यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Monday, May 19, 2008

मुझे बिहार आना ही था


बिहार की मिट्टी की खुशबू दुनिया की हर कोने में मिलती है। इसका कारण है कि पराजय शब्द वहाँ के लोगों को परिचित नहीं है। बिहार की विशेषताओं के बारे में जो भी लिखूं कम ही होगा। मैंने बिहार को निकट से देखा और वहां के गुणों को महसूस किया।
मैं २० जनवरी २००६ को इंफाल से गुवाहाटी के लिए निकला था। सुबह साढे नौ बजे बस का टिकट लिया। गाड़ी ड्राईवर ने पूछा कि आपको कहां जाना है। मैंने एकाएक जवाब दिया था कि मुझे पटना जाना है। यानी बिहार। असल में उस समय मैं प्रभात ख़बर, देवघर में । उस साल के अंतिम महीना होते-होते मैं पटना आ गया था। उन शब्दों का खारा उतरा था। मुझे लगभग आठ महीने हो गए थे बिहार में। मुझे लगता था कि मैं अकेला होऊंगा जो पुर्वोत्त्तर यानी अहिंदी भाषी इलाके से इधर काम कर रहा हो। मुझे इस बात पर गर्व था कि बिहार जैसे मेहनती राज्य में काम करने का अवसर प्राप्त हुआ। इसी बहाने मुझे भी मेहनत करने की आदत पड़ी थी।
मैंने बचपन में सुना था कि बिहार के लोग बहुत मेहनती होते हैं। इसका उदाहरण है कि पुर्वोत्त्तर राज्यों के हर घर में कहते थे कि जिंदगी में आगे जाना है तो बिहारियों की तरह मेहनत करो। वह उदाहरण उस समय मैंने अपनी आंखों से देखा था कि बिहार के लोग कैसे मेहनत करते हैं। वहां के लोगों में लोहा मनवाने की ताकत, इच्छा शकि्त व धैय लाजवाब है। वहां के कला, संस्कृति, साहित्य व सांगीतिक संपदा गौरवपूर्ण व समृद्धशाली रही है। वह महाकवि विद्यापति की भूमि है, जो उनकी रचनाएं विश्वजनीन हैं। दुनिया भर में उनकी रचनाएं पढी-पढाई जाती है। वह देश रत्न राजेंद्र बाबू की धरती है जिनकी परीक्षा की काॅपी दुनिया भर में मशहूर है। उस धरती पर रह कर मैं अपने आपको ह्रदय से गाैरवानि्वत महसूस करता था। राजेंद्र यादव कहते हैं - " बिहार हिंदी साहित्यकारों को रोटी देनेवाला प्रदेश है। "
वहां रहते हुए मुझे इस बात का एहसास नहीं था कि यह घर नहीं बाहर है। वहां के लोगों में अपने बल पर व अपने भारोसे जीने की कला मैंने देखी और सीखी है। कोई भी आदमी स्वतंत्र रूप से काम कर सकता है जो दूसरे राज्यों में नहीं है।
इस मामले में तो शायद बिहार सबसे गरीब प्रान्त है कि खुद पर इतराना नहीं आता है और न गर्व बोध होता है। बिहारवासियों को अपने ऊपर गर्व होना चाहिए। अपनी मिट्टी की खुशबू वे खुद नहीं जान पाए। जैसे हिरण की नाभी में कस्तुरी की गंध हो। मेरा मानना है कि कोई भी देश व राज्य अपनी साहित्य, संस्कृति व भाषा की समृद्ध नहीं होती तब तक वह देश या राज्य विकास होना संभव नहीं है।
अब जरूरत है कि अपने देश का लोहा अपनी दीवारों व छतों की सुरक्षा में अभिमंत्रित होकर सादर शारीक हो। अन्यथा क्या कारण है कि उस ड्राईवर को दूसरी जगह भी जवाब दे सकता था, इसिलए कि मुझे बिहार आना ही था।






5 comments:

HBMedia said...

bahut sahi kaha aapne...ek bihari hone ke nate aapki bhawanao ka swagat karta hoo.

sushant jha said...

बहुत कम लोग हैं जो दूसरे राज््य से आकर भी बिहार की तारीफ करते हैं...आपका धन््यवाद...

Rajiv K Mishra said...

Lajawab....Imandaar Abhivyakti

ghughutibasuti said...

बिहार के मेरे अनुभव अजब थे परन्तु मैंने वहाँ अपने जीवन के तीन बेहतरीन वर्ष बहुत खुशी से बिताएँ हैं। वहाँ के लोगों का मुझे बहुत स्नेह मिला था।
घुघूती बासूती

विजय गौड़ said...

ऎसे कठिन समय में जब छेत्रवाद, भाषा और धर्म के नाम पर मारकाट की राजनीति हो रही है, आपके अनुभवों को पढना अच्छा भी लग रहा है और उम्मीद भी कायम रहती है. और भी लिखें तो ठीक ही रहेगा.