यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Monday, March 11, 2013

ज़िंदगी से प्यार करती हूं, जीना चाहती हूं


अगर आप आयरन लेडी इरोम शर्मिला को देखकर नहीं पिघलते और आपको शर्म नहीं आती, तो फिर आपको आत्म-निरीक्षण की ज़रूरत है, क्योंकि पिछले 12 वर्षों से अनशन कर रहीं शर्मिला अपने लिए नहीं, बल्कि आपके लिए लड़ रही हैं. आपके लिए, यानी उस समूची मानव जाति की गरिमा बचाने के लिए, जो आज हर ताकतवर की नज़र में इंसान से कमतर बन चुकी है.

 इरोम शर्मिला चनु किसी परिचय की मोहताज नहीं हैं, क्योंकि वह पिछले 12 वर्षों से आमरण अनशन पर हैं. वजह, आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट 1958 को मणिपुर से हटाने की मांग. सरकार शर्मिला को किसी तरह जिंदा रखने की कोशिश कर रही है, नाक के जरिए उनके शरीर में खाना पहुंचाया जा रहा है. शर्मिला लगातार जेल में बंद हैं, आरोप है, आत्महत्या का प्रयास. अब इसे सरकार और समाज की संवेदनहीनता की पराकाष्ठा ही कहा जाएगा, क्योंकि हर एक साल के बाद शर्मिला को अदालत में पेश किया जाता है. बीते 3 मार्च को सरकार ने शर्मिला को दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में पेश किया. यह मामला 5 अक्टूबर, 2006 को सैन्य बल विशेषाधिकार अधिनियम (अफसपा) हटाने की मांग को लेकर दिल्ली के जंतर-मंतर पर हुए उनके आमरण अनशन से संबंधित है. उस दौरान मेट्रोपोलिटन मजिस्ट्रेट आकाश जैन ने 40 वर्षीय शर्मिला के ख़िलाफ़ भारतीय दंड संहिता की धारा 309 (आत्महत्या का प्रयास) के तहत एफआईआर दर्ज की थी. शर्मिला ने कोई अपराध करने से इंकार करते हुए कहा कि उनका अहिंसक प्रदर्शन था. उन्होंने अदालत से कहा, मैं आत्महत्या नहीं करना चाहती हूं. मेरा प्रदर्शन अहिंसक है. मानव की तरह जीवन जीना मेरी मांग है. मैं ज़िंदगी से प्यार करती हूं, अपनी ज़िंदगी लेना नहीं चाहती, लेकिन न्याय और शांति भी चाहती हूं. सरकार मेरे ऊपर इस तरह का आरोप क्यों लगा रही है? मैं तो गांधी जी के मार्ग पर चल रही हूं, मगर आश्‍चर्य! गांधी के ही देश में अहिंसा को जगह नहीं दी जा रही है! अदालत ने इस मामले में अभियोजन पक्ष को सबूत पेश करने के लिए 22 मई की तारीख तय की है. गौरतलब है कि मणिपुर में भी उन्हें इसी आरोप के तहत जेल में रखा जाता है.

बहरहाल, जिन क्षेत्रों में अफसपा लागू है, वहां के निवासियों को हिंसा नहीं, बल्कि शांति चाहिए और सरकार एवं राजनीतिक नेताओं को उनके अहिंसक विरोध की आवाज़ सुननी चाहिए. सवाल यह उठता है कि सरकार उन्हें एक इंसान के मौलिक अधिकार देने से खौफ क्यों खाती है? राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के अहिंसा के सिद्धांत का पालन करने वाली शर्मिला एक साधारण महिला हैं. वह एक लोकतांत्रिक देश में नागरिकों के लिए ज़रूरी अधिकारों की मांग कर रही हैं. शर्मिला का अनशन 2 नवंबर, 2000 से तब शुरू हुआ था, जब इंफाल से 10 किलोमीटर दूर स्थित नंबोल नामक स्थान पर एक बस स्टैंड पर सवारी का इंतज़ार कर रहे 10 लोगों को भारतीय सेना ने बेरहमी के साथ गोलियों से भून दिया था. मारे गए लोगों में दो बच्चे और औरतें भी शामिल थे. यह ख़बर अगले दिन अख़बारों में छायाचित्रों के साथ शर्मिला ने पढ़ी. दिन था गुरुवार. हर गुरुवार को शर्मिला उपवास करती थीं. उस दिन जो संकल्प लेकर शर्मिला ने उपवास शुरू किया, वह आज तक जारी है.

शर्मिला ने चाणक्यपुरी स्थित मणिपुर टिकेंद्रजीत भवन में मणिपुर से आकर दिल्ली में पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों को संबोधित किया. उन्होंने कहा कि जीवन में पढ़ाई बहुत ज़रूरी है. आप इतनी दूर से आकर यहां पढ़ाई कर रहे हैं. मां-बाप तमाम कष्ट झेलकर आपको पैसा भेजते हैं, इसलिए पढ़ाई केवल परीक्षा पास करने के लिए नहीं, बल्कि एक योग्य इंसान बनने के लिए करनी चाहिए. उन्होंने अपनी अधूरी रह गई पढ़ाई के बारे में कहा कि मैं ठीक से पढ़ाई नहीं कर सकी. मणिपुर के राजनीतिक नेतृत्व पर आरोप लगाते हुए उन्होंने कहा कि वह केवल वोटबैंक की राजनीति करता है. पैसा कमाना नेताओं का धर्म बन गया है. हाल में इंफाल एयरपोर्ट पर एक नेता पुत्र बीस करोड़ रुपये के ड्रग्स के साथ पकड़ा गया था. उन्होंने मणिपुर की स्थिति पर निराशा जताई. शर्मिला को सरकार से कोई उम्मीद नहीं है.

अपनी निजी ज़िंदगी के बारे में लोगों की आलोचना को नकारते हुए शर्मिला ने कहा, मैं भी औरों की तरह इंसान हूं. अपने बारे में सोचने और अपनी निजी ज़िंदगी जीने का मुझे पूरा अधिकार है. अपने मन की मैं खुद मालिक हूं. आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट के बारे में उन्होंने कहा कि यह एक ऐसा काला क़ानून है, जिसने लोगों से जीने का अधिकार छीन लिया है. एक तरफ़ तो केंद्र सरकार पूर्वोत्तर के राज्यों को मुख्य धारा में जोड़ने की कोशिश करती है, तो वहीं दूसरी तरफ़ अफसपा जैसा काला क़ानून लागू करके दोहरी नीति अपनाती है. अगर सचमुच पूर्वोत्तर में शांति कायम करने के लिए अफसपा ज़रूरी है, तो फिर बीते 12 सालों में पूर्वोत्तर, खासकर मणिपुर में शांति क्यों नहीं स्थापित हो सकी, सिवाय अलगाव की भावना को बढ़ावा
देने के.

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