गुरुवार को उल्फा और केंद्र सरकार के बीच पहले दौर की वार्ता एक सुखद संकेत के साथ पूरी हो गई. वैसे यह तो महज आरंभ है. अब तक उल्फा ने अपनी मांगों की सूची तैयार नहीं की है और वे मुद्दे सामने नहीं आए हैं जिन पर वार्ता होनी है. अभी बहुत किया जाना बाकी है लेकिन वार्ता के लिए ठोस जमीन तैयार लगती है. पहले दौर की वार्ता के बाद दोनों पक्षों ने जो विचार व्यक्त किए वे उत्साहवर्द्धक हैं, यानी दोनों पक्ष वार्ता आगे बढ़ाने का आग्रह व्यक्त कर रहे हैं. वार्ता के बाद उल्फा और गृह मंत्रालय के बयानों से साफ लगता है कि दोनों पक्ष बातचीत के माध्यम से इस समस्या के सम्मानजनक राजनीतिक समाधान के लिए उत्सुक हैं. यही बात वार्ता के भविष्य के प्रति आश्वस्त करती है.
केंद्र सरकार और उल्फा के बीच आरंभ हुई वार्ता यदि एक सम्मानजनक समझौते तक पहुंच पाती है तो तीन दशक से जारी पूर्वोत्तर के उग्रवाद पर इसका दूरगामी प्रभाव पडेगा. उल्फा असम का सबसे ताकतवर और दबंग भुमिगत उग्रवादी संगठन है. पूर्वोत्तर के राज्यों समेत इसके तार कई देशों तक फैले हुए हैं. तमाम अंतर्विरोधों के बावजूद असमिया समाज पर इसका व्यापक प्रभाव है और अप्रत्यक्ष रूप से यह राज्य की राजनीति को भी प्रभावित करता रहा है. यही वजह है कि नब्बे के दशक से जारी सैन्य अभियान के बावजूद उल्फा की सक्रियता में कोई कमी नहीं आई है. कई बार विभाजन के बावजूद कमजोर होने के बदले इस संगठन ने खुद को ताकतवर ही बनाया है्. इसलिए उल्फा के साथ शांति वार्ता का आरंभ पूर्वोत्तर में उग्रवाद को नियंत्रित करने की दिशा में एक बडी घटना है. नगा बागियों के बाद उल्फा सबसे ताकतवर संगठन है. यदि उल्फा के साथ जारी वार्ता किसी नतीजे तक पहुंचती है तो अन्य छोटे-बडे उग्रवादी संगठनों पर भी वार्ता के लिए दबाव बढेगा. उन संगठनों के अंदर से भी वार्ता के लिए दबाव बढ सकता है और तब जाहिर है कि बाहरी समाज भी अपना दबाव बढा देगा, क्योंकि पूर्वोत्तर के लोग अब अपने क्षेत्र में अमन-चैन चाहते हैं.
उल्फा के साथ जारी वार्ता की सफलता के लिए यह पहली शर्त है कि बातचीत करने वाले दोनों पक्ष अब तक की बातचीत से संतुष्ट हों. उल्फा पिछले इकतीस वर्षों से असम को एक संप्रभु राष्ट्र बनाने के लिए सशस्त्र संघर्ष करता रहा है. भूमिगत संगठन के नेताओं और नौकरशाही के कामकाज की शैली में बुनियादी फर्क होता है. नौकरशाह कानून के दायरे और सरकारी औपचारिकताओं में बंधे होते हैं, जबकि भूमिगत संगठन के नेताओं के लिए संविधान की कोई सीमा नहीं होती है. उनकी मांगों के पीछे व्यावहारिकता कम और भावनात्मक आवेग ज्यादा होता है. इसलिए उन दोनों के बीच वार्ता की सफलता के लिए एक दूसरे की बात पर विश्वास करना बेहद जरूरी होता है, क्योंकि वार्ता के दौरान हर बात लिखित नहीं होती. कई बातों को लिखा भी नहीं जा सकता है लेकिन उन पर चर्चा की जा सकती है. इस नजरिए से देखा जाए तो पहले दौर की बातचीत पर संतोष जताया जा सकता है. कुछ देर के लिए वार्ता में शामिल होकर गृह मंत्री पी चिदंबरम ने उल्फा नेताओं के प्रति जो सम्मन दिखाया उससे उल्फा का वार्ता में विश्वास बढा होगा. यह अलग बात है कि संप्रभुता की शर्त पर वार्ता की जिद पर अडे उल्फा सेनाध्यक्ष परेशा बरुआ और उनके कुछ साथी अब भी वार्ता से अलग हैं और असम के बुद्धिजीवियों का एक वर्ग परेश बरुआ के समर्थन में अभियान चला रहा है. बहरहाल, सुकून की बात यह है कि परेशा बरुआ और जीवन मोरान को छोडकर सभी उल्फा नेता और सैन्य बटालियनों के कमांडर खुल कर राजखोवा के साथ हैं. इस वजह से वार्ता के लिए आगे बढे राजखोवा के मन में एक संशय जरूर है. इसलिए वार्ता के आरंभिक चरण में चिदंबरम की भागीदारी एक दूरगामी कदम था. उल्फा नेताओं को इस बात का अहसास जरूर हो गया होगा कि केंद्र सरकार भी उनके द्वारा उठाए गए मुद़दों को भारतीय संविधान के दायरे में एक व्यावहारिक समाधान चाहती है. चिदंबरम के बयान से इस विश्वास को बल मिलता है जो आगे चल कर शांति वार्ता में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है.
उल्फा के साथ वार्ता इसलिए आरंभ हो पाई है वह बिना शर्त वार्ता को तैयार हो गया. बातचीत के दौरान वह कोई मुद्दा उठा सकता है. केंद्र सरकार भले ही उसके लिए तैयार नहीं हो लेकिन उल्फा को मुद्दे उठाने से रोका नहीं जा सकता है. पले भी केंद्र सरकार ने स्पष्ट किया था कि भारत सरकार संविधान की सीमा के तहत बिना शर्त वाता्र को तैयार है, भले वार्ता के दौरान उल्फा नेतृत्व अपने मन की बात कर सकता है. संकेत साफ था कि आपसी बातचीत के दौरान उल्फा नेतृत्व असम की संप्रभुता पर भी चर्चा कर सकता है. ठीक है कि केंद्र संप्रभुता दिए जाने की बात नहीं मानेगा लेकिन अपनी बात रख कर उल्फा नेतृत्व अपने समर्थकों को यह जवाब जरूर दे सकता है कि जिस मूल मुद्दे के लिए उसने इतने दिनों तक संघर्ष किया उसे केंद्र सरकार के समक्ष उठाया. इसमें कुछ भी असंवैधारिक नहीं है क्योंकि केंद्र ने संप्रभुता के मुद्दे पर बातचीत करने से इनकार कर दिया है और बातचीत बिन किसी पूर्व शर्त के हो रही है. आखिर उल्फा को भी तो संघर्ष से इतर राह दिखाई देने लगी है. अगर परेश बरुआ संप्रभुता की शर्त पर वार्ता की जिद पर अडे रहेंगे तो जाहिर है कि वार्ता का प्रयास कुछ दूर जाकर ठहर जाएगा जैसा कि विगत में होता रहा है.
जब उल्फा नेतृत्व बिना शर्त वार्ता को तैयार हो गया तो वार्ता आरंभ हो गई. वार्ता को सफल बनाने में असम सरकार की भी महत्वपूर्ण भूमिका है. राज्य सरकार चाहे तो कई तरह से उल्फा के कैडरों को उकसाने का कार्य कर सकती है. इसलिए वार्ता लायक माहौल बनाए रखना राज्य सरकार की जिम्मेदारी है. इस नाते दिल्ली जाने के पहले अरविंद राजखोवा का अपने साथियों के साथ जाकर मिलना एक अच्छा संकेत था. मुख्यमंत्री तरुण गोगोई भी इस वार्ता को सफल बनाने के लिए उत्सुक लग रहे हैं. इस आधार पर अब तक घटनाक्रमों को सुखद कहा जा सकता है. उम्मीद की किरण तो नजर आने लगी है. देखते हैं उजाला कब तक फैलता है.
लेकिन वार्ता की सफलता के लिए समाज का हर वर्ग का सहयोग जरूरी है. इसमें दो राय नहीं है कि उल्फा और केंद्र सरकार को वार्ता के लिए मजबूर करने के वास्ते बुद्धिजीवी डॉ हीरेन गोहाई की अगुवाई में गठित सम्मिलित जातीय अभिवर्तन की महत्वपूर्ण भूमिका रही है. उसे आमलोगों का समर्थन मिला. बडी मुश्किल से उल्फा और केंद्र के बीच वार्ता आरंभ हो पाई है. शांति के लिए सभी को अपने स्तर से इस आरंभ को सार्थक मुकाम तक पहुंचाने के लिए पहल करनी चाहिए. इसमें केंद्र सरकार, खास कर असम में स्थायी शांति के इस मौके को गंवाना नहीं चाहिए. यह केंद्र सरकार राज्य सरकार और उल्फा के लिए एक मौका है और उन्हें किसी भी हालत में यह मौका नहीं गंवाना चाहिए.
रविशंकर रवि
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