यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Thursday, December 19, 2013

मणिपुर : फर्जी मुठभेड़ पर नकेल कसती सरकार

सरकार चाहे केंद्र की हो या राज्य की, जनता की हिफाजत करने में पूरी तरह से नाकाम रही है. आए दिन भ्रष्टाचार और घोटालों से सरकार की किरकिरी होती रहती है. लगता ही नहीं कि भारत में कोई सरकार काम कर रही है, क्योंकि जनता के अधिकारों और उसके हितों का पूरा ख्याल सुप्रीम कोर्ट को या नेशनल ह्यूमन राट्स कमीशन को रखना पड़ रहा है. जनता को भी इस बात का भान हो चुका है कि सरकार उसके लिए कुछ नहीं कर सकती, इसीलिए वह न्याय की आस कोर्ट और कमीशन से लगाने लगी है. समझ में नहीं आता कि इतने बड़े अमले और लाव-लश्कर के साथ सरकार आखिर क्या कर रही है. जब हर काम कोर्ट और कमीशन के दखल के बाद ही होगा, तो इस अकर्मण्य और अपाहिज सरकार का  भला क्या काम?


'मारने के अलावा कोई चारा नहीं' जैसे विवादास्पद बयान देने वाला मणिपुर के मुख्यमंत्री ओक्रम इबोबी को अब नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन से करारा जवाब मिला है. इसलिए उन्होंने फर्जी मुठभेड़ मामले में फंसे राज्य के 15 पुलिसकर्मियों को तत्काल प्रभाव से हटाया. इनमें से 9 पुलिसकर्मी एक बड़ी मुठभेड़ संजीत और रवीना कांड में शामिल हैं. यह कांड इसलिए लोगों के जेहन में है कि तहलका ने 12 तस्वीरें छाप कर राज्य के पुलिसकर्मियों की पोलपट्टी खोल दी थी. उन तस्वीरों में साफ-साफ दिखाया गया था कि फर्जी मुठभेड़ हुई है. वे इंफाल (वेस्ट) में तैनात कमांडो हैं.

बहरहाल, नेशनल ह्यूमन राट्स कमीशन की एक टीम 23 अक्टूबर 2013 को इंफाल गई थी. 13 वर्षों से भूख हड़ताल कर रही इरोम शर्मिला से मिली. साथ में राज्य में हो रहे फर्जी मुठभेड़ मामले की तहकीकात भी की थी. वहां से लौटने के बाद कमीशन ने 19 नवंबर को अपना फैसला सुनाया. कमीशन का प्रतिनिधि सत्यवर्ता पाल ने कहा कि 2005-2010 के दौरान होने वाले 44 फर्जी मुठभेड़ के मामलों को कमीशन ने उठाया है. अधिकतर मामले में राज्य सरकार और उसकी मशीनरी ही दोषी पाई गई है. सेल्फ डिफेंस के नाम पर राज्य में तैनात पुलिस कर्मी द्वारा अधिकतर मुठभेड़ को अंजाम दिया गया है. पाल ने कहा कि राज्य सरकार दोषियों को सजा दिलाने में बिल्कुल भी संवेदनशील नहीं है. यह अधिकारियों के बीच सहयोग की कमी दिखाती है. कमीशन ने कहा कि अधिकतर बड़ी फर्जी मुठभेड़ राज्य की पुलिस ने ही की है. सरकारी मशीनरी द्वारा उनको बचाया जा रहा है. कमीशन ने राज्य सरकार को फटकार लगाई कि मामले की सही सुनवाई होनी चाहिए. दोषियों को निष्पक्ष रूप से सजा दिलाना होगा. राज्य सरकार को 6 दिसंबर तक अपनी प्रतिक्रिया देनी होगी. इसके बाद तत्काल प्रभाव से राज्य में तैनात 15 पुलिसकर्मियों, जो फर्जी मुठभेड़ मामले में लिप्त हों, को हटाया गया. अभी और भी आरोप में फंसे पुलिसकर्मियों को हटाना बाकी है. इसमें राज्य के पूर्व डीजीपी एमके दास का बड़ा योगदान रहा. हाल ही में एमके दास रिटायर्ड हुए. उन्होंने केवल दो महीने ही कार्यभार संभाला था. इतने कम समय में उन्होंने राज्य में काफी अच्छा काम किया. आम जनता और पुलिस के बीच के खराब संबंध को सुधारा. नई-नई नीतियां और काम शुरू किए. अब नए डीजीपी आसिफ अहमद आए हैं. उन्होंने भी कहा कि एमके दास के कार्यों को आगे बढ़ाएंगे.

सबसे बड़ी चिंताजनक बात यह है कि 15 जुलाई 2013 को सुप्रीम कोर्ट ने राज्य के छह मुठभेड़ों के मामले में एक फैसला सुनाया. सारी मुठभेड़ फर्जी थीं. दो संस्थाओं एक्सट्रा जूडिशिएल एक्जीक्यूशन विक्टीम फेमिलीज एसोसिएशन (एएवीएफएएम) और ह्यूमन राइट्स एलर्ट ने एक पीटिशन सितंबर 2012 को सुप्रीम कोर्ट को दी थी. इस पीटिशन में लिखा था कि 1979 से 2012 तक मणिपुर में मुठभेड़ की 1528 घटनाएं हुई थीं, जिन पर कोई कानूनी कार्रवाई नहीं हुईं. उन संस्थाओं की मांग है कि इन मुठभेड़ों की जांच-पड़ताल सुप्रीम कोर्ट करे. पीटिशन के आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने तीन लोगों का एक कमीशन बनाया था, जिसके चेयरमैन हैं सुप्रीम कोर्ट के पूर्व जस्टिस संतोष हेगड़े. इस कमेटी में पूर्व चीफ इलेक्शन कमिश्नर जी एम लिंगदोह और कर्नाटक के पूर्व डीजीपी अजय कुमार सिन्हा भी शामिल हैं. कमीशन ने पहले छह केस की जांच शुरू की थी. इंफाल क्लासिक होटल में 3 से 7 मार्च तक कमीशन की बैठक हुई थी. इसके बाद दिल्ली में 13 से 21 मार्च तक बैठक कर कमीशन ने सुप्रीम कोर्ट को 12 सप्ताह में अपनी रिपोर्ट दी थी. इससे और बड़ी बात क्या हो सकती है?
सबसे आश्चर्य की बात यह है कि अपने ही बनाए कानून के ऊपर अपनी ही बनाई हुई कमेटी बैठाई. कमेटी ने सरकार को अपनी रिपोर्ट सौंपी कि यह कानून गलत है. वाकई वहां के लोगों से ज्यादती हो रही है. मानवाधिकार का उल्लंघन हो रहा है. एक नहीं कई कमेटियां बैठाई गईं. जस्टिस जीवन रेड्डी कमेटी, जस्टिस वर्मा कमेटी, संतोष हेगड़े कमेटी आदि. बावजूद इसके आज तक सरकार चुप्पी साधे हुए है.


दूसरी तरफ, ह्यूमन राइट्स कमीशन ने मणिपुर में लागू आर्म्‍ड फोर्सेस स्प़ेशल पावर एक्ट को हटवाने को लेकर 13 साल से भूख हड़ताल कर रही इरोम शर्मिला के हालचाल की भी जानकारी ली. नेशनल ह्यूमन राइट्स कमीशन का यह कदम काफी सराहनीय है. सबसे हैरानी की बात तो यह है कि 13 सालों से भूख हड़ताल पर बैठी शर्मिला से राज्य के मुख्यमंत्री या उनकी कोई टीम आज तक मिलने नहीं आई. वे अब तक न्याय की उम्मीद लेकर बैठी हैं. इससे ज्यादा अहिंसात्मक तरीके से और कैसे विरोध हो सकता है. पूरी दुनिया की सबसे लंबी हड़ताल बन चुकी है. अहिंसात्मक आंदोलन के लिए मशहूर राष्ट्रपिता महात्मा गांधी की जन्म भूमि भारत में इस तरह के अहिंसात्मक आंदोलन को नकारा जाना एक बड़ी
विडंबना है.

कहां गए राष्ट्रवाद के नारे लगाने वाले लोग, कहां हैं मुख्यधारा से जोडऩेवाले नेता. एक तरफ सरकार पूर्वोत्तर को मुख्यधारा में जोडऩे की बड़ी-बड़ी योजनाएं बैठ कर बनाती है, दूसरी तरफ देश को बांटने वाले ऐसे काले कानून लागू करवाती है. किस हक से हम कहें कि पूर्वोत्तर महान देश भारत का अभिन्न अंग है. दूसरी बात कि जम्मू कश्मीर में भी यह काला कानून लागू है. मगर जम्मू कश्मीर में अलग मुद्दा है. वहां की जनता भारत से अलग होना चाहती है. उन लोगों को जोडऩे की कोशिश करना मुश्किल है. मगर मणिपुर में ऐसी स्थिति नहीं है कि वहां के लोगों को जबरन जोड़ कर रखा है. वहां के लोग बार-बार कई मौके पर अपने आपको भारतीय होने का साबित करते हैं. हर क्षेत्र में खुद को साबित करते हैं कि हिंदुस्तानी हूं. उदाहरण के तौर पर मैरी कॉम, डिंकू, सुशीला, सनामचा, कुंजरानी आदि हैं. उन लोगों ने अंतरराष्ट्रीय खेल के मैदान में देश का नाम रोशन किया. ऐसी स्थिति में यह कानून लगाने का औचित्य क्या है?  

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