यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Thursday, February 11, 2010

मां

मक्सिम गोर्की की मां के बारे में किसी को बताने की जरूरत नहीं होगी. पालभेन की मां खाली पालभेन की ही नहीं होती, पालभेन जैसे हजारों बेटों पर अपनी ममता न्योछावर करती है। इन दिनों मां के करीब हूं. मां का पहला अंक आप लोगों को शेयर करता हूं. शायद आप लोग भी मेरी तरह मां की याद करे.



मजदूरों की बस्ती की धुआंरी और गंदी हवा में हर रोज फैक्टरी के भोंपू का कांपता हुआ कर्कश स्वर गूंज उठता और उसके आवाहन पर छोटे-छोटे मटीले घरों से उदास लोग सहमे हुए तिलचट्‌टों की तरह भाग पड़ते. नींद पूरी करके अपने थहे हुए अंगों को आराम भी नहीं दे पाते थे. ठिठुरते झुटपुटे में वे कच्ची सड़क पर फैक्टरी की ऊंची-सी पत्थर की इमारत की तरफ चल पड़ते, जो बड़े निर्मम तथा निश्चिंत भाव से उनकी प्रतीक्षा करती रहती थी और जिसकी तेज से चिकनी दर्जनों चौकोर आंखें सड़क पर प्रकाश करती थीं. उनके पेरों के नीचे कीचड़ की छप-छप होती थी. वे अलसाई हुई आवाज में चिल्लाते और हवा में उनकी गंदी गालियां गूंज उठतीं और दूसरी आवाजें- मशीनों की गड़गड़ाहट और भाप की फक-फक हवा में तैरती हुई आकर इन आवाजों में मिल जातीं. ऊंची-ऊंची काली चिमनियां, जो बहुत कठोर और निराशापूर्ण मालूम होती थीं बस्ती के ऊपर मोटे-मोटे मुगदरों की तरह अपना मस्तक ऊंचा किये खड़ी रहती थीं.
शाम को जब डूबते हुए सूरज का थका-थका प्रतिबिंब घरों की खिड़कियों में दिखाई देता तो फैक्टरी इन लोगों को अपने पाषाण उदर से उगल देती, मानो वे साफ की गई धातु का बचा हुआ कचरा हों और वे फिर सड़क पर चल पड़तेः गंदे, चेहरों पर कालिख, भूखे, दांत चमकते हुए और शरीर से मशीन के तेल की दुर्गंध आती हुई. इस समय उनके स्वर में उत्साह होता था, उल्लास होता था क्योंकि काम का एक दिन और खत्म हो चुका था और घर पर रात का खाना और विश्राम उनकी बाट जोह रहा था.
दिन को तो फैक्टरी निगल गई थी, उसकी मशीनों ने जी भरकर मजदूरों की शक्ति को चूस लिया था. दिन का अंत हो गया था, उसका एक चिन्ह भी बाकी नहीं रहा था और मनुष्य अपनी कब्र के एक कदम और निकट पहुंच गया था. परंतु इस समय विश्राम की, और धुएं से घुटे हुए शराबखाने की सुखद कल्पना कर रहा था और उसे संतोष था.
इतवार को छुट्‌टी के दिन लोग दस बजे तक सोते थे और फिर शरीफ विवाहित लोग अपने सबसे अच्छे कपड़े पहन कर गिरजाघर जाते थे और नौजवानों को धर्म के प्रति उनकी उदासीनता के लिए डांटते-फटकारते थे. गिरजे लौट कर वे घर आते, कीमे के समोसे खाते और फिर शाम तक सोते.
बरसों की संचित थकान के कारण उनकी भूख मर जाती थी इसलिए शराब पीकर वे अपनी भूख चमकाते, तेज वोदका के घूंटों से अपने पेट की आग को भड़काते.
शाम को वे सड़कों पर घूमते फिरते. जिनके पास रबड़ के जूते होते, वे जमीन सूखी होने पर भी उन्हें पहनते और निके पास छतरियां होतीं, वे आसमान साफ होने पर भी उन्हें लेकर चलते.
दोस्तों से मिलते तो फैक्टरी की, मशीनों की और अपने फोरमैन की बात करते, वे ऐसी चीज के बारे में न तो कभी सोचते थे और न बात ही करतेजिसका उनके काम से संबंध न हो. उनके जीवन के नीरस ढर्रे में कभी कभी इक्का-दुक्का भटकते हुए विचारों की मद्धिम चिंगारियां चमक उठतीं. जब लोग घर वापस लौटते तो अपनी घरवालियों से झगड़ते और बहुधा उन्हें पीटते. नौजवान लोग शराबखानों में या अपने दोस्तों के घर जाते, जहां वे अकार्डियन बजाते, गंदे गीत गाते, नाचते, गालियां बकते और शराब पीकर मदहोश हो जाते कठोर परिश्रम से चूर होने के कारण नशा भी उनको जल्दी चढ़ता और एक अज्ञात झुंझलाहट उनके सीनों में मचलती और बाहर निकलने के लिए बेचैन रहती. इसी लिए मौका पाते ही वे दरिंदों की तरह एक दूसरे पर टूट पड़ते और अपने दिल की भड़ास निकालते. नतीजा यह होता कि खूब मारपीट और खून-खराबा होता कभी-कभी किसी को बहुत सख्त चोट लग जाती और कभी तो इन लड़ाइयों में किसी की जान भी चली जाती.
उनके आपस के संबंधों में शत्रुता की एक छिपी हुई भावना छायी रहती. यह भावना उतनी ही पुरानी थी जितनी कि उनके अंग-अंग की बेहद थकान. आत्मा की ऐसी बीमारी वे अपने बाप-दादा से उत्तराधिकार में लेकर पैदा होते थे और यह परछाई की तरह कब्र तक उनके साथ लगी रहती थी. इसके कारण वे ऐसी बेतुकी क्रूर हरकतें करते थे कि घृणा होती थी.
छुट्‌टी के दिन नौजवान लोग बहुत रात गए घर लौटते, उनके कपड़े फटे होते, मिट्‌टी और कीचड़ में सने हुए, आंखें चोट से सूीे हुई और नाक से खून बहता हुआ. कभी वे बड़ी कुत्सा के साथ इस बात की डींग मारते कि उन्होंने अपने किसी दोस्त को कितनी बुरी तरह पीटा था और कभी उनका मुंह लटका होता और वे अपने अपमान पर गुस्सा होते या आंसू बहाते. ऊे शराब के नशे में चूर होते, उनकी दशा दयनीय, दुखद और घृणास्पद होती. बहुधा माता-पिता अपने बेटों को किसी बाड़ के पास या शराबखाने में नशे में चूर पड़े पाते. बड़े-बूढ़े उन्हें बुरी तरह कोसते, उनके नरम वोदका के कारण शिथिल हुए शरीरों पर घूंसे लगाते, फिर उन्हें घर लाकर किंचित स्नेह के साथ बिस्तर पर सुला देते ताकि जब मुंह अंधेरे ही काली नदी की तरह भोंपू का कर्कश स्वर हवा में फिर गूंजे तो वे उन्हें काम पर जाने के लिए जगा दें.
वे अपने बच्चों को कोसते और बड़ी निर्ममता से पीटते थे, पर नौजवानों की मारपीट और उनकी दारू पीने की लत को स्वाभाविक माना जाता था. इन लोगों के पिता जब खुद जवान थे तब वे भी इसी तरह लड़ते झगड़ते और शराब पीते थे और उनके माता पिता भी इसी तरह उनकी पिटाई करते थे. जीवन हमेशा से इसी तरह चलता आया था. जीवन का प्रवाह गंदे पानी की धारा के समान बरसों से इसी मंद गति के साथ नियमित रूप से जारी था, दैनिक जीवन पुरानी आदतों, पुराने संस्कारों, पुराने विचारों के सूत्र में बंधा हुआ था. और इस पुराने ढर्रे को कोई बदलना भी तो नहीं चाहता था.
कभी-कभी फैक्टरी की बस्ती में कुछ नए लोग भी आकर बस जाते थे. शुरू-शुरू में तो उनकी ओर ध्यान जाता, क्योंकि वे नए होते, फिर धीरे-धीरे केवल इस कारण उनमें हल्की और ऊपरी सी दिलचस्पी बनी रहती कि वे उन जगहों के बारे में बताते जहां पहले काम कर चुके थे. परंतु शीघ्र ही उनका नयापन खत्म हो जाता, लोग उनके आदी हो जाते और उनकी ओर विशेष ध्यान देना छोड़ देते. ये नए आए हुए लोग जो कुछ बताते उससे इतना स्पष्ट हो जाता कि मेहनतकशों का जीवन हर जगह एक जैसा ही है और यदि यह सच है तो फिर बात ही क्या की जाए?
पर कुछ नए आने वाले ऐसी बातें बताते जो बस्तीवालों के लिए अनोखी होतीं. उनसे बहस तो कोई न करता, पर वे उनकी अजीब-अजीब बातें शंका के साथ सुनते. ऊे जो कुछ कहते, उससे कुछ लोगों को झुंझलाहट होती, कुछ को एक अस्पष्ट सा भय अनुभव होता और कुछ से हृदय में आशा की एक हल्की सी किरण जगमगा उठती और इसी कारण वे और ज्यादा शराब पीने लगते ताकि जीवन की गुत्थी को और उलझा देने वाली आशंकाओं को दूर भगा सकें.
किसी नवागंतुक में कोई असाधारण बात नजर आने पर बस्ती वाले इसी कारण उससे असंतुष्ट रहने लगते और जो कोई भी उनके जैसा न होता उससे वे सतर्क रहते. उन्हें तो मानो यह डर लगता कि वह उनके जीवन की नीरस नियमितता को भंग कर देगा जो कठिनाइयों के बावजूद कम से कम निर्विघ्न तो था. लोग इस बात के आदी हो गए थे कि जीवन को बोझ उन पर हमेशा एक जैसा रहे और चूंकि उन्हें छुटकारा पाने की कोई आशा नहीं थी, इसलिए वे यह मानते थे कि उनके जीवन में जो भी परिवर्तन आएगा वह उनकी मुसीबतों को और बढ़ा देगा.
नए विचार व्यक्त करने वालों से मजदूर चुपचाप कन्नी काटते रहते. इसलिए ये नवागंतुक वहां से कहीं और चले जाते. अगर कुछ यहीं रह जाते तो वे या तो धीरे धीरे अपने साथियों जैसे ही हो जाते, या फिर कटे-कटे रहते...
कोई पचास वर्ष तक इसी प्रकार की जीवन बिताने के बाद आदमी मर जाता.

1 comment:

दिनेशराय द्विवेदी said...

मक्सिमोविच गोर्की की इस महान रचना को हिन्दी अंतर्जाल पर लाने के लिए बहुत बहुत आभार। अब लगने लगा है कि हिन्दी अंतर्जाल वास्तव में समृद्धि की ओर बढ़ रहा है।