स्त्री को दुर्बल कौन समझते हैं? जो कहते हैं कि स्त्री शारीरिक रूप से दुर्बल है, वे गलत कहते हैं. वे झूठ बोलते हैं. आज भी अगर एक नर और एक नारी शिशु को भरे तालाब में छोड दिया जाए तो जिस शिशु की मौत होगी, वह नर शिशु ही होगा. यदि नारी शिशु का फेफडा या हृदय नर शिशु से ज्यादा शक्तिशाली है यदि प्रतिरक्षा या जिंदा रहने की क्षमता नारी शिशु में अधिक है, तो कैसे एक झटके में यह राय दे दी जाती है कि स्त्री दुर्बल, कोमल, भीरु और जालवंती होती है.
मेरी इच्छा है कि सुबह से दोपहर, दोपहर से रात तक अकेली घूमती रहूं. नदी के किनारे, गांव के मैदान में, रोशनी में, शहर के फुटपाथ पर, पार्क में, अकेली, सिर्फ अकेली चलती रहूं. बहुत इच्छा होती है कि सीताकुंड पहाड पर जाउं. मन करता है एक दिन अचानक बिहार के सालवन में जाकर पूरी दोपहर बिताउं. मन करता है कि सेंट मार्टिन के समुद्र में उतर कर गांगचील (एक समुद्री पक्षी) का खेल देखूं. इच्छा होती है कि गहन उदासी भरे क्षणों में घास पर लेटे’लेटे आकाश देखती रहूं. मन करता है कि संसद भवन की किसी सीढी पर अकेली बैठी रहूं, किसी खुशनुमा शाम में पेड से पीठ टिकाये यों ही अलसायी खडी रहूं, क्रिसेंट झील के पानी में पूरी शाम पांव डुबोय पडी रहूं और फिर अचानक शीतलक्षा नदी में नौकाविहार करूं.
मैं जानती हूं, बहुत अच्छी तरह जानती हूं कि यदि मैंन अपनी इच्छाएं पूरी करने लगूं तो मुझ पर लोग पत्थर बरसायेंगे, थूकेंगे, धिक्कारेंगे. मुझे अपमानित होना पडेगा, बलात्कार का शिकार होना पडेगा. मुझे कोई पागल कहेगा, कोई बदचलन कहेगा. यद्यपि यही सब करते हुए किसी पुरुष को किसी के व्यंग्यबाण से आहत नहीं होना पडता. किसी पुरुष के साथ अपहरण, धोखाधडी, बलात्कार, हत्या जैसे हादसे नहीं गुजरते. हादसे सिर्फ स्त्री के साथ ही गुजरते हैं. पूछा जाता है- स्त्री एक हमसफर पुरुष के क्यों घूमती है? पुरुष स्वभाव की विचित्रताएं उसे शोभा देती है, लेकिन एक स्त्री फुटपाथ पर क्यों टहलेगी, क्यों पेड की छांव में खडी रहेगी, कैसे सीढी पर अकेली बैठी रहेगी और क्यों घास पर लेटेगी? स्त्री के लिए ऐसी तमाम इच्छाएं पालना उचित नहीं है. स्त्री को तो घर पर बैठे रहना चाहिए. उसके लिए घर में रोशनदान की व्यवस्था है. उस रोशनदान की भेदती हुई जो रोशनी और हवा उसके शरीर में लगती है, क्या वही जिंदा रहने के लिए काफी नहीं है.
हां, काफी है. जिंदा रहने के लिए उतनी हवा-रोशनी काफी है. सभी पुरुष, स्त्री के सिर्फ जिंदा रहने तक को ही पसंद करते हैं, क्योंकि स्त्री की उन्हें जरूरत है. भाग के लिए, वंशबेल को बनाए रखने के लिए. स्त्री के वगैर न तो पुरुष का भोग संभव है और नही वंश रक्षा. स्त्री के बिना पुरुष के लिए अधिकार जताने, ताकत आजमाने, उंचे स्वर में बोलने और शारीरिक बल दिखाने की कौन सी जगह रह जाएगी ! उपरवाले अपने ही बनाए नीति-नियमों के मुताबिक नीचेवालों का शोषण करते हैं. सबल हमेशा दुर्बल पर चढाई रकता है उच्चवर्ग हमेशा मौका ढूंढता है- निम्नवर्ग या निर्धनों को फूंक कर उडा देने का. इसीलिए स्त्री पर हमेशा से पुरुष का अधिकार चला आया है- उसके जी भर उपभोग और उससे प्यास बुझाने का, उसे आहत करने का. स्त्री निम्न श्रेणी का प्राणी है, दुर्बल है, असहाय, असंगत, शरणार्थी है. इसीलिए स्त्री को जिंदा बनाए रख कर उस पर चढाई करने की इच्छा सभी सज्जनों में रहती है.
जैसे पिंजडे में पंछी के लिए भी रोशनी आने की व्यवस्था रहती है, उसको समय पर दाना-पानी दिया जाता है, चंद शब्द सिखाये जाते हैं, वैसे ही स्त्री के लिए भी किया जाता है. स्त्री के लिए भी एक रोशनदान का इंतजाम रहता है, सुबह-शाम खाना दिया जाता है और कुछ तयशुदा सामाजिक व्यवहार सिखाया जाता है. स्त्री को उसकी सीमित बातचीत, सीमित राह, सीमित खान-पान, सीमित इच्छाओंे और सीमित सपनों के बारे में सम्यक ज्ञान दिया जाता है. पिंजडे में बंद पंछी की ही तरह स्त्री खुले आकाश, खुले मैदान, वन-जंगल और अनंत हरियाली के आनंद से वंचित रहती है.
स्त्री को दुर्बल कौन समझते हैं? जो कहते हैं कि स्त्री शारीरिक रूप से दुर्बल है, वे गलत कहते हैं. वे झूठ बोलते हैं. आज भी अगर एक नर और एक नारी शिशु को भरे तालाब में छोड दिया जाए तो जिस शिशु की मौत होगी, वह नर शिशु ही होगा. यदि नारी शिशु का फेफडा या हृदय नर शिशु से ज्यादा शक्तिशाली है यदि प्रतिरक्षा या जिंदा रहने की क्षमता नारी शिशु में अधिक है, तो कैसे एक झटके में यह राय दे दी जाती है कि स्त्री दुर्बल, कोमल, भीरु और जालवंती होती है.
दरअसल ये सब स्त्री पर आरोपित किए गए सामाजिक विशेषण हैं. स्त्री यदि विवेक-बुद्धि से परिचालित होने और ममत्व या प्यार धारण करने की अधिक क्षमता रखने के कारण हिंसक युद्ध में नहीं कूदती, तो इसका यह अर्थ नहीं है कि वह अबला है. आदिम युग में स्त्री-पुरुष दोनों नोंच खसोट कर ही जीव-जंतुओं का मांस खाते थे. कहीं भी यह प्रमाणित नहीं हुआ कि स्त्री दुर्बल है, इसलिए वह नोच कर नहीं खा सकती. स्त्री का गर्भवती होना पडता है, इसलिए गर्भरक्षा के उद्देश्य से उसे कम परिश्रम का भी अभ्यस्त होना होता है. शिकार पर कम जाना पडता है. छीना-झपटी कम करनी पडती है. देहबल की अपेक्षा वह बुद्धि के द्वारा जीवन निर्वाह करती है. संतान के प्रति उसमें ममता पनपती है. प्यार के सामने वह झुक जाती है, उसमें डूब जाती है. लेकिन इसका अर्थ यह नहीं कि स्त्री दुर्बल, डरपोक और लाजवंती है.
स्त्री को डरना एवं लज्जालु होना पुरुष प्रधान समाज ने सिखाया है क्योंकि भयभीत एवं लज्जालु रहने पर पुरुषों को उसपर अधिकार जताने में सुविधा होती है. इसीलिए डर और लज्जा को स्त्री का आभूषण कहा जाता है. समाज में कुछ ही लोग होंगे जो निर्भीक और लज्जाहीन स्त्री को समाज बुरा नहीं कहते हों.
चूंकि डर एवं लज्जा को ही स्त्री का मुख्य गुण समझा जाताह ै चूंकि स्त्री के लिए सीमित रास्ता ही निर्धारित किया जाता है, इसीलिए यदि वह रास्ते में गलियारे में रेस्तरां में अकेले चलती या बैठती है तो लोग उसकी ओर हैरत से देखेंगे, सीटी बजाएंगे, उससे सट कर खडे होंगे और परखेंगे कि यह लडकी वेश्या तो नहीं क्योंकि वेश्या के अलावा कोई भी लडकी निडर होकर नहीं चलती. वेश्या के अलावा पूरे शहर में कोई भी अकेला, स्वच्छंद, सीमा लांघ कर रास्ते में नहीं निकलता.
जो स्त्रियां घर पर बैठी रहती है जो अभिभावक या पुरुषों के साथ निरापद घर से बाहर जाती हैं या अकेले ही मान्य सीमा के अंदर घूम फिर कर जरूरत पूरी करते हुए घर लौट आती है, समाज उन्हें भली औरत का दर्जा देता है. इस भद्रता का अतिक्रमण करने पर स्त्री को वेश्या कह कर गाली दी जाती है. पुरुष गण वेश्या को गाली जरूर देते हैं, लेकिन वेश्या के बगैर उनका काम भी नहीं चलता. अपने स्वार्थ के लिए उन्होंने खुद ही अपने दायरे में वेश्यालय खोल रखे हैं.
पुरुष वेश्या न कह दें, इसलिए स्त्री दोपहर के समय किसी खुले मैदान में अकेले नहीं घूमती. इच्छा होने पर भी वह चंद्रनाथ पहाड नर नहीं जाती. चाह कर भी स्त्री नदी तट से लगे हिजला पेड की छाया में बैठ कर दो एक पंक्तियां गा नहीं सकती. इच्छा के बावजूद निर्जन फुटपाथ पर अकेले नहीं चलती. स्त्री वेश्या संबोधन से बहुत डरती है, इससे वह अपने को बहुत बचा कर रखती है. पुरुष को नजरों में खुद को आकर्षक बनाए रखने के लिए स्त्री साज-सिंगार करती है. आंखों में गालों और होठों पर रंग चढाती है. पूरी दुनिया में श्रृंगार के प्रसाधनों का उत्पादन जिस रफ्तार से बढ रहा है मुझमें यह क्षमता नहीं है कि मैं इसका अंदाजा भी लगा पाउं वेश्याएं श्रृंगार करती हैं असामाजिक ग्राहक की आशा में और भद्र महिलाएं सजती है सामाजिक ग्राहक की आशा में उद्देश्य दोनों का ही ग्राहक पाना है. जिसे जितना अच्छा ग्राहक मिलता है उसको इस लोक की सुविधाएं भी उतनी ही अधिक मिलती है. स्त्री को वे सुविधाएं दे रहे हैं, खाने पीने पहनने ओढने को दे रहे हैं, इसीलिए स्त्रीके पैरों में वे जंजीरें पहनाते है. वैसे ही जैसे बकरी को मैदान में चरने के लिए छोड कर उसके गले की रस्सी को एक खूंटे से बांध दिया जाता है. स्त्री को गाय, बकरी, भेड की तरह ही एक नपे तुले दायरे में चलने फिरने दिया जाता है. पुरुष वर्ग रस्सी से बंधी स्त्री का स्वाद भी पाना चाहता है और उस्सी तुडाई हुई स्त्री का भी मुख्य रूप से पुरुष रसना को तृप्त करने के लिए ही स्त्री को एक बार घर में बंदी होना पडता है तो एक बार घर छोडना पडता है. स्त्री आखिर स्त्री ही है, चाहे वह वेश्या हो या कुलवधू कष्ट झेलने के लिए ही उसका जन्म हुआ है.
समाज की स्त्रियां पुरुषों के डंक मारने के डर से, इस डर से कि लोग उसे बुरा कहेंगे, चाहत के बावजूद एक बार महास्थानगढ घूमने नहीं जा सकतीं, श्रीमंगल के चाय बागान में निर्द्धंद्ध होकर टहल नहीं सकतीं. ब्रह्मपुत्र के पानी में खुशी से तैर नहीं सकती, संदरवन में पूर्णिमा की चांदनी नहीं नहा सकतीं. एकांतिक मानुष जीवन. यह जीवन वह मन मर्जी से नहीं जी सकती. इस जीवन को वह मनुष्य के पास, आकाश और नक्षत्रों के पास, जल और हवा के पास, हरे भरे जंगलों के पास, निर्जन नदी के पास लाकर नहीं पहचान सकती. वह अपने सभी अरमानों, सभी चाहतों और सपनों के घर को जला कर पुरुष के घर को आलोकित करती है.
स्त्री के इस अर्थहीन जीवन के प्रति शोक-संताप से भरी हुई मैं लज्जित हूं. पाठकगण, आप में यदि इंसानियत नाम की कोई चीज है तो इस पर आप भी लज्जित हों.
-तस्लीमा नसरीन
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