
राज्यों में हुए विधानसभा चुनावों में करारी हार का सामना कर चुकी कांग्रेस मिजोरम में जम कर वापसी की है. 40 सदस्यीय विधानसभा के लिए हो रही मतगणना के नतीजों में कांग्रेस ने 33 सीटों पर विजय दर्ज कर दो तिहाई बहुमत हासिल कर लिया. वहीं तीनों पार्टियों का गठबंधन मिजोरम डेमोक्रेटिक एलाइन्स (एमडीए) केवल पांच सीट हासिल कर पाई और एमडीए के सहयोगी पार्टी मिजोरम पीपुल्सम कान्फारेंस को एक सीट मिली. दूसरी ओर चार राज्यों में भले ही कांग्रेस का पत्ता साफ करने वाली भाजपा मिजोरम में एक भी खाता नहीं खोल पाई है. राज्य में बीजेपी ने 17 सीटों से चुनाव लड़ा, मगर सभी सीटों से हाथ धोना पड़ा.
25 नवंबर को मिज़ोरम में चुनाव हुए थे. 40 सदस्यीय विधानसभा के लिए कुल 142 उम्मीदवारों ने अपनी किस्मत आजमाई, जिनमें छह महिला उम्मीदवार शामिल थीं. एक कांग्रेस से, एक एमडीए से, 3 भाजपा से और एक निर्दलीय हैं. मिजोरम भारत का एकमात्र ऐसा राज्य है, जहां महिला मतदाताओं की संख्या पुरुष मतदाताओं से 9,806 अधिक है. राज्य में कुल मतदाता 6,90,860 है. विधानसभा की एक ख़ास बात यह है कि यहां की 40 विधानसभा सीटों में 39 आदिवासी-जनजातीय समुदाय के लिए आरक्षित हैं, महज एक सीट सामान्य वर्ग के लिए है. चार बार से राज्य के मुख्यमंत्री रहे ललथनहवला ने सेरछिप और हरंगतुर्जो दोनों सीटों पर जीत हासिल की है. सेरछिप में वे 734 मतों के अंतर से विजय हुए हैं और अपने एमएनएफ प्रतिद्वंदि ललरामजुआवा को हराया. हरंगतुर्जो में मुख्यमंत्री ने मिजोरम पीपुल्स कांफ्रेंस के ललथनसंगा को 1638 मतों के अंतर से हराया है. सरकार के कुल ग्याररह मंत्रियों में से आठ ने विजय दर्ज की है. इस बार असम सहित पूर्वोत्तर के किसी भी राज्य में मोदी या भाजपा की लहर न चल सकी है. इसका जीता जागता उदाहरण मिजोरम में कांग्रसे की जीत है. साल 2008 में हुए विधानसभा चुनाव के दौरान कांग्रेस ने 32 सीटें जीतने में कामयाबी हासिल की थी.

मिजोरम में विपक्षी दलों के पास कोई बड़ा मुद्दा नहीं था. इस कारण से कांग्रेस की जीत हुई और विपक्षी दलों को करारी शिकस्त मिली. विपक्ष ने पीने के पानी, बिजली और सडक़ जैसी मुख्य समस्याओं को आधार बनाकर चुनाव लड़ा था, लेकिन लोगों ने नकार दिया और कांग्रेस पर भरोसा जताया. मिजोरम में चाहे नेशनल हाईवे हो या फिर स्टेट हाईवे, सभी के हालत बेहद जर्जर हैं. राजधानी आइजॉल तक पहुंचने वाली सडक़ भी टूटी-फूटी है. ऐसे में विपक्षी दलों ने इसे भुनाने की कोशिश की, लेकिन मतदाताओं ने विपक्षी पार्टियों पर विश्वास नहीं किया. ऐसे में ये कहा जा सकता है कि मिजोरम के स्थानीय लोगों ने बुनियादी सुविधाओं के आधार पर वोट नहीं दिया.
ललथनहवला : मिजोरम में कांग्रेस का चेहरा
मिजोरम में कांग्रेस का चेहरा और चार बार के मुख्यमंत्री ललथनहवला राज्य की राजनीति के मंझे हुए खिलाड़ी हैं. पिछले तीन दशक में सत्ता के गलियारों में आते-जाते रहे हैं. 70 वर्षीय ललथनहवला राज्य़ के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस के विजय रथ पर सवार होकर पांचवीं बार मुख्यमंत्री की कुर्सी की तरफ बढ़ रहे हैं. 1984 में पहली बार राज्य के मुख्यमंत्री बने ललथनहवला ने सेरछिप और हरंगतुर्जो से चुनाव लड़ा था. चुनाव नतीजे में उन्हें दोनों ही स्थानों से विजय हासिल की. एक औसत सरकारी अधिकारी से प्रदेश कांग्रेस में शीर्ष स्तर तक पहुंचने की उनकी कहानी किसी परीकथा से कम नहीं है. कांग्रेस के पोस्टर ब्वॉय के तौर पर उन्होंने हर चुनाव में पार्टी की जीत की कथा लिखी है. 1987 में इस पर्वतीय क्षेत्र को राज्य का दर्जा दिए जाने के बाद से यहां कांग्रेस की हर जीत में अहम भूमिका निभाई. वह मिजोरम पत्रकार संघ के संस्थापक अध्यक्ष हैं. उन्होंने मिजो जिला परिषद में इंस्पेक्टर ऑफ स्कूल्स के कार्यालय में रिकॉर्डर के तौर पर अपने करियर की शुरुआत की और 1963-64 में सहायक के तौर पर असम को-ऑपरेटिव अपेक्स बैंक से जुड़ गए. इस दौरान उन्होंने एजल कॉलेज से स्नातक की अपनी पढ़ाई पूरी की. उस समय मिजोरम असम के तहत एक जिला परिषद हुआ करती थी और यहां अस्थिरता का माहौल था.
लालडेंगा के नेतृत्व में मिजो नेशनल फ्रंट (एमएनएफ) पृथक राज्य के लिए संघर्ष कर रहा था. एमएनएफ को शिक्षित युवकों की तलाश थी. मोर्चा लगातार इस कोशिश में रहा कि ललथनहवला को मोर्चे में शामिल किया जाए. हालांकि पृथकतावादी आंदोलन में शामिल होने को लेकर शंका के बावजूद वह एमएनएफ के सदस्य बने और जल्द ही इसके विदेश सचिव बना दिए गए. 1967 में सरकार ने उन्हें राष्ट्रद्रोह के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और वह असम की नगांव जेल भेज दिए गए, जहां 1969 तक उन्हें रखा गया. 19 मई 1942 को एजल में जन्मे ललथनहवला 1973 में मिजोरम प्रदेश कांग्रेस कमेटी के अध्यक्ष बने और पिछले 40 साल से उन्हें इस पद से कोई हटा नहीं पाया है. वह 1978 में पहली बार मिजोरम म्यांमार सीमा पर स्थित चंफई विधानसभा क्षेत्र से जीत कर विधानसभा पहुंचे और 1979 में भी इसी सीट से दोबारा जीते. कांग्रेस पार्टी ने 1984 में सत्तारूढ़ पीपुल्स कांफ्रेंस को हराया और ललथनहवला मिजोरम के तीसरे मुख्यमंत्री बने. इस चुनाव में ललथनहवला ने सेरछिप सीट से चुनाव लड़ा था. पीपुल्स कांफ्रेंस ने तत्कालीन मुख्यमंत्री ब्रिगेडियर थेनफुंगा सेलो के नेतृत्व में चुनाव लड़ा था.
30 जून 1986 को ऐतिहासिक मिजो शांति समझौते पर हस्ताक्षर के बाद ललथनहवला ने मिजो नेशनल फ्रंट के नेता रहे लालडेंगा के समर्थन में अपनी कुर्सी छोड़ दी और राज्य में अंतरिम एमएनफ कांग्रेस गठबंधन सरकार में उन्हें उप मुख्यमंत्री बनाया गया. ललथनहवला एक बार फिर 1987 में सेरछिप सीट से विधानसभा का चुनाव जीते, लेकिन उन्हें विपक्ष में बैठना पड़ा क्योंकि एमएनएफ ने चुनाव जीता और लालडेंगा मिजोरम के पहले मुख्य़मंत्री बने. मिजोरम को 20 फरवरी 1987 को राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ. सितंबर 1988 में लालडेंगा की एमएनएफ सरकार गिरा दी गई और 1988 में राज्यर में राष्ट्रपति शासन लगा कर नए चुनाव कराने का आदेश दिया गया. 1989 में ललथनहवला फिर सत्ता में लौटे, जब एमएनएफ और कांग्रेस के बीच गठबंधन के बाद उन्हें मुख्यमंत्री बनाया गया. 1993 में कांग्रेस और ब्रिगेडियर थेनफूंगा सेलो के नेतृत्व वाले मिजोरम जनता दल (अब मिजो पीपुल्स कांफ्रेंस) में गठबंधन से सरकर बनी और ललथनहवला मुख्यमंत्री की कुर्सी पर बने रहे. 1998 में उन्हें अपनी परंपरागत सेरछिप सीट से हार का मुंह देखना पड़ा और एमएनएफ ने जोरामथांगा के नेतृत्व में सत्ता संभाली. अगले पांच वर्ष ललथनहवला बागियों की तमाम गतिविधियों के बीच प्रदेश अध्यक्ष के पद पर बने रहे. इस दौरान उन पर भ्रष्टाचार के आरोप भी लगे. 2003 में वह एक बार फिर सेरछिप से जीत कर एमएनएफ के दूसरे कार्यकाल में विपक्ष केऌ नेता बने.
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