यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Thursday, July 3, 2008

ख़बर क्यों नहीं बनते किसान



मेरे लिए यह समय बेहद तकलीफ का है। हमारा महान देश हरित क्रांति के बाद सबसे बड़े कृषि संकट से जूझ रहा है और दुर्भाग्य से कश्मीर से कन्याकुमारी तक की सरकारें इस भयावह संकट के प्रति शुर्तुमुर्गी प्रवृत्ति अपनाए हुए हैं। क्या आप जानते हैं कि पिछले 10 सालों के दौरान जब टीवी और पत्र-पत्रिकाओं में इंडिया शाइन हो रहा था, ठीक उसी समय आठ लाख अन्नदाताओं ने किसानी से तौबा कर ली और गांवों से पलायन कर गए। ये चौंकाने वाले आंकड़े सरकारी हैं (एनएसएस)। इतनी बड़ी आबादी के पलायन के बाद भी किसी ने जानने की कोशिश नहीं की कि इतनी बड़ी आबादी कहां गईं। मैं पूछना चाहता हूं कि आखिर ऐसा क्यों ?
जब कुछ लोगों ने महाराष्ट्र्‌ की मुख्यमंत्री से पूछा कि एनएसएस की रिपोर्ट के अनुसार हर तीस मिनट में एक किसान आत्महत्या कर रहा है तो उनका सवाल था यह एनएसएस क्या होता है ? शायद उन्हें लगा होगा कि हो न हो यह जरूर किसी विपक्षी पार्टी की यूथ विंग का नाम होगा। यह उस प्रदेश के मुख्यमंत्री का हाल है जहां आत्महत्या करने वाले किसानों की तादाद सबसे ज्यादा है। मैं देश के कृषि मंत्री के एक बयान का भी जिक्र करना चाहूंगा। देश में गेहूं की कमी के बारे में एक सवाल का जवाब देते हुए उन्होंने कहा कि यह संकट इसलिए पैदा हुआ है क्यांकि दक्षिण भारतीय चावल छोड़ कर चपातियां खाने लगे हैं।
देश में सबसे ज्यादा तेजी से बढ़ रहा क्षेत्र कौन सा है ? तो लोग आईटी का नाम लेंगे, लेकिन हम एक क्षेत्र में उसे भी पीछे छोड़ चुके हैं और वह है असमानता का क्षेत्र। हमारे देश में विभिन्न आय वर्गों के बीच बढ़ रही असमानता की दर रिकार्ड 96 फीसदी है। शेयर मार्केट में जरा सी उठापठक होते ही टीवी पर विशेषज्ञ अर्थ नीति का पोस्टमार्टम करने लगते हैं लेकिन लाखों की संख्या में मर रहे किसानों की मौत इनके लिए खबर ही नहीं होती।
वैश्विक बाजारीकरण के मकड़जाल में फंसे मीडिया ने देश की 70 फीसदी जनता को खबर मानने से इंकार कर दिया है। जागरूक और लोकतंत्र के चेथे स्तंभ माने जाने वाले मीडिया का नजरिया इस विषय को लेकर कैसा है उसे समझने के लिए एक उदाहरण ही काफी है। अभी हाल में ही संपन्न हुए लैक्मे फैशन वीक को कवर करने के लिए विभिन्न संस्थानों के 512 मान्यता प्राप्त और लगभग इतने ही गैर मान्यता प्राप्त पत्रकार मौजूद थे। जिस समय यह लोग सही एंगल और एक झलक पाने के लिए एक दूसरे के कंधों पर टूटे पड़ रहे थे, ठीक उसी समय वहां से मात्र एक घंटे की उड़ान की दूरी पर, कपास किसानों की दुर्दशा कवर करने के लिए मात्र 6 पत्रकार मौजूद थे। वह भी उन किसानां की दुर्दशा को नहीं बल्कि वहां का दौरा कर रहे प्रधानमंत्री को कवर करने आए थे। विदर्भ जहां कि हर रोज एक सुबह से दूसरी सुबह का फासला तय करने में 6 लोग जिंदगी से हार मान कर खुदकुशी कर रहे हैं, को इस फैशन वीक के मुकाबले दसवां हिस्सा भी कवरेज नहीं मिला। इस देश के मीडिया ने जहां की 836 मिलियन आबादी 20 रुपए प्रतिदिन से कम कमा पाती है, के लिए अपने दरवाजें बंद कर लिए हैं। एक बात जो मैं और बताना चाहूंगा, दलितों की पैरवी में गांवों की धूल फांक रहे हमारे नेताओं को शायद ही पता हो कि इस 836 मिलियन लोगों में 88 प्रतिशत लोग अनुसूचित जाति और अनुसूचित जन जातियों से हैं।
कितने ऐसे अखबार होंगे जिसमें कृषि की बीट होगी और इसे कवर करने के लिए संवाददाता होंगे। बाजारवाद ने पत्रकारिता को स्टेनोग्राफी में बदल दिया है। हमारे अखबार आत्मसंतुष्टि का शिकार हो गए हैं। समूचे मीडिया जगत का कारपोरेट हाईजैक हो गया है। अभी हाल में ही एक महत्वपूर्ण हिंदी दैनिक की योग्य महिला ने मर्सिया लिखने वाली शैली में लखे संपादकीय में इस बात का रो रोया कि देश की चालीस फीसदी मध्यवर्ग की खर्च सीमा निम्नतम है। यह उस देश के बुद्धिजीवी पत्रकारों की चिंता है जहां कि 70 फीसदी आबादी दो वक्त रोटी जुटा पाने में असमर्थ है। फोर्ब्स का हवाला देकर देश के करोड़पतियों की बढ़ती संख्या प्रर्दशित करने वाला मीडिया यह क्यों नहीं बताता कि भुखमरी की अंतरराष्ट्रीय सूची में हमारा स्थान 10वां है और हम सिएरा लियोन जैसे अनजान देश के पीछे है, बाल शिक्षा में भी हमारा स्थान दसवां है। मानव विकास के मामले में हम 50 वें स्थान पर हैें और बोस्नियां जैसे देश हमसे उपर हैं। हम यह क्यों नहीं बताते कि अकेले झारखंड की एक लाख से ज्यादा महिलाएं देश की राजधानी में कामकाजी महिलाओं के बच्चों की देख-रेख कर रही हैं, वह भी अपने बच्चों को मातृत्व सुख से वंचित रखने की कीमत पर। क्या कोई इसे भी जानने का प्रयास करेगा ?

-पी साईनाथ

3 comments:

Sajeev said...

वाकई चिंताजनक

anuradha srivastav said...

चिंतनीय और अफसोसजनक ........

Mrinal said...

पी साईंनाथ का यह लेख अच्छा है लेकिन संकट यही है कि कोई भी इस मुद्दे को इमानदारी से नहीं देखना चाहता. हर आदमी अपनी सुविधानुसार मुद्दों को देखता-उठाता औऱ खेलता है.
मृणाल
www.raviwar.com