यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Saturday, December 4, 2010

मांस के झंडे















देखो हमें
हम मांस के थरथराते झंडे हैं
देखो बीच चौराहे बरहना हैं हमारी वही छातियां
जिनके बीच
तिरंगा गाड़ देना चाहते थे तुम
देखो सरेराह उधड़ी हुई
ये वही जांघें हैं
जिन पर संगीनों से
अपनी मर्दानगी का राष्ट्रगीत
लिखते आये हो तुम
हम निकल आए हैं
यूं ही सड़क पर
जैसे बूटों से कुचली हुई
मणिपुर की क्षुब्ध तलझती धरती

अपने राष्ट्र से कहो घूरे हमें
अपनी राजनीति से कहो हमारा बलात्कार करे
अपनी सभ्यता से कहो
हमारा सिर कुचल कर जंगल में फेंक दे हमें
अपनी फौज से कहो
हमारी छोटी उंगलियां काट कर
स्टार की जगह टांक ले वर्दी पर
हम नंगे निकल आए हैं सड़क पर
अपने सवालों की तरह नंगे
हम नंगे निकल आए हैं सड़क पर
जैसे कड़कती हे बिजली आसमान में
बिल्कुल नंगी...
हम मांस के थरथराते झंडे हैं

-अंशु मालवीय

(मणिपुर में जुलाई, 2004 सेना ने मनोरमा की बलात्कार के बाद हत्या कर दी. मनोरमा के लिए न्यासय की मांग करते महिलाओं ने निर्वस्त्र हो प्रदर्शन किया. उस प्रदर्शन की हिस्सेदारी के लिए ये कबिता...) साभार: उत्‍तर पूर्व

1 comment:

भारतीय नागरिक - Indian Citizen said...

किसी के साथ किसी का भी ऐसा व्यवहार करने वाले को एक ही सजा होना चाहिये... मौत.. सरेआम