यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Saturday, August 22, 2009

रेयाज भैया

रेयाज भैया को मैं काफी दिनों से जानता हूं. उनके साथ प्रभात खबर, पटना संस्‍करण में काम किया. वे एक सक्रिय और निष्‍पक्ष पत्रकार हैं. उनकी कविताओं में भारत की युवा पीढी का सबसे सार्थक प्रतिनिधित्‍व झलकता है. उनके बारे में ज्‍यादा बताना उचित नहीं लगता. उनकी कविता और लेख पढकर आप खुद निर्णय ले सकता है. पेश करता हूं उनकी कविताएं और आलेख.


क्रान्ति के लिए जली मशाल
क्रान्ति के लिए उठे क़दम !

भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात के लिए
मेहनती ग़रीब जाति के लिए
हम लड़ेंगे, हमने ली कसम !

छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ
बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ

साक्षी

कुछ शब्‍द
उनके लिए
जो नंदीग्राम में मार दिए गए
कि मैं गवाह हूं उनकी मौत का

कि मैं गवाह हूं कि नई दिल्‍ली, वाशिंगटन
और जकार्ता की बदबू से भरे गुंडों ने
चलायीं गोलियां, निहत्‍थी भीड पर
अगली कतारों में खडी औरतों पर.

मैं गवाह हूं उस खून का
जो अपनी फसल
और पुरखों की हड्डी मिली अपनी जमीन
बचाने के लिए बहा.

मैं गवाह हूं उन चीखों का
जो निकलीं गोलियों के शोर
और राइटर्स बिल्डिंग के ठहाकों को
ध्‍वस्‍त करतीं.

मैं गवाह हूं
उस गुस्‍से का
जो दिखा
स्‍टालिनग्राद से भागे
और पश्चिम बंगाल में पनाह लिए
हिटलर के खिलाफ.

मैं गवाह हूं
अपने देश की भूख का
पहाड की चढाई पर खडे
दोपहर के गीतों में फूटते
गडेरियों के दर्द का
अपनी धरती के जख्‍मों का
और युद्ध की तैयारियों का.

पाकड पर आते हैं नए पत्‍ते
सुलंगियों की तरह
और होठों पर जमी बर्फ साफ होती है.

यह मार्च
जो बीत गया
आखिरी वसंत नहीं था
मैं गवाह हूं.


शामिल
(सु के लिए,जिसके लिए यह कविता लिखी गई और जिसने इसे संभव बनाया)


तुम कहोगी
कि मैं तो कभी आया नहीं तुम्‍हारे गांव
सलीके से लीपे तुम्‍हारे आंगन में बैठ
कंकडों मिला तुम्‍हारा भात खाने
लाल चींटियों की चटनी के साथ
तो भला कैसेट जानता हूं मैं तुम्‍हारा दर्द
जो मैं दूर बैठा लिख रहा हूं यह सब?

तुम हंसोगी
मैं यह भी जानता हूं

तुम जानो कि मैं कोई जादूगर नहीं
न तारों की भाषा पढनेवाला कोई ज्‍योतिषी
और रमल-इंद्रजाल का माहिर
और न ही पेशा है मेरा कविता लिखना
कि तुम्‍हारे बारे में ही लिख डाला, मन हुआ तो

मैं तुम्‍हें जानता हूं
बेहद नजदीक से
जैसे तुम्‍हारी कलाई में बंधा कपडा
पहचानता है तुम्‍हारी नब्‍ज की गति
और सामने का पेड
चीह्न लेता है तुम्‍हारी आंखों के आंसू

मैं वह हूं
जो चीह्नता है तुम्‍हारा दर्द
और पहचानता है तुम्‍हारी लडाई को
सही कहूं
तो शामिल है उन सबमें
जो तुम्‍हारे आंसुओं और तुम्‍हारे खून से बने हैं

दूर देश में बैठा मैं
एक शहर में
बिजली-बत्तियों की रोशनी में
पढा मैंने तुम्‍हारे बारे में
और उस गांव के बारे में
जिसमें तुम हो
और उस धरती के बारे में
जिसके नीचे तुम्‍हारे लिए
बोयी जा चुकी है बारूद और मौत

सुनाओ कि तुम्‍हारा गांव
अब बाघों के लिए चुन लिया गया है
तुमने सुना-देश को तुम्‍हारी नहीं
बाघ की जरूरत है
बाघ हैं बडे काम के जीव
वे रहेंगे
तो आएंगे दूर देश के सैलानी
डॉलर और पाउंड लाएंगे
देश का खजाना भरोगा इससे

सैलानी आएंगे
तो ठहरेंगे यहां
और बनेंगे इसके लिए सुंदर कमरे
रहेंगे उनमें सभ्‍य नौकर
सुसज्जित वर्दी में
आरामदेह कमरों के बीच
जहां न मच्‍छर, न सांप, न बिच्‍छू
बिजली की रोशनी जलेगी
और हवा रहेगी मिजाज के माफिक

...वे बाघ देखने आएंगे
और खुद बाघ बनना चाहेंगे
तुम्‍हारे गांव में कितनी लडकियां हैं सुगना
दस, बीस, पचास
शायद नाकाफी हैं उनके लिए
उनका मन इतने से नहीं भर सकेगा

जो बाघ देखने आते हैं
उनके पास बडा पैसा होता है
वे खरीद सकते हैं कुछ भी
जैसे खरीद ली है उन्‍होंने
तुम्‍हारी लडकियां
तुम्‍हारा लोहा
तुम्‍हारी जमीनें
तुम्‍हारा गांव
सरकार
...वह जमादार
जो आकर चौथी बार धमका गया तुम्‍हें
वह इसी बिकी हुई सरकार का
बिका हुआ नौकर है
घिनौना गाखरू
गंदा जानवर
ठीक किया जो उसकी पीठ पर
थूक दिया तुमने

आएंगे बाघ देखने गाडियों से
चौडी सडकों पर
और सडकें तुम्‍हारे बाप-दादों की
जमीन तुमसे छीन कर बनाएगी
और तुम्‍हारी पीठ पर
लात मार कर
खदेड देगी सरकार तुम्‍हें
यह
तुम भी जानती हो

पर तुम नहीं जानतीं
दूसरी तरु है बैलाडिला
सबसे सुंदर लोहा
जिसे लाद कर
ले जाती है लोहे की ट्रेन
जापानी मालिकों के लिए
अपना लोहा
अपने लोहे की ट्रेन
अपनी मेहनत
और उस पर मालिकाना जापान का

लेकिन तुम यह जानती हो
कि लोहा लेकर गई ट्रेन
जब लौटती है
तो लाती है बंदूकें
और लोहे के बूट पहने सिपाही
ताकि वे खामोश रहें
जिनकी जगह
बाघ की जरूरत है सरकार को

सुगना, तुमने सचमुच हिसाब
नहीं पढा
मगर फिर भी तुम्‍हें इसके लिए
हिसाब जानने की जरूरत नहीं पडी कि
सारा लोहा तो ले जाते हैं जापान के मालिक
फिर लोहे की बंदूक अपनी सरकार के पास कैसे
लोहे की ट्रेन अपनी सरकार के पास कैसे
लोके बूट अपनी सरकार के पास कैसे

जो नहीं हुअ अब तक
जो न देखा-न सुनाओ कभी
ऐसा हो रहा है
और तुम अचक्‍की हो
कि लडकियां सचमुच गायब हो रही हैं
कि लडके दुबलाते जा रहे हैं
कि भैंसों को जाने कौन-सा रोग लग गया है
कि पानी अब नदी में आता ही नहीं
कि शंखिनी ओर ढाकिनी का पानी
हो गया है भूरा
और बसाता है, जैसे लोहा
और लोग पीते हैं
तो मर जाते हैं

तुम्‍हारी नदी
तुम्‍हारी धरती
तुम्‍हारा जंगल
और राज करेंगे
बाघ को देखने-दिखानेवाले
दिल्‍ली–लंदन में बैठे लोग

ये बाघ वाकई बडे काम के जीव हैं
कि उनका नाम दर्ज है संविधान तक में
ओर तुम्‍हारा कहीं नहीं
उस फेहरिस्‍त में भी नहीं
जो उजडनेवाले इस गांव के बाशिंदों की है.

बाघ भरते हैं खजाना देश का
तुम क्‍या भरती हो देश के खजाने में सुगना
उल्‍टे जन्‍म देती हो ऐसे बच्‍चे
जो साहबों के सपने में
खौफ की तरह आते हैं- बाघ बन कर

सांझ ढल रही है तुम्‍हारी टाटी में
और मैं जानता हूं
कि मैं तुम्‍हारे पास आ रहा हूं
केवल आज भर के लिए नहीं
हमेशा के लिए
तुम्‍हारे आंसुओं और खून से बने
दूसरे सभी लोगों की तरह
उनमें से एक

हम जानते हैं
कि हम खुशी हैं
और मुस्‍कुराहट हैं
और सबेरा हैं
हम दीवार के उस पार का वह विस्‍तार हैं
जो इस सांझ के बाद उगेगा

हम लडेंगे
हम इसलिए लडेंगे कि
तुम्‍हारे लिए
एक नया संविधान बन सकें
जिसमें बाघों का नहीं
तुम्‍हारा नाम होगा, तुम्‍हारा अपना नाम
और हर उस आदमी का नाम
जो तुम्‍हारे आंसुओं
और तुम्‍हारे खून में से था

जिसने तुम्‍हें बनाया
और जिसे तुमने बनाया
सारी दुनिया के आंसुओं और खून से बने
वे सारे लोग होंगे
अपने-अपने नामों के साथ
तुम्‍हारे संविधान में

जो जिये और फफूंद लगी रोटी की तरह
फेंक दिये गये, वे भी
और जिन्‍होंने आरे की तरह
काट डाला रात का अंधेरा
और निकाल लाये सूरज

जो लडे और मारे गये
जो जगे रहे और जिन्‍होंने सपने देखे
उस सबके नाम के साथ
तुम्‍हारे गांव का नाम
और तुम्‍हारा आंगन
तुम्‍हारी भैंस
और तुम्‍हारे खेत, जंगल
पंगडंडी,
नदी की ओट का वह पत्‍थर
जो तुम्‍हारे नहाने की जगह था
और तेंदू के पेड की वह जड
जिस पर बैठ कर तुम गुनगुनाती थीं कभी
वे सब उस किताब में होंगे एक दिन
तुम्‍हारे हाथों में

तुम्‍हारे आंसू
तुम्‍हाना खून
तुम्‍हारा लोहा
और तुम्‍हारा प्‍यार

... हम यह सब करेंगे
वादा रहा.

(शंखिनी और ढाकिनी : छत्‍तीसगढ की दो नदियां
बैलाडिला : छत्‍तीसगढ की एक जगह, जहां लोहे की खाने हैं और जहां से निकला लोहा उच्‍च गुणवत्‍ता का माना जाता है. दो दशक से भी अधिक समय से यह लोहा बहुत कम कीमत पर जापानी खरीद ले जा रहे हैं.)


जारी...

2 comments:

Anonymous said...

Bahut pyara blog hai.
वैज्ञानिक दृ‍ष्टिकोण अपनाएं, राष्ट्र को उन्नति पथ पर ले जाएं।

alok putul said...

कविता का उपरी हिस्सा रेयाज़ जी का नहीं है. वह सुप्रसिद्ध गीतकार-कवि शैलेंद्र की रचना है. पूरी रचना कुछ यूं है-

क्रान्ति के लिए जली मशाल
क्रान्ति के लिए उठे क़दम !


भूख के विरुद्ध भात के लिए
रात के विरुद्ध प्रात के लिए
मेहनती ग़रीब जाति के लिए
हम लड़ेंगे, हमने ली कसम !


छिन रही हैं आदमी की रोटियाँ
बिक रही हैं आदमी की बोटियाँ
किन्तु सेठ भर रहे हैं कोठियाँ
लूट का यह राज हो ख़तम !


तय है जय मजूर की, किसान की
देश की, जहान की, अवाम की
ख़ून से रंगे हुए निशान की
लिख रही है मार्क्स की क़लम !