यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, September 23, 2011

देश को खंडित करने वाली यह कैसी भारतीयता


देश 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस का जश्न मनाता है लेकिन इस दौरान देश के पूर्वोत्तर हिस्सों में सार्वजनिक कफ्‌र्यू या पूर्ण बंदी रहेगी जैसा कि पिछले कुछ वर्षों से होता आ रहा है. आशंका है कि हर बार की तरह इस बार भी इस क्षेत्र में राष्ट्रीय मुक्ति के लिए संघर्षरत विभिन्न अलगाववादी संगठन या समूह जनता से आजादी के जश्न का बहिष्कार करने की अपील करेंगे. यहां राष्ट्रीय मुक्ति की परिभाषा इस बात पर निर्भर करती है कि आपका राजनीतिक पक्ष क्य है. यह सच्चाई है कि देश का शेष हिस्सा उनके इस आंदोलन को शायद ही जानता हो या इस बारे में जानने की कोशिश भी करता हो. संयोगवश, राष्ट्रीय मीडिया इन खबरों को ओझल करके जैसा कि वह आम तौर पर करता आया है, शायद यह भी सुनिश्चित कर देगा कि आजादी के जश्न के दौरान इस विडंबना से राष्ट्र चेतना आहत न हो, जो आजादी का जश्न मनाने वाले दिन ही आयोजित की जाती हो. इसके बावजूद भारत के पूर्वोत्तर की यह सच्चाई जरूर ध्यान में रखनी चाहिए जब पूरा देश एक जुट होकर अपनी राष्ट्रीयता (संघर्ष के लिए) को प्रदर्शित और इसकी पुनर्पुष्टि करेगा. 

पूर्वोत्तर की इस परिघटना को सामूहिक राष्ट्र चेतना में दर्ज रखने का एक और कारण है. इसलिए इस तरह का बहिष्कार शेष हिस्सों में जश्न की वास्तविकता का एक अपवाद है. जाने-माने दार्शनिक किर्कगार्ड ने टिप्पणी की थी कि अपवाद न सिर्फ खुद के बारे में बल्कि सामान्य के बारे में भी सामान्य द्वारा किए गए खुलासे से कहीं ज्यादा बयां करता है. इस अपवाद को समझना पूर्वोत्तर ही नहीं बल्कि भारत राष्ट्र के बारे में निष्पक्ष विचार दे सकता है.

अपवार को लेकर आम धारणा रही है कि इस क्षेत्र की जनता में भारत के प्रति दृढ़निष्ठा और समर्पण भाव नहीं है. यही बात सरदार वल्लभभाई पटेल ने जवाहरलाल नेहरू को पत्र में लिखी थी. इतना ही नहीं, पटेल और आम धारणा के मुताबिक वे लोग मंगोलवादी पूर्वोग्रह से ग्रस्त हैं. लिहाजा, इस क्षेत्र में अलगाववादी आंदोलनों की ही उम्मीद की जा सकती है और स्वतंत्रता दिवस का बहिष्कार कोई अप्रत्याशित घटना नहीं कही जा सकती. इस संदर्भ में राष्ट्रवादियों के समक्ष यही सवाल रहा है कि इन लोगों को कैसे एकसूत्र में बांधा जाए, जो राष्ट्र की सीमा में बंधे हैं और जिन्हें जाने-माने राजनीतिक विश्लेषक योगेंद्र यादव मुख्य भूमि के लोगों से सांस्कृतिक और नस्लीय मामले में अलग मानते हैं. राष्ट्रीय एकता को लेकर इस तरह की चिंता उसी समय से इस क्षेत्र के लिए बनाई नीति का मुख्य आधार हो गई जब माना गया कि राष्ट्र एक स्वतंत्र राज्य के रूप में आजाद हुआ है. सैन्य बल की तैनाती और आर्थिक कदम उठाना दरअसल दंड और पुरस्कार की पद्धति है ताकि इस क्षेत्र में जनजातीय और नस्लीय समूहों के रूप में चिन्हित उद्दंड और पिछड़े लोगों को राष्ट्रीय एकता के सूत्र में बांधा जा सके.

इस दृष्टिकोण को अनिवार्य और सर्वसम्मत किया गया लेकिन इसमें राष्ट्र की वह सच्चाई ओझल है जो बेनेडिक्ट एंडरसन के शब्दोें में उसे कल्पित समुदाय बनाती है. दक्षिण एशिया में राष्ट्रवाद का जन्म यहा के लोगों पर यूरोपीय शासकों द्वारा बड़े पैमाने पर थोपे गए औपनिवेशिक अपमान से ही हुआ है. मसलन, दक्षिण एशिया के लोगों पर इस आरोप के जवाब में कि उनका कोई इतिहास नहीं है, राष्ट्रभक्तों (जैसे, बंकिमचंद्र चट्‌टोपाध्याय) ने इतिहास लिखने की कोशिश की और दावा किया कि यहां का इतिहास पांच हजार वर्ष पुरानी सभ्यता से जुड़ा हुआ हे. इतिहास-विज्ञान का यहां मुख्य मानदंड है जिसके आधार पर राष्ट्रवादियों ने राजनीतिक रूप से स्वतंत्रता के अधिकार का दावा किया ताकि भारत को राष्ट्रों के समूह का सदस्य बनाया जाए. इस पुष्टि से जहां भारत को सांस्कृतिक पहचान मिली, वहीं पूर्ववर्ती शासनों का राजनीतिक ढांचा और खास कर ब्रिटिश उपनिवेशवादी शासन का ढांचा नए राज्य की कल्पना का आधार बना. संंस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों आदि की विविधता को देखत ेहुए वांछित राजनीतिक अस्तित्व में एक उदारवाी लोकतंत्र लोकाचार अपनाया गया जिसमें मतभेदों को एक राजनीतिक तंत्र में समेटने की इच्छा जताई गई.

हालांकि इतिहास के मुताबिक, बहु-सांस्कृतिक स्थिति के बावजूद सांस्कृतिक परिकल्पना का एकल-सांस्कृतिक दबाव पर ही जोर रहता है. इसी दबाववश एक उच्च जातीय ब्राह्‌मणवादी राष्ट्रीय माहौल बना जिसने 1920 तथा 1930 के दशकों के दौरान राष्ट्रवादी आंदोलन को (मुस्लिमों और पिछड़ी जातियों/दलितों के प्रश्न पर) खंडित कर दिया. दरअसल, हिंदुओं की परिकल्पना भारत माता (कुछ बंगाली राष्ट्रवादियों की काल्पनिक उपज) के स्वाभाविक बच्चों और मुस्लिमों की गोद लिए बच्चों के तौर पर की गई. यह परिकल्पना नेहरू जैसे उदारवादी राष्ट्रवादी में भी फ्रायडियन चूक की तरह उभरी जब उन्होंने मुस्लिमोंे और ईसाइयों को ऐसे समूह के रूप में चित्रित किया जो देश की साझा संस्कृति, हिंदू धर्म से ज्यादा बड़ी चीज, अपना कर भारतीय बन गए थे. इससे यही संकेत मिलता है कि भारतीयता के संदर्भ में हिंदुओं को मिश्रित संस्कृति अपनाने की जरूरत नहीं है और यह बहु-सांस्कृतिक परिवेश में एकल-संस्कृति पर जोर दिए जाने का ही एक नमूना है.

भारत की सांस्कृतिक परिकल्पना के हिंदुओं (उच्च जातीय/ब्राह्‌मणवादी) रूप ने 20वीं सदी के दक्षिण एशिया में राष्ट्रवादी राजनीति में फूट पैदा की तो इंडिक सिविलाइजेशन (उपर्युक्त सांस्कृतिक बदलाव) की धारणा ने राष्ट्र की परिकल्पना से ही पूर्वोत्तर को अलग-थलग रखा. एक पूर्व केंद्रीय मंत्री का मानना है कि दक्षिणपूर्व एशिया भारत के पूर्वोत्तर से ही शुरू होता है. हानिरहित सा दिखने वाला यह नजरिया पूर्वोत्तर के सांस्कृतिक अलगाव को रेखांकित करता है. आखिर दक्षिण एशिया ही इंडिक सिविलाइजेशन का ही घर है और दक्षिण पूर्व एशिया को अक्सर एक ऐसे स्थान के रूप में देखा जाता है जो अतिथि सभ्यता की छाप है, खास कर इंडिक सिविलाइजेशन और सिनिक (चीनी) सिविलाइजेशन की छाप रखता है. पूर्वोत्तर के लोगों को मुख्य हिस्से से सांस्कृतिक और नस्लीय तौर पर भिन्न मानना पूर्वोत्तर की बाह्‌यता का साक्ष्य है. राष्ट्रीय मीडिया से इस क्षेत्र की सामान्य अनुपस्थिति भी इसी तरह के विलगाव का सूचक है.

इस तरह का सांस्कृतिक विलगाव राजनीतिक विलगाव के एक अन्य रूप से परिपूरित होता है. इसक बेहतरीन मिसाल कुख्यात साशस्त्र बल विशेष शक्ति अधिनियम है जिसके तहत कानून और व्यवस्था बहाल करने के लिए है जो प्रदेशिक सूची में है, सेैनिकों की तैनाती का अधिकार है, किसी भी राज्य में है. देश की सुरक्षा और एकता के लिए खतरा बनने वाले सशस्त्र विद्रोहियों से निपटने के लिए संविधान में आपात तैनाती के बनने वाले सशस्त्र विद्रोहियों से निपटने के लिए संविधान में आपात तैनाती के बनने वाले सशस्त्र विद्रोहियों से निपटने के लिए संविधान में आपात तैनाती के प्रावधान (अनुच्छेद 352) पर विचार किया गया है जो राज्य के आंतरिक मामलों में सेना के दखल की व्यवस्था करता है. हालांकि इस अधिनियम पर दिए गए सुप्रीम कोर्ट के फैसले (1997) में साफ कहा गया है कि सशस्त्र विद्रोहियों के कारण जिन-जिन जगहों पर यह अधिनियम लागू किया गया हे वहां अशांत स्थिति प्रदर्शित करने के लिए कोई तथ्यात्मक साक्ष्य नहीं मिला है. लेकिन अब भी कई लोग यह कह रहे हैं कि वहां सशस्त्र विद्रोही मौजूद हैं और उन्हें कुचलने के लिए सशस्त्र बलों का इस्तेमाल जरूरी है. असल में, उदारवादी लोकतंत्र की संवैधानिक भावना ऐसी कानूनी कल्पना के आधार पर ही सैन्य तैनाती को कानूनन जायज ठहराती है. सशस्त्र उग्र वामपंथियों की तुलना में पूर्वोत्तर के विद्रोहियों से कम खतरा लगता है लेकिन लोकतांत्रिक राज्य आपात स्थिति लागू करते हुए पूर्वोत्तर में ही कानून-व्यवस्था की समस्या से निपटने के लिए सैनिकों की तैनाती करता है, वह भी आधी शताब्दी से ज्यादा समय से.

बीसवीं सदी में उपनिवेशवाद-विरोधी आंदोलन का हवाला देते हुए ज्यां पॉल सॉत्र ने कहा कि बहिष्कृत अपनी राष्ट्रीयता विशिष्टता की पुष्टि करते हैं. कहने की जरूरत नहीं कि इस क्षेत्र में उपनिवेशवाद के बाद के भारतीय गणराज्य में उपजे सशस्त्र विद्रोह इसका उदाहरण है. इसलिए हर किसी के लिए स्वतंत्रता दिवस के जश्न को सार्थक बनाने के संदर्भ में इन विलगाव पर सचमुच ध्यान दिए जाने की जरूरत है.

-बिमोल अकोइजम
प्रोफेसर, जवाहरलाल नेहरू विश्‍वविद्यालय
bimol_akoijam@yahoo.co.in

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