देखो हमें
हम मांस के थरथराते झंडे हैं
देखो बीच चौराहे बरहना हैं हमारी वही छातियां
जिनके बीच
तिरंगा गाड़ देना चाहते थे तुम
देखो सरेराह उधड़ी हुई
ये वही जांघें हैं
जिन पर संगीनों से
अपनी मर्दानगी का राष्ट्रगीत
लिखते आये हो तुम
हम निकल आए हैं
यूं ही सड़क पर
जैसे बूटों से कुचली हुई
मणिपुर की क्षुब्ध तलझती धरती
अपने राष्ट्र से कहो घूरे हमें
अपनी राजनीति से कहो हमारा बलात्कार करे
अपनी सभ्यता से कहो
हमारा सिर कुचल कर जंगल में फेंक दे हमें
अपनी फौज से कहो
हमारी छोटी उंगलियां काट कर
स्टार की जगह टांक ले वर्दी पर
हम नंगे निकल आए हैं सड़क पर
अपने सवालों की तरह नंगे
हम नंगे निकल आए हैं सड़क पर
जैसे कड़कती हे बिजली आसमान में
बिल्कुल नंगी...
हम मांस के थरथराते झंडे हैं
-अंशु मालवीय
(मणिपुर में जुलाई, 2004 सेना ने मनोरमा की बलात्कार के बाद हत्या कर दी. मनोरमा के लिए न्यासय की मांग करते महिलाओं ने निर्वस्त्र हो प्रदर्शन किया. उस प्रदर्शन की हिस्सेदारी के लिए ये कबिता...) साभार: उत्तर पूर्व
1 comment:
किसी के साथ किसी का भी ऐसा व्यवहार करने वाले को एक ही सजा होना चाहिये... मौत.. सरेआम
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