यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Saturday, November 19, 2011

भूपेन हजारिका की एक झलक के लिए


दिल्ली से असम ले जाकर भूपेन हजारिका ने मुझे मानव समुद्र के मायने समझा दिए.

एक बार भूपेन हजारिका मुझे दिल्ली से गुवाहाटी ले गए थे. तब मैं हिंदुस्तान टाइम्स का संपादक था. वह हर साल एक सालाना जलसा करते थे. रास्ते में और शाम को ड्रिंक्स पर उन्होंने अपने बारे में काफी कुछ बताया. उनकी पहली शादी जल्द ही निबट गई थी. दूसरी ने उन्हें खुशमिजाज पति और पिता बनाया.

उस वक्त उन्हें एक गाने के लिए याद किया जाता था. ऐसा नहीं था कि उन्होंने और कुछ नहीं किया था. तमाम तरह की कला गतिविधियों से उनका जुड़ाव था. कम लोग शाम के आसपास पहुंचे थे. और शाम साथ पीते हुए गुजारी थी. अगली दोपहर मैंने सड़कों के दोनों ओर लोगों का हुजूम देखा. ये लोग भूपेन की एक झलक देखने को आए थे. उन्हें एक खुली कार में ले जाया गया, ताकि लोग उन्हें ठीक से देख सकें. मैं पिछली कार में था. एक बड़े मैदान तक हमें जाना था और हर जगह लोग ही लोग थे. इतने लोग मैंने एक साथ नहीं देखे थे. वहां हजारों में नहीं, लाखों में लोग थे. वह तो मानव समुद्र था. मैं मंच पर बैठा था. भाषण पर भाषण सुने जा रहा था. मुझे बोलने को कहा गया तो दो मिनट भूपेन की तारीफ में बोल कर धीरे से खिसक गया था. शहर खाली खाली सा था. एक मुस्लिम आईएएस अफसर मेरे साथ थे. उनके साथ मैं घूमता रहा. एाम को ड्रिंक लिया और उसके परिवार के साथ खाना भी खाया. अगले दिन मैं दिल्ली लौट आया. मैंने भूपेन को शुक्रिया अदा किया कि उन्होंने मुझे मानव वमुद्र के मायने समझाए.


एम एफ हुसैन

नियोगी बुक्स ने कमाल का काम किया हे. उसने हमारे दौर के महानतम पेंटर हुसैन पर कॉफी टेबल बुक तैयार की हे. मैं उन्हें अपने बॉम्बे के दिनों से ही जानता था. तब मैं इलस्ट्रेटेड वीकली निकाल रहा था. वह अपने काम की पब्लिसिटी चाहते थे. और मैं चाहता था कि मेरी पत्रिका कला की दुनिया में जानी पहचानी जाए. ॠो हम दोनों में खूब पटती रही.


हुुसैन एक निम्न मध्यवर्गीय शिया मुस्लिम परिवार से आए थे. लेकिन पैसा खर्च करने के मामले में रॉयल थे. वह सिर्फ सौ के नोट लेकर ही चलते थे. और टैक्सी वाले से पैसे वापस नहीं लेते थे. सब कुछ ठीक चल रहा था. पर हिंदू देवी देवताओं की न्यूड पेंटिंग बनाने के मामले में कट्‌टरपंथी भूल गए कि कोणार्क और खजुराहो उनकी ही परंपरा का हिस्सा हैं. हुसैन को देश छोड़ कर जाना पड़ा. उन्होंने कतर की नागरिकता लेल ी. फिर लंदन में उन्होंने अपनी आखिरी सांस ली. उन्हीं उन्हें दफनाया भी गया. मुझे लगता है कि उनको सुपुर्द ए खाक हिंदुस्तान में करना चाहिए था लेकिन... मैं तो यही कहना चाहूंगा ये रब वो न समझे हैं न समझेंगे मेरी बात.
या दे दिल उनको और या दे मुझे जुबां और..

-खुशवंत सिंह
वरिष्ठ पत्रकार व लेखक



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