यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, January 15, 2010

...तो हम कभी नहीं ठिठकेंगे

देश अपने गणतंत्र के 60 वें वर्ष में अपने ही नागरिकों के खिलाफ छेड़े गए दर्जन भर से अधिक युद्धों, लगभग एक अघोषित आपातकाल, लाखों किसानी आत्महत्याओं और एक अदद इरोम शर्मीला के साथ दाखिल हो रहा ही. इरोम ने अपने अनशन के दस वर्षों में इस लोकतंत्र का रेशा-रेशा उजागर किया है, किसी अर्थशास्त्री, नेता, आन्दोलन, समाज विज्ञानी, ने नहीं किया है. इस शानदार प्रतिरोध पर शोमा चौधरी का यह शानदार आलेख, तहलका से साभार.



कभी-कभी हमें अपने जिद्दी और अड़ियल वर्तमान को ठीक से जानने के लिए अतीत में लौटना पड़ता है. इसलिए पहले एक फ्लैशबैक.
यह 2006 है. नवंबर में दिल्ली की एक आम-सी शाम. तभी एक रुक-रुककर आती धीमी आवाज आपकी चेतना को चीरती हुई चली जाती है. 'मैं कैसे समझाऊं? यह सजा नहीं, मेरा कर्तव्य है.. अपने दर्द के कारण धीमी मगर फिर भी अपनी नैतिकता में डूबी हुई ऐसी जादुई आवाज और ऐसे शब्द, जिन्हें आप कभी नहीं भूल सकते. 'मेरा कर्तव्य.' आर्थिक प्रगति के उत्साह में गले तक डूबे भारत में 'कर्तव्य' का भला क्या मतलब होगा?

आप कहीं दूर चले जाना चाहते हैं. आप व्यस्त हैं और उस आवाज में हिंसा का कोई संकेत भी नहीं है. लेकिन तभी एक चित्र बनने लगता है. अस्पताल के एक बिस्तर पर गोरे रंग की एक कमजोर औरत, बिखरे हुए काले बालोंवाला सिर, नाक में प्लास्टिक की एक ट्यूब, दुबले और साफ हाथ, दृढ़ और बादामी आंखें और रुक-रुक कर आती, कांपती आवाज, जो कर्तव्य की बात करती है.

उसी क्षण इरोम शर्मिला की पूरी कहानी हमारे भीतर पैठना शुरू करती है. आप किसी ऐतिहासिक इनसान के आस-पास हैं. ऐसा कोई, जिसका राजनीतिक विरोधों के इतिहास में पूरी दुनिया में कोई सानी नहीं है. फिर भी आप उसे भूल गए हैं. आपके पास सैकड़ों टीवी चैनल और मीडिया का अपूर्व गौरवशाली दौर है, मगर फिर भी आप उसे भूल गए हैं.

2006 में इरोम शर्मिला ने पिछले छह साल से न ही कुछ खाया था और न ही पानी की एक बूंद तक पी थी. भारत सरकार उसकी नाक में एक ड्रिप लगाकर उसे जबर्दस्ती जीवित रख रही थी. छह साल से कोई ठोस पदार्थ उसके शरीर में नहीं गया था और पानी की एक भी बूंद ने उसके होठों को नहीं छुआ था. उसने बालों में कंघी करना तक बन्द कर रखा था. वह अपने दांतों को रुई से और होंठों को सूखी स्पिरिट से साफ करती थी, जिससे उसका उपवास न टूटे. उसका शरीर अंदर से खत्म होता जा रहा था. उसके मासिक चक्र बंद हो गए थे, परंतु उसका संकल्प नहीं टूटा था. जब भी उसका बस चलता था, वह नाक से ट्यूब निकाल फेंकती थी. वह कहती थी कि अपनी आवाज को 'उचित और शांत ढंग' से सुनाने के लिए यही उसका नैतिक कर्तव्य है.

फिर भी भारत सरकार और भारत के लोग उसके प्रति बेपरवाह थे.

वह तीन साल पहले था. बीते साल 5 नवंबर को इरोम शर्मिला ने अपने इस अभूतपूर्व उपवास के दसवें साल में प्रवेश किया, जो मणिपुर और अधिकांश पूर्वोत्तर पर 1980 से थोपे गए अफ्स्पा (सशस्त्न बल विशेष अधिकार अधिनियम) के विरोध में था. सिर्फ इस संदेह के आधार पर कि कोई व्यक्ति अपराध करने वाला है या कर चुका है, यह एक्ट सेना को बलप्रयोग, गिरफ्तारी और गोली मारने तक की छूट देता है. यह एक्ट सेना के किसी भी व्यक्ति के विरु द्ध केंद्र सरकार की अनुमति के बिना किसी न्यायिक प्रक्रिया की अनुमति भी नहीं देता.

शब्दों में क्रूर दिखनेवाला यह कानून इरादों में और भी क्रूर है. आधिकारिक तौर पर इसके लागू किए जाने के बाद से सुरक्षा बलों ने मणिपुर में हजारों लोग मारे हैं. (2009 में ही सरकारी आंकड़ों में यह संख्या 265 है, जो मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के मुताबिक 300 से ऊपर है, जिसका अर्थ है- प्रतिदिन एक या दो ग़ैर कानूनी हत्याएं) विद्रोही संगठनों पर लगाम कसने के बजाय इस एक्ट ने आम आदमी में उबलता हुआ आक्रोश ही पैदा किया है और उससे नए उग्रवादी पनपे हैं. 1980 में जब यह कानून लागू हुआ, मणिपुर में केवल 4 विद्रोही संगठन थे. आज उनकी संख्या 40 है और मणिपुर मौत की घाटी जैसा बन गया है, जहां बेतहाशा भ्रष्टाचार है और उसके दस्ताने के अंदर पुलिस, उग्रवादियों और राजनीतिज्ञों के हाथ एक साथ हैं और निर्दोष नागरिक उस दस्ताने की गिरफ्त में हैं.

कुछ साल पहले एक सीडी सभ्य समाज के गलियारों तक पहुंची. इसमें सेना की अपमानजनक क्रूरता और जनता के रोष की फुटेज थीं. छोटे बच्चों, छात्रों, कामकाजी वर्ग की औरतों की तसवीरें थीं, जो सड़कों पर आ गए थे और आंसू गैस या गोलियों का निशाना बन रहे थे. ऐसी तसवीरें थीं, जिनमें आदमियों को नीचे जमीन पर लिटा दिया गया था और फौज उनके सिरों से बस कुछ इंच ऊपर गोलियां दाग रही थी. हर गुजरते दिन के साथ आते किस्से ग़ुस्सा बढ़ाते जा रहे थे. लड़के गायब हो रहे थे, औरतों के साथ बलात्कार किए जा रहे थे. मनुष्य की सबसे जरूरी चीज, उसके आत्मसम्मान को छील-छील कर उतारा जा रहा था.

युवा इरोम शर्मिला के लिए ये सब चीजें 2 नवंबर, 2000 को स्पष्ट हुईं. एक दिन पहले एक विद्रोही संगठन ने असम राइफल्स के एक दस्ते पर बम फेंका था, क्रोधित बटालियन ने मालोम बस स्टैंड पर दस बेकसूर लोगों को मार डाला. उन शवों की दिल दहला देनेवाली तसवीरें अगले दिन के स्थानीय अखबारों में छपीं, जिनमें एक 62 साल की औरत लिसेंगबम इबेतोमी और 18 साल की सिनम चंद्रमणि भी थी, जो 1988 में राष्ट्रपति से वीरता पुरस्कार ले चुकी थी. असामान्य रूप से बेचैन 28 साल की शर्मिला ने 4 नवंबर को अपना सत्याग्रह शुरू किया.

तीन साल पहले की नवंबर की उस सर्द शाम में हॉस्पिटल के एक बर्फ से सफेद गलियारे में पसर कर बैठे हुए शर्मिला के 48 वर्षीय भाई सिंहजीत ने कुछ हंस कर कहा था, 'हम यहां कैसे पहुंचे?' उस उदास प्रश्न की अनुगूंज में ही शर्मिला और उनके अद्भुत सफर की कहानी छिपी थी. उस कहानी के बड़े हिस्से को अपने अंदर झांक कर जानने की जरूरत है. ऐसा तनाव, तीव्रता और लगभग असंभव कल्पना का काम इतनी आसानी से नहीं दिखता. यह इंफाल की एक सुदूर झोंपड़ी में शुरू हुआ. राजधानी और राज्य की सारी शक्तियां उनके विरुद्ध लामबंद हो गईं. अस्पताल के उसके छोटे-से कमरे में उसके साथ बंद नर्स थी और बाहर भाई था, जिसके पास कपड़ों के अलावा कुछ भी नहीं था और जो न हिंदी बोल पाता था, न अंग्रेजी. दरवाजे पर तैनात पुलिसवाले भी थे.

'मेंघाओबी' अर्थात गोरी लड़की, जिस नाम से मणिपुर के लोग उसे पुकारते हैं, इंफाल के पशु चिकित्सालय में काम करनेवाले एक अनपढ़ चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी की सबसे छोटी बेटी थी. वह हमेशा से अकेले रहना पसंद करती थी, क्लास में सबसे पीछे बैठती थी और अच्छी श्रोता थी. उससे बड़े आठ भाई-बहन और थे. जब उसका जन्म हुआ, उसकी 44 वर्षीया मां इरोम सखी का दूध सूख चुका था. जब शाम ढलती थी और मणिपुर अंधेरे में डूबने लगता था, शर्मिला रोना शुरू कर देती थी. उसके सामने से हटने के लिए मां को पास की किराने की दुकान पर जाना पड़ता था, ताकि सिंहजीत अपनी छोटी बहन को गोद में लेकर पड़ोस की किसी मां के पास दूध पिलाने ले जा सके.

'इसकी इच्छाशक्ति हमेशा से असाधारण रही है. शायद इसीलिए वह सबसे अलग भी है,' सिंहजीत कहते हैं, 'शायद इस तरह यह उन सब मांओं के दूध का कर्ज चुका रही है.'

बगल में बैठे इस समझदार गंवई व्यक्ति की कहानी में एक तीखा-सा दर्द था- इस जंग को अपनी अदृश्य सांसें देता हुआ वफादार योद्धा, एक अधेड़ भाई, जिसने बाहर दरवाजे पर रह कर बहन की देखभाल करने के लिए अपनी नौकरी छोड़ दी, वह आदमी जो बुनाई से प्रतिदिन 120 रू कमानेवाली अपनी पत्नी पर निर्भर है, ताकि वह दृढ़ता से अपनी बहन के साथ खड़ा रह सके.

डेढ़ महीने पहले वह अपने दो साथियों बबलू लोइतेंगबम और कांग्लेपाल की मदद से शर्मिला को किसी तरह मणिपुर से बाहर निकाल लाने में सफल हो गया था. पिछले छह साल से वह पुलिस की निगरानी में इंफाल के जेएन हास्पिटल के एक छोटे-से कमरे में बंद थी. जब भी उसे रिहा किया जाता, वह अपनी नाक से ट्यूब निकाल फेंकती और अपना अनशन जारी रखती. तीन दिन बाद मरणासन्न हालत में उसे 'आत्महत्या के प्रयास के आरोप में फिर से गिरफ्तार कर लिया जाता और यह सिलसिला बार- बार दोहराया जाता. मगर मणिपुर में अनशन, गिरफ्तारी और उस ट्यूब के छह साल थोड़ा काम ही कर पाए थे. लड़ाई को दिल्ली में लाना ही था.

3 अक्तूबर, 2006 को दिल्ली पहुंच कर दोनों भाई-बहनों ने भारतीय लोकतंत्र की आशाओं से भरी वेदी जंतर-मंतर पर डेरा डाला. मीडिया को उनमें कोई रुचि नहीं थी. फिर एक रात पुलिस ने आकर उसे आत्महत्या के प्रयास के आरोप में गिरफ्तार कर लिया और उसे एम्स में फेंक दिया गया. उसने प्रधानमंत्री, राष्ट्रपति और गृहमंत्री को तीन भावुक चिट्ठियां लिखीं, लेकिन कोई जवाब नहीं आया. यदि उसने यह करने के बजाय किसी विमान का अपहरण कर लिया होता तो शायद उसकी बात कुछ जल्दी सुनी जाती.

सिंहजीत ने उस हास्पिटल के गलियारे में कहा था, 'हम अपनी लड़ाई के बीच में हैं. परेशानियां तो आएंगी ही मगर फिर भी हम आखिर तक लड़ेंगे, चाहे इसमें मेरी बहन की जान ही क्यों न चली जाये. लेकिन अगर उसने यह अनशन शुरू करने से पहले मुझे बता दिया होता तो मैं उसे खुद के साथ यह कभी न करने देता. पहले हमें बहुत सारी चीजें सीखनी चाहिए थीं. बात कैसे करनी है, समझौता कैसे करना है, पर हमें कुछ भी नहीं पता था. हम गरीब थे और कुछ भी नहीं जानते थे.'

लेकिन एक तरह से देखा जाए तो शर्मिला की कहानी की विनम्र कर देनेवाली शक्ति का मूल उसकी उसी बिना मार्गदर्शनवाली शुरुआत में है. वह कोई बड़ा राजनीतिक आंदोलन नहीं चला रही और अगर आप करिश्माई भाषणों और जोशीले नायकत्व की उम्मीद कर रहे हैं तो लेटी हुई यह शांत महिला आपको निराश ही करेगी. उस 34 वर्षीया स्त्री का सत्याग्रह कोई वैचारिक उपज नहीं था. अपने आस-पास मृत्यु और हिंसा के चक्र की प्रतिक्रिया में यह उसका नितांत मानवीय उत्तर था, अंदर से एक आध्यात्मिक संदेश जैसा.

शर्मिला ने अपनी कांपती लेकिन स्पष्ट आवाज में कहा था, 'पहले पन्ने पर मालोम के शव को देख कर मैं स्तब्ध थी. मैं एक शांति रैली में हिस्सा लेने जानेवाली थी, मगर मुझे लगा कि इस तरह सेना की हिंसा नहीं रोकी जा सकती. इसलिए मैंने अनशन पर बैठने का निश्चय किया.'

4 नवंबर, 2000 को शर्मिला की मां सखी ने उसे आशीर्वाद दिया था, 'तुम अपनी मंजिल पाओगी' और फिर वे तटस्थ भाव से पलट कर चली गई थीं.

उसके बाद चाहे शर्मिला इंफाल में अपनी मां से पैदल पहुंचने की दूरी पर ही कैद थी, वे कभी नहीं मिलीं.

दिल्ली की एक फिल्म-निर्मात्री कविता जोशी द्वारा बनाई गई एक फिल्म में सखी रोते हुए कहती हैं, 'क्या फायदा है? मेरा दिल बहुत कमजोर है. मैं उसे देखते ही रो पड़ूंगी. इसीलिए मैंने तय किया है कि जब तक उसकी बातें नहीं मानी जातीं, मैं उससे नहीं मिलूंगी, क्योंकि इससे उसका संकल्प कमजोर पड़ जाएगा. हमें खाना नहीं मिलता तो हम किस तरह बिस्तर पर करवटें बदलते रहते हैं और सो भी नहीं पाते. वे जो थोड़ा-सा द्रव उसके शरीर में डालते हैं, वह उसके सहारे किस तरह अपने दिन और रातें बिताती होगी. अगर पांच दिन के लिए भी यह कानून हटा लिया जाए तो मैं अपने हाथों से उसे एक-एक चम्मच करके चावल खिलाऊंगी. उसके बाद वह मर भी जाती है, तो भी हमें संतुष्टि रहेगी कि मेरी शर्मिला की इच्छा पूरी हुई.'

शर्मिला के लिए यह साहसी, निरक्षर औरत ही भगवान है. यही वह मंदिर है, जिससे शर्मिला को शक्ति मिलती है. यह पूछने पर कि मां से न मिल पाना उसके लिए कितना कष्टकारक है, वह उत्तर देती है, 'ज्यादा नहीं', और थोड़ा रुकती है, 'क्योंकि... मुझे नहीं पता कि मैं यह कैसे समझाऊं. पर हम सब यहां एक खास काम करने आए हैं और उसके लिए हम अकेले ही यहां आए हैं.'

अपने शरीर और दिमाग में संतुलन बनाए रखने के लिए वह दिन में चार-पांच घंटे योग करती है, जो उसने खुद से ही सीखा है. डाक्टर आपको बताएंगे कि शर्मिला का उपवास एक चमत्कार है. उसकी स्थिति का अनुमान लगाना ही आपको डरा देता है. लेकिन शर्मिला कभी किसी शारीरिक कष्ट की बात स्वीकार नहीं करती. वह मुस्कुरा कर कहती है, 'मैं ठीक हूं, मैं ठीक हूं. मैं अपने ऊपर कोई अत्याचार नहीं कर रही. यह सजा नहीं है, यह तो मेरा फर्ज है. मुझे नहीं पता कि भविष्य में मेरे साथ क्या होनेवाला है. वह तो ईश्वर की मर्जी है. मैंने अपने अनुभव से यही सीखा है कि नियमितता, अनुशासन और बहुत सारे उत्साह के साथ आप कुछ भी पा सकते हैं.' आप इन बातों को सुनी-सुनाई नीरस बातें कहकर खारिज कर सकते हैं, लेकिन जब वह बोल रही होती है तो यही बातें नायकत्व का चोला पहन लेती हैं.

उसके बाद तीन साल से कुछ नहीं बदला है. दिल्ली आने का भी कोई फायदा नहीं हुआ. अपने उपवास के दसवें साल में भी वह इंफाल हास्पिटल के एक गंदे से कमरे में किसी अदने अपराधी की तरह बंद है. यद्यपि इसका कोई कानूनी आधार नहीं है, फिर भी कभी-कभी अपने भाई के अलावा उसे किसी से भी मिलने की इजाजत नहीं है. यहां तक कि कुछ महीने पहले महाश्वेता देवी को भी उससे मिलने नहीं दिया गया. वह किसी के साथ और गांधी और मंडेला की जीवनियों लिए तरसती रहती है. उसका भाईचारे का भ्रम तथा महान और लगभग अमानवीय आशा का खजाना कभी उसका साथ नहीं छोड़ता.

लेकिन भाई की हताशा उतनी ही प्रबल है. शर्मिला के इस ऐतिहासिक सत्याग्रह की कद्र करने में देश की असफलता उस बेकद्री की एक झलक दिखाती है, जिसके चलते पूरा उत्तर-पूर्व नष्ट हो रहा है. जब 32 साल की मनोरमा देवी को पीपुल्स लिबरेशन आर्मी से संबंध रखने के आरोप में असम राइफल्स ने गिरफ्तार किया, तब अफ्स्पा के विरुद्ध शर्मिला के अनशन को चार साल हो चुके थे. एक दिन बाद इंफाल में मनोरमा का शव मिला था, जिस पर यातना और बलात्कार के भयानक निशान थे. मणिपुर उबल पड़ा था. पांच दिन बाद, 15 जुलाई, 2004 को मानवीय अभिव्यक्ति की सब सीमाएं लांघते हुए 30 आम महिलाओं ने असम राइफल्स के मुख्यालय कांग्ला फोर्ट पर नग्न होकर प्रदर्शन किया था. जो बुरा होना बचा था, उसे पूरा करती आम मांएं और दादियां चिल्ला रही थीं, 'भारतीय सेना, हमारा बलात्कार करो.' उन सबको तीन महीने के लिए जेल के अंदर डाल दिया गया.

उसके बाद सरकार द्वारा गठित किए गए हर आयोग ने घावों को बढ़ाने का काम ही किया है. मनोरमा हत्याकांड के बाद गठित किए गए जस्टिस उपेंद्र आयोग की रिपोर्ट कभी सार्वजनिक नहीं की गई. नवंबर, 2004 में प्रधानमंत्नी मनमोहन सिंह ने अफ्स्पा की समीक्षा के लिए जस्टिस जीवन रेड्डी समिति गठित की. उस समिति ने अफ्स्पा को खत्म करने की सिफारिश की और साथ ही उसकी सबसे क्रूर शक्तियों को ग़ैरकानूनी गतिविधि (रोकथाम) एक्ट में स्थानांतरित करने की सलाह दी. इस निष्कर्ष पर हर आधिकारिक प्रतिक्रिया इसे ग़लत ही ठहराती है. तब के रक्षा मंत्नी प्रणब मुखर्जी ने अफ्स्पा को वापस लेने या उसकी शक्तियों को कम करने की बात इस आधार पर खरिज कर दी थी कि 'अशांत इलाकों' में ऐसी शक्तियों के बिना सेना ठीक से काम नहीं कर सकती.

रोचक बात यह है कि शर्मिला के मुद्दे को रोशनी में आने के लिए शांति के लिए नोबल पुरस्कार विजेता, ईरान की शिरीन एबादी की 2006 की भारत यात्ना का इंतजार करना पड़ा. पत्रकारों के बीच वे उबलते हुए बोली थीं, 'यदि शर्मिला मरती है तो संसद इसकी सीधे तौर पर जिम्मेदार है. वह मरती है तो कार्यपालिका, प्रधानमंत्नी और राष्ट्रपति भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि उन्होंने कुछ नहीं किया...अगर वह मरती है तो आप सब पत्रकार भी जिम्मेदार हैं, क्योंकि आपने अपना फर्ज नहीं निभाया...'

फिर भी पिछले तीन साल में कुछ नहीं बदला है. 'मनोरमा मदर्स' के असीमित आक्रोश के बाद इंफाल के कुछ जिलों से अफ्स्पा हटाया गया, लेकिन वायरस ने अपनी जगह बदल ली. जहां आर्मी ने छोड़ा, वहां मणिपुर पुलिस के कमांडो आ गए. अफ्स्पा के अत्याचार शासन की संस्कृति में ही घुल गए हैं. इसे आप 'दंडविहीन संस्कृति' भी कह सकते हैं, जहां मानवाधिकारों के हनन पर कोई सजा नहीं है. इस साल 23 जुलाई को एक पूर्व विद्रोही नवयुवक संजीत को पुलिस ने इंफाल के व्यस्ततम बाजार में भीड़ के सामने दिन-दहाड़े गोली मार दी. पास खड़ी एक निर्दोष महिला राबिना देवी, जिसे पांच महीने का गर्भ था, के सिर में भी एक गोली लगी और वह भी वहीं मारी गई. उसके साथ उसका दो साल का बेटा रसेल भी था. कई लोग घायल हुए.

इस पूरे हत्याकांड की तसवीरें लेनेवाले अज्ञात फोटोग्राफर के लिए ये महज संख्याएं बनकर रह जातीं: पिछले साल हुई 265 हत्याओं में से सिर्फ दो, मगर इस बार तहलका में छपी ये तसवीरें सबूत थीं. मणिपुर फिर से उबल पड़ा.

चार महीने बाद भी लोगों का गुस्सा ठंडा नहीं हुआ. लोगों की भावनाओं से बेपरवाह मुख्यमंत्नी इबोबी सिंह ने पहले तो बेशर्मी से बच निकलने की कोशिश की. संजित की हत्या के दिन उन्होंने विधानसभा में दावा किया कि उनकी पुलिस ने मुठभेड़ में एक उग्रवादी मारा है. बाद में तहलका के आलेख के सामने आने पर वे बोले कि उन्हें उनके अधिकारियों ने गुमराह किया है और अब वे न्यायिक जांच करवाने के लिए मजबूर थे. हालांकि मुख्यमंत्री और मणिपुर के डीजीपी जॉय कुमार, दोनों तहलका पर घटना को तोड़ने-मरोड़ने का आरोप लगाते हैं.

अब भी थोड़ी-सी उम्मीद बाकी है. पिछले कुछ महीनों में राज्य में विरोध बढ़ा है और दर्जनों सामाजिक अधिकार कार्यकर्ताओं को निरंकुश राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत बहुत ओछे ढंग से गिरफ्तार किया गया है. इनमें एक प्रतिष्ठित पर्यावरण कार्यकर्ता जितेन युमनाम भी थे. 23 नवंबर को एक स्वतंत्न 'सिटिजंस फैक्ट फाइंडिंग टीम' ने 'लोकतंत्र से मुठभेड़: मणिपुर में अधिकारों का हनन' नाम की रिपोर्ट जारी की और गृह मंत्रालय को एक प्रेजेंटेशन दी. एक दिन बाद गृह सचिव गोपाल पिल्लै ने भूतपूर्व आइपीएस अधिकारी और फैक्ट फाइंडिंग टीम के सदस्य के.एस. सुब्रह्मण्यम को बताया कि मंत्रालय ने जितेन और दस अन्य लोगों का रासुका के तहत कारावास रद्द कर दिया है. एक और छोटी-सी आशा का संकेत यह है कि तहलका से एक साक्षात्कार में गृहमंत्नी पी चिदंबरम ने अफ्स्पा को अधिक मानवीय और जवाबदेह बनाने के लिए कुछ सुधारों की सिफारिश किए जाने के बारे में कहा है. इन सुधारों को अभी कैबिनेट का मंजूरी का इंतजार है.

उलझी हुई इस दुनिया में अक्सर किसी समस्या का समाधान एक अटल और प्रेरणादायक नेतृत्व में मिलता है. ऐसा नेतृत्व, जो अपने सामने आते प्रश्नों की नैतिकता को जगा सके और बिना किसी शर्त के उसे सही दिशा में सोचने को प्रेरित कर सके. शर्मिला का महान सत्याग्रह भी ऐसा ही एक नेतृत्व है. यह एक सच्चे और सभ्य समाज के विचार को फिर से आधार देता है. यह मृत्युपरक और संवेदनहीन क्रूरता के चेहरे पर क्रूरता का तमाचा मारने से इनकार कर देता है. उसकी याचना सीधी-सी है-सशस्त्न बल विशेष अधिकार अधिनियम को वापस लिया जाए. यह भारतीय गणराज्य के उस विचार में तो कहीं नहीं था, जिसे इसके संस्थापकों ने हमें वसीयत में दिया है. यह अमानवीय है.

यह सच है कि आज मणिपुर टूटा हुआ और हिंसक समाज है. मगर उसका हल दृढ़ और प्रेरक नेतृत्व में ही खोजा जा सकता है, जिसे निभाने की जिम्मेदारी अब सरकार की है. बाकी दर्शन छोड़कर नैतिकता का कानून लागू कीजिए. बाकी सब अपने आप सुलझ जाएगा.

लेकिन दुर्भाग्यवश, जब हम हिंसा की भयानक तारीख 26/11 की बरसी मनाना याद रखते हैं, हम उस औरत को भूल जाते हैं, जिसने असीम हिंसा का उत्तर असीम शांति से दिया.

यह हमारे समय का एक दृष्टांत है. यदि इरोम शर्मिला की कहानी हमें रुक कर कुछ सोचने पर मजबूर नहीं करती तो कोई भी चीज ऐसा नहीं कर सकेगी. यह असाधारण होने की कहानी है. असाधारण इच्छाशक्ति, असाधारण सादगी और असाधारण उम्मीदों की. सूचनाओं से भरे हुए इस व्यस्त समय में अपनी बात किसी को सुनवाना असंभव ही है, मगर यदि इरोम शर्मिला की कहानी सुन कर हम नहीं ठिठकते तो हम कभी नहीं ठिठकेंगे.'

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