
बोडोलैंड की मांग
बोडोलैंड की मांग का समर्थन करने वाले दोनों संगठन समय-समय पर प्रदर्शन और बंद का आह्वान करते रहे हैं. बीते 16 जुलाई को भी गैर बोडो समुदायों ने गुवाहाटी में राजभवन के सामने प्रदर्शन करके शासन का ध्यान अपनी ओर आकर्षित करने का प्रयास किया था. उन्होंने रेलगाड़ियां रोक कर यह बताने की कोशिश की कि बोडोलैंड राज्य की मांग हमने अभी तक नहीं छोड़ी है. बोडो समुदाय के दो चरमपंथी गुट, नेशनल डेमोक्रेटिक फ्रंट ऑफ बोडोलैंड (एनडीएफबी) और वार्तापंथी पृथक बोडोलैंड राज्य की मांग कर रहे हैं. जबकि केंद्रीय गृह मंत्रालय के प्रवक्ता अब तक यही कहते आए हैं कि अलग राज्य बनाने का सवाल ही नहीं पैदा होता. बीटीसी इलाके में गैर बोडो समुदायों की नाराजगी का एक प्रमुख कारण शायद यह भी है कि वहां स्वायत्त शासन लागू होने के बाद से कानून-व्यवस्था की स्थिति पहले से बदतर हो गई है. गैर बोडो समुदाय अक्सर अपने साथ भेदभाव होने और शिकायत करने पर पुलिस द्वारा उचित कार्रवाई न किए जाने का आरोप लगाते रहे हैं.
स्थानीय बनाम बाहरी
असम में फैली इस हिंसा की जड़ में बाहरी घुसपैठ भी है. इसी के चलते यहां के मूल निवासियों और बांग्लादेश से आए लोगों के बीच हिंसा भड़की. राज्य में जनसंख्या का स्वरूप बदल रहा है. बांग्लादेश की सीमा से सटे धुबड़ी जिले में यह एक बड़ी समस्या बन चुका है. 2011 की जनगणना में यह जिला मुस्लिम बहुल हो चुका है. 1991-2001 के बीच असम में मुसलमानों की आबादी 15.03 प्रतिशत से बढ़कर 30.92 प्रतिशत हो गई है. राज्य में 42 से अधिक विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं, जहां बांग्लादेशी मुस्लिम घुसपैठिए निर्णायक बहुमत में हैं. हाल में राज्य में विधानसभा चुनावों का यह कहकर बहिष्कार किया गया कि उसमें ज़्यादातर प्रवासियों की भागीदारी है. 1966 के बाद राज्य में आए प्रवासियों के चुनाव में हिस्सा लेने पर रोक लगा दी गई थी.
रोज़ी-रोटी के सवाल
पिछले कुछ समय में असम में बोंगाइगांव, कोकराझाड़, बरपेटा और कछार के करीमगंज एवं हाईलाकड़ी में मुस्लिमों की आबादी बढ़ी है. ज़मीन और रोज़गार में लगातार कमी आ रही है. बोडो जनजातियों की ज़मीन पर अतिक्रमण आम बात है. मैदानी ज़मीन पर खेती, पशुपालन और हैंडलूम एवं हस्तशिल्प का काम मुख्य रूप से बोडो जनजातियों की आजीविका का साधन है. बोडो को राज्य के कारबीआंगलोंग और नॉर्थ कछार हिल इलाके में जनजातीय नहीं माना जाता और न मैदानी क्षेत्रों में, जबकि बोडो जनजातियों के लिए राज्य में स्वायत्त परिषद बनी और शेष पूरे देश में वे अनुसूचित जनजातियों की सूची में शामिल हैं.
हिंसा की पुरानी आग
कोकराझाड़ में दंगा और हिंसा कोई नई बात नहीं है. इसका एक इतिहास रहा है. 1993 में बोडोलैंड में एक बड़े नरसंहार को अंजाम दिया गया, जिसमें 50 लोगों को अपनी जान गंवानी पड़ी. मारे गए लोग कोकराझाड़ एवं बोंगाई गांव निवासी बांग्लादेशी मुसलमान थे. इसके बाद मई 1994 में हिंसा ने फिर अप्रवासी मुसलमानों को शिकार बनाया, जिसमें एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई. हिंसा का यह दौर यही नहीं थमा. 1996 में बोडो एवं आदिवासी शरणार्थियों के बीच हुई हिंसा और आगजनी की घटनाओं में करीब 200 लोगों की मौत हुई और 2.2 लाख से भी अधिक लोगों को बेघर होना पड़ा. फिर 2008 में उदलगुड़ी जिले में अप्रवासी मुसलमानों एवं बोडो आदिवासियों के बीच हुए संघर्ष में एक सौ से अधिक लोगों की मौत हुई.
जब बीटीसी (बोडोलैंड टेरटोरिएल काउंसिल) बनी थी तो सरकार को यह सोचना चाहिए था कि बीटीसी के इलाके में अल्पसंख्यक भी हैं, लेकिन सरकार ने दूरदर्शिता का परिचय नहीं दिया. गैर बोडो को भी उनके अधिकार मिलने चाहिए. बोडोलैंड बनने से वहां के अल्पसंख्यकों को उनका हक नहीं मिलेगा. दूसरी बात यह है कि माइग्रेशन को पूरी तरह रोकना होगा, इसके लिए सरकार को कठोर क़दम उठाने होंगे.
-दिनकर कुमार, संपादक, द सेंटिनल, असम.
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