यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Tuesday, December 11, 2007

किसान होने की सजा




ठीक ही समझा तुमने
कुछ भी तो नहीं हूँ
न आमीर हूँ ही शौक रखता हूँ धन पर
न क्षमतावान हूँ, न ही और कुछ हूँ।
कुछ भी नहीं हेई मेरे पास
महनत के सिवाय
मगर क्या करूं
तुमने मुझे वो जख्म दिए हेई।
जिसे मिटाना चाह कर भी
मिटी नहीं आज तक मेरे दिल से।

अच्छा मजाक उराया हेई तुमने
मेरे गरीबीपन और सीधेपन का
मेरे लाचारी किसान होने का
अच्छा जख्म दिया हेई तुमने हमें।
कुछ भी तो बिगारा नहीं तुम्हारा
झेलता रह अत्याचार चुपचाप
मेरी गुनाह बस इतनी की थी कि
तुम्हारा ओफारों को स्वीकार नहीं ने

मेरे नस्ल हटा कर इस दुनिया से
हमें मर कर हत्या कर
तुम्हारा मकसद पुरा करो
हंसो खूब मुँह खोलकर
मेरे खिलाफ षड्यंत्र रचते रहो
और दुष्प्रचार करते रहो कि
तुम विरोध की मूर्ति हैं।

पर सच यह भी तो हैं
तुम इतना परेशान क्यों हो?
मेरे परिश्रम पर
क्यों करते हो गुटबाजी?
यदि सच्चे हो अपने मन-वतन के

लराई के कई तरीके हैं
इसे बनाओ अपने आपको
चुपचाप बिन कहे, बिन सुने
खींच दो लंबी लकीर मुझसे भी लम्बा
मैं अपने बचाओ के लिए
तलवार भी न उठा सका
बिबस, मजबूर, लाचार मैं
हल को हथियार बनाया
चुपचाप चलाता रहूंगा एइसे।

आशिया लुटा हेई मेरा
इज्जत लुटी हैं तुम्हारी नहीं
फुरसत हो तो झांकी अपने अन्दर
क्या जीया भोग हैं तुमने
सब का जवाब मिल जाएगा अपने आप मैं
बशर्ते पारखी नजर रख सको तो।

मैं एलान करता हूँ सरेआम
इम्तहान ले लो मेरे परिश्रम की
यदि मैं खरा उतरा गया तो
याद रखो! किसान होने की सजा दी हैं तुमने
किस्तों में कत्ल किया हैं मेरी जिन्दगी का
देना होगा तुम्हें लहू का एक-एक कतरे का हिसाब
जिस्म के जितने लहू जले हैं मेरे,

अगर नहीं !
तो सारी दुनिया की उंगली उठेगी तुम पर
और रूह कांप जायेगी तुम्हारी
मुझे कत्ल करने के भय से...

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