यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Monday, November 5, 2012

मैंने इरोम को नहीं देखा



मैंने इरोम को नहीं देखा. मैंने देखी है एक तस्वीर. उलझे बाल. नाक में पाइप. फूली हुई आंखें. लेकिन चेहरे पर एक अजीबोगरीब दृढता मानो हिमालय टकराए तो चूर चूर हो जाए.

एक और तस्वीर जो ज़ेहन में बार बार उभरती है जब कभी उत्तर पूर्व के बारे में सोचता हूं. कई निर्वस्त्र औरतें विरोध करतीं. ये सुरक्षा बलों के अत्याचारों का विरोध कर रही थीं. कोई औरत किसी मुद्दे के लिए अपने कपड़े उतार दे. ऐसा न पहले देखा था न सुना था.

अखबारों की रद्दी में कहीं दब गई है वो तस्वीर भी वैसे ही जैसे राजनीतिक आरोप- प्रत्यारोप में दब जाते हैं असल मुद्दे. असल लोग, आम आदमी और उसका असल विरोध.

रह जाते हैं बयान. पश्चाताप और इधर उधर बिखरे कुछ पन्ने जो हर साल पढ़े जाते हैं. याद किए जाते हैं. जिन पर ब्लॉग लिखे जाते हैं और कोई टटपूंजिया नारा दिया जाता है कि इरोम तुम संघर्ष करो.

इरोम के साथ संघर्ष करने की ज़रुरत किसी को नहीं है. इरोम अकेले काफी है. 12 साल से वो लगातार संघर्ष कर रही है. सरकार कहती है कि वो शर्मिंदा है. (बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लै ने यही कहा था कि इरोम की भूख हड़ताल सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण है)

बात सही है शर्मिंदा सरकारें कदम नहीं उठातीं. अपनी शर्मिंदगी के बोझ में लोगों को मरने के लिए छोड़ देती है.
इरोम ने 12 साल पहले आज के ही दिन ये संघर्ष शुरु किया था. हो सकता है कि 2024 में भी कोई लिखे कि ठीक 24 साल पहले इरोम ने इसी दिन संघर्ष शुरु किया था.

मैं इरोम जैसे लोगों से डरता हूं. उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा से डरता हूं. पता नहीं सरकार क्यों नहीं डरती है. सरकार को शर्मिदा होने की बजाय डरना चाहिए. कहीं देश के और लोग भी इरोम शर्मिला न हो जाएं.

लिखते लिखते याद आया अतुल्य भारत (incredible India) के प्रचार में पूर्वोत्तर छाया रहता है....लेकिन पता नहीं इस अतुल्य भारत में इरोम की जगह है या नहीं.

-सुशील्‍ा झा
सौजन्‍य - बीबीसी हिंदी

Tuesday, September 25, 2012

मैरी कॉम पर बनने वाली फिल्म दिलों को जोड़ पाएगी ?


मणिपुर में पीपुल लिबरेशन आर्मी (पीएलए) की राजनीतिक शाखा रिबोल्यूशनरी पीपुल्स फ्रंट (आरपीएफ) ने हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन और हिंदी चैनल पर हिंदी फिल्मों के प्रसारण पर सितंबर 2000 से प्रतिबंध लगाया हुआ है. उनका मानना है कि हिंदी फिल्में मणिपुरी कल्चर को बिगाड़ती हैं. इससे यहां के लोगों की मानसिकता दूषित होती है. इसी प्रतिबंध के कारण 15-18 अप्रैल, 2012 को इंफाल में आयोजित इंटरनेशनल सोर्ट फिल्म फेस्टिवल में 18 हिंदी फिल्मों को नहीं दिखाया गया था. चूंकि यह एकमात्र बहाना है. वहां के उग्रवादी संगठन शुरू से ही भारत के प्रति अपनी उग्रता दिखाते रहे हैं. उनको लगता है कि भारतीय होना एक थोपी गई साज़िश है. दूसरी ओर आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट की आड़ में सेना की करतूत ने भी इस बग़ावत को हिंदी से जोड़ दिया है. उनका मानना है कि हिंदी का मतलब हिंदुस्तान.

मणिपुर में हिंदी भाषा और फिल्मों पर प्रतिबंध लगाना भारत से विरोध करने का एक प्रतीक है. हद तो तब हो गई, जब कहीं हिंदी गाना बजते हुए सुन लेने पर गाना बजाने वाले को पकड़ कर पीटना, ब्लैड से चेहरे पर काटना और गोली तक मार देना शुरू हो गया. यहां हिंदी गानों और फिल्मों के प्रति इतना हिंसक विरोध है. क्या ऐसे में संजय लीला भंसाली द्वारा मैरी कॉम पर बनने वाली फिल्म इस खाई को पाटने में सफल होगी? बहरहाल, हिंदी फिल्मों पर प्रतिबंध लगाने से मणिपुर में कोरिया फिल्म की धमक बढ़ती जा रही है. युवा पीढ़ी कोरिया फिल्म में का़फी दिलचस्पी ले रही है. इसका नतीजा इस रूप में सामने आ रहा है कि मणिपुरी युवा कोरियन हेयर स्टाइल रखना पसंद करने लगे हैं. वहां के परिधान अब इन युवाओं की पसंद बन गए हैं. वैसे मणिपुर फिल्म इंडस्ट्री कई मायनों में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बना चुकी है. ओइनाम गौतम द्वारा निर्देशित फीचर फिल्म फीजीगी मणि को 2011 में आयोजित 59वें राष्ट्रीय फिल्म पुरस्कार समारोह में क्षेत्रीय फिल्म का पुरस्कार मिला था.


मणिपुरी भाषा को अगस्त 1992 में आठवीं सूची में शामिल किया गया था. इसके बाद भी प्राथमिक कक्षा से आठवीं कक्षा तक हिंदी की पढ़ाई होती है. मणिपुर बोर्ड के सिलेबस में हिंदी विषय अनिवार्य कर दिया गया. मणिपुर में गांव-गांव में लोग हिंदी गाना गुनगुना लेते हैं. हिंदी नहीं जानने के बावजूद बच्चा-बच्चा हिंदी गाना गाता है. पुष्पारानी मणिपुर की एक प्लेबैक सिंगर है. वह 1997 में सारेगामापा सांग कंपिटीशन में गाती थी. इसका कार्यक्रम का संचालन कर रहे सोनू निगम ने कहा था कि पुष्पारानी को न अंग्रेजी आती है और न हिंदी, मगर उसने इतनी ब़खूबी से लता जी के ऐ मेरे वतन के लोगों गाया. मंच पर उपस्थित लोग अवाक रह गए थे. मणिपुर के लोग हिंदी नहीं जानने के बावजूद टीवी पर हिंदी फिल्में देखते हैं. सुपरस्टार अमिताभ बच्चन को हर कोई चाहता है. हिंदी फिल्मों के प्रदर्शन और प्रसारण पर रोक लगाने से लोगों की हिंदी फिल्मों में रुचि कम नहीं हुई. पाइरेटेड फिल्में गुवाहाटी, कोलकाता और दिल्ली से आती हैं. साथ में दूरदर्शन और डीटीएच पर प्रसारित हिंदी फिल्में और कार्यक्रम भी यहां ़खूब देखे जाते हैं. भले ही मणिपुर में हिंदी फिल्में प्रतिबंधित हों, लेकिन वहां के लोगों के दिल में रचे-बसे हिंदी गाने और हिंदी फिल्मों को कभी प्रतिबंधित नहीं किया जा सकता.

मैरी कॉम मणिपुर की राजधानी इंफाल से 35 किमी दूर चुराचांदपुर ज़िले के गांव कांगाथेल में जन्मी थीं. चारों भाई बहनों में सबसे बड़ी मैरी कॉम का परिवार बहुत ही ग़रीब था. उनकी मां मांगते अखम कॉम और बाप मांगते तोनपा कॉम पहाड़ में खेतीबा़डी करके परिवार चलाते थे. मैरी कॉम भी पहाड़ से लकड़ी काटती और मां-बाप के साथ झुमिंग फार्मिंग में सहायता करती थीं. प्राथमिक स्कूली शिक्षा लोकताक क्रिश्चियन मॉडल स्कूल मोइरांग से शुरू कर आठवीं कक्षा सेंजेबीयर कैथोलिक स्कूल मोइरांग में ख़त्म  की. नौवीं और दसवीं कक्षा की प़ढाई आदिम जाति इंफाल के स्कूल से की, मगर दसवीं कक्षा पास नहीं कर पाईं. इसलिए उन्होंने ओपन स्कूल से दसवीं पास की और चुराचांदपुर कॉलेज से बीए पास किया. उन्होंने के उनलर कॉम से शादी की. उनके जुड़वां बच्चे रेचुंगवर और खुपनेवर हैं. मैरी कॉम को बॉक्सिंग के अलावा गिटार बजाना भी पसंद है. शाहरु़ख खान उनके पसंदीदा बॉलीवुड हीरो हैं.

मणिपुर में हिंदी फिल्मों पर प्रतिबंध है, मगर मैं विश्वास करती हूं कि इस फिल्म के रिलीज होने पर बेहतर बदलाव आएगा. यह फिल्म मेरी ज़िंदगी और संघर्ष पर आधारित है. मैं आशा करती हूं कि इस फिल्म का मेरी मातृभूमि में स्वागत होगा. -मैरी कॉम

Thursday, September 13, 2012

ज़मीन की एक लड़ाई यहां भी

क्या पूर्वोत्तर को तभी याद किया जाएगा, जब कोई सांप्रदायिक हिंसा होगी, जब लोगों का खून पानी बनकर बहेगा? या तब भी उनके संघर्ष को वह जगह मिलेगी, उनकी आवाज़ सुनी-सुनाई जाएगी, जब वे अपने जल, जंगल एवं ज़मीन की लड़ाई के लिए शांतिपूर्ण तरीके से विरोध करेंगे? मणिपुर में तेल उत्खनन के मसले पर जारी जनसंघर्ष की धमक आ़खिर तथाकथित भारतीय मीडिया में क्यों नहीं सुनाई दे रही है? 


                                                   Oil Extraction Can Spell Doom 

17 अगस्त, 2012. मणिपुर के तमेंगलोंग जिले का नुंगबा कम्युनिटी हॉल. सरकार द्वारा एक जन सुनवाई का आयोजन किया गया था, ताकि लोग अपनी आपत्तियां सरकार के समक्ष रख सकें.  मणिपुर पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड ने इस जन सुनवाई का आयोजन किया था. उसमें स्थानीय ग्रामीणों ने विरोध प्रदर्शन किया. लोग हाथों में बैनर लिए हुए थे और तेल खनन के  खिला़फ  नारे लगा रहे थे. इस वजह से जन सुनवाई नहीं हो पाई. विरोध कर रहे 15 ग्रामीणों के  खिला़फ  नुंगबा पुलिस ने एफआईआर संख्या 23/8/2012, आईपीसी की धारा 148, 149, 341, 353 एवं 506 के अंतर्गत मुकदमा दर्ज किया है. यानी संगठित रूप से हथियार बंद लोगों द्वारा सरकारी काम में बाधा पहुंचाने और दंगा फैलाने का आरोप लगाया गया है. इनमें से कुछ लोग सरकारी कर्मचारी भी हैं, जिन्हें संबंधित विभागों ने आत्मसमर्पण करने के  लिए कहा है. उक्त घटना भारत सरकार और नीदरलैंड की कंपनी के बीच हुए एक अनुबंध का नतीजा है. भारत सरकार की मिनिस्ट्री ऑफ पेट्रोलियम एंड नेचुरल गैस के अनुदान पर नीदरलैंड की जुबिलियंट ऑयल एंड गैस प्राइवेट लिमिटेड (जेओजीपीएल) को 2009 में मणिपुर के दो खंडों जिरिबाम (इंफाल ईस्ट), तमेंगलोंग और चुराचांदपुर जिले में पेट्रोलियम पदार्थ ढूंढने और खुदाई करने (ड्रिलिंग) का काम दिया गया था. अब कंपनी यहां तेल का उत्पादन करना चाहती है. मणिपुर का क्षेत्रफल 22327 वर्ग किमी है. तेल निकालने के लिए बोरिंग वाले इलाके का क्षेत्रफल 4000 वर्ग किमी है यानी प्रदेश के छठवें हिस्से का इस्तेमाल तेल उत्पादन के लिए किए जाने की योजना है. यह कहा गया है कि मणिपुर में 5000 बिलियन क्यूबिक फीट तेल उपलब्ध है. फिलहाल तेल के 30 कुओं से तेल उत्खनन के लिए काम चल रहा है.

दरअसल, एसईएनईएस कंसल्टेंट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने एक सर्वे किया था, जिसकी एनवायरमेंट एसेसमेंट रिपोर्ट के आधार पर 17 अगस्त को उक्त जन सुनवाई हो रही थी. इसकी अध्यक्षता एडिशनल डिस्ट्रिक मजिस्ट्रेट जिरिबाम वाई इबोयाइमा ने की. अजय विसेन कंपनी का प्रतिनिधित्व कर रहे थे. उत्पादन के बंटवारे के अनुबंध पर हस्ताक्षर भारत सरकार और नीदरलैंड के जुबिलियंट ऑयल एंड गैस प्राइवेट लिमिटेड के बीच 19 जुलाई, 2010 को हुए थे. प्रोडक्शन शेयरिंग के पहले खंड (एए-ओएनएन 2009/1) के लिए हस्ताक्षर 30 जून, 2010 को किए गए थे और उसका लाइसेंस मणिपुर सरकार ने 23 सितंबर, 2010 को दिया था. दूसरे खंड (एए-ओएनएन 2009/2) के लिए हस्ताक्षर 19 जुलाई, 2010 को हुए और लाइसेंस 20 सितंबर, 2010 को दिया गया. एक्सप्लोरेशन लाइसेंस की डीड पर हस्ताक्षर 15 नवंबर, 2010 को स्थानीय लोगों को जानकारी दिए बिना करा लिए गए. इंफाल के चुराचांदपुर और जिरिबाम सब डिवीजन के लोगों को उन नियम-कायदों के बारे में जानकारी नहीं है, जिनके तहत केंद्र सरकार, राज्य सरकार और जुबिलियंट ऑयल एंड गैस प्राइवेट लिमिटेड के बीच तेल खनन के लिए सहमति बनी है. इसके अलावा पर्यावरण संबंधी रिपोर्ट भी स्थानीय भाषाओं जैसे जेमी, लियांगमै एवं कुकी आदि में नहीं है, जो कि जन सुनवाई की प्रक्रिया के लिए बहुत ज़रूरी है. अभी तक मणिपुर में खोजे गए पेट्रोलियम ऑयल की मात्रा का खुलासा प्रभावित होने वाले और प्रदेश के अन्य लोगों के सामने नहीं किया गया. अभी तक मणिपुर के स्थानीय लोगों को औपचारिक रूप से यह सूचित नहीं किया गया है कि वहां पेट्रोलियम ऑयल मिला है और उसे निकालने का ठेका एक विदेशी कंपनी को दिया गया है.

बहरहाल, इस कार्य से वहां के पर्यावरण पर भी गहरा असर पड़ेगा. पेड़-पौधों और जीव-जंतुओं को भी भारी नुकसान होगा. यह इलाका पर्यावरण की दृष्टि से बहुत संपन्न है. दवाओं के रूप में इस्तेमाल किए जाने वाले पेड़-पौधे भी बड़ी मात्रा में उपलब्ध हैं. वैसे भी तमेंगलोंग पर्यावरण के हिसाब से संवेदनशील क्षेत्र है. वन्य जीवन के अस्तित्व के स्रोतों और समुदायों को नज़रअंदाज किया गया है. बहुत सारे ऐसे सबूत मिले हैं, जिनसे यह मालूम हुआ है कि तेल के रिसाव, उसकी जांच, खुदाई (ड्रिलिंग), दुर्घटना और पाइप लाइन फटने के कारण नदियों एवं अन्य जल स्रोतों का पानी दूषित हो जाता है. तेल की खोज के दौरान मिट्टी, पानी एवं खाद्य पदार्थ प्रदूषित हो जाते हैं और वनों एवं जलवायु को भी नुकसान होता है. बराक, इरंग, मक्रू और अन्य सहायक नदियों पर पेट्रोलियम की खोज और ड्रिलिंग का प्रभाव सबसे पहले पड़ेगा. यह प्रोजेक्ट इस क्षेत्र की जैव विविधता, हॉट स्पॉट जोन और भारत एवं पड़ोसी देशों के बीच स्थित जलीय आवास को नष्ट कर देगा, जिसके चलते कई जीव विलुप्ति की कगार पर पहुंच जाएंगे.


तेल की खुदाई नहीं होने देंगे : सिविल सोसायटी
मणिपुर प्रेस क्लब में इस मामले को लेकर सामाजिक संस्थाओं ने बैठक की, जिसमें ऑल जेलियांगरोंग स्टूडेंट यूनियन, जेलियांगरोंग बावड़ी, नगा वुमेंस यूनियन, नॉर्थ-ईस्ट डायलॉग फोरम, लाइफवाच, जोमी ह्यूमन राइट्‌स फाउंडेशन, सेंटर फॉर ऑर्गेनाइजेशन रिसर्च एंड एजुकेशन, सिनलुंग इंडिजिनस पीपुल्स ह्यूमन राइट्‌स ऑर्गेनाइजेशन, एक्शन कमेटी अगेंस्ट टिपाइमुख प्रोजेक्ट, सिटीजन कोसेन फॉर डैम एंड डेवलपमेंट, टमेंगलोंग विलेज अथॉरिटी, नगा पीपुल्स मूवमेंट फॉर ह्यूमन राइट्‌स एमोंग अदर्स आदि संगठनों ने कहा कि विकास के नाम पर विध्वंसात्मक कार्य नहीं होने देंगे. राज्य सरकार, केंद्र सरकार एवं जुबिलियंट ऑयल प्राइवेट लिमिटेड को मणिपुर में तेल की खोज और उत्खनन कार्य तब तक नहीं करना चाहिए, जब तक स्थानीय लोगों से चर्चा करके सहमति नहीं ली जाती. उन्होंने कहा कि यूएन द्वारा घोषित स्थानीय लोगों के अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जाना चाहिए.

एनवायरमेंट इंपैक्ट एसेसमेंट रिपोर्ट
एसईएनईएस (सेंस, हैदराबाद) कंसल्टेंट्स इंडिया प्राइवेट लिमिटेड ने एक सर्वे किया था, जिसकी एनवायरमेंट एसेसमेंट रिपोर्ट कहती है कि दो खंडों में तेल के कुल 30 कुएं हैं, जो 4000 वर्ग फीट में फैले हैं, जिनसे तेल की खुदाई की जाएगी. पहले खंड में 17 कुएं हैं और दूसरे खंड में 13. प्रत्येक कुआं 7 हेक्टेयर क्षेत्र में फैला हुआ है. तेल एक्सप्लोरेशन का उद्देश्य संभावित कच्चे तेल का भंडार निर्धारित करना, खोदना और परीक्षण करना है. साथ ही यह भी पता लगाना कि आगे पर्यात तेल भंडार है या नहीं. हर कुएं की गहराई का लक्ष्य 2500-4500 मीटर रखा गया है. रिपोर्ट कहती है कि खुदाई प्रक्रिया में प्रतिदिन 41 क्यूबिक मीटर अपशिष्ट जल निकाला जाएगा. रिपोर्ट में लिखा है कि इन जिलों (चुराचांदपुर, तमेंगलोंग एवं इंफाल ईस्ट) में जंगल का क्षेत्र क्रमश: 90.96 प्रतिशत, 88.11 प्रतिशत और 34.08 प्रतिशत है. साथ में वाइल्ड लाइफ सेंक्चुरी भी शामिल है. सबसे अहम बात यह कि इस जंगल  में से 9.76 प्रतिशत रिजर्व फॉरेस्ट है. यह अति संवेदनशील क्षेत्र है. यहां लोगों का प्रवेश वर्जित है. इसमें होल्लोक, गीब्बोन एप और हिमालियन भालू पाए जाते हैं. तमेंगलोंग जिला चीतों और गोल्डन बिल्लियों का भी घर है. अब सवाल यह है कि वन विभाग किसी निजी कंपनी को वहां तेल की खुदाई करने की अनुमति कैसे दे सकता है? 



मणिपुर पॉल्यूशन कंट्रोल बोर्ड द्वारा आयोजित जन सुनवाई में हिस्सा लेने वाले और तेल निकालने का विरोध करने वाले नुंगबा के ग्रामीणों के  खिला़फ  एफआईआर दर्ज करना बिल्कुल गलत है. इसका मतलब है मणिपुर सरकार, केंद्र सरकार और जुबिलियंट ऑयल एंड गैस प्राइवेट लिमिटेड मिलकर इस प्रदेश के आदिवासियों का हक छीनना चाहते हैं. यह ग्रामीणों के साथ सरासर धोखा है. वे अपने जंगल और ज़मीन की रक्षा करते हुए शांति से रहना चाहते हैं. 
-पामै तिंगेनलूंग, संयोजक, सीपीएनआर.

जन सुनवाई के दौरान इस प्रोजेक्ट के केवल फायदे ही ग्रामीणों को बताए गए, नुकसान नहीं. हम इस तरह तेल खुदाई का विरोध करते हैं. 
-जिरि ईमा मैरा पाइबी अपुनबा लुप (जीआईएमपीएएल). 


राज्य सरकार और जुबिलियंट ऑयल के बीच हुए एग्रीमेंट में यह नहीं लिखा है कि तेल के फैलाव और अन्य नुकसान की ज़िम्मेदारी कौन लेगा.
-राम वांगखैराकपम, पर्यावरण कार्यकर्ता.

Thursday, August 23, 2012

पूर्वोत्‍तर की सुनें पुकार


जब कभी मेरा पूर्वोत्‍तर जाना होता है, तो वहां के लोग मुझसे यही कहते हैं प्‍लीज, हमें तवज्‍जों दिलाने में मदद करें. हमारे साथ भी अन्‍य भारतीयों की तरह बर्ताव हो, बाहरी लोगों की तरह नहीं. वे लोग ऐसा क्‍यों महसूस करते हैं? आखिर हम देश के 28 में से इन 7 राज्‍यों की आवाज बेहतर ढंग से क्‍यों नहीं सुन पाते? आज डिजिटली जुडाव के इस दौर में भी भारत का यह हिस्‍सा खुद को अलग-थलग क्‍यों महसूस करता है? हाल ही में असम के दंगे और देश के कुछ शहरों से पूर्वोत्‍तर के आतंकित लोगों के सामूहिक पलायन जैसी घटनाएं बताती हैं कि हम उनकी बात नहीं सुन पा रहे हैं. इस क्षेत्र के कई मसले हैं, लेकिन उन्‍हें मुख्‍यधारा में तवज्‍जों नहीं मिल पाती. उनकी समस्‍याएं बढती जाती हैं और हम उनके बारे में कदाचित तभी चर्चा करते हैं, जब पानी सिर से उपर निकल जाता है.

हमें पूर्वोत्‍तर के लोगों की समस्‍याओं पर गौर करने के अलावा उनके प्रति सहानुभूति व करुणा दर्शाने की भी जरूरत है. मैं इस तरह की राजनीतिक जुमलेबाजियों का इस्‍तेमाल नहीं करना चाहता कि हम सब एक हैं और हमें पूर्वोत्‍तर के लोगों को अपने भाई-बहनों की तरह समझना चाहिए. सच कहूं तो इस तरह के उपदेशों का कोई अर्थ भी नहीं है. भारत एक देश हो सकता है और हम भी ज्‍यादातर दिल से अच्‍छे लोग हो सकते हैं. अलबत्‍ता इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हम संभवत: अंदरूनी तौर पर दुनिया के सबसे ज्‍यादा नस्‍लवादी राष्‍ट्र हैं. हां यह सच है कि हम सब राष्‍ट्रगान के सम्‍मान में उठ कर खडे हो जाते हैं. हम अपनी क्रिकेट टीम या ओलंपिक पदक विजेताओं की सफलता पर साथ मिल कर जश्‍न मनाते हैं, लेकिन इनके खत्‍म होते ही ऐसा लगता है मानो हम एक-दूसरे को अविश्‍वास की नजरों से देखते हुए नफरत के कारण तलाशने की कोशिश कर रहे हों. और अपनी इसी सतही सोच के चलते जब हमें कोई अपने से अलग नजर आता है तो हम उसके साथ भेदभाव करने लगते हैं. पूर्वोत्‍तर के लोग खूबसूरत व आकर्षक हैं. वे अपने नैन-नक्‍श ओर कदकाठी की वजह से हमसे थोडा अलग हैं. इस वजह से हम शेष भारतीय उनकी उपेक्षा करते हैं, उनका मजाक बनाते हैं या उन्‍हें अलग-थलग कर देते हैं. यह शर्मनाक ढंग से पुरातनपंथी और बीमार सोच की निशानी है. आखिर हम ऐसे कैसे हो गए? क्‍या हमारे स्‍कूलों में यह नहीं सिखाया गया कि हम खुली मानसिकता अपनाएं? यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिस पर हम गर्व करें. यह पूर्वोत्‍तरवासियों के मुकाबले हम जैसे अलगाववादी लोगों को कहीं ज्‍यादा छोटा बनाती है. यह चिंता की बात है. यदि हम अपने लोगों के बीच ऐसे मामूली फर्क को स्‍वीकार नहीं कर सकते, तो हम वैश्‍वीकृत दुनिया के साथ कभी कैसे जुड सकेंगे? क्‍या हम हर उस विदेशी का मजाक बनाएंगे, जो कारोबार के लिए भारत आता है और गोरा नहीं है (गोरों की तो हम स्‍वत: जीहुजूरी करने लगते हैं)?

क्‍या हम ऐसा ही राष्‍ट्र चाहते हैं, जहां पर लोग समानताओं के बजाय असमानताओं पर ज्‍यादा ध्‍यान देते हों? हालांकि हमारे ओर पूर्वोत्‍तर के लोगों के बीच हमारी सोच से कहीं अधिक समानता है. पूर्वोत्‍तर के युवा भी देश के बाकी हिस्‍सों के युवाओं की तरह अच्‍छी शिक्षा और बढिया नौकरी पाना चाहते हैं. पूर्वोत्‍तर के लोग भी अच्‍छे नेताओं के अभाव के साथ भ्रष्‍ट राजनेताओं, खराब बुनियादी ढांचे और तेजी से बढती महंगाई की मार झेल रहे हैं. उनके प्राकृतिक संसाधनों को भी लूटा जा रहा है. हमारी तरह पूर्वोत्‍तर के लोग भी एक लीटर पेट्रोल के लिए 70 रुपए से ज्‍यादा चुकाते हैं. वहां भी बिजली की कीमतों पर करों का बोझ है, भले ही राजनेताओं के करीबी लोगों को खदानें मुफ्त में मिल जाएं.

हां, हमारे आम दुखों में पूर्वोत्‍तरवासी भी शामिल हैं. यदि हम सब मिल कर काम करें तो अपने नेताओं पर ऐसी कुछ समस्‍याओं को खत्‍म करने के लिए दबाव डाल सकते हैं. या फिर हम अंदरूनी तौर पर यूं ही झगड़ते रहें. जैसा राजनेता चाहते हैं ताकि हम भेड़ों के झुंड की तरह उनके वोट बैंक बन जाएं और वे हमें लगातार लूटते रहे.

हम जैसे भारत के बाकी लोग ठंडे दिमाग से यह विचार करें कि किस तरह हमारी इस सतही नस्‍लवादी सोच ने न सिर्फ पूर्वोत्‍तरवासियों, बल्कि हमें भी नुकसान पहुंचाया है. उधर पूर्वोत्‍तर के लोग भी कुछ अग्रगामी, व्‍यावहारिक कदम उठा सकते हैं. इससे पूर्वोत्‍तर भूगोल के अध्‍यायों में सीमित रहने के बजाय वापस लोगों के जेहन में उभर आएगा.

यहां ऐसे पांच उपाय पेश हैं जो कारगर हो सकते हैं. पहला, वहां पर्यटन में तेजी लाई जाए. पूर्वोत्‍तर में प्राकृतिक सौंदर्य के कई बेहद दर्शनीय नजारे हैं जो पर्यटकों को लुभा सकते हैं. वहां कुछ और होटल परिसरों, कुछ विश्‍वस्‍तरीय रिसॉर्ट्स, थोडे-बहुत प्रमोशन और थोडी बेहतर कनेक्टिविटी के साथ चमत्‍कार हो सकता है. दूसरा, निम्‍न-कर/सेज टाइप शहर या इलाके के लिए लॉबिंग करने से भी मदद मिल सकती है. भारत को वैसे भी इस तरह के इलाकों की जरूरत है. यह निवेश, नाकरियों और महानगरीय संस्‍कृति को आकर्षित करेगा, जिसकी इस अंचल को बेहद जरूरत है. तीसरा, गुवाहाटी से बैंकॉक सड़कमार्ग के जरिए महज 2400 किमी दूर है. इंफाल-बैंकॉक की दूरी 2000 किमी से भी कम है. इसके अलट गुवाहाटी-मुंबई की दूरी 2800 किमी है. थाईलैंड-पूर्वोत्‍तर हाईवे के बारे में बातचीत चल रही है, जिसे शीर्ष प्राथमिकता दी जानी चािहए. पूर्वोत्‍तर इलाका सुदूर-पूर्व के लिए प्रवेश-द्वार बन सकता है. यह भारत के व्‍यापार के एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍से को नियंत्रित कर सकता है. यह भारत के व्‍यापार के एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍से को नियंत्रित कर सकता है. एक बार आप व्‍यापार करने लगें, फिर लोग आपको नजरअंदाज नहीं करते. चौथा, पूर्वोत्‍तर मीडिया की आवाजाही बढाने के लिए जमीन जैसे कुछ संसाधन मुहैया करा सकता है. एक बार वहां मीडिया की पर्याप्‍त मौजूदगी हो गई तो इस अंचल को बेहतर ढंग से कवर किया जाएगा. पांचवां, भव्‍य संगीत समारोह या कार्निवाल जैसे कुछ शानदार इवेंट्स जो स्‍थानीय संस्‍कृति से जुड़े होने के साथ-साथ शेष भारत को आकर्षित कर सकें, इस अंचल को हमसे बेहतर ढंग से जोड सकते हैं.

गौरतलब है कि पूर्वोत्‍तर अक्‍सर गलत कारणों से खबरों में रहता आया है. हम शेष भारतीयों ने पूर्वोत्‍तर के लोगों को थोडा मायूस किया है. हमें उनके प्रति अपनी सोच बदलनी होगी. हम उम्‍मीद करें कि पूर्वोत्‍तर को अपनी उचित जगह मिलेगी और यह अब एक उपेक्षित बच्‍चा नहीं, वरन हमारे राष्‍ट्रीय परिवार की आंखों का तारा बन कर रहेगा. 

-चेतन भगत

Tuesday, August 21, 2012

पूर्वोत्‍तर के प्रति हमारी नदानी


पत्रकारिता की पढाई के दौरान मुझे एक सम्‍मानीय टीचर ने तीन उदाहरण के नियम के बारे में पढाया था. इसलिए पिछले सप्‍ताह के दौरान अच्‍छे-बुरे कारणों से चर्चा में रहे उत्‍तर-पूर्व के संबंध में मैंने तीन घटनाएं चुन लीं. पहली दो घटनाएं मणिपुरी मुक्‍केबाज मेरी कोम की सफलता को लेकर हिंदी सिनेमा की प्रतिक्रिया से जुडी है. आश्‍चर्य नहीं कि शाहिद कपूर ने मेरी कोम के नाम की स्‍पेलिंग गलत लिख दी. इसके बाद काफी वरिष्‍ठ, बेहद पढाकू और समझदार अमिताभ बच्‍चन ने उन्‍हें असम का बता दिया. हालांकि बाद में उन्‍होंने गलती को सुधार भी लिया. तीसरी घटना एक टीवी शो के दौरान हुई जहां उत्‍तर पूर्व में लंबे समय तक कार्यरत एक प्रशासकीय अधिकारी से मेरी हल्‍की बहस हुई. यहां विमर्श का विषय था कि क्‍या मेरी कोम की सफलता उत्‍तर पूर्व के प्रति हमारा नजरिया बदल देगी? वह इस बात से नाखुश थे कि उत्‍तर पूर्व से आने वाले बहुत से युवक-युवतियां पूरे भारत में सेवा उद्योग – रेस्‍तरां, एयरलाइंस और अस्‍पताल आदि में ही कार्यरत हैं. वे और महत्‍वपूर्ण काम क्‍यों नहीं कर रहे हैं? हममें से हरेक उत्‍तर-पूर्व के प्रति अनभिज्ञता, असंवेदनशीलता और मुख्‍यधारा को महत्‍व देने के दृष्टिकोण के पहलुओं को रेखांकित करता है.


आप समझ सकते हैं कि शाहिद कपूर अपनी पसंदीदा बॉकसर का नाम सही नहीं लिख पाए, किंतु सीनियर बच्‍चन? पुरानी पीढी का कोई व्‍यक्ति जैसे कि मैं नागा, मिजो, खासी या गारो को गलती से असमिया समझ लूं तो समझ में आता है. नागालैंड, मिजोरम और मेघालय पुराने असम के ही जिले थे. किंतु मणिपुर? यह तो भारत के सबसे पुराने और विशिष्‍ट राज्‍यों में से एक है. हमारे उत्‍तर-पूर्व राज्‍यों की जनसांख्यिकी किसी को भी चकरा सकती है. मणिपुर के पहाडों पर रहने वाले सभी आदिवासियों जैसे नागा, मिजो, कुकी और मेरी कोम के कोम के संबंधी पडोसी देश म्‍यांमार में भी रहते हैं. इसलिए आप सीनियर बच्‍चन के मुगालते को समझ सकते हैं. इन तीनों में से सबसे महत्‍वपूर्ण उदाहरण पूर्व प्रशासनिक अधिकारी का था. अपनी चिंता के दोनों कारणों कि उत्‍तर-पूर्व से आने वालों को केवल सेवा क्षेत्र में ही रोजगार मिलता है तथा उत्‍तर- पूर्व के लोगों के शेष भारत से मेलमिलाप के लिए और अधिक प्रयास की आवश्‍यकता है, मैं उन्‍होंने यह रेखांकित किया कि उस क्षेत्र के सत्‍ता प्रतिष्‍ठान का कुलीनतावादी नजरिया पिछले कुछ दशकों से बदला नहीं है. यह अभी भी दूरदराज का और कटा हुआ क्षेत्र हैं और इसके भारतीकरण की आवश्‍यकता है. इस प्रयास में मेरी कोम जैसे स्‍टार हमारी और उनकी सहायता कर सकते हैं. उन्‍होंने आगे कहा कि उत्‍तर-पूर्व के लोग दूर्भाग्‍यशाली हैं और अब दिल्‍ली जैसे बडे शहरों में उनके खिलाफ गैरकानूनी जातीय कटाक्ष किए जा रहे हैं. इस क्षेत्र का भारतीकरण में रूपांतरण तभी हो सकता है जब यहां के लोग अधिक महत्‍वपूर्ण कामों में लगें. यह बयान आर्थिक गतिशीलता की नासमझी का नमूना है. दरअसल, लोग उन्‍हीं नौकरियों और पेशों में आगे आते हैं, जिनमें उनकी विशिष्‍ट योग्‍यता होती है. इसके अलावा, श्रम की गरिमा और जातिविहीन, वर्गविहीन समतामूलक समाज, जिनमें कबीलाई समाज रहता आया है और आज भी इन मूल्‍यों को सहेजे हुए है, भी इस कार्यविभाजन का जिम्‍मेदार है. इस गैरवर्णक्रम वाले जीवन से मेरा पहला सबका तब हुआ था जब मैंने उत्‍तरपूर्व की अपनी शुरुआती यात्राओं में देखा कि ड्राइवर, चपरासी, पुलिसकर्मी भी मंत्री के बगल में बैठ कर ढाबों में खाना खाते थे. यह दृश्‍य देखकर मैं हैरान रह गया था. उस समय मेरे मित्र शिक्षा मंत्री फनाई मालस्‍वमा को उनके ड्राइवर ने टेबिल टेनिस में बुरी तरह धोने के बाद कहा कि जबसे वह मंत्री बने हैं तबसे आलसी और ढीले-ढाले हो गए हैं. वहां खडे अन्‍य लोग जिनमें अधिकांश ड्राइवर और कनिष्‍ठ कर्मचारी थे, इस बात पर खुश होकर ताली बजा रहे थे. शेश देश में मुझे एक ड्राइवर दिखाएं जो अपने मंत्री को किसी भी खेल में हरा सकता हो. या फिर कोई ऐसा मंत्री जो इस हार का भी मजा ले. यह तो आदिवासियों के जातिविहीन समतावाद, श्रम की गरिमा का नतीजा है कि उत्‍तरपूर्व के लोगों ने बडे शहरों में तेजी से बढते सेवा क्षेत्र में अपनी अहमियत तलाश ली. मुक्‍केबाजी, तीरंदाजी तथा वेटलिफ्टिंग के अलावा अन्‍य क्षेत्रों में भी उनमें जबरदस्‍त प्रतिभा भरी हुई है. रेस्‍तरांओं और बार में बडी तादाद में उत्‍तरपूर्व के गायक और संगीतकार मिलेंगे. क्‍या हमें उन्‍हें दंभपूर्ण दया के साथ देखना चाहिए? ये भयभीत लोग उत्‍तरपूर्व के हमवतनों की पहली पीढी का प्रतिनिधित्‍व कर रहे हैं जो मुख्‍यभूमि में गरिमा के साथ जिंदगी बिता रही है. हमारी जिम्‍मेदारी है कि उन्‍हें सम्‍मान और सुरक्षा का अहसास कराएं. बहुत से लोग तो यह भी नहीं जानते कि ये अल्‍पसंख्‍यक कितनी छोटी तादाद में हैं.

नागाओं की संख्‍या महज 15 लाख है, मिजो दस लाख से भी कम हैं और मणिपुर के तमाम आदिवासी दस लाख भी नहीं हैं. इसमें दस लाख की आबादी वाले खासिस और गारोस जोडे जा सकते हैं. अरुणाचल प्रदेश में केवल दस लाख  आदिवासी हैं, जबकि बोडो की संख्‍या बस 15 लाख है. हमारे शहरों में उनकी बढती उपस्थिति तथा अपरिहार्यता उनकी विलक्षण प्रतिभा को दर्शाती है ज‍बकि इसके बदले में उन्‍हें मिलती है हमारी अवहेलना. हमारी यह अवहेलना या नादानी ही उनके प्रति सम्‍मान के अभाव का कारण है साथ ही हमारे यह समझ पाने की विफलता कि उन्‍हें गुस्‍सा क्‍यों आता है? हमारे आलसी नजरिए का नवीनतम और सबसे दुखद उदाहरण है मुख्‍यभूमि के सांप्रदायिक, चुनावी राजनीति के चश्‍मे से बोडोहिंसा को देखना. पहचान, जातीयता, जीविकोपार्जन और अस्तित्‍व की जद्दोजहद उत्‍तरपूर्व के बेहद जटिल मुद्दे हैं. ये मूल स्‍थान की विशिष्‍टताओं से संचालित हैं, न कि हमारे हिंदू-मुस्लिम प्रतिमान से. अधिकांश बोडो परंपरागत रूप से हिंदू तक नहीं है. बहुत से अपनी खुद की आस्‍था में विश्‍वास रखते हैं और काफी बडी संख्‍या ईसाइयों की भी है. ये घुसपैठियों पर हमला इसलिए नहीं कर रहे हैं कि ये मुसलमान हैं, बल्कि मुसलमानों, बांग्‍लाभाषियों पर इसलिए हमला कर रह हैं, क्‍योंकि ये घुसपैठिए हैं. बेहतर होगा कि इन गंभीर और जटिल गुत्थियों पर फिर किसी दिन विचार किया जाए. फिलहाल तो हमें इनका सही नाम बोलने और इनके प्रदेश का सही नाम बताने तक में कठिनाई काम सामना करना पड रहा है. 31 साल पहले जब मैं रिपोर्ट के तौर पर उत्‍तर पूर्व गया था तो हमारे कैशियर ने पूछा था कि आपको किस मुद्रा में वेतन चाहिए. पिछले दस दिनों की घटनाएं यह बताने के लिए काफी हैं कि इस बीच हम जरा भी नहीं बदले. 

- शेखर गुप्‍ता,
प्रधान संपादक, द इंडियन एक्‍सप्रेस 

Monday, August 20, 2012

क्यों भड़की ऩफरत की आग


प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का संसदीय क्षेत्र असम एक के बाद एक, कई घटनाओं के चलते इन दिनों लगातार सुर्खियों में है. महिला विधायक की सरेआम पिटाई, एक लड़की के साथ छेड़खानी और अब दो समुदायों के बीच हिंसा. कई दिनों तक लोेग मरते रहे, घर जलते रहे. राज्य के मुख्यमंत्री केंद्र सरकार का मुंह ताकते रहे और हिंसा की चपेट में आए लोग उनकी तऱफ, लेकिन सेना के हाथ बंधे थे. राहत के नाम पर कहीं भी कुछ नहीं था. असम के जनजातीय इलाकों में ऐसा पहले कभी नहीं देखा गया कि गैर जनजातीय समुदाय खुलेआम जनजातीय आबादी के विरुद्ध मुखर हो जाएं. दो समुदायों के आमने-सामने आ खड़े होने की यह पहली घटना थी. इसकी शुरुआत हुई एक अन्य इलाके में, जहां राभा जनजाति अपने लिए स्वायत्तता की मांग कर रही है. वहां रहने वाले विभिन्न गैर राभा समुदायों ने उसकी उक्त मांग के विरोध में आंदोलन छेड़ दिया. इस वजह से वहां समय-समय पर हिंसा भी फैलती रही. इस हिंसा की आग से कोकराझाड़, चिरांग एवं धुबड़ी आदि इलाके सबसे ज़्यादा प्रभावित हैं, जबकि बंगाईगांव एवं बाक्सा में भी खासी हिंसा हुई. दरअसल, बीटीसी (बोडोलैंड टेरटोरिएल काउंसिल) इलाके में तनाव कोई एक दिन में नहीं फैला. बोडो और गैर बोडो समुदायों के बीच तनाव पिछले कई महीनों से चल रहा था. इस तनाव का कारण है बीटीसी में रहने वाले गैर बोडो समुदायों का बोडो समुदाय द्वारा की जाने वाली अलग बोडोलैंड राज्य की मांग के विरोध में खुलकर सामने आ जाना. गैर बोडो समुदायों के दो संगठन मुख्य रूप से बोडोलैंड की मांग के विरुद्ध सक्रिय हैं. इनमें से एक है गैर बोडो सुरक्षा मंच और दूसरा है अखिल बोडोलैंड मुस्लिम छात्रसंघ. गैर बोडो सुरक्षा मंच में भी मुख्य रूप से मुस्लिम समुदाय के कार्यकर्ता सक्रिय हैं. इन दोनों संगठनों की सक्रियता उन स्थानों पर अधिक है, जहां बोडो आबादी अपेक्षाकृत कम है. लेकिन इससे एक तनाव तो बन ही रहा था, जिसकी प्रतिक्रिया कोकराझाड़ जैसे बोडो बहुल इलाकों में हो रही थी. इन दोनों संगठनों की जो बात बोडो संगठनों को नागवार गुजर रही थी, वह यह थी कि बीटीसी इलाके के जिन गांवों में बोडो समुदाय की आबादी आधी से कम है, उन्हें बीटीसी से बाहर करने की मांग उठाना.

बोडोलैंड की मांग 

बोडोलैंड की मांग का समर्थन करने वाले दोनों संगठन समय-समय पर प्रदर्शन और बंद का आह्वान करते रहे हैं. बीते 16 जुलाई को भी गैर बोडो समुदायों ने गुवाहाटी में राजभवन के सामने प्रदर्शन करके शासन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया था. उन्होंने रेलगाड़ियां रोक कर यह बताने की कोशिश की कि बोडोलैंड राज्य की मांग हमने अभी तक नहीं छोड़ी है. बोडो समुदाय के दो चरमपंथी गुट, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) और वार्तापंथी पृथक बोडोलैंड राज्य की मांग कर रहे हैं. जबकि केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रवक्ता अब तक यही कहते आए हैं कि अलग राज्य बनाने का सवाल ही नहीं पैदा होता. बीटीसी इलाके में गैर बोडो समुदायों की नाराजगी का एक प्रमुख कारण शायद यह भी है कि वहां स्वायत्त शासन लागू होने के बाद से कानून-व्यवस्था की स्थिति पहले से बदतर हो गई है. गैर बोडो समुदाय अक्सर अपने साथ भेदभाव होने और शिकायत करने पर पुलिस द्वारा उचित कार्रवाई न किए जाने का आरोप लगाते रहे हैं.

स्थानीय बनाम बाहरी 

असम में फैली इस हिंसा की जड़ में बाहरी घुसपैठ भी है. इसी के चलते यहां के मूल निवासियों और बांग्लादेश से आए लोगों के बीच हिंसा भड़की. राज्य में जनसंख्या का स्वरूप बदल रहा है. बांग्लादेश की सीमा से सटे धुबड़ी जिले में यह एक बड़ी समस्या बन चुका है. 2011 की जनगणना में यह जिला मुस्लिम बहुल हो चुका है. 1991-2001 के बीच असम में मुसलमानों की आबादी 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गई है. राज्य में 42 से अधिक विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए निर्णायक बहुमत में हैं. हाल में राज्य में विधानसभा चुनावों का यह कहकर बहिष्कार किया गया कि उसमें ज़्यादातर प्रवासियों की भागीदारी है. 1966 के बाद राज्य में आए प्रवासियों के चुनाव में हिस्सा लेने पर रोक लगा दी गई थी.

रोज़ी-रोटी के सवाल 

पिछले कुछ समय में असम में बोंगाइगांव, कोकराझाड़, बरपेटा और कछार के करीमगंज एवं हाईलाकड़ी में मुस्लिमों की आबादी बढ़ी है. ज़मीन और रोज़गार में लगातार कमी आ रही है. बोडो जनजातियों की ज़मीन पर अतिक्रमण आम बात है. मैदानी ज़मीन पर खेती, पशुपालन और हैंडलूम एवं हस्तशिल्प का काम मुख्य रूप से बोडो जनजातियों की आजीविका का साधन है. बोडो को राज्य के कारबीआंगलोंग और नॉर्थ कछार हिल इलाके में जनजातीय नहीं माना जाता और न मैदानी क्षेत्रों में, जबकि बोडो जनजातियों के लिए राज्य में स्वायत्त परिषद बनी और शेष पूरे देश में वे अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल हैं.


हिंसा की पुरानी आग
कोकराझाड़ में दंगा और हिंसा कोई नई बात नहीं है. इसका एक इतिहास रहा है. 1993 में बोडोलैंड में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया, जिसमें 50 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. मारे गए लोग कोकराझाड़ एवं बोंगाई गांव निवासी बांग्लादेशी मुसलमान थे. इसके बाद मई 1994 में हिंसा ने फिर अप्रवासी मुसलमानों को शिकार बनाया, जिसमें एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई. हिंसा का यह दौर यही नहीं थमा. 1996 में बोडो एवं आदिवासी शरणार्थियों के बीच हुई हिंसा और आगजनी की घटनाओं में करीब 200 लोगों की मौत हुई और 2.2 लाख से भी अधिक लोगों को बेघर होना पड़ा. फिर 2008 में उदलगुड़ी जिले में अप्रवासी मुसलमानों एवं बोडो आदिवासियों के बीच हुए संघर्ष में एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई.

 जब बीटीसी (बोडोलैंड टेरटोरिएल काउंसिल) बनी थी तो सरकार को यह सोचना चाहिए था कि बीटीसी के इलाके में अल्पसंख्यक भी हैं, लेकिन सरकार ने दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया. गैर बोडो को भी उनके अधिकार मिलने चाहिए. बोडोलैंड बनने से वहां के अल्पसंख्यकों को उनका हक नहीं मिलेगा. दूसरी बात यह है कि माइग्रेशन को पूरी तरह रोकना होगा, इसके लिए सरकार को कठोर क़दम उठाने होंगे.
-दिनकर कुमार, संपादक, द सेंटिनल, असम.

Friday, August 10, 2012

अशांति का शिकार पूर्वोत्‍तर


भारत का पूर्वोत्‍तर सर्वाधिक दहकता हुआ क्षेत्र है. करीब 250 प्रजातियां अपने पहचान की लडाई में एक-दूसरे के साथ-साथ नई दिल्‍ली के साथ भिडी हुई हैं. इनमें कुछ भारत के बाहर भी जाना चाहती हैं. धार्मिक आधार पर हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों का अनुपात कमोवेश बराबर का है. घुसपैठ से समस्‍या और बढी है. यह घुसपैठ ज्‍यादातर बांग्‍लादेश या पुराने पूर्वी पाकिस्‍तान से होती रही है. भाषाई आधार पर राज्‍यों का पुनर्गठन होने पर 1955 में असमियों को अलग असम राज्‍य मिला था लेकिन अपने ही असम में मूल असमी अल्‍पसंख्‍यक बन गए हैं. असम के एक हिस्‍से में बोडो प्रजाति के लोगों ने सांप्रदायिक उन्‍माद फैला रखा है. बंगाली मुसलमान इनके निशाने पर हैं. राहत शिविरों में इन बंगाली मुसलमानों पर हमला किया जा रहा है. दरअसल बोडो अपनी जमीन वापस चाहते हैं. 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद मूल निवासियों की जिस जमीन पर घुसपैठिए और बाहरी लोगों ने कब्‍जा कर रखा है, बोडो उस जमीन की वापसी चाहते हैं. बोडो प्रजाति के लोगों को स्‍वायत्‍तशासी काउंसिलों के जरिए स्‍वायत्‍तता मिली हुई है. फिर भी दूसरी प्रजातियों की तरह अलग बोडो राज्‍य की मांग भी कर रहे हैं. जब कुछ प्रजातियों ने असम से अलग होकर अपने अपने अलग राज्‍य अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा का गठन किया तो बोडो लोगों ने असम में ही बने रहना बेहतर माना था लेकिन गुवाहाटी का प्रशासन बोडो प्रजाति की भिन्‍नता के साथ तालमेल नहीं बैठा सका. बोडो द्वारा हिंसा का सहारा लेने के कारण बंगाली मुसलमानों को भारी तबाही झेलनी पडी है. हाल में बोडो लोगों के गढ कोकराझाड का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पडा कि असम की हिंसा देश पर एक धब्‍बा है लेकिन इसके लिए नई दिल्‍ली असम को दोषी कैसे ठहरा सकती है? हकीकत तो यह है कि यह धब्‍बा तो केंद्र पर है, जिसने पूर्वोत्‍तर की स्थिति को सही तरीके से नहीं निपटाया. नई दिल्‍ली का पसंदीदा फार्मूला है कि पूर्वोत्‍तर में जो कुछ भी होता है, वह कानून एवं व्‍यवस्‍था की समस्‍या है. शांति बहाली का जिम्‍मा पहले से ही सेना के हाथों में है. राज्‍य अर्द्धसैनिक बल के नियंत्रण में है. यहां तक कि राज्‍य पुलिस को भी हमेशा सेना का मुंह ताकना पडता है जो बराबर कहती रहती है कि सारी समस्‍याएं राजनीतिक हैं. पूर्वोत्‍तर की समस्‍याओं को सुलझाने के लिए केंद्र ने वहां गृह मंत्रालय के कुछ अधिकारियों को भेजने के सिवा और कुछ नहीं किया है. सेना को मनमर्जी तरीके से काम करने की पूरी छूट है.

उसके पास आर्म्‍ड फोर्स स्‍पेशल पावर एक्‍ट से मिले अधिकार हैं. इन अधिकारों के बूते सेना के जवानों को महज संदेह के आधार पर किसी को भी मार डालने की आजादी है. प्रताडित लोग पूरे तौर पर सेना के भरोसे हैं. क्षेत्र की अक्षम सरकार और प्रशासन हर मामले में सशस्‍त्र बल पर आश्रित है. ऐसे में बार बार यह सुनने को मिलता है कि समस्‍याग्रस्‍त इलाके में सेना देर से पहुंची. यह सुन कर कोई आश्‍चर्य नहीं होता. असम के मुख्‍यमंत्री तरुण गोगोई ने हाल की घटना के बाद सार्वजनिक तौर पर कहा है कि सेना देर से पहुंची और जब बेहद जरूरत थी उस वक्‍त केंद्र ने करीब आधे अर्द्धसैनिक बल को वापस बुला लिया है. अगर यह रिपोर्ट सही है तो बुनियादी सवाल खडा होता है. सवाल यह है कि क्‍या सेना सिविल अधि‍कारियों की मदद करने को बाध्‍य नहीं है जैसा कि कानून में शामिल है या फिर सेना मेरिट के आधार पर अलग-अलग मामलों में अलग-अलग फैसला करेगी. इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच सहमति की जरूरत है लेकिन वे आपस में लडने में व्‍यस्‍त हैं और मूल मुद्दे से परहेज कर रहे हैं. साफ तौर पर कहें तो स्थिति से कैसे निपटा जाए, इसके बारे में राजनीतिक दलों के पास कोई समझ नहीं है. वे मूल मु्द्दे से परहेज कर रहे हैं. केंद्र में कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की किसी भी सरकार ने जब कभी समाधान तलाशने की कोशिश की तो वह समस्‍या की गहराई में नहीं गई. नागालैंड क्षेत्र का सबसे बडा राज्‍य है.

आजादी के समय से नई दिल्‍ली और कोहिमा के बीच युद्धविराम की स्थिति बनी हुई हे. दोनों पक्ष भारत की सार्वभौमिकता से समझौता किए बिना स्‍वतंत्र दर्जा दिए जाने पर विचार विमर्श करते रहते हैं. समाधान की तलाश में वे बार बार प्रयास करते हैं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता. अरुणाचल प्रदेश भारत का राज्‍य है. इसकी सीमा चीन से सटी हुई हे. फिर भी चीन अरुणाचल प्रदेश के लिए अलग से वीजा जारी करता है और भारत सरकार उसे स्‍वीकार करती है लेकिन चीन से वीजा लेकर आने वालों को भारत सरकार कहीं जाने से कभी नहीं रोकती. मणिपुर में सूर्यास्‍त के बाद कर्फ्यू लग जाता है वर्षों से जारी इस प्रतिबंध से यहां की जनता अभ्‍यस्‍त हो चुकी है, लेकिन इरोम शर्मिला एएफएसपीए हटाने की मांग को लेकर पिछले दस सालों से भूख हडताल पर है. चूंकि पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में केंद्र सरकार पूरे तौर पर सेना पर आश्रित है, इस कारण वह कडे कानूनों में जरा सी रियायत देने को भी तैयार नहीं होती. कुछ साल पहले एक कमेटी ने इस कानून को हटाने का सुझाव दिया था लेकिन अंतत- जीत सेना की हुई. केंद्र को सेना के आगे झुकना पडा. मेघालय में जातीय पहचान की समस्‍या है लेकिन यहां के लोग शांति का लाभ देख चुके हैं और वे हिंसा के पुराने दौर में लौटना नहीं चाहते. यहां विद्रोही गतिविधियां चलती रहती हैं लेकिन नई दिल्‍ली इस बात से संतुष्‍ट है कि दोनों पडोसी देश बांग्‍लादेश और म्‍यांमार अब विद्रोहियों को पनाह नहीं दे रहे. समस्‍या को जटिल बनाने वाली एक समस्‍या घुसपैठ की है.

पचास के दशक में अपना वोट बैंक बढाने के लिए कांग्रेस ने खुद इस घुसपैठ को बढावा दिया था. तत्‍कालीन कांग्रेस अध्‍यक्ष देवकांत बरुआ ने मुझसे कहा था कि वे यहां अली और कुली लाएंगे और चुनाव जीतेंगे. विदेशियों की पहचान और वोटर लिस्‍ट से उनका नाम हटाने के लिए कांग्रेस को कम से कम राजीव गांधी और ऑल असम स्‍टूडेंट्स यूनियन के बीच हुए करार को लागू करना चाहिए था लेकिन मुख्‍यमंत्री तरुण गोगोई ऐसा नहीं करना चाहते क्‍योंकि ये विदेशी वोटर चुनाव में कांग्रेस को बढत दिलाते हैं. वे पिछले दो चुनाव बाहरी वोटरों की मदद से ही जीते हैं. बांग्‍लादेशी आर्थिक कारणों से भारत आते हैं. अगर वर्क परमिट की व्‍यवस्‍था होती तो वे यहां आते और काम कर अपने देश को लौट जाते लेकिन ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है. फिर भी उनकी समस्‍या को पूर्वोततर राज्‍यों की जटिलता से जोड कर नहीं देखा जाना चाहिए. पूर्वोत्‍तर की समस्‍या पर केंद्र को अभी गंभीरता से विचार करना है. 

-कुलदीप नैयर
वरिष्‍ठ पत्रकार

Friday, July 27, 2012

अगाथा संगमा की राजनीतिक गाथा


अगाथा संगमा की गाथा संग मा नहीं, संग पा है. राजनीति के खिलाड़ी बोल रह रहे हैं कि अगाथा के पास माथा नहीं है. अगर माथा होता तो राष्‍ट्रपति चुनाव में जन्‍म से हारे हुए अपने पिता पीए संगमा के पीए की तरह आगे-पीछे नहीं होती. उन्‍होंने अपने पिता के साथ अपना पूरा पता जोडने की खता की और देश विदेश को बता दिया कि उन जैसी समर्पित सुपुत्री संसार में दूसरी नहीं जो पिता की आंख बंद महत्‍वाकांक्षा के आगे अपना वर्तमान और भविष्‍य दोनों एक साथ भेंट कर देती हैं. मैं राजनीति के खिलाडी की तरह नहीं सोचता. अगाथा संगमा से अधिक कसूरवार मैं उनके आरदणीय पिता पीए संगमा को मानता हूं. राष्‍ट्रपति चुनाव में खडे होने के पूर्व मैं संगमा साहब की कद्र करता था. मैंने उन्‍हें कभी एक जनजातीय नेता या एक ईसाई नहीं माना. वे भद्र पुरुष हैं या नहीं, मैं नहीं जानता. उन्‍हें मैंने अखबार या टीवी में ही देखा है. मैं उन्‍हें भला आदमी मानता रहा हूं. उन्‍होंने राष्‍ट्रपति चुनाव बुद्धि से नहीं लडा. वे राजनीति के अपरिचित खिलाडी नहीं है. उन्‍होंने कैसे सोच लिया कि वे जी जाएंगे. यदि उन्‍हें मालूम था कि वे जीतने के लिए नहीं, लडने के लिए खडे हो रहे हैं तो उन्‍हें अपनी बेटी अगाथा संगमा के वर्तमान और भविष्‍य से नहीं खेलना चाहिए था. जब अगाथा उनकी विवेकहीन जिद को देख कर भावुक हुईं तो उन्‍हें एक सुयोग्‍य पिता की तरह अपनी बेटी को समझाना चाहिए था डांटना और कहना चाहिए था कि वे अपनी राजनीतिक जिंदगी की उंचाई देख जी चुके हैं और तुम्‍हें तो अपनी राजनीतिक गाथा लिखनी है. उन्‍होंने एक स्‍वार्थी राजनीतिज्ञ की तरह सिर्फ अपना खयाल रखा. वे अपने स्‍वार्थ में अपनी बेटी अगाथा संगमा के राजनीतिक वर्तमान भविष्‍य तक को भुला गए. इससे देश में एक राजनीतिक संदेश यह भी गया कि जो पिता अपने निहित स्‍वार्थ में अपनी बेटी के वर्तमान भविष्‍य का ख्‍याल नहीं रखेगा, वह राष्‍ट्रपति बन कर देश का ख्‍याल क्‍या रखेगा.
अगाथा संगमा बेकसूर हैं- ऐसा नहीं. उन्‍हें यह याद रखना चाहिए था कि राजनीति में सिद्धांत शून्‍य हो गया है, आदर्श का अंत हो गया है किंतु यह नहीं हो सकता कि एक राष्‍ट्रवादी कांग्रेसी सांसद और केंद्रीय राज्‍यमंत्री का आवास राष्‍ट्रपति चुनाव में पार्टी समर्थित प्रत्‍याशी के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी का चुनाव कार्यालय हो जाए. वैसे अपने स्‍वार्थ में अंधे पिता पीए संगमा को इस पर ध्‍यान देना चाहिए था कि वे अपनी बेटी के राजनीतिक पांव पर कुल्‍हाडी नहीं मारें.
अगाथा अपरिपक्‍व हैं. वे एक परिपक्‍व राजनीतिज्ञ होतीं तो वे अपने पिता की रार्ष्‍टपति की उम्‍मीदवारी को लेकर इतनी भावुक नहीं होतीं. उनके भाई कोनार्ड के संगमा कहां भावुक हुए. कोनार्ड भी पीए संगमा के सुपुत्र हैं और मेघालय में विरोधी दल के नेता भी. उन्‍होंने निर्वाचित राष्‍ट्रपति प्रणव मुखर्जी को बधाई भी दी. उन्‍होंने अपने राजनीतिक वर्तमान भविष्‍य पर कोई आंच नहीं आने दी.
अगाथा संगमा को सर्वदा स्‍मरण रखना चाहिए कि अत्‍यधिक भावुकता राजनीति और जीवन दोनों में हानिकारक है. यह तथ्‍य है कि पुरुष की अपेक्षा स्त्री अधिक भावुक होती हैं. भावुकता राजनीति की सौत नहीं, तो सहेली भी नहीं. अगाथा की राजनी‍तिक गाथा तूरा से निकली है और दिल्‍ली की यमुना तक पहुंची है. उनमें प्रधानमंत्री बनने की क्षमता भी दिखलाई देती है. यह और बात है कि उनके पिता जवाहरलाल नेहरू या राजीव गांधी नहीं है. उन्‍हें निराश होने की आवश्‍यकता नहीं है. उन्‍हें बहुत आगे जाना है. बस भावुकता पर नियंतत्रण रखने की जरूरत है. राजनीति भावना पथ की राही नहीं है. 

-रत्‍नेश कुमार

Thursday, June 28, 2012

लाचारी का घर

      जब पटना में था तब मेरे एक वरिष्ठ सर ये पंक्तियां बार-बार सुनाते थे- ‘एक अकेला इस शहर में...। आज मैं इनके यहां... कल उनके वहां रहता हूं। जिंदगी भर किराए के मकान में रहता हूं।’ मेरे जीवन से भी इन पंक्तियों का गहरा संबंध रहा है। मणिपुर का रहने वाला हूं। हिंदी भाषा और कुछ हद तक एक आम भारतीय की समस्या, यानी रोजगार मुझे उत्तर भारत खींच कर ले आई। कभी इनके यहां कभी उनके वहां! इस बीच दो अनुभवों ने मुझे बहुत मायूस किया। किसी अजनबी शहर में कमरा खोजने जाएं तो मकान मालिक पहले दिन बहुत प्यार से बात करता है। लेकिन थोड़े समय के बाद मनमाने तरीके से बिजली-पानी का बिल, साफ-सफाई और कूड़ा उठवाने के पैसे धीरे-धीरे बढ़ाने लगता है। कारण पूछें तो बताया जाएगा कि बजट के हिसाब से किराया बढ़ाया है, महंगाई इतनी बढ़ गई है, आदि। मानो महंगाई हमारे लिए नहीं बढ़ी हो। हालत यह है कि अगर निर्धारित तारीख से एक-दो दिन बाद किराया देने की मजबूरी आ गई तो दिन में तीन बार पूछने चले आएंगे कि किराया कब दे रहे हो! उसे इससे कोई मतलब नहीं कि आपको तनख्वाह मिली या नहीं।
      इस शहर में अधिकतर लोग किराए पर ही रहते हैं। लेकिन मुझे लगता है कि अपने मकान मालिक से खुश रहने वालों की संख्या बहुत कम होगी। कभी किराया तो कभी रात में दरवाजा बंद करने के समय को लेकर हमेशा कोई झंझट होता रहता है। सन 2007 में मैं पंजाब के लुधियाना में एक अखबार में काम करता था। शहर में नया-नया था। दफ्तर के साथियों के अलावा, किसी से अच्छी तरह परिचित नहीं था। खाने या रहने का कोई ठिकाना नहीं। बहुत कोशिश के बाद किराए का एक कमरा मिला। मकान मालिक शिक्षक थे। शुरू-शुरू में मुझे बहुत अच्छे लगे। घर साफ-सुथरा था। उनके घर में अमरूद के कई पेड़ थे। अपने परिवार के सदस्यों के साथ ही वे मुझे भी अमरूद खाने को देते थे। बदले में मैं उन्हें अखबारी दुनिया की बातों से वाकिफ कराता रहता था।
      बहरहाल, दफ्तर में हम लोगों को बताया गया था कि इस बार की तनख्वाह एक हफ्ते देर से मिलेगी। सुन कर मैं घबराया हुआ था, क्योंकि पैसों की कमी थी। सबसे ज्यादा घबराहट मकान मालिक से थी कि उसे क्या कहूंगा। मैंने अगले दिन मकान मालिक को बताया कि अंकल, इस बार घर का किराया सात दिन देर से दूंगा। उन्होंने कहा कि ठीक है, मगर जरूर दे देना। उसके बाद वे हर रोज पूछते रहे। सातवें दिन जब तनख्वाह मिली तो उस दिन काम खत्म कर कमरे पर पहुंचने में रात के ढाई बज गए। मैंने जैसे ही दरवाजा खोला, मकान मालिक तुरंत उठ गए। वे आंगन में ही पलंग लगा कर सोए थे। मुझे देखते ही उन्होंने पैसे मांगे। सुन कर मुझे बहुत दुख हुआ। उनकी बातों से ऐसा लग रहा था कि मैं उसी रात भागने वाला हूं, उन्हें बिना बताए। कमरे में जाने से पहले उन्हें पैसा दिया। रात भर अपने किराएदार होने की लाचारी पर सोचता रहा।
     फिलहाल मैं दिल्ली के पांडव नगर इलाके में रहता हूं और एक साप्ताहिक में नौकरी करता हूं। शुरू में जब यहां एक मकान मिला, उसमें रहने के लिए जाने से पहले मकान मालिक ने हमें बुलाया। उन्होंने बहुत सारी सैद्धांतिक बातें कीं। फिर कहा कि तुम्हारी वजह से किसी को तकलीफ नहीं होनी चाहिए और किसी की वजह से तुम्हें तकलीफ हो तो भी बताना। किराएदारों का सम्मान हमारा सम्मान है। सुन कर मुझे बहुत अच्छा लगा। बात पक्की होने के बाद मैं वहां रहने लगा। इस बीच मेरी शादी हुई और मैं पत्नी को भी यहीं ले आया। मुझे हैरानी हुई कि पत्नी के आते ही मकान मालिक ने कमरा छोड़ देने का फरमान सुना दिया। हालांकि वे अपने मकान में ही दो कमरे लेने को कह रहे थे, लेकिन पसंद नहीं होने की वजह से हमने मना कर दिया। उसी के बाद वे यह कमरा भी खाली कराने पर अड़ गए थे।
   मैंने किराएदारों की वजह से परेशान एक-दो मकान मालिक भी देखे हैं। लेकिन मैंने कोशिश की है कि ऐसी परेशानी की वजह नहीं बनूं। मुझे दुख होता है जब बिना किसी कारण के मकान मालिक अचानक कमरा खाली करने को कह देते हैं। क्या किराए के घर में रहने के साथ-साथ इस बात को याद रखना होगा कि आप अपने घर में नहीं हैं? मेरे पास चूंकि अपना घर नहीं है, इसलिए यह मेरी लाचारी है। मुझे इस शहर में रहना है तो अब दूसरा घर खोजना होगा।

Monday, June 11, 2012

प्रधानमंत्री की म्यांमार यात्रा : पूर्वोत्तर के लिए बेहद अहम


करीब 25 साल बाद किसी भारतीय प्रधानमंत्री ने म्यांमार की यात्रा की. इस यात्रा से उत्तर-पूर्व क्षेत्र के लोगों को काफी अपेक्षाएं थीं, लेकिन सीमावर्ती क्षेत्र होने की वजह से इसे जो फायदा इस यात्रा से होने की उम्मीद थी, वह नहीं हुआ. बावजूद इसके यह यात्रा इस क्षेत्र के लिए, दोनों देशों के बीच अच्छे संबंधों और बेहतर भविष्य का रास्ता खोलती ज़रूर नज़र आई. म्यांमार की मिलिट्री जुंटा द्वारा लोकतंत्र वापस लाने के आश्वासन के चलते और आंग सान सू की के संसदीय चुनाव में सफल होने से दुनिया के कई देशों द्वारा म्यांमार के ऊपर लगाए गए प्रतिबंध अब धीरे-धीरे वापस लिए जा रहे हैं. ऐसे समय में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह की यह यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण रही. इस बहु प्रचारित यात्रा में मज़बूत व्यापार एवं निवेश संबंधों, सीमावर्ती क्षेत्रों के विकास, दोनों देशों के बीच कनेक्टिविटी में सुधार, क्षमता निर्माण और मानव संसाधन पर विशेष ध्यान दिया गया.

प्रधानमंत्री की इस यात्रा के पहले 18 मई को उनके सलाहकार टीकेए नायर के नेतृत्व में एक टीम इंफाल गई थी, जहां प्रधानमंत्री की म्यांमार यात्रा और कई अन्य महत्वपूर्ण मुद्दों पर बातचीत की गई थी. खासकर, म्यांमार और भारत के बीच क्या-क्या महत्वपूर्ण व्यापारिक कदम उठाए जा सकते हैं? यह सारी बातचीत म्यांमार के तमु स्थित बॉर्डर ट्रेड के कार्यालय में हुई थी. बहरहाल, प्रधानमंत्री की इस यात्रा से इंफाल-मंडले बस सेवा को भी हरी झंडी दिखा दी गई, लेकिन म्यांमार में सुविधाजनक सड़कों के अभाव के चलते यह बस सेवा शुरू होने में विलंब हो सकता है. इसके जरिए सड़क मार्ग द्वारा दोनों देशों के लोग कम खर्च में आ-जा सकते हैं. इंफाल-मंडले बस सेवा शुरू होने से पूर्वोत्तर के राज्यों में विकास की रोशनी फैलेगी. यह बस सेवा नई दिल्ली-लाहौर और कोलकाता-ढाका बस सेवा की तर्ज पर भारत और म्यांमार के बीच संबंध सुधारने का काम करेगी. एक प्रमुख समझौता सीमा पर सड़क मार्ग के विकास को लेकर हुआ. प्रधानमंत्री ने घोषणा की कि भारत तामू-कलेवा मार्ग पर 71 पुलों की मरम्मत कराएगा. दोनों देश एक प्रमुख मार्ग को राजमार्ग में तब्दील करने का काम करेंगे. भारत के मोरे से लेकर थाईलैंड के माई सोट तक राजमार्ग बनाया जाएगा. इसके जरिए म्यांमार होते हुए भारत से थाईलैंड का सफर सड़क मार्ग से किया जा सकेगा. इससे पहले बीते 21 जनवरी को इंडो-म्यांमार बॉर्डर ट्रेड एग्रीमेंट 1994 लागू किया गया, जिसके तहत 22 एग्रीकल्चर/प्राइमरी प्रोडक्ट्‌स की खरीद-बिक्री पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ होती रही है.

जिन समझौतों पर हस्ताक्षर किए गए, उनमें अरुणाचल प्रदेश में पांगसू दर्रे पर एक सरहदी हाट खोलना भी है. यह बांग्लादेश की सीमा पर स्थित हाट की तरह काम करेगी. इससे पूर्वोत्तर के लिए व्यापार की संभावनाएं बढ़ेंगी, खासकर मणिपुर में म्यांमार की सस्ती वस्तुएं, जैसे मोमबत्ती, साबुन, सर्फ, कंबल एवं खाद्य सामग्री आदि, जिनका लोग पहले से भी ज़्यादा इस्तेमाल कर रहे हैं. सरहदी हाट खोलने से इस तरह की वस्तुएं आसानी से पूर्वोत्तर के गांवों में उपलब्ध हो सकेंगी. इसके अलावा अकादमिक सहयोग के लिए भी समझौता हुआ, जिसके तहत म्यांमार के दागोन विश्वविद्यालय और कोलकाता विश्वविद्यालय आपस में सहयोग करेंगे. प्रधानमंत्री की यह यात्रा पूर्वोत्तर के लिए एक और मामले में अहम रही. इन दिनों यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम (उल्फा) के प्रमुख परेश बरुआ म्यांमार में हैं. जबसे बांग्लादेश की शेख हसीना सरकार ने उल्फा सहित पूर्वोत्तर के विभिन्न आतंकी संगठनों के ़िखला़फ अपना अभियान तेज कर दिया है, तबसे इन संगठनों के लोगों ने म्यांमार को अपनी शरणस्थली बना लिया है. यदि म्यांमार सरकार भी बांग्लादेश की तर्ज पर अपना अभियान तेज कर दे तो उक्त आतंकी संगठन अपने-अपने राज्यों में वापस आने और देश की मुख्य धारा से जुड़ने के लिए विवश हो जाएंगे. म्यांमार ने कहा भी है कि वह आतंकवादियों को भारत विरोधी गतिविधियों के लिए अपनी जमीन का इस्तेमाल नहीं करने देगा. सेना ने पूर्वोत्तर क्षेत्र के चरमपंथियों से कहा है कि वे अविलंब म्यांमार छोड़ दें.


म्यांमार के राष्ट्रपति द्वारा दिए गए भोज में मनमोहन सिंह ने कहा कि भारत और म्यांमार स्वाभाविक सहयोगी हैं और इन समझौतों से दोनों देशों के आर्थिक रिश्तों में तेजी आएगी. भारत के एक्सिस बैंक और म्यांमार के विदेश व्यापार बैंक के बीच समझौता हुआ, जिसके तहत म्यांमार को पांच अरब डॉलर का रियायती कर्ज दिया जाएगा. इससे दोनों देशों के आपसी कारोबार को बढ़ावा मिलेगा. भारतीय बैंक म्यांमार में प्रतिनिधि शाखाएं खोलने की इजाजत देंगे. भारतीय रिजर्व बैंक और सेंट्रल बैंक ऑफ म्यांमार ने करेंसी प्रबंधन के लिए समझौते पर हस्ताक्षर किए. यात्रा के अंतिम दिन प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने म्यांमार में जनतंत्र के लिए संघर्ष की प्रतीक रहीं आंग सान सू की से मुलाकात की और उन्हें यूपीए अध्यक्ष सोनिया गांधी का पत्र सौंपते हुए दिल्ली में जवाहर लाल नेहरू स्मारक व्याख्यान माला के लिए आमंत्रित किया. सू की ने कहा कि उन्हें उम्मीद है कि वह इस आमंत्रण को निभा सकेंगी. नोबेल से सम्मानित सू की के अविस्मरणीय योगदान की चर्चा करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि उनके जीवन, संघर्ष और दृढ़ता ने दुनिया के लाखों लोगों को प्रेरित किया. उन्होंने भरोसा जताया कि राष्ट्रपति थीन सीन द्वारा राष्ट्रीय सहमति के लिए जारी प्रयासों में सू की अहम किरदार अदा करेंगी. प्रधानमंत्री की यह यात्रा अक्टूबर 2011 में थीन सीन की भारत यात्रा के समय तय हो गई थी. वह पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी द्वारा दिसंबर 1987 में म्यांमार यात्रा के बाद इस देश का दौरा करने वाले पहले प्रधानमंत्री हैं.  

Thursday, May 17, 2012

तब कुछ और ही था संसद और राजनीति का माहौल



भारतीय संसद ने अपने सफर के साठ साल पूरे कर लिए हैं. हमारी संसद में आज भी एक चेहरा ऐसा मोजूद हैं जो इन छह दशक के सफर का गवाह है. यह नेता हैं मणिपुर के रिशांग कैशिंग. 13 मई, 1952 को संसद का पहला सत्र शुरू हुआ था तब कैशिंग उसमें मौजूद थे. अब 60 साल पूरे होने पर भी वह साथ हैं. दो बार लोकसभा, दो मर्तबा राज्‍यसभा सदस्‍य और चार बार मणिपुर के मुख्‍यमंत्री रहे कैशिंग जल्‍द 92 साल के भी हो जाएंगे. संसद और राजनीति के साठ साल के सफर पर हिंदुस्‍तान अखबार के ब्‍यूरो चीफ मदन जैड़ा ने उनसे बातची की. बातचीत के अंश -

13 मई, 1952 के संसद सत्र में आप मौजूद थे. तब क्‍या माहौल था ?
हां, मैं उस दिन का गवाह हूं. मैं उस दिन केंद्रीय कक्ष में मौजूद था. तब मैं नौजवान था. करीब 32 साल की उम्र रही होगी. उमंग और जोश से लबालब था. राष्‍ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने संयुक्‍त सत्र को संबोधित किया. उन्‍होंने आजादी के बाद देश के समक्ष उत्‍पन्‍न चुनौतियो से निपटने का जिक्र किया था. हमने चुनौतियों से निपटने की शपथ ली.

तब राजनीतिक परिदृश्‍य कैसा था?
तब 489 सीटें थीं, पर लोकसभा क्षेत्र 401 ही थे. 86 क्षेत्र दो सीटों वाले तथा एक क्षेत्र तीन सीट वाला था. मैं तब मणिपुर की आउटर सीट से सोशलिस्‍ट पार्टी के टिकट पर चुनाव जी‍त कर आया था. पार्टी 12 सीटों के साथ तीसरे नंबर पर रही. कांग्रेस ने सबसे ज्‍यादा 364 सीटें जीतीं, जबकि 16 सीटों के साथ सीपीआई दूसरे स्‍थान पर रही थी; कांग्रेस का एक छत्र राज था. विपक्ष की उपस्थिति नगण्‍य थी.

तब और आज के संसद के कामकाज में क्‍या फर्क नजर आता है?
तब कोई मंत्री, सदस्‍य यदि बोल रहा होता था तो कोई भी उसे डिस्‍टर्ब नहीं करता था. सभी ध्‍यान से उसकी बात सुनते थे. उसके बाद अपनी बात कहते थे. बड़ा नेता हो या छोटा, सभी एक दूसरे को सम्‍मान देते थे. पंडित जवाहरलाल नेहरू सदस्‍यों द्वारा उठाए गए मुद्दों को तरजीह देते थे. यही कारण है कि पहली लोकसभा की रिकार्ड 677 बैठकें हुईं. आज छोटे-बड़े नेता संसद मे बच्‍चों की तरह झगड़ते हैं. तब ऐसा नहीं था. इसलिए आज हंगामे को देख कर संसद में कभी कभी मन नहीं लगता है. अब मैं राज्‍यसभा में हूं पर वहां भी वही हाल है.

कभी नेहरू जी से सीधे बात करने का मौका मिला था?
मुझे तारीख तो ठीक से याद नहीं है पर मैंने एक बार नेहरू जी को संसद की लॉबी में रोका और कहा कि भूमिगत नगा आंदोलनकारी आपसे बात करना चाहते हैं. आप उन्‍हें टाइम दें. पहले तो मुझे लगा कि वह ऐसे रोकने पर गुस्‍सा हो गए हैं, इसलिए आगे बढ़ गए, पर फिर वह पीछे लौटे. मेरा हाथ थामा और बोले, कैशिंग ऐसा करो, पहले गृह मंत्री से मिलवाओ. फिर मैं बात करूंगा. मुझे उनका तरीका बहुत अच्‍छा लगा.

आपने नेहरू गांधी परिवार की चार पीढि़यों को देखा है, क्‍या अनुभव रहा?
नेहरूजी मुझे कांग्रेस में लाए. 1980 में इंदिरा गांधीजी मणिपुर के तत्‍कालीन सीएम आर के दोरेंद्र को हटा कर मुझे सीएम बनाया था. तब मैं मंत्री था. दोरेंद्र को नॉर्वे का अंबेसडर बनाया गया, हालांकि वह गए नहीं. बाद में जब राजीव पीएम बने, तो राज्‍य में अस्थिरता के चलते उन्‍होंने मुझे इस्‍तीफा देने को कहा. लेकिन उन्‍होंने मुझे सम्‍मानजनक तरीके से नौवें वित्‍त आयोग में भेजा. इस प्रकार तीनों महान नेताओं के मैं संपर्क में रहा. राहुलजी से भी बतौर पार्टीमैन जुड़ा हूं.

आपने 1951 में पहला चुनाव लड़ा तब कितने रुपए खर्च होते थे?
खर्च कैसा? कोई खर्च नहीं हुआ. पोस्‍टर, बैनर पार्टी से मिले थे. बाकी प्रचार हम पैदल जाकर करते थे. इ‍सलिए तब चुनाव लड़ने का कोई खर्च नहीं था. आज तो मैं चुनाव लड़ने की सोच भी नहीं सकता.

पहली लोकसभा में आपका वेतन कितना था ?
वेतन नहीं होता था तब. संसद की कार्यवाही में भाग लेने पर 30 रुपए रोज मिलते थे. हम उससे भी खुश थे.

मणिपुर से दिल्‍ली कैसे आते थे?
तीन दिन से अधिक लगते थे. इंफाल से दीमापुर होते हुए गुवाहाटी तक पैदल आते थे. वहां से ट्रेन पकड़ कर बिहार आते थे, फिर दूसरी ट्रेन लेते थे. तब ब्रह्ममपुत्र नदी पर रेल पुल नहीं था. नाव से पुल पार करते थे और ट्रेन पकड़ते थे. दिल्‍ली के आवास में मैंने संसद जाने के लिए एक साइकिल रखी थी.

तब संसद में कैसे मुद्दे उठते थे?
सदस्‍य दलगत राजनीति से हट कर जनता से जुड़े मुद्दे उठाते थे. आज जनता के मुद्दों से ज्‍यादा दलगत राजनीति हावी है.

साठ साल में हुई देश की प्रगति से आप कितने संतुष्‍ट हैं?
निश्चित रूप से हमने प्रगति की है. मुझे याद है, तब हमारे पास खाने के लिए अनाज तक नहीं था. अमेरिका से खराब अनाज मंगा कर खाते थे. आज हम इतने सक्षम हैं कि अपने जैसे एक और देश को खिला सकते हैं. संसद का काम कानून बनाना है उसने अपना दायित्‍व बखूबी निभाया है. लेकिन इसके बावजूद अभी देश को अग्रणी देशों की कतार में ले जाने के लिए बहुत कुछ किए जाने की जरूरत है. मुझे उम्‍मीद है कि संसद आगे भी अपनी जिम्‍मेदारी निभाएगी.

आपकी सेहत का राज क्‍या है? सेंचुरी लगाएंगे?
नो स्‍मोकिंग, नो अल्‍कोहल, नो पान मसाला. इसके अलावा मैं स्‍पोर्ट्समैन भी रहा हूं. नियमित व्‍यायाम करता हूं. खुश रहता हूं. राज्‍यसभा का कार्यकाल 2014 तक है. उम्‍मीद करता हूं कि यह पूरा कर लूंगा. सेंचुरी लगेगी या नहीं, कौन जाने?