यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Wednesday, March 3, 2010

संस्‍कार की थैली

मेरी मां ने दी मुझे संस्‍कार की एक थैली
जिसे मेरी नानी ने दी थी मेरी मां को
उसमें बहुत सारी थीं रूढियां-परंपराएं
जिसके तहत चलने को कहा मुझे
मैं संस्‍कारी, मां की अनुयायी
निभाती रही ये परंपराएं
मानती रही ये रूढियां
कई लोग रोके गए मेरे चौखट से
कई लोगों ने कोसा, अनुताप किया
एक दिन मैं बहुत क्रोधित हुई
वो रूढियां-परंपराएं फिर से डालीं
मैंने उस संस्‍कार की थैली में
और जाके फेंक दी नाले में

इंतजार
(मणिपुर मांओं के लिए)

वहां पर रोज कई बेटों का जन्‍म होता है
दूध पिलाती है मां
इंतजार करती है बडा होने का
बेटा बडा होता है, पहली बार घर से
निकलता है
तो वापस नहीं आता
इंतजार करती रहती है मां
हाथ में मशाल, आंखों में आस लिए
आता नहीं कोई वापस
वापस आता है तो
शव.... कई वर्षों के इंतजार के बाद


प्रियोबती निंगथौजा

प्रियोबती निंगथौजा महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा में हिंदी भाषा एवं साहित्‍य में अध्‍ययनरत छात्रा है.

लेखिका का पता है: महात्‍मा गांधी अंतर्राष्‍ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा महाराष्‍ट्र 442001

साभार : परिकथा

2 comments:

sonal said...

सच कहा ये संस्कार की थैली कभी कभी सर पर लादे बोझ का रूप लेती है , जो उचित और अनुचित का अंतर भी मिटा देता है ,उस थैली से कुछ सामन मैंने भी फिलहाल फेका है पर कुछ अनमोल संस्कार बचा लिए है अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए

sonal said...

सच कहा ये संस्कार की थैली कभी कभी सर पर लादे बोझ का रूप लेती है , जो उचित और अनुचित का अंतर भी मिटा देता है ,उस थैली से कुछ सामन मैंने भी फिलहाल फेका है पर कुछ अनमोल संस्कार बचा लिए है अपनी आने वाली पीढ़ी के लिए