यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Sunday, August 23, 2009

असम से उठते कुछ जरूरी सवाल

लचित बोरदोलाई के पास सरकार के लिए एक चेतावनी है- अगर सरकार ने उल्‍फा से सीधी वार्ता नहीं शुरू की और सेना अपने मनमाने तरीकों से काम करती रही, तो असम में भी मणिपुर जैसे हालात हो जाएंगे.किसी ने सुना लचित को? वे पीपुल्‍स कंसल्टिव ग्रुप के सदस्‍य हैं, जो पीपुल्‍स कमेटी फॉर पीस इनीशिएटिव्‍स इन असम का मुख्‍य शक्ति स्रोत है. कमेटी में 20 से अधिक संगठन हैं, जो शांति प्रक्रिया शुरू करने और सैन्‍य अभियान रोके जाने की मांग कर रहे हैं. उनका कहना है कि असम की जनता एक बडे आंदोलन के बारे में सोच रही है. हम शांति के लिए लड रहे हैं. हम सेना के मनमानेपन के मौन गवाह नहीं बने रह सकते. यदि यह जारी रहा तो वह दिन दूर नहीं, असम में भी मणिपुर की तरह सेना विरोधी प्रदर्शन होने लगेंगे. मगर शायद लचित की आवाज सुननेवाले कोई नहीं है. उन बीस से अधिक संगठनों की भी जो शांति के लिए एक मंच पर आए हैं. लचित जब यह बोल रहे थे, 22 फरवरी 2007 को, उससे ठीक एक दिन पहले ही सेना ने अनेक गांवों पर भारी बमबारी की थी. उनमें आदमी ही रहते थे. वे भारतीय सीमा के इस ओर, असम में थे.लगता है कि हम अंधों-बहरों के ही देश में रहते हैं. लगता है कि हम सिर्फ धमाके ही सुन सकते हैं. कुछ समय पहले, जब 79 बिहारियों की असम में हत्‍या कर दी गई, तो सारे देश का ध्‍यान असम पर गया. इन हत्‍याओं को कहीं से जायज नहीं ठहराया जा सकता, मगर यह जानना किसी ने जरूरी नहीं समझा कि इनके लिए जितनी दोषी उल्‍फा है, उससे कम दोषी सरकार नहीं है.माना जाता है कि पीपुल्‍स कंसल्‍टेटिव ग्रुप उल्‍फा के निकट है. ऐसे में शांति प्रक्रिया के लिए उसकी इस तरह की कोशिशें उन लोगों के लिए आश्‍चर्य का विषय हो सकती हैं, जो सरकारी प्रचारतंत्र पर आंख मूंद कर भरोसा करते हैं. असम में जारी युद्ध विराम और शांति प्रक्रिया के टूटने के लिए उल्‍फा से अधिक भारत सरकार जिम्‍मेदार है. शांति प्रक्रिया से जुडे अनेक जानकारों ने यह बार-बार कहा है कि शांति प्रक्रिया के दौरान सरकार ने अडियल रवैया अपनाया. इसके उलट उल्‍फा ने काफी लचीला रुख दिखाया, मगर उसे सरकार से सहयोग नहीं मिला. शांति प्रक्रिया के विफल रहने से असम की व्‍यापक जनता में निराशा और एक हद तक गुस्‍सा भी फैल गया.
दरअसल, हम राष्‍ट्रीय एकता, अखंडता, आजादी और लोकतंत्र आदि सुनहरे शब्‍दों और नारों पर इतने मुग्‍ध रहते हैं कि हम कभी इनसे उपर उठ कर कुछ खरे-खरे सवाल कर ही नहीं पाते. इसका फल यह होता है कि हमारे आसपास क्‍या घट रहा है, इससे हम लगभग अनभिज्ञ रहते हैं और जब कुछ अनहोनी घटती है, तो कुछ सरल और प्राय: भ्रमित किस्‍म की सूचनाओं पर निर्भर और उनसे नियंत्रित होते हैं तथा जल्‍दी ही एक आसान सा निष्‍कर्ष भी निकाल लेते हैं.क्‍या हमने कभी यह जानने की कोशिश की है कि आखिर असम में उल्‍फा या एनडीएफबी जैसे संगठन क्‍यों इतने मजबूत हैं और क्‍यों कुछ भी कर पाने में सफल रहते हैं. असम वस्‍तुत: एक पिछडा प्रदेश है, जहां की दो करोड से अधिक की आबादी में से 15 लाख से अधिक बेरोजगार हैं और उनमें 3.1 प्रतिशत की दर से वृद्धि हो रही है, इसके उलट प्‍लेसमेंट 20.7 प्रतिशत की दर से घट रहा है. 2002 में वहां कुल शिक्षित बेरोजगारों की संख्‍या 10,45,940 थी, जिनमें से उस साल केवल 70 को रोजगार मिल पाया. असम में प्रति व्‍यक्ति औसत आय राष्‍ट्रीय औसत का 61 प्रतिशत है और बांग्‍लादेश का एक व्‍यक्ति असम के एक व्‍यक्ति से औसतन अधिक कमाता है. असम में साक्षरता की दर भी राष्‍ट्रीय औसत से कम है. वहां सिर्फ 45 प्रतिशत लोगों तक साफ पानी पहुंचता है. असम के सकल घरेलू उत्‍पाद में कृषि का योगदान 31 प्रतिशत है मगर हाल के वर्षों में पैदावार घटी है. असम का किसान 50 रुपए रोज से भी कमाता है. असम की लगभग 72 प्रतिशत विवाहित महिलाओं में खून की भयंकर कमी है, जो कि भारत में सबसे बदतर आंकडा है. वहां मलेरिया भी इसका एक कारण है.ये सिर्फ आंकडे नहीं है, ये इस बात के भी संकेतक है कि हमें असम की कितनी परवाह है. ऐसे में जबकि सरकार विफल होती दिखती है, वहां की जनता अपनी अधिकार मांगने के लिए उठ खडी. होती है मगर जब ऐसा होता है तो सरकार उनसे निपटने के लिए सेना का प्रयोग करती है.असम में 1985 से अफसपा, आर्म्‍ड फोर्सेज स्‍पेशल पावर एक्‍ट लागू है, जो वहां तैनात सेना को असीमित शक्ति दे देता है. इसका परिणाम यह हुआ कि सेना आम जनता का उत्‍पीडन करने लगी. सेना की कोई जवाबदेही नहीं है और इस एक्‍ट के कारण वहां की चुनी हुई सरकारें कोई कानूनी कार्रवाई नहीं कर सकती. क्‍या हमें पता है कि पूरा राज्‍य लगभग आधी सदी से आपातकाल में जी रहा है? वहां के नागरिकों के मौलिक अधिकार रद्द कर दिए गए हैं, जो बिना औपचारिक रूप से आपातकाल घोषित किए रद्द नहीं किए जा सकते. असम को नजदीक से देखनेवाले यह बताते हैं कि किस तरह वहां इस कानून ने सैन्‍य के जरिए नागरिक प्रशासन को शक्तिहीन किया है. सेना द्वारा जनता का यह उत्‍पीडन हालिया शांति प्रक्रिया के दौरान भी जारी रहा, जबकि उल्‍फा की तरफ से कोई कार्रवाई नहीं की गई.
मगर बिहारियों की हत्‍या के मामले का एक और आयाम भी है. बिहारियों पर हमले अन्‍य राज्‍यों में भी होते रहे हैं. इसके आर्थिक कारण हैं. चाहे पंजाब हो या महाराष्‍ट्र या आंध्र हर जगह वैश्‍वीकरण की नीतियों के कारण आर्थिक संकट बढ रहा है. गरीबों और वंचितों के लिए अवसर और विकल्‍प लगातार कमते जा रहे हैं. क्‍या हम इस जगह पर प्रथम विश्‍वयुद्ध के बाद की जर्मनी के आर्थिक संकट और हिटलर के उदय को याद करने की इजाजत मांग सकते हैं?
असम में कई छोटे-छोटे विद्रोह होते रहे हैं. हिंसा भी होती रही है, मगर सेना की तरफ से होने वाली हिंसा ही बहस का मूल मुद्दा होना चाहिए. सरकार शांति प्रक्रिया के लिए कितनी गैर संजीदा है, इसका पता इससे भी लगता है कि राष्‍ट्रीय खेलों के बाद समय से अ‍बतक उग्रवादी संगठनों की तरफ से एक भी गोली नहीं चलाई गई है, जब कि सरकार ने अपनी तरफ से कार्रवाई जारी रखी है, शांति प्रक्रिया की तमाम मांगों के बावजूद. उल्‍फा जैसे संगठनों की कार्यशैली से ही स्‍पष्‍ट है कि वे बिना जनता के समर्थन के न तो टिक सकते हैं, न सफल हो सकते हैं. उन्‍हें सेना के बल पर मिटाना मुश्किल हैं. इसका समाधान है, असम की व्‍यापक जनता के लिए असम का विकास. क्‍या सरकार तैयार हैं?

-रेयाज-उल-हक

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