यदि तोर डाक सुने केऊ ना आशे, तबे एकला चालो रे, एकला चालो, एकला चालो, एकला चालो।

Wednesday, July 30, 2008

एक आवाज



मुझे सुनो फिर जिवीत होते हुए इन वनों में
स्मृति की शाखाआं के नीचे
जहां हरी मैं गुजरती हूं,
धरती पर प्राचीन पौधों की जली हुई मुस्कान,
भोर से जन्म कोयला,
मुझे सुनो फिर जीवित होते हुए, मैं तुम्हें ले जाउंगी।

उपस्थिति की वाटिका में
शाम को छोड़ी गई, छायाओं से घिरी हुई
जहां इस नए प्रेम में, तुम्हारा घर मिलता है।

कल के बीहड़ राज्य में मैं
एक जंगली पत्ती थी, मरने के लिए स्वतंत्र।
पर समय पक रहा था, घाटियों में काली कराह,
पानी का घाव दिने के पत्थरों में।

ईव बोनफूआ
फ्रेंच कवि

4 comments:

Udan Tashtari said...

पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.

गरिमा said...

थोडी उलझी सी लगी :।

परमजीत सिहँ बाली said...

अच्छा प्रयास है।

बालकिशन said...

पढ़वाने का आप को बहुत शुक्रिया.