यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Wednesday, February 1, 2017

राजनीतिक मुठभेड़ के बीच फर्ज़ी मुठभेड़ का मुद्दा ग़ायब

मणिपुर के मुख्यमंत्री इबोबी सिंह का कार्यकाल 18 मार्च 2017 को समाप्त हो रहा है. यह राज्य में उनकी तीसरी सरकार है. आगामी चार और आठ मार्च को दो चरणों में मणिपुर में विधानसभा चुनाव होने हैं. उनके कार्यकाल के इतिहास में फर्जी एनकाउंटरों में मौत की एक लंबी कहानी रही है. इन पंद्रह सालों में राज्य में कानून व्यवस्था की स्थिति शर्मसार कर दी गई थी. सुप्रीम कोर्ट ने भी उनकी सरकार को फटकार लगाई थी. यूनाइटेड नेशन्स एवं मानवाधिकार के लिए काम करने वाले कई सामाजिक संगठनों ने मिलकर पुलिस, पैरामिलिट्री एवं आर्मी द्वारा फर्जी मुठभे़डों में मारे गए लोगों की एक रिपोर्ट तैयार की थी. जिसे उन्होंने संयुक्त राष्ट्र संघ में फर्जी मुठभेड़ों के मामले को देखने वाले विशेष दूत क्रिस्टोफ हेन्स को मार्च 2012 में सौंपी थी. इस रिपोर्ट के मुताबिक 1979 से 2012 तक राज्य में 1528 लोग पुलिस, पैरामिलिट्री एवं आर्मी द्वारा कथित रूप से फर्जी एनकाउंटर में मारे गए थे. इन मुठभेड़ों में मारे गए लोगों को न्याय दिलाने के लिए एक्स्ट्रा ज्यूडिसियल एक्जिक्यूशन विक्टिम फैमिलिज एसोसिएशन (ईईवीएफएएम) मणिपुर एवं ह्‌यूमन राइट्‌स अलर्ट ने सुप्रीम कोर्ट में उक्त आंकड़ों के आधार पर एक याचिका दायर की है. ईईवीएफएएम फर्जी मुठभे़ड में मारे गए लोगों के परिवार वालों का एक संगठन है, जो न्याय दिलाने के लिए विभिन्न मानवाधिकार संगठनों के साथ मिल कर काम कर रहा है.

एक्स्ट्रा ज्यूडिशियल एक्जीक्यूशन विक्टिम फैमिलीज एसोसिएशन और ह्‌यूमन राइट्‌स अलर्ट की याचिका के आधार पर 15 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के छह मुठभेड़ों के मामले में एक फैसला सुनाया. ये सभी मुठभेड़ फर्जी थे. दो संस्थाओं एक्स्ट्रा ज्यूडिशिएल एक्जीक्यूशन विक्टिम फैमिलीज एसोसिएशन और ह्‌यूमन राइट्‌स अलर्ट ने यह पीटिशन सितंबर 2012 को सुप्रीम कोर्ट में फाइल की थी. इस पीटिशन में लिखा था कि 1979 से 2012 तक मणिपुर में मुठभेड़ में 1528 लोग मारे गए, जिन पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुईं. उन संस्थाओं की मांग थी कि सुप्रीम कोर्ट की देख-रेख में इन मुठभेड़ों की जांच पड़ताल हो. पीटिशन के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने तीन लोगों का एक कमीशन बनाया था, जिसके चेयरमैन बने सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस संतोष हेगड़ेे. इस कमेटी में पूर्व चीफ इलेक्शन कमिश्नर जीएम लिंगदोह और कर्नाटक के पूर्व डीजीपी अजय कुमार सिन्हा भी शामिल थे. कमीशन ने इंफाल जाकर पहले छह केस की जांच की थी. इसके बाद इस कमीशन ने 12 सप्ताह में सुप्रीम कोर्ट को अपनी रिपोर्ट सौंपी.

नेशनल ह्‌यूमन राइट्‌स कमीशन (एनएचआरसी) की एक टीम भी मणिपुर में हो रहे फर्जी मुठभेड़ मामलों की गहन तहकीकात के लिए 23 अक्टूबर 2013 को इंफाल गई थी. इंफाल से लौटने के बाद 19 नवंबर को एनएचआरसी के प्रतिनिधि सत्यव्रत पाल ने कहा था कि 2005-2010 के दौरान होने वाले 44 फर्जी मुठभेड़ के मामले एनएचआरसी के संज्ञान में आए हैं. अधिकतर मामलों में राज्य सरकार और उसकी मशीनरी ही दोषी पाई गई है. राज्य में तैनात पुलिसकर्मियों द्वारा सेल्फ डिफेंस के नाम पर अधिकतर मुठभेड़ को अंजाम दिया गया है. पाल ने कहा कि राज्य सरकार दोषियों को सजा दिलाने में बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं है. यह अधिकारियों के बीच सहयोग की कमी दिखाता है. एनएचआरसी ने यह भी कहा कि अधिकतर बड़े फर्जी मुठभेड़ में राज्य की पुलिस पर ही सवालिया निशान हैं. सरकारी मशीनरी द्वारा उनको बचाया जा रहा है. एनएचआरसी ने राज्य सरकार को फटकार लगाई कि मामले की सही सुनवाई होनी चाहिए. दोषियों को निष्पक्ष रूप से सजा दिलाना होगा. राज्य सरकार को कमीशन ने कठघड़े में खड़ा किया था. इसके बाद तत्काल प्रभाव से राज्य में तैनात 15 पुलिसकर्मियों को हटाया गया, जो फर्जी मुठभेड़ मामले में लिप्त थे. इनमें से 9 पुलिसकर्मी संजीत और रवीना कांड में भी शामिल थे. संजीत और रवीना फेक एनकाउंटर राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा का विषय बना था. दिल्ली से प्रकाशित होने वाली एक पत्रिका ने इस कांड से जुड़ी 12 तस्वीरें छाप कर राज्य के पुलिसकर्मियों की पोलपट्‌टी खोल दी थी. उन तस्वीरों में साफ-साफ दिखाया गया था कि कैसे इंफाल में तैनात पुलिस कमांडो द्वारा फर्जी एनकाउंटर को अंजाम दिया गया था.

आंकड़ों पर गौर करें तो राज्य में 2003 में फर्जी मुठभेड़ों में 90 लोग मारे गए. वहीं 2008 में यह संख्या बढ़कर 355 हो गई. संजीत फर्जी एनकाउंटर मामले में तो हेड कांस्टेबल थौनाउजम हेरोजीत सिंह ने स्वीकार भी किया था कि 23 जुलाई 2009 को संजीत के एनकाउंटर के लिए उसे इंफाल ईस्ट के एएसपी डॉ. अकोइजम झलजीत सिंह का आदेश मिला था. ध्यान देने वाली बात यह है कि इससे पहले 9 सितंबर 2010 को ही सीबीआई इस मामले में चार्जशीट दाखिल कर चुकी है. कांस्टेबल थौनाउजम की स्वीकृति के बाद इस मामले में फिर से सीबीआई जांच के लिए संजीत की मां ने ट्रायल कोर्ट में एक याचिका दायर की थी, जिसे कोर्ट ने खारिज कर दिया. इसके बाद उन्होंने सीबीआई डायरेक्टर को चिट्‌ठी लिखकर गुहार लगाई है कि हेरोजीत के खुलासे के आधार पर फिर से इस मामले की जांच करवाई जाए. अब देखना यह है कि सीबीआई उनके इस पत्र पर क्या कार्रवाई करती है.

इस मामले में भाजपा की मणिपुर इकाई ने प्रधानमंत्री कार्यालय को पत्र लिखकर मांग की है कि इबोबी सिंह के अबतक के कार्यकाल में हुए सभी फर्जी मुठभेड़ों की जांच कराई जाए. पीएमओ को भेजी गई इस चिटठ्‌ी में मणिपुर भाजपा की तरफ से कहा गया है कि 2002 से 2012 तक जब इबोबी सिंह मुख्यमंत्री के साथ-साथ गृहमंत्री भी थे, इस दौरान कई फर्जी मुठभेड़ हुए जिसमें कई निर्दोष लोग मारे गए. उन लोगों के साथ न्याय हो, इसके लिए जरूरी है कि इबोबी सिंह को बर्खास्त कर के इस मामले की निष्पक्ष जांच कराई जाए. लेकिन इस चिटठ्‌ी का कोई असर होगा इसकी संभावना की ही है. क्योंकि संजीत की मां द्वारा सीबाआई को लिखी गई चिटठ्‌ी पर अब तक कोई कार्रवाई नहीं की जा सकी है. सीबीआई केंद्र सरकार के ही अधीन है. भाजपा सरकार चाहती, तो इस मामले में फिर से सीबीआई जांच का आदेश दे चुकी होती. अब चुनाव सर पर आने के बाद प्रदेश के भाजपा नेताओं द्वारा पीएमओ को यह चिट्‌ठी भेजना केवल राजनीतिक फायदे की तरफ ही इशारा करता है. वहीं कांग्रेस का कहना है कि भाजपा चुनावी फायदे के लिए कांग्रेस को बदनाम कर रही है. स्थानीय पुलिस और पैरामिलिट्री फोर्स अफ्सपा की आड़ में ऐसे फर्जी मुठभेड़ों को अंजाम देती रही है. केंद्र सरकार एक तरफ पूर्वोत्तर को मुख्यधारा में लाने की बात करती है, वहीं दूसरी तरफ निर्दोष लोगों को मारने वाली कानूनें लागू करवाती है. फर्जी मुठभेड़ पर ज्यादा हो-हल्ला होने के बाद लोगों को शांत कराने के लिए सरकार की तरफ से एक कमिटी बना दी जाती है. यह सरकार का दोतरफा रवैया ही दिखाता है कि अपने ही कानून के गलत इस्तेमाल को स्वीकार न करके सरकार कमिटी बनाकर अपने कर्तव्यों की इतिश्री समझ लेती है. एक नहीं, कई कमेटियां बनाई गईं. जस्टिस जीवन रेड्‌डी मेटीजस्टिस वर्मा कमेटीसंतोष हेगड़े कमेटी आदि. बावजूद इसके आज तक कुछ नहीं हुआ और निर्दोष लोग मारे जा रहे हैं.
अधिकारविहीन है मणिपुर मानवाधिकार आयोग
मणिपुर मानवाधिकार आयोग की स्थिति बिल्कुल दयनीय है. राज्य में इसका अस्तित्व न के बराबर है. गुवाहाटी हाईकोर्ट के आदेश के बाजवूद अबतक सदस्यों की नियुक्ति नहीं की गई है. इबोबी सरकार ने पिछले सात सालों से नियुक्ति प्रक्रिया को लटकाए रखा है. सदस्यों के अभाव और संसाधनों के गैर आवंटन के कारण मणिपुर मानवाधिकार आयोग लगभग मृतप्राय हो गया है. यही कारण भी है कि मणिपुर पुलिस पिछले 15 वर्षों से मुठभेड़ मामलों में कोई प्राथमिकी भी दर्ज नहीं कर रही है और इसपर कोई आवाज भी नहीं उठा रहा है. कानून व्यवस्था के मामले में मणिपुर की इस दयनीय स्थिति को देखते हुए सुुप्रीम कोर्ट ने यहां तक कहा कि इसमें कोई शक नहीं है कि यह राज्य आंतरिक अशांति के दौर से गुजर रहा है. त्रासदी यह है कि यह स्थिति बीते 60 सालों यानी 1958 से लगातार जारी है.