मैंने इरोम को नहीं देखा. मैंने देखी है एक तस्वीर. उलझे बाल. नाक में पाइप. फूली हुई आंखें. लेकिन चेहरे पर एक अजीबोगरीब दृढता मानो हिमालय टकराए तो चूर चूर हो जाए.
एक और तस्वीर जो ज़ेहन में बार बार उभरती है जब कभी उत्तर पूर्व के बारे में सोचता हूं. कई निर्वस्त्र औरतें विरोध करतीं. ये सुरक्षा बलों के अत्याचारों का विरोध कर रही थीं. कोई औरत किसी मुद्दे के लिए अपने कपड़े उतार दे. ऐसा न पहले देखा था न सुना था.
अखबारों की रद्दी में कहीं दब गई है वो तस्वीर भी वैसे ही जैसे राजनीतिक आरोप- प्रत्यारोप में दब जाते हैं असल मुद्दे. असल लोग, आम आदमी और उसका असल विरोध.
रह जाते हैं बयान. पश्चाताप और इधर उधर बिखरे कुछ पन्ने जो हर साल पढ़े जाते हैं. याद किए जाते हैं. जिन पर ब्लॉग लिखे जाते हैं और कोई टटपूंजिया नारा दिया जाता है कि इरोम तुम संघर्ष करो.
इरोम के साथ संघर्ष करने की ज़रुरत किसी को नहीं है. इरोम अकेले काफी है. 12 साल से वो लगातार संघर्ष कर रही है. सरकार कहती है कि वो शर्मिंदा है. (बीबीसी को दिए एक इंटरव्यू में पूर्व गृह सचिव जीके पिल्लै ने यही कहा था कि इरोम की भूख हड़ताल सरकार के लिए शर्मिंदगी का कारण है)
बात सही है शर्मिंदा सरकारें कदम नहीं उठातीं. अपनी शर्मिंदगी के बोझ में लोगों को मरने के लिए छोड़ देती है.
इरोम ने 12 साल पहले आज के ही दिन ये संघर्ष शुरु किया था. हो सकता है कि 2024 में भी कोई लिखे कि ठीक 24 साल पहले इरोम ने इसी दिन संघर्ष शुरु किया था.
मैं इरोम जैसे लोगों से डरता हूं. उनकी दृढ़ प्रतिज्ञा से डरता हूं. पता नहीं सरकार क्यों नहीं डरती है. सरकार को शर्मिदा होने की बजाय डरना चाहिए. कहीं देश के और लोग भी इरोम शर्मिला न हो जाएं.
लिखते लिखते याद आया अतुल्य भारत (incredible India) के प्रचार में पूर्वोत्तर छाया रहता है....लेकिन पता नहीं इस अतुल्य भारत में इरोम की जगह है या नहीं.
-सुशील्ा झा
सौजन्य - बीबीसी हिंदी
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