विगत 18 सितंबर को देश के पूर्वोत्तर में आए भूकंप के बाद दरके मकान, हिलते-डुलते सामान, सीसीटीवी फुटेज, लोगों की प्रतिक्रियाएं और पटना- दिल्ली के दृश्यों से सिक्किम के भूकंप की कहानी बनाकर राष्ट्रीय चैनलों ने कई घंटे दर्शकों को बांधे रखा. सरकार भी चार-छह हेलीकॉप्टर भेज कर खराब मौसम का हवाला देकर बारह घंटे के लिए सो गई. लेकिन रोते-बिलखते अपनों को ढूंढ़ते लोगों तक पहुंचने में देश के ताकतवर मीडिया को चौबीस घंटे से ज्यादा का समय लग गया.
राहत और रसद तो छोड़िए, भूकंप की भयावहता को आंकने में भी केंद्र सरकार को एक दिन से ज्यादा का समय लग गया. घंटों कैबिनेट सचिव दावा करते रहे कि कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है. लेकिन वस्तुस्थिति का आकलन न आपदा प्रबंधन वाले कर पाए, न राहत वाले समय पर पहुंच पाए और न ही मीडिया पहुंच पाया.
जब भूकंप में घायल लोग दम तोड चुके मृतकों की अर्थियां उठ गईं, घरों में डर और सन्नाटा पसर गया, तब 24 घंटे बाद मीडिया पहुंचा. लेकिन उनका दुस्साहस देखिए कि सबने अपने-अपने स्क्रीन के ऊपर में लगाया सिक्किम पहुंची हमारी टीम. मानो वे युगांडा या कैरिबियन आइलैंड पहुंचने की बात कर रहे हों.
इस देश में दो भारत बसते हैं- एक अमीरों का, दूसर गरीबों का. एक उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम का, तो दूसरा पूर्वोत्तर का. एक भारत के लिए सारी नीतियां दिल्ली में बनती हैं. दूसरे भारत के लिए पैसा तो दिल्ली से जाता है, पर उसकी चिंता दिल्ली वैसे ही करता है, जैसे मां-बाप बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में भेज कर करते हैं.
आपको इन दोनों भारत के बीच बढ़ती खाई का एक वाकया सुनाता हूं. कुछ वर्ष पूर्व हमें तवांग जाने का मौका मिला. चीन 1962 की लड़ाई के बाद तवांग को अपना इलाका मानता रहा है. तब पूरे अरुणाचल प्रदेश में इसे बड़ी देखने वहां पहुंच थे.
अरुणाचल में चीने घुसपैठ की खबरें आती रहती हैं, जिसे दिल्ली का शासन नकारता रहता है. हमें उस यात्रा के दौरान भारतीय सेना के बड़े अधिकारी और गांववालों ने घटना के तौर पर देखा जा रहा था, क्योंकि देश-विदेश के हजारों मीडियाकर्मी दलाई लामा की इस तवांग यात्रा को कई कहानियां सुनाई कि कैसे चीनी उनके इलाकों में घुस कर भेड़ बकरी उठा ले जाते हैं और उनकी फसलें बरबाद कर जाते हैं. लेकिन दिल्ली तक उनकी बात पहुंचती नहीं या अनसुनी कर दी जाती है. एक बूढ़े-से आदमी ने कहा कि दिल्ली हमारी न बात सुनती है न समझती है. इससे पहले बीजिंग हमारी चिंता समझ लेता है. उस व्यक्ति की देशभक्ति पर हमें संदेह नहीं था, बल्कि अशांति और अलगाव की चिंताएं साफ झलक रही थीं. हर जगह हमें यही सुनने को मिला कि चीनियों से टक्कर लेने के लिए वे सड़क रेल लाइन और हवाई पट्टी बनाने की मांग करते हैं, लेकिन कोई आश्वासन भी नहीं मिलता. उनकी आवाज घाटियों में गूंज कर रह जाती है.
तवांग से हम सिक्किम पहुंचे, तो वहां भी वहीं सब कुछ सुनने को मिला. गंगटोक में ग्रीनफील्ड अयरपोर्ट बनाने का प्रोजेक्ट वर्षों से चल रहा है लेकिन अब तक बना नहीं. जिसकी वजह से बागडोगरा के एयरपोर्ट से काम चलाना पड़ता है. वहां के प्राकृतिक संसाधनों को बड़ी कंपनियां लूट रही है और वहां के लोग गरीब और अलवागवादी बनते जा रहे हैं.
इन सबके बीच सुकूनदेह बात यह थी कि अंगरेजी के बदले हिंदी वहां संपर्क भाषा थी. स्थानीय भाषा से ज्यादा वहां के लोग हिंदी पर भरोसा करते हैं. अफसोस कि हिंदीपट्टी के नीति निर्धारकों को इनकी कोई चिंता नहीं है और न ही इस देश के मीडिया के नक्शे में पूर्वोत्तर की कोई जगह बनती है. मीडियाकर्मी भूल जाते हैं कि वह भी इसी देश का हिस्सा है. सचाई तो यह है कि राष्ट्रीय मीडिया के संवाददाता पूर्वोत्तर में गुवाहाटी से आगे बढ़ते ही नहीं. ज्यादातर हिंदी चैनलों ने तो गुवाहाटी के ब्यूरो को बंद कर दिया है. हमें पूर्वोत्तर के प्रति इस उपेक्षा को समझना होगा और इसका निदान ढूंढ़ना होगा. इससे पहले कि काफी देर हो जाए हमें उनकी भावनाओं को समझना होगा.
-शंकर अर्निमेष
राहत और रसद तो छोड़िए, भूकंप की भयावहता को आंकने में भी केंद्र सरकार को एक दिन से ज्यादा का समय लग गया. घंटों कैबिनेट सचिव दावा करते रहे कि कोई ज्यादा नुकसान नहीं हुआ है. लेकिन वस्तुस्थिति का आकलन न आपदा प्रबंधन वाले कर पाए, न राहत वाले समय पर पहुंच पाए और न ही मीडिया पहुंच पाया.
जब भूकंप में घायल लोग दम तोड चुके मृतकों की अर्थियां उठ गईं, घरों में डर और सन्नाटा पसर गया, तब 24 घंटे बाद मीडिया पहुंचा. लेकिन उनका दुस्साहस देखिए कि सबने अपने-अपने स्क्रीन के ऊपर में लगाया सिक्किम पहुंची हमारी टीम. मानो वे युगांडा या कैरिबियन आइलैंड पहुंचने की बात कर रहे हों.
इस देश में दो भारत बसते हैं- एक अमीरों का, दूसर गरीबों का. एक उत्तर, दक्षिण, पूर्व और पश्चिम का, तो दूसरा पूर्वोत्तर का. एक भारत के लिए सारी नीतियां दिल्ली में बनती हैं. दूसरे भारत के लिए पैसा तो दिल्ली से जाता है, पर उसकी चिंता दिल्ली वैसे ही करता है, जैसे मां-बाप बच्चों को बोर्डिंग स्कूल में भेज कर करते हैं.
आपको इन दोनों भारत के बीच बढ़ती खाई का एक वाकया सुनाता हूं. कुछ वर्ष पूर्व हमें तवांग जाने का मौका मिला. चीन 1962 की लड़ाई के बाद तवांग को अपना इलाका मानता रहा है. तब पूरे अरुणाचल प्रदेश में इसे बड़ी देखने वहां पहुंच थे.
अरुणाचल में चीने घुसपैठ की खबरें आती रहती हैं, जिसे दिल्ली का शासन नकारता रहता है. हमें उस यात्रा के दौरान भारतीय सेना के बड़े अधिकारी और गांववालों ने घटना के तौर पर देखा जा रहा था, क्योंकि देश-विदेश के हजारों मीडियाकर्मी दलाई लामा की इस तवांग यात्रा को कई कहानियां सुनाई कि कैसे चीनी उनके इलाकों में घुस कर भेड़ बकरी उठा ले जाते हैं और उनकी फसलें बरबाद कर जाते हैं. लेकिन दिल्ली तक उनकी बात पहुंचती नहीं या अनसुनी कर दी जाती है. एक बूढ़े-से आदमी ने कहा कि दिल्ली हमारी न बात सुनती है न समझती है. इससे पहले बीजिंग हमारी चिंता समझ लेता है. उस व्यक्ति की देशभक्ति पर हमें संदेह नहीं था, बल्कि अशांति और अलगाव की चिंताएं साफ झलक रही थीं. हर जगह हमें यही सुनने को मिला कि चीनियों से टक्कर लेने के लिए वे सड़क रेल लाइन और हवाई पट्टी बनाने की मांग करते हैं, लेकिन कोई आश्वासन भी नहीं मिलता. उनकी आवाज घाटियों में गूंज कर रह जाती है.
तवांग से हम सिक्किम पहुंचे, तो वहां भी वहीं सब कुछ सुनने को मिला. गंगटोक में ग्रीनफील्ड अयरपोर्ट बनाने का प्रोजेक्ट वर्षों से चल रहा है लेकिन अब तक बना नहीं. जिसकी वजह से बागडोगरा के एयरपोर्ट से काम चलाना पड़ता है. वहां के प्राकृतिक संसाधनों को बड़ी कंपनियां लूट रही है और वहां के लोग गरीब और अलवागवादी बनते जा रहे हैं.
इन सबके बीच सुकूनदेह बात यह थी कि अंगरेजी के बदले हिंदी वहां संपर्क भाषा थी. स्थानीय भाषा से ज्यादा वहां के लोग हिंदी पर भरोसा करते हैं. अफसोस कि हिंदीपट्टी के नीति निर्धारकों को इनकी कोई चिंता नहीं है और न ही इस देश के मीडिया के नक्शे में पूर्वोत्तर की कोई जगह बनती है. मीडियाकर्मी भूल जाते हैं कि वह भी इसी देश का हिस्सा है. सचाई तो यह है कि राष्ट्रीय मीडिया के संवाददाता पूर्वोत्तर में गुवाहाटी से आगे बढ़ते ही नहीं. ज्यादातर हिंदी चैनलों ने तो गुवाहाटी के ब्यूरो को बंद कर दिया है. हमें पूर्वोत्तर के प्रति इस उपेक्षा को समझना होगा और इसका निदान ढूंढ़ना होगा. इससे पहले कि काफी देर हो जाए हमें उनकी भावनाओं को समझना होगा.
-शंकर अर्निमेष
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