यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Friday, August 10, 2012

अशांति का शिकार पूर्वोत्‍तर


भारत का पूर्वोत्‍तर सर्वाधिक दहकता हुआ क्षेत्र है. करीब 250 प्रजातियां अपने पहचान की लडाई में एक-दूसरे के साथ-साथ नई दिल्‍ली के साथ भिडी हुई हैं. इनमें कुछ भारत के बाहर भी जाना चाहती हैं. धार्मिक आधार पर हिंदुओं, मुसलमानों और ईसाइयों का अनुपात कमोवेश बराबर का है. घुसपैठ से समस्‍या और बढी है. यह घुसपैठ ज्‍यादातर बांग्‍लादेश या पुराने पूर्वी पाकिस्‍तान से होती रही है. भाषाई आधार पर राज्‍यों का पुनर्गठन होने पर 1955 में असमियों को अलग असम राज्‍य मिला था लेकिन अपने ही असम में मूल असमी अल्‍पसंख्‍यक बन गए हैं. असम के एक हिस्‍से में बोडो प्रजाति के लोगों ने सांप्रदायिक उन्‍माद फैला रखा है. बंगाली मुसलमान इनके निशाने पर हैं. राहत शिविरों में इन बंगाली मुसलमानों पर हमला किया जा रहा है. दरअसल बोडो अपनी जमीन वापस चाहते हैं. 1947 में अंग्रेजों के जाने के बाद मूल निवासियों की जिस जमीन पर घुसपैठिए और बाहरी लोगों ने कब्‍जा कर रखा है, बोडो उस जमीन की वापसी चाहते हैं. बोडो प्रजाति के लोगों को स्‍वायत्‍तशासी काउंसिलों के जरिए स्‍वायत्‍तता मिली हुई है. फिर भी दूसरी प्रजातियों की तरह अलग बोडो राज्‍य की मांग भी कर रहे हैं. जब कुछ प्रजातियों ने असम से अलग होकर अपने अपने अलग राज्‍य अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर, मेघालय और त्रिपुरा का गठन किया तो बोडो लोगों ने असम में ही बने रहना बेहतर माना था लेकिन गुवाहाटी का प्रशासन बोडो प्रजाति की भिन्‍नता के साथ तालमेल नहीं बैठा सका. बोडो द्वारा हिंसा का सहारा लेने के कारण बंगाली मुसलमानों को भारी तबाही झेलनी पडी है. हाल में बोडो लोगों के गढ कोकराझाड का दौरा करने के बाद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को कहना पडा कि असम की हिंसा देश पर एक धब्‍बा है लेकिन इसके लिए नई दिल्‍ली असम को दोषी कैसे ठहरा सकती है? हकीकत तो यह है कि यह धब्‍बा तो केंद्र पर है, जिसने पूर्वोत्‍तर की स्थिति को सही तरीके से नहीं निपटाया. नई दिल्‍ली का पसंदीदा फार्मूला है कि पूर्वोत्‍तर में जो कुछ भी होता है, वह कानून एवं व्‍यवस्‍था की समस्‍या है. शांति बहाली का जिम्‍मा पहले से ही सेना के हाथों में है. राज्‍य अर्द्धसैनिक बल के नियंत्रण में है. यहां तक कि राज्‍य पुलिस को भी हमेशा सेना का मुंह ताकना पडता है जो बराबर कहती रहती है कि सारी समस्‍याएं राजनीतिक हैं. पूर्वोत्‍तर की समस्‍याओं को सुलझाने के लिए केंद्र ने वहां गृह मंत्रालय के कुछ अधिकारियों को भेजने के सिवा और कुछ नहीं किया है. सेना को मनमर्जी तरीके से काम करने की पूरी छूट है.

उसके पास आर्म्‍ड फोर्स स्‍पेशल पावर एक्‍ट से मिले अधिकार हैं. इन अधिकारों के बूते सेना के जवानों को महज संदेह के आधार पर किसी को भी मार डालने की आजादी है. प्रताडित लोग पूरे तौर पर सेना के भरोसे हैं. क्षेत्र की अक्षम सरकार और प्रशासन हर मामले में सशस्‍त्र बल पर आश्रित है. ऐसे में बार बार यह सुनने को मिलता है कि समस्‍याग्रस्‍त इलाके में सेना देर से पहुंची. यह सुन कर कोई आश्‍चर्य नहीं होता. असम के मुख्‍यमंत्री तरुण गोगोई ने हाल की घटना के बाद सार्वजनिक तौर पर कहा है कि सेना देर से पहुंची और जब बेहद जरूरत थी उस वक्‍त केंद्र ने करीब आधे अर्द्धसैनिक बल को वापस बुला लिया है. अगर यह रिपोर्ट सही है तो बुनियादी सवाल खडा होता है. सवाल यह है कि क्‍या सेना सिविल अधि‍कारियों की मदद करने को बाध्‍य नहीं है जैसा कि कानून में शामिल है या फिर सेना मेरिट के आधार पर अलग-अलग मामलों में अलग-अलग फैसला करेगी. इस मामले में राजनीतिक दलों के बीच सहमति की जरूरत है लेकिन वे आपस में लडने में व्‍यस्‍त हैं और मूल मुद्दे से परहेज कर रहे हैं. साफ तौर पर कहें तो स्थिति से कैसे निपटा जाए, इसके बारे में राजनीतिक दलों के पास कोई समझ नहीं है. वे मूल मु्द्दे से परहेज कर रहे हैं. केंद्र में कांग्रेस की सरकार हो या भाजपा की किसी भी सरकार ने जब कभी समाधान तलाशने की कोशिश की तो वह समस्‍या की गहराई में नहीं गई. नागालैंड क्षेत्र का सबसे बडा राज्‍य है.

आजादी के समय से नई दिल्‍ली और कोहिमा के बीच युद्धविराम की स्थिति बनी हुई हे. दोनों पक्ष भारत की सार्वभौमिकता से समझौता किए बिना स्‍वतंत्र दर्जा दिए जाने पर विचार विमर्श करते रहते हैं. समाधान की तलाश में वे बार बार प्रयास करते हैं लेकिन कोई नतीजा नहीं निकलता. अरुणाचल प्रदेश भारत का राज्‍य है. इसकी सीमा चीन से सटी हुई हे. फिर भी चीन अरुणाचल प्रदेश के लिए अलग से वीजा जारी करता है और भारत सरकार उसे स्‍वीकार करती है लेकिन चीन से वीजा लेकर आने वालों को भारत सरकार कहीं जाने से कभी नहीं रोकती. मणिपुर में सूर्यास्‍त के बाद कर्फ्यू लग जाता है वर्षों से जारी इस प्रतिबंध से यहां की जनता अभ्‍यस्‍त हो चुकी है, लेकिन इरोम शर्मिला एएफएसपीए हटाने की मांग को लेकर पिछले दस सालों से भूख हडताल पर है. चूंकि पूर्वोत्‍तर राज्‍यों में केंद्र सरकार पूरे तौर पर सेना पर आश्रित है, इस कारण वह कडे कानूनों में जरा सी रियायत देने को भी तैयार नहीं होती. कुछ साल पहले एक कमेटी ने इस कानून को हटाने का सुझाव दिया था लेकिन अंतत- जीत सेना की हुई. केंद्र को सेना के आगे झुकना पडा. मेघालय में जातीय पहचान की समस्‍या है लेकिन यहां के लोग शांति का लाभ देख चुके हैं और वे हिंसा के पुराने दौर में लौटना नहीं चाहते. यहां विद्रोही गतिविधियां चलती रहती हैं लेकिन नई दिल्‍ली इस बात से संतुष्‍ट है कि दोनों पडोसी देश बांग्‍लादेश और म्‍यांमार अब विद्रोहियों को पनाह नहीं दे रहे. समस्‍या को जटिल बनाने वाली एक समस्‍या घुसपैठ की है.

पचास के दशक में अपना वोट बैंक बढाने के लिए कांग्रेस ने खुद इस घुसपैठ को बढावा दिया था. तत्‍कालीन कांग्रेस अध्‍यक्ष देवकांत बरुआ ने मुझसे कहा था कि वे यहां अली और कुली लाएंगे और चुनाव जीतेंगे. विदेशियों की पहचान और वोटर लिस्‍ट से उनका नाम हटाने के लिए कांग्रेस को कम से कम राजीव गांधी और ऑल असम स्‍टूडेंट्स यूनियन के बीच हुए करार को लागू करना चाहिए था लेकिन मुख्‍यमंत्री तरुण गोगोई ऐसा नहीं करना चाहते क्‍योंकि ये विदेशी वोटर चुनाव में कांग्रेस को बढत दिलाते हैं. वे पिछले दो चुनाव बाहरी वोटरों की मदद से ही जीते हैं. बांग्‍लादेशी आर्थिक कारणों से भारत आते हैं. अगर वर्क परमिट की व्‍यवस्‍था होती तो वे यहां आते और काम कर अपने देश को लौट जाते लेकिन ऐसी कोई व्‍यवस्‍था नहीं है. फिर भी उनकी समस्‍या को पूर्वोततर राज्‍यों की जटिलता से जोड कर नहीं देखा जाना चाहिए. पूर्वोत्‍तर की समस्‍या पर केंद्र को अभी गंभीरता से विचार करना है. 

-कुलदीप नैयर
वरिष्‍ठ पत्रकार

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