यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Thursday, August 23, 2012

पूर्वोत्‍तर की सुनें पुकार


जब कभी मेरा पूर्वोत्‍तर जाना होता है, तो वहां के लोग मुझसे यही कहते हैं प्‍लीज, हमें तवज्‍जों दिलाने में मदद करें. हमारे साथ भी अन्‍य भारतीयों की तरह बर्ताव हो, बाहरी लोगों की तरह नहीं. वे लोग ऐसा क्‍यों महसूस करते हैं? आखिर हम देश के 28 में से इन 7 राज्‍यों की आवाज बेहतर ढंग से क्‍यों नहीं सुन पाते? आज डिजिटली जुडाव के इस दौर में भी भारत का यह हिस्‍सा खुद को अलग-थलग क्‍यों महसूस करता है? हाल ही में असम के दंगे और देश के कुछ शहरों से पूर्वोत्‍तर के आतंकित लोगों के सामूहिक पलायन जैसी घटनाएं बताती हैं कि हम उनकी बात नहीं सुन पा रहे हैं. इस क्षेत्र के कई मसले हैं, लेकिन उन्‍हें मुख्‍यधारा में तवज्‍जों नहीं मिल पाती. उनकी समस्‍याएं बढती जाती हैं और हम उनके बारे में कदाचित तभी चर्चा करते हैं, जब पानी सिर से उपर निकल जाता है.

हमें पूर्वोत्‍तर के लोगों की समस्‍याओं पर गौर करने के अलावा उनके प्रति सहानुभूति व करुणा दर्शाने की भी जरूरत है. मैं इस तरह की राजनीतिक जुमलेबाजियों का इस्‍तेमाल नहीं करना चाहता कि हम सब एक हैं और हमें पूर्वोत्‍तर के लोगों को अपने भाई-बहनों की तरह समझना चाहिए. सच कहूं तो इस तरह के उपदेशों का कोई अर्थ भी नहीं है. भारत एक देश हो सकता है और हम भी ज्‍यादातर दिल से अच्‍छे लोग हो सकते हैं. अलबत्‍ता इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि हम संभवत: अंदरूनी तौर पर दुनिया के सबसे ज्‍यादा नस्‍लवादी राष्‍ट्र हैं. हां यह सच है कि हम सब राष्‍ट्रगान के सम्‍मान में उठ कर खडे हो जाते हैं. हम अपनी क्रिकेट टीम या ओलंपिक पदक विजेताओं की सफलता पर साथ मिल कर जश्‍न मनाते हैं, लेकिन इनके खत्‍म होते ही ऐसा लगता है मानो हम एक-दूसरे को अविश्‍वास की नजरों से देखते हुए नफरत के कारण तलाशने की कोशिश कर रहे हों. और अपनी इसी सतही सोच के चलते जब हमें कोई अपने से अलग नजर आता है तो हम उसके साथ भेदभाव करने लगते हैं. पूर्वोत्‍तर के लोग खूबसूरत व आकर्षक हैं. वे अपने नैन-नक्‍श ओर कदकाठी की वजह से हमसे थोडा अलग हैं. इस वजह से हम शेष भारतीय उनकी उपेक्षा करते हैं, उनका मजाक बनाते हैं या उन्‍हें अलग-थलग कर देते हैं. यह शर्मनाक ढंग से पुरातनपंथी और बीमार सोच की निशानी है. आखिर हम ऐसे कैसे हो गए? क्‍या हमारे स्‍कूलों में यह नहीं सिखाया गया कि हम खुली मानसिकता अपनाएं? यह कोई ऐसी चीज नहीं है, जिस पर हम गर्व करें. यह पूर्वोत्‍तरवासियों के मुकाबले हम जैसे अलगाववादी लोगों को कहीं ज्‍यादा छोटा बनाती है. यह चिंता की बात है. यदि हम अपने लोगों के बीच ऐसे मामूली फर्क को स्‍वीकार नहीं कर सकते, तो हम वैश्‍वीकृत दुनिया के साथ कभी कैसे जुड सकेंगे? क्‍या हम हर उस विदेशी का मजाक बनाएंगे, जो कारोबार के लिए भारत आता है और गोरा नहीं है (गोरों की तो हम स्‍वत: जीहुजूरी करने लगते हैं)?

क्‍या हम ऐसा ही राष्‍ट्र चाहते हैं, जहां पर लोग समानताओं के बजाय असमानताओं पर ज्‍यादा ध्‍यान देते हों? हालांकि हमारे ओर पूर्वोत्‍तर के लोगों के बीच हमारी सोच से कहीं अधिक समानता है. पूर्वोत्‍तर के युवा भी देश के बाकी हिस्‍सों के युवाओं की तरह अच्‍छी शिक्षा और बढिया नौकरी पाना चाहते हैं. पूर्वोत्‍तर के लोग भी अच्‍छे नेताओं के अभाव के साथ भ्रष्‍ट राजनेताओं, खराब बुनियादी ढांचे और तेजी से बढती महंगाई की मार झेल रहे हैं. उनके प्राकृतिक संसाधनों को भी लूटा जा रहा है. हमारी तरह पूर्वोत्‍तर के लोग भी एक लीटर पेट्रोल के लिए 70 रुपए से ज्‍यादा चुकाते हैं. वहां भी बिजली की कीमतों पर करों का बोझ है, भले ही राजनेताओं के करीबी लोगों को खदानें मुफ्त में मिल जाएं.

हां, हमारे आम दुखों में पूर्वोत्‍तरवासी भी शामिल हैं. यदि हम सब मिल कर काम करें तो अपने नेताओं पर ऐसी कुछ समस्‍याओं को खत्‍म करने के लिए दबाव डाल सकते हैं. या फिर हम अंदरूनी तौर पर यूं ही झगड़ते रहें. जैसा राजनेता चाहते हैं ताकि हम भेड़ों के झुंड की तरह उनके वोट बैंक बन जाएं और वे हमें लगातार लूटते रहे.

हम जैसे भारत के बाकी लोग ठंडे दिमाग से यह विचार करें कि किस तरह हमारी इस सतही नस्‍लवादी सोच ने न सिर्फ पूर्वोत्‍तरवासियों, बल्कि हमें भी नुकसान पहुंचाया है. उधर पूर्वोत्‍तर के लोग भी कुछ अग्रगामी, व्‍यावहारिक कदम उठा सकते हैं. इससे पूर्वोत्‍तर भूगोल के अध्‍यायों में सीमित रहने के बजाय वापस लोगों के जेहन में उभर आएगा.

यहां ऐसे पांच उपाय पेश हैं जो कारगर हो सकते हैं. पहला, वहां पर्यटन में तेजी लाई जाए. पूर्वोत्‍तर में प्राकृतिक सौंदर्य के कई बेहद दर्शनीय नजारे हैं जो पर्यटकों को लुभा सकते हैं. वहां कुछ और होटल परिसरों, कुछ विश्‍वस्‍तरीय रिसॉर्ट्स, थोडे-बहुत प्रमोशन और थोडी बेहतर कनेक्टिविटी के साथ चमत्‍कार हो सकता है. दूसरा, निम्‍न-कर/सेज टाइप शहर या इलाके के लिए लॉबिंग करने से भी मदद मिल सकती है. भारत को वैसे भी इस तरह के इलाकों की जरूरत है. यह निवेश, नाकरियों और महानगरीय संस्‍कृति को आकर्षित करेगा, जिसकी इस अंचल को बेहद जरूरत है. तीसरा, गुवाहाटी से बैंकॉक सड़कमार्ग के जरिए महज 2400 किमी दूर है. इंफाल-बैंकॉक की दूरी 2000 किमी से भी कम है. इसके अलट गुवाहाटी-मुंबई की दूरी 2800 किमी है. थाईलैंड-पूर्वोत्‍तर हाईवे के बारे में बातचीत चल रही है, जिसे शीर्ष प्राथमिकता दी जानी चािहए. पूर्वोत्‍तर इलाका सुदूर-पूर्व के लिए प्रवेश-द्वार बन सकता है. यह भारत के व्‍यापार के एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍से को नियंत्रित कर सकता है. यह भारत के व्‍यापार के एक महत्‍वपूर्ण हिस्‍से को नियंत्रित कर सकता है. एक बार आप व्‍यापार करने लगें, फिर लोग आपको नजरअंदाज नहीं करते. चौथा, पूर्वोत्‍तर मीडिया की आवाजाही बढाने के लिए जमीन जैसे कुछ संसाधन मुहैया करा सकता है. एक बार वहां मीडिया की पर्याप्‍त मौजूदगी हो गई तो इस अंचल को बेहतर ढंग से कवर किया जाएगा. पांचवां, भव्‍य संगीत समारोह या कार्निवाल जैसे कुछ शानदार इवेंट्स जो स्‍थानीय संस्‍कृति से जुड़े होने के साथ-साथ शेष भारत को आकर्षित कर सकें, इस अंचल को हमसे बेहतर ढंग से जोड सकते हैं.

गौरतलब है कि पूर्वोत्‍तर अक्‍सर गलत कारणों से खबरों में रहता आया है. हम शेष भारतीयों ने पूर्वोत्‍तर के लोगों को थोडा मायूस किया है. हमें उनके प्रति अपनी सोच बदलनी होगी. हम उम्‍मीद करें कि पूर्वोत्‍तर को अपनी उचित जगह मिलेगी और यह अब एक उपेक्षित बच्‍चा नहीं, वरन हमारे राष्‍ट्रीय परिवार की आंखों का तारा बन कर रहेगा. 

-चेतन भगत

No comments: