मालेम निंगथैजा : कैंपेन फॉर पीस एंड डेमोक्रेसी, मणिपुर के अध्यक्ष. उन्होंने 9 जून 2010 को एर्नाकुलम की एक सभा में इरोम शर्मिला का जिक्र करते हुए मणिपुर के ताजा हालात पर रोशनी डाली. प्रस्तुत है उनके भाषण का एक अंश :
...शर्मिला और उनके आंदोलन पर काफी बातें कही गई हैं. आप तो जानते ही हैं कि आत्महत्या के प्रयास के आरोप में शर्मिला को आईपीसी की धारा 309 के तहत रखा गया है. मणिपुर में अतीत में उख्रूल जिले की एक खूबसूरत नगा युवती चानू रोज का भारतीय सुरक्षाकर्मियों ने 4 मार्च 1974 को बलात्कार किया. इस अपमान को वह बर्दाश्त नहीं कर सकी और सैनिकों की इस बर्बरता के खिलाफ उसने 6 मार्च 1974 को आत्महत्या कर ली. 4 अक्टूबर 2003 को मणिपुर के जिरी की एक 15 वर्षीया युवती संजीता का भारतीय अर्द्धसैनिक बल के लोगोंे ने बलात्कार किया और उस युवती ने उसी दिन आत्महत्या कर ली. 15 अगस्त 2004 को एक मानव अधिकार कार्यकर्ता श्री पेबम चिंतरंजन ने आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट (एफसपा) के विरोध में आत्मदाह किया. हमने यह भी देखा है कि मणिपुर फॉरवर्ड यूथ फ्रंट के पांच कार्यकर्ताओं ने अफसपा के विरोध में आत्मदाह का प्रयास किया. मैं इन सारी घटनाओं का उल्लेख इसलिए कर रहा हूं कि शर्मिला के 10 वर्षों की अथक भूख हड़ताल के साथ एकजुटता व्यक्त करते हुए हम उन्हें भी याद कर लें जिन्होंने अफसपा का विरोध करते हुए अपनी जान की बाजी लगा दी
शर्मिला की 10 वर्ष की भूख हड़ताल ने हमारे सामने बिल्कुल साफ कर दिया है कि मणिपुर में आज किस तरह का जनतंत्र काम कर रहा है. अब मैं संक्षेप में आपको यह बताना चाहूंगा कि खासतौर से एक ऐतिहासिक परिप्रेक्ष्य के साथ कि अफसपा 1958 को कैसे हमारे यहां लागू किया गया. इसके साथ ही मैं यह भी बताना चाहूंगा कि इसके लागू किए जाने के कौन से निहितार्थ मणिपुर के लिए हैं.
मैं समझता हूं कि आप में से कइयों ने रामायण जरूर पढ़ा होगा. अगर आप इसे ध्यान से पढ़ें तो आपको पता चलेगा कि उत्तर भारत के लोग दक्षिण भारत के लोगों को किस दृष्टि से देखते थे. दक्षिण के लोगों को जानवरों की तरह व्यवहार किया जाता था बहादुर हनुमान या वानर समुदाय, भालू और तरह तरह के पात्र जो जानवर के रूप में पेश किए जाते हैं. लंका के लोगों को राक्षस के रूप में चित्रित किया गया है. इससे साहित्य में आर्यों के आक्रमण को अभिव्यक्ति दी गई है. इसी प्रकार अंग्रेजों ने ठगी के खिलाफ सामूहिक दंडात्मक कानूनों को लागू किया मसलन इंडियन क्रिमिनल ट्राइब्स एक्ट. इसी तर्ज पर अफसपा ने उत्तरपूर्व की समूची आबादी को एक ही डंडे से हांक दिया और उन्हें विद्रोही बता दिया. 1950 के दशक में पटेल और नेहरू के बीच पत्रों का जो आदान प्रदान हुआ है उसमें साफ तौर पर इस क्षेत्र के लोगों को मंगोल पूर्वाग्रह वाले विद्रोही लोगों के रूप में संबोधित किया गया है. हम लोगों के लिए इसी तरह की भाषा का इस्तेमाल किया जाता था. हमें एक ऐसी इकाई के रूप में चित्रित किया जाता रहा है जिसे वे भारतीयों से थोड़ा अलग मानते हैं. इसलिए जहां हमें बर्बर और एक अजीबोगरीब भारतीय समूह के रूप में पेश किया जाता था वहीं हमारा बराबर दमन किया जाता रहा है और समूचे व्यवहार में एक ऐसा परायापन दिखाया जाता है जो मनुष्य होने की मूल भावना को ही खो दे. हम लोगों को बराबर इस तरह पेश किया गया कि हम अनुशासनहीन हों, मंगोलपूर्व की जातियों के पूर्वाग्रह से ग्रस्त हों और हमें केवल सैनिक ताकत के बल पर ही नियंत्रित रखा जा सकता है. भारत के शासकों ने इसी मानसिकता के साथ हमें देखा.
अगस्त 2004 में जब संसद में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट पर बहस चल रही थी उस समय तत्कालीन गृहमंत्री शिवराज पाटिल ने टिप्पणी की कि भारतीय सैनिक अपने घरों से 2000 किमी की दूरी पर रह रहे हैं. उन्होंने कैसे मणिपुर और भारतीय सैनिकों के घरों की दूरी नाप ली? 2000 किमी? इसका अर्थ यह हुआ कि उन्होंने भारत का अर्थ दिल्ली से लगाया. इसका अर्थ यह भी हुआ कि उन्होंने हमेशा मणिपुर को अपनी मानसिक अनुभूति से 2000 किमी दूर रखा. मणिपुर के बारे में भारतीय शासक वर्ग की यही मानसिकता है. इसीलिए आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट मणिपुर में कारगर हो सका. अभी 7 जून को मुझे एक रिपोर्ट दिखाई दी जिसमें बताया गया था कि नक्सल प्रभावित क्षेत्रों में थल सेना और वायु सेना को तैनात करने पर विचार किया जा रहा है. समस्या से निपटने के लिए एक समीक्षा समिति का गठन किया गया है. इस मुद्दे पर सेना और वायु सेना के प्रधानों की राय मांगी गई थी. यह भी खबर थी कि थल सेना ओर वायु सेना दोनों को इस मामले में चिहकिचाहट हो रही है क्योंकि उन्हें लगता है कि इससे वे लोग भी मारे जाएंगे जिन्हें मारने का इरादा नहीं है. यह भी दलील दी गई कि आबादी वाले इलाकोंे में सेना की तैनाती से एक मनोवैज्ञानिक तनाव पैदा होगा और जनता के साथ एक अलगाव भी पैदा होगा. लेकिन जब उत्तर पूर्वी राज्यों का सवाल आता है तब यह बातें नहीं सोची जातीं. 1950 के दशक में नगा विद्रोहियों का दमन करने के लिए सेना भेजते समय निर्दोष लोगों के मारे जाने की बात दिमाग में नहीं आई. उन्होंने कभी नहीं सोचा कि इससे जनता के साथ अलगाव पैदा हो जाएगा. भारतीय सत्ताधारीवर्ग की यही मानसिकता बहुत बड़ी बाधा पैदा कर रही है.
जहां तक आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट के प्रावधानों का सवाल है, मुझे नहीं पता कि आप में से कितने लोगों ने उसे ठीक से पढ़ा है. इसके अनुच्छेद 4 में सेना के किसी भी अधिकारी को यह अधिकार दिया गया है कि महज संदेह के आधार पर वह किसी को भी गोली मार सकता है. अब संदेह तो ऐसी चीज है जो आपके दिमाग में पलती है. इसे ठोस रूप से बाहर लाकर किसी को दिखाया नहीं जा सकता. अगर आप मुझ पर संदेह करते हैं या आप संदेह करना चाहते हैं तो आप मुझे मार सकते हैं. इसी प्रकार आप पर संदेह कर मैं आपको मार कसता हूं. इसका अर्थ यह हुआ कि संदेह करने वाले को हत्या करने का लाइसेंस मिल गया है. इसमें साफ तौर पर एक समुदाय विशेष के लोगों को संदेहास्पद लोगों की श्रेणी में डाल दिया है. हमारे लिए संदिग्ध जैसा एक अपमानजनक शब्द तय कर दिया गया है. यह वैसे ही है जिस प्रकार अमेरिका ने बहुत साफ तौर पर मुसलमानों को अर्द्धशैतानी प्रवृत्ति वाले आतंकवादी गुट में रख दिया है. इसका उल्लेख एडवर्ड सईद ने अपनी पुस्तक कवरिंग इस्लाम में बहुत स्पष्ट रूप से किया है. मीडिया ने हमारी क्या छवि बनाई और मीडिया ने किस तरह मुसलमानों को परिभाषित किया. यह बिल्कुल वैसा ही है. इस कानून ने सेना के अधिकारी को इस बात का हक दे दिया है कि वह बिना रोकटोक किसी के घर की तलाशी ले ले, बिना वारंट किसी को गिरफतार कर ले और संदेह के आधार पर किसी की भी हत्या कर दे. हम ऐसे हालात में जिंदगी गुजार रहे हैं जहां सेना के पास सारे अधिकार हैं और वह बिना किसी भय के हमारे हत्या करने के लाइसेंस का इस्तेमाल कर सकती है. बिना भय के मैं इसलिए कह रहा हूं कि सिविल कोर्ट को इस बात का अधिकार ही नहीं है कि वह सेना के खिलाफ किसी मुकदमे को स्वीकार करे. अनुच्छेद छह के अनुसार अगर सेना के किसी अफसर के खिलाफ हम कानूनी कार्रवाई करना चाहें तो हमें केंद्रीय गृहमंत्री से विशेष इजाजत लेनी पड़ेगी. और आप तो जानते ही हैं कि सेना के खिलाफ किसी भी तरह की कानूनी कार्रवाई के लिए गृहमंत्री शायद ही इजाजत दें. इसलिए हम ऐसे हालात में जीने को मजबूर हैं जहां पूरी तरह सेना का शासन है जहां कमांडो लोग आतंक के एजेंट बन बैठे हैं और जहां जनता के अधिकार का पूरी तरह दमन किया जा रहा है.
इन बातों से मुझे महसूस होता है कि भारतीय राज्य के निर्माण की प्रक्रिया में आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट एक उपकरण है. जैसा कि मैं ने पहले से कहा भारत एक विविध राष्ट्रीयताओं वाला देश है. भारतीय राज्य की संस्थाओं ने जिस भारतीय राष्ट्रवाद का तानाबाना बुना था जिसका आविष्कार किया था अथवा जिसे मूर्त रूप दिया था उसके साथ कुछ भाषाई राष्ट्रीय समूह स्वेच्छा से जुड़ गए और कुछ ने मनोवैज्ञानिक दूरी बनाए रखी. इसलिए 1947 में आजादी की बेला में और 1950 में जब भारत का संविधान विधिवत पारित किया जा रहा था. आप देखेंगे कि उत्तर पूर्व के अनेक विद्रोही गुटों ने भारत राष्ट्र की अवधारणा से खुद को अलग रखा. भारत सरकार ने इसे कानून व्यवस्था की समस्या माना. राजनीति और अर्थव्यवस्था की समस्या को कानून और व्यवस्था की समस्या के रूप में चित्रित किया गया और कानून के पैमाने से इससे निबटा गया. हमने देखा है कि राष्ट्रीय सुरक्षा और राष्ट्रवाद के नारे के पीछे भारतीय सत्ताधारी तर्क का पूंजीवादी हित है जो समूचे संसाधन और आबादी को अपने नियंत्रण में करना चाहता है और अपने सैनिक ठिकानों के साथ उत्तर पूर्वी क्षेत्र को एक ऐसे बफर जोने के रूप में इस्तेमाल करना चाहता है जहां से वह दक्षिण पूर्व एशिया के देशों में बड़े पैमाने पर पूंजीवादी अभियान चला सके.
किसी राष्ट्र या राज्य के निर्माण से हमारा कोई विरोध नहीं है बशर्ते वह विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया से होकर गुजरा हो. लेकिन अगर ऐसी स्थिति पैदा हो जाए कि आपको सैन्य शक्ति का इस्तेमाल करना पड़े और जनता के खिलाफ लड़ाई छेड़नी पड़े तो इससे समस्या का पैदा होना लाजिमी है. जो भी समस्या हो उसका राजनीतिक समाधान ढूंढा जाना चाहिए. इसमें कोई शक नहीं कि भारतीय राष्ट्रवाद के प्रति निष्ठावान होने में उत्तर पूर्वी राज्यों के लोगों और कश्मीरी जनता को अभी समय लगेगा. इसके लिए उन प्रावधानों का होना जरूरी है जिसमें जनता अपनी आकांक्षा को स्वतंत्र और जनतांत्रिक तरीके से व्यक्त कर सके और निर्भय होकर ऐसे कार्यक्रम ला सके जो उसके भौतिक आदान प्रदान और परस्पर अंतःक्रिया की ऐतिहासिक प्रक्रिया को पूरी होने में मदद पहुंचाए. भारतीय राष्ट्रवाद के निर्माण में कोई समस्या नहीं हो सकती. हम किसी राष्ट्र के निर्माण का विरोध नहीं कर रहे हैं. लेकिन जिस तरीके से राष्ट्र शब्द का इस्तेमाल एक सरकारी टेक की तरह इसलिए किया जा रहा है ताकि कुछ चुने हुए भारतीय सत्ताधारी वर्ग के पूंजीवादी हिंतों के माफिक हो और अगर वे जनतांत्रिक सक्रिय लोगों की बड़े पैमाने पर धरपकड़ कर रहे हों और साथ ही मानव अधिकारों का घोर उल्लंघन कर रहे हों तो ऐसी हालत में हम कभी भी इस तरह की नीति को स्वीकार नहीं कर सकते. इससे समस्या पैदा होती है. यह राष्ट्र के निर्माण का एजेंडा पूरा करने की बजाय अपेक्षाकृत ज्यादा बड़ी समस्याएं पैदा कर रहा है. राजनीतिक और आर्थिक किस्म के जो मुद्दे हैं उन्हें कानूनी मुद्दे के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए.
1958 में जब संसद में बहस हुई थी तो उस समय ही इस कानून को वैधानिक नहीं बल्कि राजनीतिक के बतौर देखा गया था. फिर 1997 में सुप्रिम कोर्ट ने जो फैसला दिया उसमें भी राजनीतिक और प्रशासनिक अनिवार्यताओं के आधार पर ही इस कानून को न्यायोचित ठहराया गया था. वैधानिक नजरिये से देखने वाले कट्टरपंथी और अंधराष्ट्रवादी तत्व यह समझ ही नहीं सके.. वे राजनीतिक अंतःकरण और मनोवैज्ञानिक एकता पर आधारित स्वैच्छिक एकीकरण के किसी रूप को देख भी नहीं सके. इसका अभाव आज भी दिखाई देता है. इसलिए मौजूदा वक्त में मार्शल लॉ के अधीन हमेंं जनतांत्रिक अधिकार की मांग करने वाले कार्यकर्ताओं की हत्या और उन पर निगरानी के मामले देखने को मिलते हैं और बलात्कार, दुराचार जबरन विस्थापन तथा मानव अधिकारों का हर तरह का उल्लंघन दिखाई देता है जो भारत की एकता को बचाए रखने के लिए विद्रोह को कुचलने के नाम पर किया जाता है. मैं समझ नहीं पाता हूं कि अगर सारे लोग मार दिए जाएंगे तो किसके राष्ट्र ओर किसके लिए राष्ट्र की बात ये लोग कर रहे हैं. क्या कोई राष्ट्र बिना जनता के महज एक जमीन का टुकड़ा बन कर रह सकता है? मैं समझ नहीं पाता हूं कि भारतीय राज्य किसी तरह का राष्ट्र तैयार करने की कोशिश में लगा है.
एक महत्वपूर्ण बात यह है कि जब आप जनतांत्रिक संघर्ष को आतंकवाद के समकक्ष रख देंगे तो नागरिक संगठनों के नाम करने का जो जनतांत्रिक दायरा है उसका पूरी तरह लोप हो जाएगा. हम ऐसी स्थिति में रह रहे हैं जहां मणिपुर की आर्थिक स्थिति अल्प विकास के दौर से गुजर रही है. हम पूरी तरह बाहर से किए जाने वाले आयात पर निर्भर हैं. हमारे पास आय के अत्यंत सीमित साधन हैं. गरीब लोगों की संख्या दिनोंदिन बढ़ती जा रही है. 2001 के आंकड़ों को देखें तो पता चलता है कि 25 लोख की आबादी में से सात लाख से अधिक लोग ऐसे है जो गरीबी रेखा के नीचे जीवन गुजार रहे हैं. अर्थव्यवस्था की इस हालत को देख कर हमारी जनता अपने अस्तित्व को लेकर काफी चिंतित है. हम एक भीषण अवस्था से गुजर रहे हैं. दूसरी तरफ हमारा बाजार पूरी तरह बाहरी लोगों द्वारा नियंत्रित है. बहुराष्ट्रीय कंपनियां और भारतीय पूंजीपति हमारे संसाधनों, जन संसाधनों को अपने नियंत्रण में रखने के प्रयास में लगे हैं और मणिपुर में विस्थापन की हर तरह की नीतियां लागू की जा रही हैं. ऐसी स्थिति में नागरिक समाजों और संगठनों ने जनता की आवाज उठानी शुरू कर दी है.
आर्म्ड फोर्सेज स्पेशल पावर एक्ट एक राजनीतिक कानून है. यह भारत के सत्ताधारी वर्ग के हितों की पूर्ति करता है. यह भारत में बसी आम जनता के हितों की पूर्ति नहीं करता. हमें जनतांत्रिक अधिकारों के उल्लंघन के हर तरह के स्वरूप का मिलजुल कर विरोध करना होगा. हमें मिलजुल कर अपनी साझा समस्याओं के समाधान के लिए सामूहिक संघर्ष करना होगा और फिर से एक जनतांत्रिक वातावरण तैयार करना होगा. अभी जो भारतीय जनतंत्र है वह एक मजाक है.
साभार : समकालीन तीसरी दुनिया
शर्मिला की कविता
कांटों की चूड़ियों जैसी बेड़ियों से
मेरे पैरों को आजाद करो
एक संकरे कमरे में कैद
मेरा कुसूर है
परिंदे के रूप में अवतार लेना
कैदखाने की अंधियारी कोठरी में
कई आवाजें आसपास गूंजती हैं
परिंदों की आवाजों से अलग
खुशी की हंसी नहीं
लोरी की नहीं
मां के सीने से छीन लिया गया बच्चा
मां का विलाप
पति से अलग की गई औरत
विधवा की दर्द-भरी चीख
सिपाही के हाथ से लपकता हुआ चीत्कार
आग का एक गोला दीखता है
कयामत का दिन उसके पीछे आता है
विज्ञान की पैदावर से
सुलगाया गया था आग का गोला
जुबानी तजुर्बे की वजह से
ऐंद्रिकता के दास
हर व्यक्ति समाधि में है
मदहोशी-विचार की दुश्मन
चिंतन का विवेक नष्ट हो चुका है
सोच की कोई प्रयोगशीलता नहीं
चेहरे पर मुस्कान और हंसी लिए हुए
पहाड़ियों के सिलसिले के उस पार से आता हुआ यात्री
मेरे विलापों के सिवा कुछ नहीं रहता
देखती हुई आंखें कुछ बचाकर नहीं रखतीं
ताकत खुद को दिखा नहीं सकती
इंसानी जिंदगी बेशकीमती है
इसके पहले कि मेरा जीवन खत्म हो
होने दो मुझे अंधियारे का उजाला
अमृत बोया जाएगा
अमरत्व का वृक्ष रोपा जाएगा
कृत्रिम पंख लगाकर
धरती के सारे कोने मापे जाएंगे
जीवन और मृत्यु को जोड़ने वाली रेखा के पास
सुबह के गीत गाए जाएंगे
दुनिया के घरेलू काम-काज निपटाए जाएंगे
कैदखाने के कपाट पूरे खोल दो
मैं और किसी राह पर नहीं जाऊंगी
मेहरबानी से कांटों की बेड़ियां खोल दो
मुझ पर इल्जाम मत लगाओ
कि मैंने परिंदे के जीवन का अवतार लिया था.
वाइड एंगिल सोशल डेवेलपमेंट ऑर्गेनाइजेशन द्वारा मूल मणिपुरी से अंग्रेजी अनुवाद
विष्णु खरे द्वारा हिंदी में अनूदित
साभार : समकालीन तीसरी दुनिया
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