अपनी बहिन की शादी के बाद ही मैं अपने पुराने दोस्त और साथी श्री शिवप्रसाद गुप्त से मिलने के लिए बनारस गया। गुप्तजी एक बरस से भी ज्यादा अरसे से बीमार थे। जब वह लखनउ जेल में थे, अचानक उनको लकवा मार गया और अब वह धीरे-धीरे अच्छे हो रहे थे। बनारस की इस यात्रा के अवसर पर मुझे हिंदी-साहित्य की एक छोटी-सी संस्था की ओर से मानपत्र दिया गया और वहां उसके सदस्यों से दिलचस्प बातचीत करने का मुझे मौका मिला। मैंने उनसे कहा जिस विषय का मेरा ज्ञान बहुत अधूरा हे उस पर उनके विशेषज्ञों, से बोलते हुए मुझे हिचक होती है, लेकिन फिर भी मैंने उन्हें थोड़ी-सी सूचनाएं दीं। आजकल हिंदी में जो क्लिष्ट और अलंकारिक भाषा इस्तेमाल की जाती हे, उसकी मैंने कुछ कडी आलोचना की। उसमें कठिन, बनावटी और पुराने शैली के संस्कृत -शब्दों की भरमार रहती है। मैंने यह कहने का भी साहस किया कि यह थोड़े-से लोगों के काम में आनेवाली दरबाजी शैली अब छोड़ देनी चाहिए और हिंदी-लेखकों को यह कोशिश करनी चाहिए कि वे हिंदुस्तान की आम जनता के लिए लिखें और ऐसी भाषा में लिखें जिसे लोग समझ सकें। आम जनता के संसर्ग से भाषा में नया जीवन और असली सच्चापन आ जाएगा। इससे स्वयं लेखकों को जनता की भाव-व्यंजनाशक्ति मिलेगी और वे अधिक अच्छा लिख सकेंगे। साथ ही, मैंने यह भी कहा कि हिंदी के लेखक पश्चिमी विचारों या साहित्य का अध्ययन करें तो उससे उन्हें बड़ा लाभ होगा। यह और भी अच्छा होगा कि यूरोप की भाषाओं के पुराने साहित्य और नवीन विचारों के ग्रंथों का हिंदी में अनुवाद कर डाला जाए। मैंने यह भी कहा कि संभव है कि आज गुजराती, बंगला और मराठी-साहित्य इन बातों में आजकल के हिंदी-साहित्य से अधिक उन्नत हो, और यह तो मानी हुई बात हे कि पिछले वर्षों में हिंदी की अपेक्षा बंगला में कहीं अधिक रचनात्मक सात्यि लिखा गया है।
इन विषयों पर हम लोग मित्रतापूर्ण बातचीत करते रहे और उसके बाद मैं चला आया। मुझे इस बात का जरा भी ख्याल न था कि मेंने जो कुछ कहा वह अखबारों में दे दिया जाएगा, लेकिन वहां उपस्थिति लोगों में से किसी ने हमारी उस बातचीत को हिंदी-पत्रों में प्रकाशित करवा दिया। फिर क्या था, हिंदी अखबारों में मुझपर और हिंदी-संबंधी मेरी इस घृष्टता पर खासतौर से हमले शुरू हुए कि मैंने हिंदी को वर्तमान बंगला, गुजराती और मराडी से हलका क्यों कहा। मुझे अनजान-इस विषय में मैं सचमुच था भी अनजान-कहा गया। मेरे विचारों की टीका में बहुत कठोर शब्द काम में लाए गए। मुझे तो इस वाद-विवाद में पड़ने की फुरसत ही नहीं थी, लेकिन मुझे बताया गया कि यह झगड़ा कई महीनों चलता रहा-उस समय तक जबतक कि मैं फिर जेल में नहीं चला गया।
यह घटना मेरे लिए आंख खोलनेवाली थी। उसने बतलाया कि हिंदी के साहित्यिक और पत्रकार कितने ज्यादा तुनकमिजाज है। मुझे पता लगा कि वे अपने शुभचिंतक मित्र की सदभावनापूर्ण आलोचना भी सुनने को तैयार नहीं थे। साफ ही यह मालूम होथा था कि इस सबकी तह में अपने को छोटा समझने की भावना ही काम कर रही थी। आत्म-आलोचना की हिंदी में पूरी कमी है, और आलोचना का स्टैंडर्ड बहुत ही नीचा है। एक लेखक और उसके आलोचक के बीच एक-दूसरे के व्यक्तित्व पर गाली-गलौच होना हिंदी में कोई असधारण बात नहीं है। यहां का सारा दृष्टिकोण बहुत संकुचित और दरबारी-सा है और ऐसा मालूम होता है, मानो हिंदी का लेखक और पत्रकार एक-दूसरे के लिए और एक बहुत ही छोटे-से दायरे के लिए लिखते हों। उन्हें आम जनता और उसके हितों से मानो कोई सरोकार ही नहीं है। हिंदी का क्षेत्र इतना विशाल और आकर्षक है कि उसमें इन त्रुटियों का होना मुझे अत्यंत खेदजनक और हिंदी लेखकों के प्रयत्न शक्ति का अपव्यय-सा जान पड़ा।
हिंदी-साहित्य का भूतकाल बडा गौरवमय रहा है, लेकिन वह सदा के लिए उसी के बल पर तो जिंदा नहीं रह सकता। मुझे पूरा यकीन है कि उसका भविष्य भी काफी उज्ज्वल है और मैं यह भी जानता हूं कि किसी दिन देश में हिंदी के अखबार एक जबरदस्त ताकत बन जाएंगे, लेकिन जबतक हिंदी के लेखक और पत्रकार पुरानी रूढ़ियों व बंधनों से अपने-आपको बाहर नहीं निकालेंगे और आम जनता के लिए लिखना न सीखेंगे तबतक उनकी अधिक उन्नति न हो सकेंगी।
-जवाहर लाल नेहरू
(नेहरू की आत्मकथा का एक अंश, 1936 ई.)
Wednesday, July 16, 2008
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2 comments:
नेहरूजी का एक और रूप देखा , अच्छा लगा.....जानकारी के लिए धन्यवाद।
badhia alekh .... aap bahut unda likhte hain
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