एक तरफ पूरा देश में महंगाई की मार से जूझ रहा है तो दूसरी तरफ गणतांत्रिक खुशियों की खुमारी भी है. इस समय किसका ध्यान हाशिया की खबरों पर जाता है. पूर्वोत्तर राज्यों में सबसे संवेदनशील प्रदेश मणिपुर की स्थिति दिन ब दिन बदत्तर होती जा रही है. हाल ही में स्कूली छात्रों ने स्कूल जाना शुरू किया है. पिछले पांच महीनों से सरकारी और गैरसरकारी स्कूलें बंद पडे थे. प्रदेश में आतंकवादी समस्या तो स्थाई समस्या है ही. हत्या और बलात्कार की घटनाएं भी पूरे प्रदेश की सजावट है. ऐसे मौके में पूरे पूर्वोत्तर राज्यों खास कर मणिपुर की बिगडी स्थिति के बारे में अश्विनी कुमार के गंभीर चिंतन. यह शानदार आलेख, पंजाब केसरी से साभार.
जब भी हम दिल्ली से मुंबई, हैदराबाद जाने के लिए उडान भरते हैं तो हमें लगता है कि भारत कितना बढिया देश है, जब हम चमचमाती सडकों और फ्लाइओवरों पर तेज रफ्तार की गाडियों में बैठे बहुमंजिली इमारतों को निहारते हैं तो हमें सब कुछ तिलिस्मी लगता है, सोचते हैं - देखते ही देखते कितना कुछ बदल गया. उडान भरते भारत को देखने का अर्थ यह नहीं कि विकास की लहर हर कोने में पहुंच गई है. जितना देश महानगरों में खूबसूरत लगता है भीतर से उतना ही खोखला और भयावह है. मैं बात कर रहा हूं देश के पूर्वोत्तर राज्यों की. ब्रिटेन की दासता से मुक्त होने के बाद से ही असम, मणिपुर और नगालैंड आतंकवाद से ग्रस्त हैं. सैकडों युवक जो अच्छे शिक्षक, नियोजक, इंजीनियर, डाक्टर और नेता बन सकते थे, अपनी जान गंवा बैठे. फिर भी नियति से छुटकारा नहीं मिला. असम में जो कुछ हुआ या हो रहा है वह सबके सामने है लेकिन मणिपुर और नगालैंड के बारे में उत्तर भारतीयों को कुछ अधिक जानकारी नहीं. मणिपुर की स्थिति इतनी भयानक हो चुकी है लगता है कि भारत एक और राज्य खो रहा है. मणिपुर में जीवन के अधिकार को शिक्षा के आधार से बडा बताते हुए तीन महीने से अधिक स्कूल कॉलेज बंद रहे. किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया क्योंकि उत्तर भारतीय प्रिंट मीडिया भी एक कॉलम की छोटी सी खबर देकर इतिश्री कर लेता है. इलैक्ट्रोनिक मीडिया को रिएल्टी शोज से फुर्सत नहीं. ऐसे में देश की वास्तविक स्थिति से लोग अनभिज्ञ हैं. पिछले कई वर्षों से राज्य के किसी शिक्षा संस्थान में न तो राष्ट्रगान ही गाया गया न ही वंदेमातरम. हिंदी बोलने पर अघोषित प्रतिबंध है. फिर भी मणिपुर कश्मीर की तरह भारत का अभिन्न अंग है. राज्य के शिक्षण संस्थान तो अब खुल चुके हैं, लेकिन इनके ठप रहने का करण यह था कि आल मणिपुर स्टूडैंट्स यूनियन, मणिपुरी स्टूडैंट्स फैडरेशन और कांगलेइपाक स्टूडैंट्स एसोसिएशन का आराप था कि एक प्रतिबंधित पूर्व संगठन पीपुल्स लिबरेशन आर्मी के एक सदस्य और महिला की दिनदहाडे फर्जी मुठभेड में हत्या कर दी गई थी, लेकिन मुख्यमंत्री इबोबी सिंह की सरकार ने दोषियों को दंडित करने के लिए कुछ नहीं किया. कई सामाजिक संगठनों ने इस फर्जी मुठभेड के खिलाफ जन आंदोलन चलाया. छात्रों ने कक्षाओं के बहिष्कार का आह्वान किया था. अंतत: सरकार ने मजबूर होकर एक सेवानिवृत्त जज की अध्यक्षता में एक आयोग का गठन किया, तब जाकर शिक्षण संस्थान खुले. इंफाल की प्रेस यह आवाज उठाती रही कि सत्ता में कौन है और कानून किसके हाथ में है ? उसने हालात के लिए सरकार को जिम्मेदार ठहराया. राज्य में कानून-व्यवस्था लगभग समाप्त हो चुकी हे क्योंकि राज्य में सरकार का नहीं अलगाववादी संगठनों का शासन स्थापित है. हथियारों की खुलेआम बिक्री होती है. राज्य के सीमांत बाजारों में बंदूक दस हजार में आसानी से मिल जाती है. सीमापार से हथियार और नशीले पदार्थों की तस्करी की जाती है. मणिपुर की स्वायत्तता के लिए 25 से अधिक संगठन सक्रिय हैं जिनके कैडर के पास हथियार आसानी से पहुंच जाते हैं. उत्तर-पूर्व के कई आतंकवादी संगठनों के भारत-म्यांमार लंबी सीमा के उस पार नगालैंड-मणिपुर के उत्तर में और दक्षिण मिजोरम में प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं. हत्याएं और बलात्कार की घटनाओं के बाद राज्य अशांत हो जाता है. राज्य में हिंदी भाषियों की हत्याएं की गईं तब कोई हंगामा खडा नहीं हुआ. जब भी कोई आतंकवादी सुरक्षा बलों की कार्रवाई में मारा जाता है तो कोहराम मच जाता है. कई बार महिलाओं के संगठन विरोध करने सडकों पर उतर आते हैं. यह भी सच है कि राज्य में मानवाधिकारों का उल्लंघन सरकारी एजेंसियों का खुला खेल भी बन गया है. निर्दोष युवा मानवाधिकार कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर उन पर गंभीर आरोपों वाली धाराएं लगाई जाती हैं. कुछ युवकों पर तो सरकार के खिलाफ युद्ध छेडने का प्रयास, सरकार के खिलाफ साजिश रचने, गैर कानूनी गतिविधियों में मदद करने तक के आरोप लगाए गए हैं. इसमें कोई संदेह नहीं कि राज्य में आतंकवाद पर काबू पाने में सुरक्षा बलों को सफलता हाथ लगी.
फर्जी मुठभेड का परिणाम सामने नहीं आने पर छात्र संगठनों ने स्कूल बंद रखा था. उस दरमियान
अनजान लोगों के स्कूल जलाए जाने पर विरोध प्रदर्शन करते स्कूली बच्चे.
आतंकवादी शिविर नष्ट किए गए हैं, कुछ आतंकवादियों ने आत्मसमर्पण भी किया है, लेकिन राज्य की स्थिति विस्फोटक ही है. पिछले सात वर्षों से राज्य में कांग्रेस की सरकार है लेकिन वह भी स्थिति सामान्य बनाने की दिशा में एक कदम भी आगे नहीं बढ सकी. कांग्रेस और कुछ अन्य राजनीतिक दलों के अलगाववादी संगठनों से सांठगांठ के प्रमाण भी मिल चुके हैं. कई आतंकवादी राजनीतिज्ञों के आवास से गिरफ्तार भी किए जा चुके हैं. सत्ता में बने रहने के लिए राजनीतिज्ञों ने तुम भी लूटो और हम भी लूटें का फार्मूला अपनाया हुआ है. राज्य के मुख्यमंत्री ओक्रम इबोबी सिंह पर दो आतंकी संगठनों को डेढ करोड का फंड देने के सबूत खुफिया विभाग के पास हैं और सेना प्रमुख ने यह जानकारी प्रधानमंत्री कार्यालय और गृहमंत्रालय को भी दे दी थी. इसके बावजूद उनका मुख्यमंत्री पद पर बने रहने का अर्थ क्या है ? विकास कार्यों के ठेके भी अलगाववादी संगठनों को दिए जाते हैं यानीे इसका स्पष्ट अर्थ यही है कि केंद्र का फंड अलगाववादी संगठनों में बांटा जा रहा है. भ्रष्ट प्रपंचों भरी व्यवस्था, तेग तमंचों भरी व्यवस्था,
खुले घूमते हैं व्यभिचारी, शह देते हैं सत्ताधारी।
मणिपुर की अशांति का एकमात्र समाधान है कि ईमानदार लोगों को सत्ता में लाया जाए और अलगाववादी संगठनों से बातचीत की जाए. वार्ता की एकमात्र शर्त मानवीयता ही होनी चाहिए. अलगाववादी संगठन हिंसा रोकें और राज्य सरकार गैर जरूरी बल प्रयोग कर मानवाधिकारों का उल्लंघन न करे. मणिपुर की जनजातियों से वार्ता कर हिंसक टकराव को रोका जा सकता है. लोकतंत्र में हिंसा का खात्मा हिंसा से नहीं किया जा सकता. जन आकांक्षाओं को पूरा करना भी जरूरी है, अलगाववादी संगठनों के सुर बिगड रहे हैं. केंद्र सरकार वार्ता की दिशा में कुछ ठोस कदम उठाए लेकिन क्या ऐसा होगा?
-अश्विनी कुमार
ashwinikumar001@gmail.com
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
1 comment:
बहुत ही बदतर हालात हो गये हैं नेताओं की कुटिल मानसिकता के चलते.
Post a Comment