-2015 पारित किया गया था. मणिपुर दो हिस्सों में बंटा हुआ है. हिल एरिया (पहाड़ी) और वैली (घाटी). पहाड़ी क्षेत्र के लोग इन तीन बिलों में से एक, मणिपुर भू-राजस्व एवं भूमि सुधार बिल का विरोध कर रहे थे. उनका विरोध प्रदर्शन सड़कों तक आया. प्रदर्शन रोकने के लिए एकबार पुलिस द्वारा चलाई गई गोली में नौ लोगों की मौत भी हुई थी. इन लोगों का कहना है कि यह बिल उनकी जमीन और हक का विरोध करता है. इन आदिवासियों को डर है कि इस नए कानून के आने के बाद पहाड़ी क्षेत्र में गैर-आदिवासी बसने लगेंगे, जबकि वहां जमीन खरीदने पर अबतक पाबंदी है. दूसरी तरफ, इनर लाइन परमिट सिस्टम गैर-आदिवासी बहुसंख्यक मितई समुदाय की मांग है. मितई समुदाय ने ज्वॉइंट कमिटी ऑन इनर लाइन परमिट सिस्टम (जेसीआईएलपीएस) स्थापित कर इसकी मांग शुरू की थी. यह संगठन 30 सामाजिक संगठनों का प्रतिनिधित्व करता है. घाटी में रह रहे मितई समुदाय के लोगों का तर्क है कि जनसंख्या का सारा दबाव उनकी जमीन पर है. उनके अनुसार, घाटी में संसाधनों पर दबाव बढ़ रहा है, लेकिन पहाड़ी क्षेत्र में जमीन खरीदने पर मनाही है. मणिपुर को भौगोलिक रूप से समझें, तो चूराचांदपुर, चांदेल, उख्रुल, सेनापति और तमेंगलोंग जिले पहाड़ी क्षेत्र में आते हैं, जबकि थौबाल, बिष्णुपुर, इंफाल ईस्ट और इंफाल वेस्ट जिले घाटी में आते हैं. यहां मितई समुदाय का दबदबा है. क्षेत्रफल के हिसाब से मणिपुर का 10 फीसदी हिस्सा घाटी का है. राज्य की 60 प्रतिशत जनता घाटी में रहती है. इस कारण मितई समुदाय पहाड़ी क्षेत्र में जमीन दिए जाने की मांग करता है.

राज्य विधानसभा ने मई 2016 में इन तीनों विधेयकों को केंद्र सरकार को भेजा था. हालांकि उस समय तत्कालीन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी ने इनर लाइन परिमट वाले विधेयक को खारिज कर दोबारा विचार करने के लिए मणिपुर विधानसभा को भेजा दिया था. तब से अबतक ये तीनों बिल दबा कर रखे हुए थे. लेकिन इन्हें पारित करने की मांग समय-समय पर मितई समुदाय के लोग करते रहे हैं. उन्होंने इसके लिए अपना आंदोलन तेज करने की भी धमकी दी थी. उसके बाद, मार्च 2017 में स्थानीय भाजपा सरकार ने इनर लाइन परमिट बिल की दिशा में कदम बढ़ाते हुए, इसे लेकर एक नई कमिटी बनाई, जो  पिछले एक साल से लगातार इसपर काम कर रही थी. भाजपा सरकार द्वारा तैयार किए गए इस नए प्रारूप को लेकर लोगों का मानना है कि यह मसौदा अच्छा है, लेकिन अभी कुछ और बिंदुओं पर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है. उनमें से एक बिंदु है- कौन हैं मणिपुरी? नए मसौदे के अनुसार 21 जनवरी 1972 के पहले से राज्य में रह रहे लोगों को मणिपुरी माना जाएगा. लेकिन इस बात को वहां के लोग मानने से इंकार कर रहे हैं. उनका कहना है कि यह भारत के संविधान के अनुसार नहीं है. उन्होंने इसपर फैसला लेने के लिए अभी और चिंतन-मनन करने की बात कही है. गौर करने वाली बात यह भी है कि 2017 में पहाड़ के जन प्रतिनिधियों और राज्य सरकार के बीच एक समझौता हुआ था, जिसके तहत वे इनर लाइन परमिट के खिलाफ आंदोलन खत्म करने पर राजी हो गए थे. उस समय सरकार ने एक ऐसा नया बिल बनाने का वादा किया था, जो पहाड़ी क्षेत्र के लोगों की मांग पूरी करता हो और उनके हक का ख्याल रखे.

कुल मिलाकर, मणिपुर की यह समस्या भावनात्मक और जटिल है. स्थानीय लोगों का मानना है कि इस समस्या को सुलझाने में प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति को हस्तक्षेप करना चाहिए, क्योंकि इस विधेयक के कारण राज्य कई महीनों तक अशांत रहा है और इसे लेकर हुए आंदोलनों में कई लोगों की जान जा चुकी है. राज्य की भाजपा सरकार ने इस बार फिर नया प्रारूप तैयार कर लोगों की इच्छा का सम्मान किया है, लेकिन अब भी सभी लोग इसे लेकर सहमत नहीं हैं. सच्चाई यही है कि पहाड़ी क्षेत्र और घाटी के लोगों के लिए यह संभव ही नहीं है कि वे इस मामले को अपने स्तर पर सुलझा सकें. केंद्र सरकार को इस मामले में हस्तक्षेप कर एक कमेटी का गठन करना चाहिए, जो यह सुनिश्चित करे कि मणिपुर के लिए बेहतर क्या है.

नगा शांति समझौता

मणिपुर क्यों डर रहा है?
केंद्र सरकार और नगा संगठन, एनएससीएन (आईएम) के बीच लंबे समय से चल रहा नगा शांति समझौता जैसे-जैसे अंतिम चरण की तरफ बढ़ रहा है, वैसे-वैसे पूर्वोत्तर राज्यों के लोगों की आशंकाएं भी गहराती जा रही हैं. अबतक इस समझौते को इतना गोपनीय रखा गया है कि समझौते में शामिल बातों की भनक भी किसी को भी नहीं लग सकी है. इस समझौते में एनएससीएन (आईएम) की मांग है कि पूर्वोत्तर के राज्य असम के दो पहाड़ी जिले, अरुणाचल के दो जिले और मणिपुर के चार जिलों को इकट्‌ठा कर नगालिम बनाया जाए. यहां तक कि तीनों राज्यों के मुख्यमंत्रियों को भी अबतक नहीं मालूम है कि इस समझौते के क्या-क्या मुख्य बिंदु हैं. इस आशंका को लेकर मणिपुर विधानसभा ने सर्वसम्मति से एक प्रस्ताव पारित किया है कि इस समझौते में शामिल बातों को केंद्र सरकार सार्वजनिक करे. मणिपुर विधानसभा ने प्रस्ताव पास कर यह मांग की है कि 2015 में किए गए इस समझौते से पूर्वोत्तर के अन्य राज्यों की क्षेत्रीय अखंडता पर कोई असर नहीं पड़ना चाहिए और समझौते की मुख्य बातें लोगों को बताई जाएं. पार्टी लाइन को दरकिनार करते हुए मणिपुर विधानसभा ने क्षेत्रीय अखंडता के लिए सत्तारूढ़ पार्टी भाजपा और विपक्ष कांग्रेस और अन्य सभी पार्टियों ने मिलकर केंद्र की मोदी सरकार से मांग की कि इस नगा समझौते में शामिल बातों की जानकारी संबंधित राज्यों को दी जाए. सभी पार्टियों ने सर्वसम्मति से एक ज्ञापन तैयार कर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को सौंपा. यह पहला मौका है, जब सभी राजनीतिक पार्टियां एक मंच पर आकर राज्य की अखंडता अक्षुण्ण बनाए रखने के लिए एक साथ जुटी हैं. 

नगालिम का डर
मणिपुर के पूर्व कांग्रेस मुख्यमंत्री ओक्रम इबोबी सिंह ने पहली बार खुलासा किया कि कुछ केंद्रीय नेताओं ने उनसे कहा कि इस समझौते का वे विरोध न करें. लेकिन किसी ने उनको इस संदर्भ में विश्वास में नहीं लिया. मणिपुर में 15 साल मुख्यमंत्री रह चुके इबोबी सिंह ने कहा कि यह समझौता होने के बाद केंद्रीय मंत्रियों ने तीनों राज्य के मुख्य मंत्रियों को तुरंत दिल्ली बुलाया था, लेकिन केंद्रीय मंत्रियों ने यह बताने से इंकार कर दिया कि इस समझौते में क्या-क्या बातें शामिल हैं. मणिपुर, असम एवं अरुणाचल प्रदेश को इस बात का डर है कि तीनों राज्यों के कई टुकड़ों, जहां नगा जनजाति बसी है, को मिलाकर नगालिम न बना दे. मणिपुर के सामाजिक संगठनों यूसीएम, अमुको, सीसीएसके के कार्यकर्ताओं ने दिल्ली में गृह मंत्री राजनाथ सिंह, भाजपा अध्यक्ष अमित शाह, गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू, नगा समझौता के इंटरलोक्युटर आरएन रवि, सीपीआईएम नेता सीताराम येचूरी एवं दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल से मिलकर ज्ञापन सौंपा. ज्ञापन में ये लिखा कि इस समझौते का हम स्वागत करते हैं, लेकिन राज्य की अखंडता पर आंच नहीं आनी चाहिए. हजारों साल से एक साथ रह रहे मणिपुर के लोगों के राजनीतिक एवं ऐतिहासिक पहचान को कोई मिटा नहीं सकता. तीनों राज्य असम, अरुणाचल और मणिपुर की जनता एवं मुख्यमंत्रियों को नजर अंदाज कर यह समझौता नहीं किया जा सकता है. तीनों राज्यों की सहमति के बाद ही यह समझौता शांतिपूर्ण तरीके से होगा.

गौरतलब है कि एनएससीएन (आईएम) और केंद्र के बीच चल रहे युद्ध विराम समझौते की नींव 1997 में पूर्व प्रधामंत्री आईके गुजराल के कार्यकाल में पड़ी थी. केंद्र सरकार ने इस समझौते को एक ऐतिहासिक कदम बताया है. एनएससीएन (आईएम) नगा विद्रोहियों का सबसे बड़ा ग्रुप है, जिसका केंद्र सरकार के साथ संघर्ष विराम चल रहा है. इसी ग्रुप का दूसरा गुट एनएससीएन-के है, जिसके नेता एसएस खपलांग का निधन बर्मा में जून 2017 में हुआ था. खापलांग के निधन के बाद खांगो कोन्याक को नए प्रमुख के तौर पर चुना गया. दूसरी तरफ, नगाओं के इस समझौते से कुकी जनजाति खुश नहीं है. कुकी जनजाति भी कुकी होमलैंड की मांग लंबे समय से कर रही है. इस समझौते को लेकर कुकियों के बीच भी गहमा-गहमी मची हुई है. उन लोगों का मानना है कि नगा एक अलग क्षेत्र की मांग करते हैं, तो सरकार कुकी को भी एक अलग प्रदेश बनने देना चाहिए.

असम, अरुणाचल और मणिपुर की चिंता
बहरहाल, अगर यह समझौता तीनों राज्यों के खिलाफ हुआ, तो तीनों राज्य असम, अरुणाचल एवं मणिपुर, जहां भाजपा की सरकार है, वहां भाजपा को जबर्दस्त विरोध का सामना करना पड़ सकता है. इसका उदाहरण 2001 में देखा जा चुका था. पिछले भाजपा शासनकाल में तत्कालीन गृह मंत्री एलके आडवाणी ने युद्धविराम विस्तार समझौता एनएससीएन (आईएम) के साथ बैंकॉक में किया. इस समझौते में शामिल कुछ खास बिंदुओं का राज्य के निवासियों ने जमकर विरोध किया. उग्र लोगों ने मणिपुर विधानसभा भवन को भी जला दिया था. इस विरोध को नियंत्रित करने के लिए राज्य की पुलिस ने 18 आम लोगों को गोली मार दी थी. आज भी उन 18 लोगों को याद करते हुए हर साल 18 जून को द ग्रेट जून अपराइजिंग मनाया जाता है. ऐसी स्थिति में केंद्रीय भाजपा सरकार को इस तरह की अप्रिय घटना की पुनरावृत्ति होने से बचना चाहिए और तीनों राज्यों की सहमति के साथ शांतिपूर्ण समझौता करना चाहिए.

मणिपुर के हितों से समझौता हुआ तो इस्ती़फा दे दूंगा : एन बिरेन सिंह
राज्य के मुख्यमंत्री बिरेन सिंह ने कहा है कि केंद्र सरकार एवं एनएससीएन (आईएम) के बीच चल रहे शांति समझौते की रूपरेखा दोनों पक्षों ने बनाई है. हम इसका स्वागत करते हैं, लेकिन मणिपुर से बिना बताए या बिना बात किए अगर राज्य के हित के खिलाफ समझौता हुआ, तो वे कुर्सी पकड़ कर नहीं रहेंगे. वे तत्काल पद छोड़कर प्रदेश के हित के लिए जनता के साथ आंदोलन करेंगे. मुख्यमंत्री एन बिरेन को उम्मीद है कि केंद्रीय भाजपा सरकार राज्य से बात किए बिना या बिना बताए राज्य के हित के खिलाफ समझौता नहीं करेगी. उनका कहना है कि केंद्र सरकार चरमपंथी संगठनों के साथ राजनीतिक समाधान करने में कुकी का हिस्सा, नगा का हिस्सा या किसी भी समुदाय का गुटबाजी रवैया अपनाना सही नहीं है. यह नीति लंबे समय तक नहीं चलेगी. एन बिरेन ने केंद्र के मंत्रियों से पहले भी बताया था कि अगर दूरगामी समाधान चाहिए तो सभी चरमपंथी गुटों के साथ बातचीत करने की कोशिश कीजिए.

Thursday, August 23, 2018

त्रिपुरा : एक पत्रकार की हत्या...

लोेकतंत्र में लोक को कमज़ोर करने की चाल
सूचना 21वीं शताब्दी का सबसे ताकतवर हथियार है. यहां तक कि आम आदमी के बोलने का अधिकार भी सूचना पाने के अधिकार से जुड़ा है. इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण केस में अदालत ने कहा भी था कि जब तक जनता जानेगी नहीं, वो बोलेगी क्या? लोकतंत्र में सूचना के सतत्‌ प्रवाह का काम करने वाला पत्रकार को जब धमकी मिलती है या उसकी हत्या होती है, तब उस वक्त न सिर्फ एक पत्रकार मरता है, बल्कि उन लाखों लोगों को भी भयभीत करने की कोशिश की जाती है, जो सूचना पा कर, सत्ता से सवाल करने का साहस करते हैं. इसलिए, जनता को भी सोचना होगा कि एक पत्रकार की मौत की कीमत उसे भी चुकानी होगी, सच और सूचना को खोकर. क्या सचमुच भारत की जनता ऐसा ही चाहती है. नहीं, फिर क्यों नहीं किसी पत्रकार की मौत पर आम आदमी को गुस्सा आता है?

 देश में पत्रकारों की हत्या की लम्बी फेहरिस्त है. देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर पत्रकारों पर हमले होते रहे हैं. गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक बार फिर पूर्वोत्तर भारत के त्रिपुरा में पत्रकार सुदीप दत्त भौमिक की हत्या की खबर सामने आई. 21 नवंबर को त्रिपुरा स्टेट राइफल्स (टीएसआर) की 2 बटालियन के हेडक्वार्टर में एक कांस्टेबल ने पत्रकार सुदीप दत्त भौमिक की गोली मारकर हत्या कर दी. सुदीप दत्त भौमिक अगरतला से निकलने वाले बांग्ला अखबार स्यंदन पत्रिका में रिपोर्टर थे. राजधानी से 20 किलोमीटर दूर टीएसआर हेडक्वार्टर के कमांडेंट से अप्वाइंटमेंट लेकर मिलने गए थे. लेकिन वहां उनकी पीएसओ नंदगोपाल रियांग से किसी बात पर तकरार हो गई. इसी दौरान नंदगोपाल ने गोली चला दी.

राज्य में दो महीने के अंदर पत्रकार की हत्या का यह दूसरा मामला है. 20 सितंबर को भी पश्चिमी त्रिपुरा जिले में इंडिजीनस पीपुल्स फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के आंदोलन को कवर कर रहे टीवी पत्रकार शांतनु भौमिक की अपहरण कर हत्या कर दी गई थी. शांतनु भौमिक स्थानीय टीवी न्यूज चैनल दिन-रात में रिपोर्टर थे. पूर्वोत्तर पत्रकार संगठनों के मुताबिक पिछले 30 सालों में पूर्वोत्तर में 31 पत्रकारों की हत्या कर दी गई है. असम में 24, मणिपुर में छह और त्रिपुरा में दो पत्रकारों की हत्या हो चुकी है.

पत्रकार सुदीप की हत्या की निंदा करते हुए त्रिपुरा के स्थानीय अखबारों के संपादकीय खाली छोड़ दिए गए. राज्य भर में दो दिन तक लगातार बंद का ऐलान किया गया और इसे काला दिन के रूप में मनाया गया. पत्रकार सुदीप की हत्या पर जर्नलिस्ट फोरम असम (जेएफए) ने विरोध-प्रदर्शन किया और कहा कि यह आम घटना नहीं है, इसलिए राज्य की वाम मोर्चा सरकार इस मामले को गंभीरता से ले और कार्रवाई करे. सरकार को पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए. ऑल मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन (अमजु) ने भी त्रिपुरा में पत्रकार की हत्या की कड़ी निंदा की. पत्रकारों पर निशाना मत साधो, पत्रकारों का हक और आजादी दो एवं पत्रकारों को मारना बंद करो आदि नारे लगाए गए.

भाजपा, त्रिपुरा के प्रभारी सुनील देयोधर ने कहा कि पत्रकार सुदीप की हत्या से यह बात साफ है कि राज्य में जंगल राज कायम है. वाम मोर्चा सरकार का नेतृत्व कर रहे माणिक सरकार को तुरंत अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए. वरिष्ठ भाजपा नेता एवं असम के मंत्री हेमंत विश्वशर्मा ने भी ट्‌वीट कर कहा कि पत्रकार की हत्या से साबित होता है कि त्रिपुरा में गुंडागर्दी एवं जंगल राज है. पिछले दो महीने में यह दूसरी हत्या है. यह शर्मनाक बात है. दूसरी तरफ राज्य के मुख्यमंत्री माणिक सरकार ने कहा कि पत्रकार सुदीप की हत्या से मैं दुखी हूं. राज्य के गवर्नर तथागत रॉय ने भी कहा कि वे गृह मंत्री राजनाथ सिंह को पत्रकार सुदीप की हत्या के बारे में एक रिपोर्ट सौंपेंगे.

पूूर्वोत्तर में पत्रकारों की हत्या का सिलसिला पुराना है. यह केवल त्रिपुरा में ही नहीं, बल्कि असम, मणिपुर एवं अरुणाचल प्रदेश में भी इस तरह की घटना घट चुकी है. असम ऐसा राज्य है, जिसमें सबसे ज्यादा पत्रकारों की हत्या हुई है. असोमिया प्रतिदिन के कार्यकारी संपादक पराग दास को दिनदहाड़े गुवाहाटी में सड़क पर गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. उनकी हत्या के 21 साल बीतने के बाद भी आजतक उनके हत्यारों को दोषी नहीं ठहराया गया. 1997 में पत्रकार संजय घोष को उल्फा ने अपहरण कर मारा था, जिसका आजतक न्याय नहीं मिला. 2000 में मणिपुर में अनजान बंदूकधारियों ने अंग्रेजी दैनिक मणिपुर न्यूज के संपादक टी ब्रजमणि सिंह को मारा था. 2008 में इंफाल फ्री प्रेस के रिपोर्टर कोनसम ऋृषिकांता सिंह की गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. इसी तरह और भी पत्रकार नॉर्थ ईस्ट विजन के संवाददाता याम्बेम मेघा, लेनताई मैग्जीन के संपादक खुपखोलियान जिम्टे और कांगला लानपुंग के संपादक आरके सनातोम्बा आदि की हत्या कर दी गई थी. पिछले 35 सालों में मणिपुर में छह पत्रकारों की हत्या कर दी गई. लेकिन इतने साल बीत जाने के बाद भी आज तक इन हत्याओं से संबंधित कोई भी आदमी पकड़ा नहीं गया है. अरुणाचल प्रदेश में भी पत्रकारों पर लगातार हमला होते रहे हैं. अरुणाचल प्रदेश टाइम्स के सहायक संपादक तोंगम रीना को 2012 में उनके ऑफिस में घुस कर गोली मारी गई थी. इस घटना में भी पुलिस ने आरोपियों को नहीं पकड़ सकी है. एक साल बाद खुद आरोपी ने आत्मसमर्पण किया. इसके बाद भी राज्य में हो रहे सुपर हाइड्रो डैम प्रोजेक्ट घोटाले से संबंधित रीना के आर्टिकल्स को लेकर उनकी कई बार हत्या करने की कोशिश की गई.

पूर्वोत्तर के पत्रकारों को एक और अतिरिक्त खतरा अपने सर पर उठाना पड़ता है. वे एक संघर्षरत क्षेत्र में काम करते हैं. एक तरफ सरकार के पक्ष को जितनी अहमियत देनी होती है, वहीं अलगाववादी संगठनों के पक्ष को भी उतना ही महत्व देना पड़ता है. दोनों का संतुलन बिगड़ने से पत्रकार पर इसका असर पड़ता है. अलगाववादियों की धमकी, हत्या और ऑफिस के सामने बम फोड़ना आदि घटनाएं यहां के पत्रकारों के लिए आम बात है. 

बहरहाल, पत्रकार सुदीप दत्त भौमिक की हत्या का पूरे देश में जितना विरोध होना चाहिए, उतना हुआ नहीं. केवल सुदीप की हत्या ही नहीं, शांतनु की हत्या हो या फिर और भी पूर्वोत्तर के पत्रकारों की हत्या में देश भर में सन्नाटा रहा. पूर्वोत्तर राज्यों के अधिकतर पत्रकारों को देश के बाकी हिस्सों के मीडिया बिरादरी द्वारा अनदेखी की जाती है. चाहे मणिपुर, त्रिपुरा या पूर्वोत्तर के किसी भी राज्य के पत्रकारों के मारे जाने के बाद नेशनल मीडिया में कोई खबर नहीं बनती. यहां तक कि गौरी लंकेश की हत्या पर फेसबुक पर नाराजगी या विरोध प्रदर्शन करने वाले लोग भी सुदीप की हत्या के बाद अपना कोई विरोध प्रदर्शन नहीं करते हैं. संकट के समय  हमें अपनी एकता दिखाते हुए क्षेत्रीय पत्रकारों के हितों और उनकी सुरक्षा को लेकर भी एकजुट दिखना चाहिए. राष्ट्रीय मीडिया के लिए यह कितना उचित है कि वह केवल दिल्ली एनसीआर, मुंबई और आसपास की घटनाओं तक ही केंद्रित रहे और अन्य क्षेत्रों में पत्रकारों की हत्या पर मौन धारण कर ले. अफसोस की बात है कि सुदीप की मौत गौरी लंकेश की मौत की तरह लोगों का ध्यान खींचने में नाकाम रही. क्यों लोग दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु में रैलियां नहीं निकालते? क्यों पूर्वोत्तर में मारे गए पत्रकार के लिए न्याय की मांग नहीं करते?

आखिर, सवाल है कि पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जाता है, लेकिन इसकी रक्षा के लिए क्या पुख्ता इंतजाम किए गए हैं? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह शर्मनाक है कि भारत पत्रकारों की सुरक्षा की दृष्टि से दुनिया के सबसे खतरनाक देशों की कतार में नजर आता है. इससे भी ज्यादा अफसोसजनक बात यह है कि पत्रकारों की हत्या को लेकर सरकारें भी उतनी गंभीर नहीं दिखती हैं, साथ में पत्रकारिता से जुड़े लोग भी संजीदा नजर नहीं आते हैं.  नतीजा ये होता है कि आए दिन गौरी लंकेश, राजदेव रंजनजोगिंदर सिंह, शांतनु या सुदीप जैसे पत्रकार मारे जाते हैं.

नगा शांति समझौता

स्वागत भी और आशंका भी
पिछले दो दशक से चल रहा नगा युद्ध विराम समझौता अब अंतिम चरण में है. ऐसा लग रहा है कि अब दोनों पक्ष एनएससीएन (आईएम) और केंद्र सरकार एक-दूसरे को बेहतर तरीके से समझ पा रहे हैं. भारत में राज्यों का ढांचा सरकारी संघवाद का ढांचा है, जिसमें एक गणतंत्र के अंतर्गत सभी राज्यों की सहयोगी संप्रभुता बरकरार है. फिर भी इससे आगे जाकर सरकार ने यह स्वीकार किया है कि संविधान के मौजूदा ढांचे में अतिरिक्त व्यवस्था करके नगाओं की अनूठी पहचान को एक अलग मान्यता दी जाएगी. 

हाल में समझौते के वार्ताकार आरएन रवि ने छह नगा संगठनों से आग्रह किया कि वे जल्द से जल्द नगा पहचान को लेकर आपसी सहमति बना लें, ताकि नगा समझौते को अंतिम रूप दिया जा सके. नगालैंड के मुख्यमंत्री टी आर जेलियांग ने हाल में एक अखबार को दिए इंटरव्यू में कहा कि केंद्र सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच चल रही वार्ता जल्द ही निष्कर्ष पर पहुंच जाएगी. अगस्त, 2015 को हुए फ्रेमवर्क एग्रीमेंट ने इस वार्ता को अंतिम रूप देने में अहम भूमिका निभाई. जेलियांग को उम्मीद है कि आगे एनएससीएन (के) भी इस वार्ता में शामिल हो सकता है, क्योंकि खापलांग ग्रुप के अलावा बाकी नगाओं के छह भूमिगत संगठन इस वार्ता में शामिल हो चुके हैं.
दूसरी ओर, मणिपुर में राज्य की अखंडता और सीमा को लेकर सभी राजनीतिक पार्टियों की एक बैठक हुई थी. बैठक में राज्य की भाजपा सरकार में शामिल पार्टी एनपीएफ (नगा पीपुल्स फ्रंट) ने बैठक में शामिल होने से इंकार कर दिया था. एनपीएफ का कहना है कि अपने चुनावी घोषणा पत्र में शामिल वादों पर उनका समर्थन अब भी बरकरार है. घोषणा पत्र में ये लिखा था कि सभी नगा बहुल इलाकों को एक साथ करने में एनपीएफ कार्य करेगा. एनपीएफ के इस निर्णय से राज्य के लोगों को ज्यादा चिंता हो रही है. कांग्रेस के विधायक पूर्व मुख्यमंत्री ओक्रम इबोबी सिंह ने कहा कि एनएससीएन (आईएम) और केंद्र सरकार के बीच चल रही शांति वार्ता 2018 के शुरुआत में होने वाले नगालैंड विधानसभा चुनाव के पूर्व खत्म हो सकती है. शांति वार्ता निष्कर्ष पर पहुंच रही है, इसका हम स्वागत करते हैं लेकिन आशंका यह भी जरूर है कि कहीं इस वार्ता का निष्कर्ष मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश की जनता के हित के खिलाफ न हो. उन्होंने कहा कि राज्य की एकता और अखंडता निभाना सभी का दायित्व है.

एक इंच ज़मीन भी नहीं देंगे ः सर्वानंद सोनोवाल
असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल ने कहा कि नगालिम बनाने में असम की जमीन का एक टुकड़ा भी नहीं देंगे. 2015 में केंद्र सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच हुए फ्रेमवर्क एग्रीमेंट में शामिल बिंदुओं को असम के लोगों को बताना होगा. जिस तरह से मणिपुर में इस समझौते को लेकर लोगोंे मेें हलचल और बेचैनी है, उसी तरह असम के लोगों में भी आशंका है. शांति समझौता ऐसा हो कि बाकी पड़ोसी राज्यों का नुकसान न हो.

राज्य की एकता और अखंडता टूट नहीं सकती ः तृणमूल कांग्रेस, मणिपुर प्रदेश
केंद्र सरकार और एनएससीएन (आईएम) के बीच चल रही शांति वार्ता को लेकर क्षेत्रीय अखंडता पर कोई आंच नहीं आनी चाहिए. तृणमूल कांग्रेस, मणिपुर प्रदेश के अध्यक्ष मनावतोन सोराइसम ने कहा कि नगा शांति समझौता कीजिए और सफल निष्कर्ष पर पहुंचिए, लेकिन वार्ता में राज्य की अखंडता पर नुकसान पहुंचाने वाले बिंदु शामिल नहीं होने चाहिए. ऐसा होने पर पार्टी हमेशा विरोध करेगी. तृणमूल कांग्रेस आज भी प्रदेश की अखंडता को लेकर गंभीर है. ऐसे में केंद्र सरकार को भी अपना स्टैंड बताना चाहिए.

नगा शांति वार्ता राज्य की सीमा और राजनीतिक क्षेत्र पर बाधा न डालें ः लोजपा
लोक जनशक्ति पार्टी, मणिपुर प्रदेश के प्रवक्ता एन इबोहल ने कहा कि इस वार्ता का  जनशक्ति पार्टी स्वागत करती है, लेकिन मणिपुर राज्य की सीमा और राजनीति के क्षेत्र में बाधा नहीं आनी चाहिए. एनएससीएन (आईएम) नगालैंड में स्थित संगठन है, इसलिए केंद्र सरकार नगालैंड को जो देना चाहती है, देने में कोई एतराज नहीं है, लेकिन सीमाओं की अखंडता टूटनी नहीं चाहिए. उन्होंने कहा कि इस समझौते से प्रभावित तीन राज्य मणिपुर, असम और अरुणाचल प्रदेश में भाजपा की सरकार है. तीनों राज्य के मुख्यमंत्रियों को केंद्र सरकार को स्पष्ट बताना चाहिए. लोगों की आशंका तभी दूर होगी, जब तीनों मुख्यमंत्री एकसमान निर्णय लेकर जनता को बता दें.

सरकारी अधिकारियों ने एनएससीएन (के) को 20 करोड़ रुपये दिए ः एनआईए
नगालैंड सरकार के अधिकारियों ने चार साल के अंतराल में नगालैंड के गैरकानूनी संगठन एनएससीएन (के) को राज्य के खजाने से 20 करोड़ रुपये दिए. यह खुलासा एनआईए (नेशनल इनवेस्टिगेशन एजेंसी) ने एक अखबार को किया. रिपोर्ट में लिखा कि इस मामले से संबंधित कागजात एवं पेमेंट स्लिप एनआईए के पास मौजूद हैं. इस बात से साफ हो गया कि गिरफ्‌तार अधिकारियों और एनएससीएन (के) के बीच गैरकानूनी कर वसूली का रैकेट चल रहा था. यह पहला मामला नहीं है कि इस तरह से नगालैंड सरकारी अधिकारियों के ऊपर एनएससीएन (के) को पैसा देने का आरोप लग रहा हो. 13 अक्टूबर 2017 को एनआईए ने नगालैंड सरकार के चार अधिकारियों को गिरफ्‌तार किया था. गिरफ्‌तार अधिकारियों में कृषि विभाग के एडिश्नल डायरेक्टर भिलेप्रल अजा, पर्यटन विभाग के पूर्व निदेशक पुराखु अंगामी, मत्स्य विभाग के सुप्रिटेंडेंट केख्रिस्टूवोटेप और सिंचाई और बाढ़ नियंत्रण विभाग के एक्जीक्यूटिव इंजीनियर के हुतोई सेमा शामिल हैं. रिपोर्ट में आगे कहा गया कि एनआईए के पास मौजूद कागजात और पेमेंट स्लीप इन अधिकारियों द्वारा हस्तलिखित है. गांधीनगर स्थित सेंट्रल फोरेंसिक साइंस लेबोरेट्री के हस्तलेखन विशेषज्ञों ने इस बात की पुष्टि की. कागजात के अनुसार यह मालूम हुआ कि इन अधिकारियों ने 2012 से लेकर एनएससीएन (के) और अन्य गुटों को 20 से 25 करोड़ रुपये दिए.

Wednesday, August 22, 2018

मणिपुर फर्जी मुठभेड़ में हेड कांस्टेबल की सुप्रीम कोर्ट में स्वीकारोक्ति

डायरी में छुपे हैं राज

मणिपुर में 23 जुलाई 2009 को संजीत फर्जी मुठभेड़ मामला राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में रहा था. दिल्ली से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका ने इस मुठभेड़ से जुड़ी 12 तस्वीरें छाप कर राज्य के पुलिसकर्मियों की पोलपट्‌टी खोल दी थी. उन तस्वीरों में साफ-साफ दिखाया गया था कि कैसे इम्फाल में तैनात पुलिस कमांडो द्वारा फर्जी एनकाउंटर को अंजाम दिया गया था. इस फर्जी मुठभेड़ को अंजाम देने वाला मणिपुर पुलिस कमांडो के हेड कांस्टेबल थौनाउजम हेरोजीत ने 2016 में स्वीकार किया था कि इस मुठभेड़ को उन्होंने इंफाल ईस्ट के एएसपी डॉ. अकोइजम झलजीत सिंह के आदेश पर अंजाम दिया था. कांस्टेबल थौनाउजम हेरोजीत की स्वीकृति के बाद अब उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में एक हलफनामा दाखिल किया है. सात जनवरी 2018 को सुप्रीम कोर्ट में डिविजनल बैंच में सूचीबद्ध कर कोर्ट ने उनकी बात सुनी. कोर्ट में दाखिल हलफनामे में बताया गया कि राज्य में 2003 से 2009 तक यानी छह साल में मणिपुर पुलिस द्वारा किए गए एनकाउंटरों में वह शामिल था. इन एनकाउंटरों के बारे में वह सभी बात जानता है. उन एनकाउंटरों को उसने अधिकारियों के आदेश पर ही अंजाम दिया था, जिसमें संजीत एनकाउंटर भी शामिल है.

सुप्रीम कोर्ट में कांस्टेबल हेरोजीत ने स्वीकार किया कि कथित एनकाउंटर में उन्होंने नाइनएमएम पिस्टल का इस्तेमाल किया था. हलफनामा में लिखा है कि अप्रैल 30, 2016 की रात साढ़े आठ बजे बिना नंबर प्लेट की एक गाड़ी ने आकर उनकी गाड़ी को टक्कर मारी और उन्हें मारने की कोशिश की गई. हेरोजीत को शक है कि सीनियर अधिकारियों के बारे में पोलपट्‌टी खुलने के कारण कहीं वे लोग उसका भी एनकाउंटर ना कर दें. कांस्टेबल हेरोजीत इन छह साल के बीच राज्य में हुए एनकाउंटर, जिसमें वे शामिल हैं, के बारे में अपनी डायरियों में लिखकर रखता था. वह एनकाउंटर में मारे गए लोगों का नाम, पता, उम्र, मां बाप का नाम, घटनास्थल का नाम, लोगों को पकड़ने की तिथि एवं मारने की तिथि, पीड़ित को मारे या पकड़े जाने की मार्किंग और सीनियर अधिकारियों का कोल साइन (वायरलैस कोड) आदि सबका रिकॉर्ड रखता था. लेकिन उनकी डायरियां इंफाल वेस्ट कमांडो कंप्लेक्स, उनके क्वार्टर से सीबीआई ने 2010 में जब्त कर लिया. कांस्टेबल हेरोजीत ने बताया कि संजीत एनकाउंटर समेत सभी एनकाउंटरों के बारे में उनकी स्वीकृति के बाद भी सीबाआई ने संबंधित कोर्ट में उनके बयान नहीं लिए हैं और अब तक चुप्पी साधे हुए है. हेरोजीत को लगता है कि यह उन मामलों को दबाने की साजिश है. उन्होंने सुप्रीम कोर्ट में हलफनामा इसलिए फाइल किया ताकि सीबीआई द्वारा जब्त उनकी डायरियों को सुप्रीम कोर्ट के सामने लाया जा सके. इन डायरियों के सामने आने से मणिपुर में हुए कई फर्जी मुठभेड़ मामलों की गुत्थी सुलझ सकती है, जिनमें सुप्रीम कोर्ट जांच का आदेश दे चुकी है. 
  
गौरतलब है कि एक्सट्रा जुडिशियल एक्जिक्यूशन विक्टिम फैमिलिज एसोसिएशन (ईईवीएफएएम) और ह्‌यूमन राइट्‌स अलर्ट ने एक पीटिशन सितंबर 2012 को सुप्रीम कोर्ट में फाइल की थी. इस पीटिशन में लिखा गया था कि 1979 से 2012 तक मणिपुर में मुठभेड़ की घटने में 1528 लोग मारे गए, जिन पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुई. इस एसोसिएशन की मांग है कि सुप्रीम कोर्ट की
देख-रेख में इन मुठभेड़ों की जांच-पड़ताल हो. यह याचिका कोर्ट ने मंजूर कर लिया. सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस मदन बी लोकुर एवं जस्टिस उदय यू ललित की डिविजन बेंच ने सीबीआई को जांच करने का आदेश दिया था. साथ में 31 दिसंबर 2017 तक जांच पूरी करने और इन 1528 मामलों में से 98 मामले की रिपोर्ट 2018 की जनवरी के पहले सप्ताह तक सौंपने का भी आदेश दिया था. लेकिन अब तक इसका कोई सार्थक परिणाम सामने नहीं आया है.

आंकड़ों पर गौर करें, तो राज्य में 2003 में फर्जी मुठभेड़ों में 90 लोग मारे गए थे. वहीं 2008 में यह संख्या बढ़कर 355 हो गई. राज्य में कुल 60 असम रायफल्स कंपनी, 37 सीआरपीएफ कंपनी और 12 बीएसएफ कंपनी तैनात है. यहां के निवासियों के लिए गोलीबारी, बम धमाका आम बात हो चुकी है.
इस मामले में भाजपा की मणिपुर इकाई ने मार्च 2017 को प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर मांग की है कि इबोबी सिंह के कार्यकाल में हुए सभी फर्जी मुठभड़ों की जांच कराई जाए. यह मांग तब की गई थी, जब राज्य में चुनाव होने थे. पीएमओ को भेजी गई इस चिट्‌ठी में मणिपुर भाजपा की तरफ से कहा गया था कि 2002 से 2012 तक जब इबोबी सिंह मुख्यमंत्री के साथ-साथ गृहमंत्री भी थे, उस दौरान कई फर्जी मुठभेड़ हुए जिसमें कई निर्दोष लोग मारे गए. उन लोगों के साथ न्याय हो, इसके लिए जरूरी है कि इन मामलों की निष्पक्ष जांच कराई जाए. लेकिन अब राज्य में चुनाव हो चुके हैं. भाजपा की सरकार बन गई है, फिर भी अबतक इस मामले में भाजपा मणिपुर प्रदेश की तरफ से कोई बयान या कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया. मुख्यमंत्री एन बिरेन सिंह चुनाव जीतने के बाद पहाड़ की ओर चलो नारा के तहत वहां के लोगों के लिए कार्य कर रहे हैं, लेकिन इन मुठभेड़ों को जिसे सुप्रीम कोर्ट ने भी गलत ठहराया था, के मामलों में मुख्यमंत्री बिरेन की तरफ से कोई कदम नहीं उठाया गया है. ऐसे में सवाल यह है कि आमतौर पर कहीं भी  फर्जी मुठभेड़ मामले सामने के बाद जांच होती है, ताकि सच सामने आ जाए. लेकिन मणिपुर में हुए मुठभेड़ के मामलों में मुठभेड़ को अंजाम देने वाला कांस्टेबल ने खुद कोर्ट के सामने स्वीकार किया, फिर भी इस पर कार्रवाई क्यों नहीं हो रही है? और सबसे बड़ा सवाल यह है कि कांस्टेबल की डायरी का क्या होगा? क्या उसके आधार पर जांच आगे बढ़ेगी या उसे दबा दिया जाएगा, उस डायरी में आखिर ऐसा क्या दर्ज है, जिसे वो कांस्टेबल सुप्रीम कोर्ट में जमा करवाना चाहता है? इन सवालों का जवाब तो आखिरकार सीबीआई को ही देना है.

Friday, September 15, 2017

राज्य कहे अफस्पा हटाओ केंद्र कहे अफस्पा लगाओ

अफस्पा (आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट) महज एक शब्द नहीं, बल्कि एक विवादास्पद कानून है, जिसकी आड़ में कई निर्दोष लोगों की जानें चली गईं. अफस्पा को लेकर समय-समय पर जम्मू-कश्मीर समेत पूर्वोत्तर के कई राज्यों से विरोध की आवाज उठती रही है. स्थानीय सरकारें एवं केंद्र सरकारों के बीच अफस्पा एक विवाद का मुद्दा रहा है. हाल में एक खबर आई कि असम सरकार केंद्र की सिफारिशों से पहले राज्य के कुछ इलाकों से विवादित आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट हटाने पर विचार कर सकती है. गौरतलब है कि असम को अशांत इलाका घोषित करते हुए केंद्र सरकार ने 27 नवंबर 1990 को इस अधिनियम को लागू किया था. केंद्र सरकार ने उल्फा के नेतृत्व में आतंकवाद पर काबू पाने के लिए पूरे राज्य में अफस्पा लगाने का फैसला लिया था.

असम सरकार इस कानून को पूरे राज्य से हटाने की कोशिश पहले से कर रही थी. गृह मंत्रालय के साथ हुई बैठक में राज्य सरकार ने यह मुद्दा उठाया था कि राज्य के कई हिस्सों से इस अधिनियम को हटाया जाए. राज्य के एडीजी (स्पेशल ब्रांच) पल्लब भट्टाचार्य ने बताया कि राज्य के किन-किन इलाकों से अफस्पा हटाया जाना चाहिए, यह फैसला चर्चा के बाद लिया जाएगा. उन्होंने बताया कि राज्य में बड़ी संख्या में सेना के जवान तैनात हैं. अगर इस अधिनियम को कुछ इलाकों से वापस लेना है तो राज्य सरकार को उन क्षेत्रों में वैकल्पिक सुरक्षा का इंतजाम करना होगा. इसके बाद इस अधिनियम के बजाय, उन क्षेत्रों में कार्रवाई करने के लिए आईपीसी का इस्तेमाल किया जाएगा.

यह खबर आने के 24 घंटे बाद ही केंद्र सरकार ने आदेश जारी किया कि अफस्पा कानून के तहत पूरे असम को और तीन महीनों के लिए अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया गया है. केंद्र ने यह कदम विद्रोही समूहों उल्फा (यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम), एनडीएफबी (नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड) और अन्य विद्रोही समूहों की विभिन्न हिंसक गतिविधियों का हवाला देते हुए उठाया है. एक गजट अधिसूचना में गृह मंत्रालय ने कहा कि मेघालय से लगे सीमावर्ती क्षेत्रों के अलावा समूचे असम को अफस्पा के तहत तीन मई से तीन महीने के लिए अशांत घोषित कर दिया गया है. मंत्रालय ने कहा कि असम में 2016 में हिंसा की 75 घटनाएं हुईं, जिसमें चार

सुरक्षाकर्मियों सहित 33 लोग मारे गए और 14 अन्य लोगों का अपहरण किया गया. इसके अलावा 2017 में हिंसा की नौ घटनाएं हुई हैं जिसमें दो सुरक्षाकर्मी समेत चार लोग मारे गए. इन सभी हिंसा की वारदातों को विद्रोही गुटों यानी उल्फा और एनडीएफबी ने अंजाम दिया. एक दूसरे गजट नोटिफिकेशन में केंद्रीय गृह मंत्रालय ने अरुणाचल प्रदेश के तीन जिलों तिराप, चांगलंग और लोंगडिंग के अलावा असम की सीमा से लगते 16 पुलिस थानों में पड़ने वाले इलाकों को भी  तीन महीनों के लिए अशांत क्षेत्र घोषित कर दिया है. गृह मंत्रालय ने इस फैसले को यह कहकर सही ठहराया है कि इन इलाकों में एनएससीएन (आईएम), एनएससीएन (के), उल्फा, एनडीएफबी जैसे गुट हिंसा फैला रहे हैं.
इन दो खबरों से एक आम पाठक भ्रमित जरूर हो सकता है. एक तरफ राज्य सरकार कह रही है कि राज्य में हिंसा कम हो रही है, इसलिए अफस्पा हटाने की कोशिश की जा रही है, तो दूसरी तरफ केंद्र सरकार ने विद्रोही समूहों की विभिन्न हिंसक गतिविधियों का हवाला देते हुए अफस्पा को पूरे राज्य में तीन महीने बढ़ाने के लिए कदम उठाया है. तीन जनवरी 2017 को नागालैंड में भी केंद्र सरकार ने अशांत राज्य बताकर अफस्पा छह महीने के लिए बढ़ाया था. पिछले कई दशक से असम समेत पूर्वोत्तर के राज्यों में हिंसक गतिविधियां होती रही हैं. इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है, लेकिन सवाल यह है कि आखिर कब तक पूर्वोत्तर के राज्यों को अशांत बताकर अफस्पा को बनाए रखेंगे. आजादी के इतने साल बाद भी देश के कुछ हिस्सों में वही दमनकारी नीति क्यों अपनाना पड़ा? जब कोई राज्य सरकार अपनी इच्छाशक्ति दिखाकर अफस्पा   हटाने की कोशिश करती है, तो केंद्र सरकार उसे बनाए रखने का प्रयास करती है. लेकिन असम में अब भाजपा की नवनिर्मित सरकार है. असम की भाजपा सरकार का यह निर्णय केंद्र की भाजपा सरकार के खिलाफ कैसे हो सकता है? ऐसा तो नहीं कि अफस्पा को लेकर राज्य और केंद्र सरकार में मतभेद की स्थिति पैदा हो गई है.

गौरतलब है कि 2015 को त्रिपुरा से अफस्पा हटाया गया था. इससे यह बात साफ हो गई कि अगर राज्य सरकार मजबूत इच्छाशक्ति का परिचय दे और कानून-व्यवस्था दुरुस्त हो, तो किसी भी राज्य से अफस्पा हटाया जा सकता है. यह स्थानीय सरकार की ईमानदार कोशिश का नतीजा है कि इतने विवादास्पद कानून को बिना रोक-टोक के राज्य से हटा लिया गया. 16 फरवरी 1997 को केंद्र सरकार ने त्रिपुरा में अफस्पा लगाया था, जब राज्य में विरोधी गुट नेशनल लिबरेशन फ्रंट ऑफ त्रिपुरा और ऑल त्रिपुरा टाइगर फोर्स चरम पर था. दोनों गुट अब भी बांग्लादेश में सक्रिय हैं और वहीं हथियार का प्रशिक्षण ले रहे हैं. इन गुटों की मांग है कि त्रिपुरा को भारत से अलग किया जाए.

दूसरी तरफ मणिपुर में भी कई दशकों से इस कानून को हटाने को लेकर विरोध चल रहा है. इरोम शर्मिला इस कानून के खिलाफ 16 साल आमरण अनशन कर चुकी हैं. राज्य में अफस्पा को लेकर संतोष हेगड़े एवं जस्टिस जीवन रेड्डी कमेटी गठित की गई थी, जिसने अपनी रिपोर्ट में इस कानून को दोषपूर्ण बताया था. सुप्रीम कोर्ट ने भी 2013 में राज्य में मुठभेड़ के छह मामलों को लेकर फैसला सुनाया था. फैसले में सभी मुठभेड़ को फर्जी बताया गया था. इतना कुछ होने के बाद भी राज्य में अफस्पा को लेकर स्थानीय सरकार कोई कदम नहीं उठा रही है. राज्य की नव निर्मित भाजपा सरकार भी अबतक अफस्पा हटाने को लेकर गंभीर नहीं दिखाई देती है.

क्या है आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट (अफस्पा)

आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट संसद में 11 सितंबर 1958 को पारित किया गया था. यह कानून पूर्वोत्तर के अशांत राज्यों जैसे असम, मणिपुर, मेघालय, अरुणाचल प्रदेश, मिजोरम एवं नागालैंड में लागू है. यह कानून अशांत क्षेत्रों में सेना को विशेषाधिकार देने के लिए बनाया गया था. 1958 में अफस्पा बना तो यह राज्य सरकार के अधीन था, लेकिन 1972 में हुए संशोधन के बाद इसे केंद्र सरकार ने अपने हाथों में ले लिया. संशोधन के मुताबिक किसी भी क्षेत्र को अशांत क्षेत्र घोषित कर वहां अफस्पा लागू किया जा सकता है. इस कानून के तहत सेना को किसी भी व्यक्ति को बिना कोई वारंट के तलाशी या गिरफ्तार करने का विशेषाधिकार है. यदि वह व्यक्ति गिरफ्तारी का विरोध करता है तो उसे जबरन गिरफ्तार करने का पूरा अधिकार सेना के जवानों को है. अफस्पा कानून के तहत सेना के जवान किसी भी व्यक्ति की तलाशी केवल संदेह के आधार पर ले सकते हैं. गिरफ्तारी के दौरान सेना के जवान जबरन उस व्यक्ति के घर में घुस कर तलाशी ले सकते हैं. सेना के जवानों को कानून तोड़ने वाले व्यक्ति पर इस कानून के तहत फायरिंग का भी पूरा अधिकार है. अगर इस दौरान उस व्यक्ति की मौत भी हो जाती है तो उसकी जवाबदेही फायरिंग करने या आदेश देने वाले अधिकारी पर नहीं होगी.