भारत के लाखों दिलों की धड़कन एवं असम की मधुर आवाज़ डॉ. भूपेन हजारिका का बीते पांच नवंबर को निधन हो गया. भूपेन दा असम के जन सांस्कृतिक राजा का नाम है, जो हमारे दिल पर राज करता रहा, जिसकी आवाज़ हमें मंत्रमुग्ध करती रही. उन्होंने अपने संगीत के ज़रिये असम की मिट्टी की सौंधी खुशबू फिज़ा में घोल दी. भूपेन दा की आवाज़ में वह बंजारापन है, जो उस्तादों से लेकर जनमानस तक को अपना क़ायल बना लेता है. अपनी आवाज़ को सबकी आवाज़ बना देता है. इस एक शख्स में कई शख्सियतें समाई हुई थीं. बुद्धिजीवी, संगीतकार, उत्कृष्ट गायक, संवेदनशील कवि, अभिनेता, लेखक, निर्देशक, समाज सेवक और न जाने कितने रूप.
भूपेन दा का जन्म 8 सितंबर, 1926 को असम के सदिया में एक शिक्षक परिवार में हुआ था. बचपन में पिता शंकर देव का उपदेश ज़्यादातर गेय रूप में प्राप्त होता था. उन्हीं दिनों उनके मन में संगीत ने अपना घर बना लिया. वह ज्योति प्रसाद अग्रवाल, विष्णु प्रसाद शर्मा और फणि शर्मा जैसे संगीतविदों के संपर्क में आकर लोकगीत की तालीम लेने लगे. उन्होंने केवल 13 साल 9 महीने की उम्र में मैट्रिक की परीक्षा तेजपुर से पास की और आगे की पढ़ाई के लिए 1942 में गुवाहाटी के कॉटन कॉलेज में दा़िखला लिया. अपने मामा के घर में रहकर पढ़ाई की. इसके बाद वह बनारस चले आए और बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र से स्नातक और स्नातकोत्तर किया. साथ ही अपने संगीत के स़फर को भी जारी रखा और चार वर्षों तक संगीत भवन से शास्त्रीय संगीत की तालीम भी लेते रहे. वहां से अध्यापन कार्य से जुड़े रहे. उन्हीं दिनों गुवाहाटी और शिलांग रेडियो से भी जुड़ गए. उनका तबादला दिल्ली आकाशवाणी में हो गया. वह अध्यापन कार्य छोड़कर दिल्ली आ गए. भूपेन दा की एक ख्वाहिश थी कि वह जर्नलिस्ट बने. उन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात संगीत नाटक अकादमी के अध्यक्ष नारायण मेनन से हुई. भूपेन दा की कला और आशावादिता से वह ़खासा प्रभावित हुए और उन्हें सलाह दी कि वह विदेश जाकर जर्नलिज्म में पीएचडी करें. भूपेन दा ने उनकी सलाह मान ली और कोलंबिया विश्वविद्यालय में मास कम्यूनिकेशन में पीएचडी करने चले गए. मेनन साहब ने स्कॉलरशिप दिलाने में का़फी मदद की. कोलंबिया में पढ़ाई के साथ-साथ होटल में काम किया और लघु फिल्मों में संवाद भी बोले. इन सब कामों से वह लगभग 250 डॉलर कमा लेते थे, जिससे उनके शौक़ भी पूरे हो जाया करते थे. उन्हीं दिनों उनकी मुलाक़ात राबर्ट स्टेंस और राबर्ट फेल्हरती से हुई जिनके संपर्क में उन्हें फिल्मों के बारे में का़फी कुछ सीखने का मौक़ा भी मिला. जगह-जगह के लोक संगीत को संग्रह करना और सीखना भूपेन दा के शा़ैकों में सबसे ऊपर था.
एक दिन भूपेन दा एक सड़क से गुज़र रहे थे, तभी अमेरिका के मशहूर नीग्रो लोकगायक पॉल रॉबसन गाते हुए दिखाई दिए. वह गाए जा रहे थे. ओ मेन रिवर यू डोंट से नथिंग, यू जस्ट किप रोलिंग एलोंग. पॉल के साथ मात्र एक गिटार वादक और एक ड्रम था. कोई इंस्ट्रूमेंट नहीं था. पॉल की आवाज़ और उनका गाया यह गाना भूपेन दा को इतना अच्छा लगा कि उन्होंने इससे प्रेरित होकर ओ गंगा तुम बहती हो क्यूं रचना का सृजन किया. पॉल से उनकी जान पहचान भी हो गई. पॉल से वह नीग्रो लोकगायकी के सुर भी सीखने लगे, मगर पॉल की दोस्ती थोड़ी महंगी पड़ी और 7 दिन के लिए पॉल के साथ जेल की हवा खानी पड़ी. बहरहाल, हजारिका अपनी शिक्षा पूरी कर भारत लौट आए.
भूपेन दा की रचनाओं की वेदना की गहराई का अनुमान इसी बात से लगाया जा सकता है एक बार जब वह नगा रिबेल्स से बात करने गए तो अपनी एक रचना मानुहे मानुहर बाबे को वहां के एक नगा युवक को उन्हीं की अपनी भाषा में अनुवाद करने को कहा और जब उन लोगों ने इस गीत को सुना तो सभी की आंखों में आंसू आ गए. भूपेन दा के इस गीत के बंगला अनुवाद मानुष मनुषेरे जन्मे को बीबीसी की तऱफ से सांग ऑफ द मिलेनियम के ़िखताब से नवाज़ा गया. इस गीत के ज़रिये भूपेन दा का कवि रूप का चिंतन हमारे सामने आता है. उन्होंने बतौर संगीतकार अपनी पहली हिंदी फिल्म आरोप (1974) साईन की. उन्होंने लता से नैनों में दर्पण है गवाया. इस गाने के बारे में भूपेन दा का कहना था कि एक दिन जब मैं रास्ते से ग़ुजर रहा था तब एक पहाड़ी लड़के को गाय चराते हुए इस धुन को गाते सुना. इस गाने से मैं इतना प्रभावित हुआ कि मैंने उसी समय इस गाने की ट्यून को लिख लिया. एक लंबे अंतराल के बाद हिंदी में आई उनकी फिल्म रुदाली में एक बार फिर लता ने स्वर दिया. उस अमर गीत दिल हूम हूम करे. इस फिल्म में आशा ने भी एक गीत गाया था. बोल थे-समय धीरे चलो... मैं और मेरा साया में मूल असमिया बोल को हिंदी में अनुवादित किया था गुलज़ार साहब ने. गुलज़ार साहब ने इन सुंदर गीतों को हिंदी भाषी श्रोताओं को पेश कर बहुत उपकार किया. इस एल्बम से गुज़रना यानी भूपेन दा के मधुर स्वरों और शब्दों के असीम आकाश में विचरना है.
अद्भुत प्रतिभा वाला यह कलाकार दक्षिण एशिया के श्रेष्ठतम सांस्कृतिक दूतों में से एक माना जाता था. भूपेन दा ने असम की समृद्ध लोक संस्कृति को गीतों के माध्यम से पूरी दुनिया में पहुंचाया. जब भी हिंदी सिने जगत के लोकगीत की बात आएगी तो भूपेन दा का नाम शीर्ष पर रहेगा. छियासी साल की उम्र में 1992 में उन्हें सिनेमा जगत के सर्वोच्च पुरस्कार दादा साहब फाल्के अवॉर्ड से सम्मानित किया गया. इसके अलावा उन्हें नेशनल अवॉर्ड एज द वेस्ट रीजनल फिल्म (1975), पद्म भूषण (2011), असम रत्न (2009) और संगीत नाटक अकादमी अवॉर्ड (2009) जैसे कई प्रतिष्ठित पुरस्कारों से नवाज़ा जा चुका है. यही नहीं गांधी टू हिटलर फिल्म में महात्मा गांधी के प्रसिद्ध भजन वैष्णव जन को उन्होंने ही अपनी
आवाज़ दी. हिंदी की कई मशहूर फिल्मों में उनका योगदान रहा. इनमें रुदाली, एक पल, दरमियां, दामन, क्यों, पपीहा, साज़, मिल गई मंज़िल मुझे आदि शामिल हैं. एमएफ हुसैन की गजगामिनी का म्यूज़िक भी भूपेन दा ने ही दिया था. आ़िखर, भले ही भूपेन दा सशरीर हमारे बीच नहीं रहे, परंतु उनकी यादें हमारे साथ हैं. भूपेन दा को हार्दिक श्रद्धांजलि.
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