लोेकतंत्र में लोक को
कमज़ोर करने की चाल
सूचना 21वीं शताब्दी का सबसे ताकतवर हथियार है. यहां तक कि आम आदमी के बोलने का अधिकार भी सूचना पाने के अधिकार से जुड़ा है. इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण केस में अदालत ने कहा भी था कि जब तक जनता जानेगी नहीं, वो बोलेगी क्या? लोकतंत्र में सूचना के सतत् प्रवाह का काम करने वाला पत्रकार को जब धमकी मिलती है या उसकी हत्या होती है, तब उस वक्त न सिर्फ एक पत्रकार मरता है, बल्कि उन लाखों लोगों को भी भयभीत करने की कोशिश की जाती है, जो सूचना पा कर, सत्ता से सवाल करने का साहस करते हैं. इसलिए, जनता को भी सोचना होगा कि एक पत्रकार की मौत की कीमत उसे भी चुकानी होगी, सच और सूचना को खोकर. क्या सचमुच भारत की जनता ऐसा ही चाहती है. नहीं, फिर क्यों नहीं किसी पत्रकार की मौत पर आम आदमी को गुस्सा आता है?
देश में पत्रकारों की
हत्या की लम्बी फेहरिस्त है. देश के विभिन्न हिस्सों में समय-समय पर पत्रकारों पर
हमले होते रहे हैं. गौरी लंकेश की हत्या के बाद एक बार फिर पूर्वोत्तर भारत के
त्रिपुरा में पत्रकार सुदीप दत्त भौमिक की हत्या की खबर सामने आई. 21 नवंबर को त्रिपुरा स्टेट राइफल्स (टीएसआर) की 2 बटालियन के हेडक्वार्टर में एक कांस्टेबल ने पत्रकार सुदीप
दत्त भौमिक की गोली मारकर हत्या कर दी. सुदीप दत्त भौमिक अगरतला से निकलने वाले
बांग्ला अखबार स्यंदन पत्रिका में रिपोर्टर थे. राजधानी से 20 किलोमीटर दूर टीएसआर हेडक्वार्टर के कमांडेंट से अप्वाइंटमेंट
लेकर मिलने गए थे. लेकिन वहां उनकी पीएसओ नंदगोपाल रियांग से किसी बात पर तकरार हो
गई. इसी दौरान नंदगोपाल ने गोली चला दी.
पूूर्वोत्तर में
पत्रकारों की हत्या का सिलसिला पुराना है. यह केवल त्रिपुरा में ही नहीं, बल्कि असम, मणिपुर
एवं अरुणाचल प्रदेश में भी इस तरह की घटना घट चुकी है. असम ऐसा राज्य है, जिसमें सबसे ज्यादा पत्रकारों की हत्या हुई है. असोमिया प्रतिदिन
के कार्यकारी संपादक पराग दास को दिनदहाड़े गुवाहाटी में सड़क पर गोली मारकर हत्या
कर दी गई थी. उनकी हत्या के 21
साल बीतने के बाद भी आजतक उनके हत्यारों को दोषी नहीं ठहराया गया. 1997 में पत्रकार संजय घोष को उल्फा ने अपहरण कर मारा था, जिसका आजतक न्याय नहीं मिला. 2000 में मणिपुर में अनजान बंदूकधारियों ने अंग्रेजी दैनिक मणिपुर
न्यूज के संपादक टी ब्रजमणि सिंह को मारा था. 2008 में इंफाल फ्री प्रेस के रिपोर्टर कोनसम ऋृषिकांता सिंह की
गोली मारकर हत्या कर दी गई थी. इसी तरह और भी पत्रकार नॉर्थ ईस्ट विजन के संवाददाता
याम्बेम मेघा, लेनताई मैग्जीन के संपादक खुपखोलियान
जिम्टे और कांगला लानपुंग के संपादक आरके सनातोम्बा आदि की हत्या कर दी गई थी.
पिछले 35 सालों में मणिपुर में छह पत्रकारों की
हत्या कर दी गई. लेकिन इतने साल बीत जाने के बाद भी आज तक इन हत्याओं से संबंधित
कोई भी आदमी पकड़ा नहीं गया है. अरुणाचल प्रदेश में भी पत्रकारों पर लगातार हमला
होते रहे हैं. अरुणाचल प्रदेश टाइम्स के सहायक संपादक तोंगम रीना को 2012 में उनके ऑफिस में घुस कर गोली मारी गई थी. इस घटना में भी
पुलिस ने आरोपियों को नहीं पकड़ सकी है. एक साल बाद खुद आरोपी ने आत्मसमर्पण किया.
इसके बाद भी राज्य में हो रहे सुपर हाइड्रो डैम प्रोजेक्ट घोटाले से संबंधित रीना
के आर्टिकल्स को लेकर उनकी कई बार हत्या करने की कोशिश की गई.
सूचना 21वीं शताब्दी का सबसे ताकतवर हथियार है. यहां तक कि आम आदमी के बोलने का अधिकार भी सूचना पाने के अधिकार से जुड़ा है. इंदिरा गांधी बनाम राज नारायण केस में अदालत ने कहा भी था कि जब तक जनता जानेगी नहीं, वो बोलेगी क्या? लोकतंत्र में सूचना के सतत् प्रवाह का काम करने वाला पत्रकार को जब धमकी मिलती है या उसकी हत्या होती है, तब उस वक्त न सिर्फ एक पत्रकार मरता है, बल्कि उन लाखों लोगों को भी भयभीत करने की कोशिश की जाती है, जो सूचना पा कर, सत्ता से सवाल करने का साहस करते हैं. इसलिए, जनता को भी सोचना होगा कि एक पत्रकार की मौत की कीमत उसे भी चुकानी होगी, सच और सूचना को खोकर. क्या सचमुच भारत की जनता ऐसा ही चाहती है. नहीं, फिर क्यों नहीं किसी पत्रकार की मौत पर आम आदमी को गुस्सा आता है?
राज्य में दो महीने के
अंदर पत्रकार की हत्या का यह दूसरा मामला है. 20 सितंबर को भी पश्चिमी त्रिपुरा जिले में इंडिजीनस पीपुल्स
फ्रंट ऑफ त्रिपुरा के आंदोलन को कवर कर रहे टीवी पत्रकार शांतनु भौमिक की अपहरण कर
हत्या कर दी गई थी. शांतनु भौमिक स्थानीय टीवी न्यूज चैनल दिन-रात में रिपोर्टर
थे. पूर्वोत्तर पत्रकार संगठनों के मुताबिक पिछले 30 सालों में पूर्वोत्तर में 31 पत्रकारों की हत्या कर दी गई है. असम में 24, मणिपुर में छह और त्रिपुरा में दो पत्रकारों की हत्या हो चुकी
है.
पत्रकार सुदीप की हत्या
की निंदा करते हुए त्रिपुरा के स्थानीय अखबारों के संपादकीय खाली छोड़ दिए गए.
राज्य भर में दो दिन तक लगातार बंद का ऐलान किया गया और इसे काला दिन के रूप में
मनाया गया. पत्रकार सुदीप की हत्या पर जर्नलिस्ट फोरम असम (जेएफए) ने
विरोध-प्रदर्शन किया और कहा कि यह आम घटना नहीं है, इसलिए राज्य की वाम मोर्चा सरकार इस मामले को गंभीरता से ले और
कार्रवाई करे. सरकार को पत्रकारों की सुरक्षा के लिए विशेष कदम उठाने चाहिए. ऑल
मणिपुर वर्किंग जर्नलिस्ट यूनियन (अमजु) ने भी त्रिपुरा में पत्रकार की हत्या की
कड़ी निंदा की. पत्रकारों पर निशाना मत साधो, पत्रकारों
का हक और आजादी दो एवं पत्रकारों को मारना बंद करो आदि नारे लगाए गए.
भाजपा, त्रिपुरा के प्रभारी सुनील देयोधर ने कहा कि पत्रकार सुदीप की
हत्या से यह बात साफ है कि राज्य में जंगल राज कायम है. वाम मोर्चा सरकार का
नेतृत्व कर रहे माणिक सरकार को तुरंत अपने पद से इस्तीफा दे देना चाहिए. वरिष्ठ
भाजपा नेता एवं असम के मंत्री हेमंत विश्वशर्मा ने भी ट्वीट कर कहा कि पत्रकार की
हत्या से साबित होता है कि त्रिपुरा में गुंडागर्दी एवं जंगल राज है. पिछले दो
महीने में यह दूसरी हत्या है. यह शर्मनाक बात है. दूसरी तरफ राज्य के मुख्यमंत्री
माणिक सरकार ने कहा कि पत्रकार सुदीप की हत्या से मैं दुखी हूं. राज्य के गवर्नर
तथागत रॉय ने भी कहा कि वे गृह मंत्री राजनाथ सिंह को पत्रकार सुदीप की हत्या के
बारे में एक रिपोर्ट सौंपेंगे.

पूर्वोत्तर के
पत्रकारों को एक और अतिरिक्त खतरा अपने सर पर उठाना पड़ता है. वे एक संघर्षरत क्षेत्र
में काम करते हैं. एक तरफ सरकार के पक्ष को जितनी अहमियत देनी होती है, वहीं अलगाववादी संगठनों के पक्ष को भी उतना ही महत्व देना पड़ता
है. दोनों का संतुलन बिगड़ने से पत्रकार पर इसका असर पड़ता है. अलगाववादियों की धमकी, हत्या और ऑफिस के सामने बम फोड़ना आदि घटनाएं यहां के पत्रकारों
के लिए आम बात है.
बहरहाल, पत्रकार सुदीप दत्त भौमिक की हत्या का पूरे देश में जितना विरोध
होना चाहिए, उतना हुआ नहीं. केवल सुदीप की हत्या ही
नहीं,
शांतनु की हत्या हो या फिर और भी
पूर्वोत्तर के पत्रकारों की हत्या में देश भर में सन्नाटा रहा. पूर्वोत्तर राज्यों
के अधिकतर पत्रकारों को देश के बाकी हिस्सों के मीडिया बिरादरी द्वारा अनदेखी की
जाती है. चाहे मणिपुर, त्रिपुरा
या पूर्वोत्तर के किसी भी राज्य के पत्रकारों के मारे जाने के बाद नेशनल मीडिया
में कोई खबर नहीं बनती. यहां तक कि गौरी लंकेश की हत्या पर फेसबुक पर नाराजगी या
विरोध प्रदर्शन करने वाले लोग भी सुदीप की हत्या के बाद अपना कोई विरोध प्रदर्शन
नहीं करते हैं. संकट के समय हमें अपनी
एकता दिखाते हुए क्षेत्रीय पत्रकारों के हितों और उनकी सुरक्षा को लेकर भी एकजुट
दिखना चाहिए. राष्ट्रीय मीडिया के लिए यह कितना उचित है कि वह केवल दिल्ली एनसीआर, मुंबई और आसपास की घटनाओं तक ही केंद्रित रहे और अन्य क्षेत्रों
में पत्रकारों की हत्या पर मौन धारण कर ले. अफसोस की बात है कि सुदीप की मौत गौरी
लंकेश की मौत की तरह लोगों का ध्यान खींचने में नाकाम रही. क्यों लोग दिल्ली, मुंबई या बेंगलुरु में रैलियां नहीं निकालते? क्यों पूर्वोत्तर में मारे गए पत्रकार के लिए न्याय की मांग
नहीं करते?
आखिर, सवाल है कि पत्रकारिता लोकतंत्र का चौथा खंभा माना जाता है, लेकिन इसकी रक्षा के लिए क्या पुख्ता इंतजाम किए गए हैं? दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के लिए यह शर्मनाक है कि भारत
पत्रकारों की सुरक्षा की दृष्टि से दुनिया के सबसे खतरनाक देशों की कतार में नजर
आता है. इससे भी ज्यादा अफसोसजनक बात यह है कि पत्रकारों की हत्या को लेकर सरकारें
भी उतनी गंभीर नहीं दिखती हैं, साथ
में पत्रकारिता से जुड़े लोग भी संजीदा नजर नहीं आते हैं. नतीजा ये होता है कि आए दिन गौरी लंकेश, राजदेव रंजन, जोगिंदर सिंह, शांतनु या सुदीप जैसे पत्रकार मारे जाते हैं.
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