यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, December 31, 2010

मणिपुर की दर्द भरी कहानी

मुझे याद है अगस्त, 2010 में प्रगति मैदान (दिल्ली) में लगा 15वां पुस्तक मेला. मेले का विषय था-पूर्वोत्तर भारत का साहित्य, लेकिन वहां के बारे में कोई भी खास किताब देखने को नहीं मिली. मणिपुर की तो कोई किताब ही नहीं आई. कोई लेखक उधर के मामलों पर अपना क़ीमती व़क्त बर्बाद नहीं करना चाहता. ऐसे में डॉ. वर्मा ने जो काम किया है, वह सराहनीय है. उन्होंने अपने मणिपुर प्रवास की यादों को संजोकर उन्हें उपन्यास की शक्ल दे दी और नाम दिया-उत्तर पूर्व.

अगर आप पूर्वोत्तर भारत को क़रीब से जानना-समझना चाहते हैं तो डॉ. लाल बहादुर वर्मा द्वारा लिखित उपन्यास उत्तर पूर्व आपके लिए एक बेहतर मददगार साबित हो सकता है. यह डॉ. वर्मा की वह जीवंत कृति है, जिसमें मणिपुर का इतिहास, संस्कृति, समाज एवं राजनीति सब कुछ है. उत्तर पूर्व का मुख्य आधार ही मणिपुर है. मणिपुर यूनिवर्सिटी के इर्द-गिर्द बुने इस उपन्यास की शुरुआत में थांगजम मनोरमा को समर्पित एक कविता भी है. जुलाई, 2004 में बलात्कार के बाद मनोरमा की हत्या कर दी गई थी और इसका आरोप भारतीय सेना के जवानों पर लगा था. इस घटना के विरोध में मणिपुर की महिलाओं ने असम रायफल्स के मुख्य फाटक पर निर्वस्त्र होकर प्रदर्शन किया था. उपन्यास के पहले पन्ने पर प्रकाशित कविता उन प्रदर्शनकारी महिलाओं का उत्साह बढ़ाती है. मणिपुर धनुर्धर अर्जुन की ससुराल है. यही नहीं, यहीं पर मोइरांग नामक वह स्थान भी है, जहां आज़ाद हिंद फौज की भारत विजय योजना साकार हुई थी.

यह उपन्यास केंद्र की उपेक्षा का दंश झेल रहे पूर्वोत्तर भारत की चिंता पर रोशनी डालता है. मणिपुर में सेना का राज है. वहां आर्म्ड फोर्सेस स्पेशल पावर एक्ट लागू है. इस एक्ट की आड़ लेकर किसी को पकड़ना, गोली मार देना और महिलाओं के साथ दुष्कर्म सेना के लिए आम बात है. उपन्यास के कुछ पात्र इस एक्ट के शिकार होते हैं. कई परिवारों को इस एक्ट का शिकार होना पड़ता है. उपन्यास बताता है कि शांतिपूर्ण ज़िंदगी जी रहे इराबो को इस एक्ट ने किस तरह प्रभावित किया. बाहर के लोगों, खासकर हिंदीभाषियों को मणिपुर में उपेक्षा की नज़र से देखा और मयांग कहकर संबोधित किया जाता है. बर्मा (उपन्यास का एक पात्र) वहां की संस्कृति में कैसे शामिल होकर धीरे-धीरे घुल-मिल जाता है, यह उपन्यास का अहम हिस्सा है. पूर्वोत्तर के बारे में देश के बाक़ी हिस्से के लोग ज़्यादा नहीं जानते और न ही जानने में दिलचस्पी रखते हैं. चाहे मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल हो या फिर मिजोरम. उत्तर भारतीय तो वहां के लोगों को चाइनीज या नेपाली समझ बैठते हैं.

पूर्वोत्तर की सामाजिक, सांस्कृतिक एवं साहित्यिक पृष्ठभूमि और इतिहास के बारे में भी आम लोगों को बहुत ही कम जानकारी है. यह क्षेत्र राजनीतिक तौर पर भी उतना मज़बूत नहीं है. इन सारी परिस्थितियों को डॉ. वर्मा ने अपने उपन्यास में विभिन्न पात्रों के माध्यम से बहुत सहज ढंग से पेश किया है. इबोहल, बर्मा, इराबो, तनु, आरके, जुही एवं राधा इस उपन्यास के ऐसे पात्र हैं, जिन्होंने वहां की ज़िंदगी को गहराई से जिया और भोगा है. इन पात्रों का चिंतन-मनन उपन्यास के हर पन्ने पर मिलता है. डॉ. वर्मा ने वहां के जीवन, समस्याओं और परंपराओं को बहुत गहराई तक महसूस किया और फिर उसे उपन्यास की शक्ल में सबके सामने पेश किया है. यह हाशिए पर धकेले जा रहे एक राज्य के बारे में सटीक चिंतन है. यही नहीं, लेखक ने इस उपन्यास में पूर्वोत्तर के इतिहास से जुड़ी कई अहम जानकारियां पेश की हैं.

उपन्यास उत्तर पूर्व को पढ़ना केवल उत्तर पूर्व को जानना नहीं है, बल्कि वहां से जुड़ी हर चीज को जानना-समझना भी है. लेखक ने भूमिका में लिखा है, मैंने बहुत से अच्छे-बुरे काम किए हैं पैंसठ वर्षों के दौरान, पर मैं किसी में इतना उजागर नहीं हुआ, किसी ने मुझे इतना नहीं रचा और सजाया-संवारा, जितना उत्तर पूर्व ने. पंडित जवाहर लाल नेहरू ने मणिपुर को लैंड ऑफ ज्वैल कहा था. इस बात को लेखक ने बहुत गहराई से समझा और इसका विश्लेषण भी किया. उपन्यास का प्रत्येक परिच्छेद सुंदर काव्य पंक्तियों से शुरू होता है. मैतै, मणिपुरी और भारतीय होने की त्रिविधा से जूझ रहे मणिपुरियों की मानसिक लड़ाई को लेखक ने जाना. थोपी गई भारतीयता को वहां के लोग कैसे नकारते हैं और झेलते हैं, यह लेखक ने काफी सूझबूझ से बताया है. 336 पृष्ठों के इस उपन्यास में लेखक की सोच और विचारधारा साफ-साफ झलकती है. मैं मूल रूप से पूर्वोत्तर का हूं. उपन्यास पढ़ने के बाद सोचता हूं कि मैंने इसे पहले क्यों नहीं पढ़ा. वहां का नागरिक होने के बावजूद वहां की चीजों के बारे में मुझे इतनी अच्छी समझ नहीं है. उत्तर पूर्व पढ़ने के बाद लगा कि खोजने-समझने के लिए अभी बहुत कुछ बाक़ी है. दरअसल, पूर्वोत्तर के बारे में बहुत कम किताबें देखने-पढ़ने को मिलती हैं. खासकर हिंदी में तो और भी कम. मुझे याद है अगस्त, 2010 में प्रगति मैदान (दिल्ली) में लगा 15वां पुस्तक मेला. मेले का विषय था-पूर्वोत्तर भारत का साहित्य, लेकिन वहां के बारे में कोई भी खास किताब देखने को नहीं मिली. मणिपुर की तो कोई किताब ही नहीं आई. कोई लेखक उधर के मामलों पर अपना क़ीमती व़क्त बर्बाद नहीं करना चाहता. ऐसे में डॉ. वर्मा ने जो काम किया है, वह सराहनीय है. उन्होंने अपने मणिपुर प्रवास की यादों को संजोकर उन्हें उपन्यास की शक्ल दे दी और नाम दिया-उत्तर पूर्व.

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